अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

मेरी दृष्टि—सिलिकॉन घाटी

कैसी यह कैलिफ़ोर्निया की धरती, 
जो भारत के युवाओं को ललचाती है, 
विश्व भर से वैज्ञानिक प्रतिभायें
यहाँ खिंची चली आती हैं, 
कैसी है यह धरती कैसे हैं ये नगर? 
जहाँ गोरी-काली, भूरी-पीली
सभी रंग की त्वचाएँ आ जाती हैं नज़र! 
हल्की भूरी पहाड़ियाँ
रेत के ढूहों जैसी लगती हैं, 
ये कभी भूरी, सुनहरी, कभी हरी
और कभी रँगीली भी लगती है, 
 
पहाड़ी ढलानों पर बादाम-अंगूर के बग़ीचे दिखाई देते हैं, 
तलहटी की घाटी में छोटे-बड़े नगर बसे लगते हैं, 
हरे-भरे गोल्फ़ के मैदान
इसकी पहचान बनाते हैं, 
बांज-देवदार प्रजाति के वृक्ष
छोटे-बड़े अरण्य भी बनाते हैं, 
ऐसे ही छोटे-से जंगल में बने
एक घर में, मैं आजकल रहती हूँ, 
जिज्ञासु-उत्सुक आँखों से
यहाँ की प्रकृति निरखती हूँ, 
 
पतझड़ का मौसम है
वृक्ष अधिकांश ठूँठ-से लगते हैं
धरती पर गिरे सूखे पत्ते और बांज
के फल पैरों के नीचे पड़ते हैं
चर्र-मर्र करते हुए वे मेरे
पैरों का आघात सहते हैं, 
हरिणों के छोटे-बड़े परिवार
आस-पास रहते हैं, 
बड़ी-बड़ी आँखों, प्रश्नवाचक दृष्टि से वे मुझे तकते हैं
रुक कर कभी मैं हाथ हिलाती, 
कभी सीटी-बजाती हूँ, 
मुँह उठाए, कान हिलाते हुए उनको 
सावधान-चौकन्ना पाती हूँ, 
ऐसे ही किसी मृग ने सीता को लुभाया होगा? 
यहाँ तो सारे मृग धूसर ही दिखते हैं
पर सीता ने तो उन्हें स्वर्णमय पाया होगा! 
 
मोटी-मोटी गिलहरियाँ
पेड़ों से सरपट उतर आती हैं, 
दोनों हाथों से बांज के फल थाम
कठोर छिलके अपने पैने दाँतों से उतार, 
कोमल गूदा बड़े आनंद से खाती हैं, 
यहाँ की गिलहरियों ने शायद राम की कृपा नहीं पाई? 
उनकी पीठ पर कभी लकीरें, 
नहीं देती दिखाई! 
 
कभी-कभी आकाश में अकेला पक्षी बोलता है 
शायद अपने शावकों या साथी को टेरता है, 
सुबहें गुलाबी, दिन उजियारे, 
शामें सुनहरी होती हैं, 
विहगों के वृन्द गान बिन वे सारी सूनी लगती हैं! 
पंच तत्वों के विधान से परिदृश्य नित है बदलता, 
क्या यहाँ के विहगों को उनका ज्ञान नहीं होता? 
क्यों सुबह-शाम वे गान नहीं करते? 
ईश्वर की कृपाओं का बखान वे नहीं करते? 
दिन ढले झींगुर-झिल्ली झंकार नहीं करते, 
रात के सन्नाटे को स्वर प्रदान नहीं करते? 
भोर का सूरज घाटी से रेलगाड़ी की आवाज़ सुनता है, 
धुलाई-सफ़ाई करने वाली मशीनों का 
निर्जीव स्वर दिन भर गूँजता है, 
मानव निर्मित मशीनें ही यहाँँ बस बोलती हैं! 
प्रकृति रह कर मौन वही सब सुनती है, 
‘कलयुग’ के इस दौर में यहाँ मशीनों का बोलबाला है, 
और यही ‘मशीनी’वर्चस्व युवाओं को लुभाने वाला है॥

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

शैली 2022/12/15 07:26 PM

बहुत गहरा निरीक्षण भारत और अमेरिका का अन्तर बताती सुन्दर कविता.

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

कविता

यात्रा-संस्मरण

ललित निबन्ध

काम की बात

वृत्तांत

स्मृति लेख

सांस्कृतिक आलेख

लोक कथा

आप-बीती

लघुकथा

कविता-ताँका

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं