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कुबड़ी टेढ़ी लंगड़ी

मूल कहानी: गोबा ज़ोपा उ कोलोटोर्टो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (हंचबैक राइनेक हॉब्लर); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

 

प्रिय पाठक, लोक कथाएँ उनके लिए होती हैं जिनके मन का एक कोना, सदैव 'बाल-मन' बना रहता है, जानने को उत्सुक, सहज विश्वासी, कल्पना शील! प्रस्तुत है अनूदित लोक कथा, आनंद पाएँगे वे जिनके भीतर रहता है कोई छोटा बच्चा!!

 

कभी किसी ज़माने की बात है, एक राजा था। एक दिन वह सैर को निकला। उसने लोगों को ज़िंदगी के कामों में उलझे देखा, उसने पक्षियों को आकाश में उड़ते देखा, उसने घर, आँगन, चौबारों को देखा, सबको देखकर उसका मन संतोष और आनंद से भर गया। तभी उधर से एक वृद्धा गुज़री। वृद्धा बहुत संस्कारी थी, वह अपने में मगन चली जा रही थी। वह थोड़ा-सा लंगड़ाती थी, पीठ पर एक छोटा-सा कूबड़ था, और ज़्यादा कुछ नहीं बस गर्दन थोड़ी-सी टेढ़ी थी। राजा ने उसे घूर कर देखा और ज़ोर से हँसते हुए बोला, "कुबड़ी टेढ़ी लंगड़ी"।

यह बोलते हुए वह और ज़ोर-ज़ोर से हँसता रहा। 

अब एक भेद की बात सुनो तो बताऊँ? हाँ! तो सुनो, वह वृद्धा एक परी थी! उसने राजा की आँख में आँख डालकर देखा और बोली, "हँसो, हँसो जी भर कर हँसो, कल होगी तो देखेंगे हँसता है कौन और रोता है कौन!" 

वृद्धा की ऐसी बात सुनकर राजा और भी ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा, "हा- हा -हा!"

संयोग देखो कि राजा की तीन बेटियाँ थीं, जो सचमुच बेहद सुंदर थीं। तीनों राजा के कलेजे का टुकड़ा थीं। अगले दिन सुबह जब राजा सैर पर जाने को तैयार हुआ तो उसने अपनी प्यारी बेटियों को भी साथ ले जाने की सोची और उन्हें बुला भेजा। सबसे बड़ी बेटी सबसे पहले आई। पर यह क्या? उसकी पीठ पर तो कूबड़ था!

"यह कैसे हो गया?" राजा ने घबराकर पूछा।

"पिताजी," बेटी बोली, "कल सेविका ने बिस्तर ऐसा बिछाया था कि उस पर सोने से रातों-रात मुझे कूबड़ निकल आया।" राजा चिंतित हो कमरे में चहल क़दमी करने लगा। उसने मँझली बेटी को बुला भेजा। बेटी आई, पर उसकी गर्दन टेढ़ी हो रही थी।

राजा क्रोधित हो गया, "तुम्हारी यह मजाल कि पिता के सामने गर्दन टेढ़ी करके आओ।"

बेटी सहम गई और धीरे से बोली, "पिताजी जब सेविका मेरी चोटी गूँथ रही थी, तब मेरे कुछ बाल खींच गए। बहुत दर्द हुआ और मेरी गर्दन थोड़ी सी टेढ़ी हो गई है।" आवाज़ें सुनकर राजा की सबसे छोटी बेटी लंगड़ाते हुए कमरे में दाख़िल हुई। उसे देख कर राजा को तो मानो साँप सूँघ गया।

"बिटिया रानी तुम लंगड़ा कर क्यों चल रही हो?"

छोटी बेटी रुँआसी हो गई, बोली, "प्यारे पापा, मैं बग़ीचे में टहलने गई थी, वहाँ मेरी दासी ने चमेली के फूल का एक गुच्छा मेरी ओर उछाला, मैं गुच्छा पकड़ने को लपकी, तभी मेरा पैर मुड़ गया और अब मैं सीधे चल नहीं पा रही हूँ।"

राजा क्रोध में आग बबूला हो गया। तुरंत आदेश दिया कि उस दासी को पेश किया जाए जिसने राजकुमारी को फूलों का गुच्छा उछाल कर दिया।

संतरी दौड़े और दासी को खोज कर, घसीटते हुए राजा के सामने ले आए। घसीटना उसे इसलिए पड़ा क्योंकि वह अपने किए पर पछता रही थी और राजा के सामने आना ही नहीं चाहती थी, बेचारी कुबड़ी, टेढ़ी और लंगड़ी जो थी!! 
राजा उसे देखते ही पहचान गया, यह तो कल वाली वृद्धा ही थी! उसका क्रोध भड़क उठा। चिल्लाकर उसने कहा, "इस बुढ़िया पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा दो। इसे जला कर मार दो।"

अब जैसे ही सेवक उस पर तेल डालने लगे, वह सिकुड़ने लगी, सिकुड़ते, सिकुड़ते वह इतनी सिकुड़ी की कील की नोक जैसी हो गई, छोटी और नुकीली! पास की दीवार में एक छोटा सा छेद था, वह उसी में घुसकर कहीं ग़ायब हो गई, राजा के सामने बचा तो केवल बेटियों का कूबड़, टेढ़ा गला और लंगड़ा पैर!!!

पुरखे ठीक ही कहते हैं, "बोलने से पहले तोल, तोल-तोल कर बोल"!

बस कहानी यहीं ख़त्म! फिर मिले तो फिर होगा कोई नया क़िस्सा कोई नई कहानी सुनोगे जब उसको, आयेगी याद नानी!! हा-हा-हा!

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