अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अधड़ा

 

मूल कहानी: ल् डिमेज़ाटो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (द क्लोवेन यूथ); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

 

एक बार की बात है, एक गर्भवती स्त्री थी, वह एक जादूगरनी के पड़ोस में रहती थी। जादूगरनी की एक छोटी सी बग़िया थी, जिसमें उसने एक क्यारी में सलाद बोया था। जादूगरनी बग़िया का दरवाज़ा हमेशा खुला रखती थी कि जिसका मन हो सलाद के पत्ते तोड़ ले जाए, आसपास के लोग कभी-कभार कुछ पत्ते ले भी जाते थे। 

एक दिन इस गर्भवती पड़ोसिन को सलाद के पत्ते खाने की इच्छा हुई। एक-दो दिन तो उसने सब्र किया पर फिर वह अपने पर क़ाबू न रख सकी और। जादूगरनी की बग़िया में घुसकर सलाद के पत्ते खाने लगी। एक ही दिन में उसने आधी क्यारी चर डाली। 

शाम को जब जादूगरनी घर लौटी तो सलाद की क्यारी का हाल देखकर हैरान रह गई, भला ऐसे कौन से लोग थे जो आधी क्यारी एक ही दिन साफ़ कर गए? उसने अगले दिन छुपकर क्यारी पर नज़र रखने की सोची। 

अगले दिन वह गर्भवती फिर से पत्ते खाने आयी और उसने पूरी क्यारी ही लगभग ख़ाली कर दी। वह बाहर निकल कर अपने घर आती, इससे पहले ही जादूगरनी घर से निकली और उससे बोली, “ठहरो, ठहरो, तो तुम ही चोर हो, तुमने ही मेरी सारी खेती खाई है?” 

औरत डर गई और काँपते हुए बोली, “मुझे माफ़ कर दो, मैं अपने पर क़ाबू न रख पाई, मैं माँ बनने वाली हूँ। मुझ पर दया करो।” 

इस पर जादूगरनी बोली, “ठीक है, मैं तुम्हें छोड़ दूँगी लेकिन याद रखो, बेटी या बेटा, तुम्हें चाहे जो भी हो वह आधा मेरा होगा। जब तक वह सात बरस का हो, तब तक तुम उसे पालना। सात बरस का होते ही मैं उसे आधा ले लूँगी।” 

औरत क्या करती? उसे राज़ी होना ही पड़ा और कोई उपाय भी तो नहीं था!! 

समय होने पर उस स्त्री को एक बेटा हुआ। जब वह छह साल का हुआ तो उसने एक दिन खेल से लौटकर माँ से कहा, “माँ माँ, मुझे आज गली में एक बूढ़ी-सी औरत मिली, उसने कहा कि मैं तुम्हें याद दिला दूँ कि अब एक साल ही बचा है।” 

उसकी माँ ने कहा, “अगर वह दुबारा दिखाई दे, तो तुम उससे कहना कि वह पागल है।” 

कुछ समय बीत गया अब लड़के को सात वर्ष पूरे होने में तीन महीने बचे थे। वह बूढ़ी औरत उसे फिर मिली। उसने लड़के से कहा, “अपनी माँ से कहना कि अब केवल तीन महीने बचे हैं।” 

इस पर लड़का बोला, “अम्मा तुम पगली हो!” 

“हाँ, हाँ, अब देखना है कि कौन पगला है!” बुढ़िया ने जवाब दिया। 

जब तीन महीने और बीत गए, तब एक दिन उस जादूगरनी ने लड़के को पकड़ लिया और अपने घर ले गई। एक मेज़ पर पीठ के बल उसे लिटाया। फिर एक बड़ा सा चाकू लेकर सिर से जाँघ तक लड़के को लंबाई में दो टुकड़ों में काट दिया। एक टुकड़े से कहा, “अधड़े, तुम घर जाओ।” और दूसरे से बोली, “टुकड़े, तुम मेरे पास रहो।” 

‘अधड़ा’ अपने घर चल पड़ा, ‘टुकड़ा’ उसके पास रह गया 

घर पहुँच कर अधड़ा अपनी माँ से बोला, “माँ माँ, देखो तो उस बूढ़ी औरत ने मेरा क्या हाल कर दिया, और तुम कहती थीं वह पगली है।” माँ के आँसू झर-झर बहने लगे, वह बेचारी करती तो करती क्या? सब उसके कर्मों का फल ही तो था। 

अधड़ा धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। उसको समझ में नहीं आता था कि वह करे तो आख़िर करे क्या, बेचारा आधा जो था! आख़िरकार जब और कुछ न बन पाया तो वह एक मछुआरा बन गया और मछलियाँ पकड़ कर बेचने लगा। एक दिन जब मछलियाँ पकड़ते समय उसने जाल खींचा तो उसमें एक सर्पमीन (ईल) फँसी थी, जो लगभग उसी की लंबाई की थी। उसने मानव स्वर में कहा, “तुम मुझे छोड़ दो, तुम्हें और बहुत सारी मछलियाँ मिल जाएँगी।” 

अधड़े ने उसे छोड़ दिया। अगली बार जाल डालने पर उसे इतनी मछलियाँ मिलीं कि उसकी डोंगी भर गई। वह ख़ुशी-ख़ुशी मछलियाँ बेचने चला गया। वहाँ उसे थैली भर रुपए भी दाम में मिल गए। 

कुछ दिन बाद जब वह मछलियाँ पकड़ने फिर गया तो इस बार फिर वही सर्पमीन उसके जाल में आ फँसी। इस बार सर्पमीन ने कहा, “अगर तुम मुझे छोड़ दोगे तो मेरे छोटे बच्चों की दुआ से तुम्हारी सारी इच्छाएँ पूरी हो जाएँगी!” 

अधड़ा नर्म दिल था, उसने मछली की बात फिर मान ली और उसे छोड़ दिया। 

एक दिन अधड़ा मछलियाँ बेचने बाज़ार जा रहा था। जब वह महल के पास से गुज़रा, संयोग से उस समय राजा की बेटी अपनी दासियों के साथ छज्जे पर खड़ी बाहर के नज़ारे देख रही थी। जब उसकी नज़र अधड़े पर पड़ी तो वह उसका आधा सिर, आधा चेहरा, आधा धड़, एक हाथ और एक पैर देखकर खिलखिला कर हँस पड़ी। अधड़े को इससे बहुत क्रोध आया, उसने तेज़ नज़रों से राजकुमारी की ओर देखा और मन में बोला, “तुम मुझ पर हँस रही हो न, काश सर्पमीन के बच्चों की दुआ से तुम मेरे बेटे की माँ बन जाती तो . . .”

भगवान की लीला देखो, कुछ समय बाद राजकुमारी को लगा कि वह तो माँ बनने वाली है! माता-पिता का माथा ठनका। उन्होंने अपनी बेटी से पूछा, “यह सब क्या है बेटी!”

राजकुमारी बोली, “मुझे भी नहीं मालूम कि मेरे साथ क्या हो रहा है!” 

अब राजकुमारी की माता बोली, “तुम होने वाले बच्चे के पिता का नाम बताओ, हम उससे ही तुम्हारी शादी कर देंगे!”

बेचारी राजकुमारी को कुछ मालूम हो तब तो वह बताए, उसने फिर वही बात दोहराई, “मुझे इसके बारे में कुछ भी नहीं मालूम है, माँ।”

बार-बार कई कई ढंग से राजकुमारी से यह जानने की कोशिश की गई कि बच्चे का पिता कौन है, पर हर बार राजकुमारी का उत्तर वही रहता, “मुझे कुछ मालूम नहीं है।”

थक-हार कर उससे राजा रानी ने पूछताछ तो बंद कर दी परन्तु बिन ब्याही माँ बनने के अपराध के कारण उसके साथ कठोर व्यवहार होने लगा। 

समय से राजकुमारी को एक बेटा हुआ। राजा-रानी अपने दुर्भाग्य पर बिलखते-रोते रहे कि उन्हें बिन बाप के नाती का नाना-नानी बनना पड़ा है! 

अब इस समस्या को सुलझाने के लिए एक सयाने ज्योतिषी-ओझा को बुलाया गया और कुछ उपाय बताने को कहा गया। ज्योतिषी ने एक साल तक प्रतीक्षा करने को कहा। जब बालक एक साल का हो गया तब ओझा को फिर बुलाया गया। 

उसने उपाय बताया, “महाराज शहर के सभी प्रतिष्ठित और गण्य-मान्य लोगों को बच्चे के जन्मदिन की दावत पर बुलाइए। एक चाँदी का और एक सोने का सेब बनवाइये। बालक के साथ-साथ उन सेबों को लेकर कोई चलेगा और मेरे मंत्रों की शक्ति से बालक अपने पिता को सोने का सेब और अपने नाना को चाँदी का सेब देगा। इस प्रकार बच्चे के पिता का पता चल जाएगा।“

राजा ने ओझा के कहे अनुसार सारे शहर के अमीर और प्रसिद्ध लोगों को निमंत्रण भेज दिया! भोज के दिन जब सब लोग यथा-स्थान बैठ गए तब एक धाय बालक को गोदी में लेकर चली। बच्चे के दोनों हाथों में वे दोनों सेब थे। ओझा ने बच्चे के कानों में कुछ मंत्र पढ़े और फिर बुदबुदाया, ‘सोने का सेब पिता के लिए, चाँदी का सेब प्रपिता के लिए।’ 

आया बच्चे को लेकर पूरे सभागृह में घूमती रही, जब वह लौटकर राजा के पास आयी तब बच्चे ने उसे चाँदी का सेब पकड़ा दिया। राजा बोले, “मुझे मालूम है कि मैं तुम्हारा प्रपिता हूँ, पर हमें तो तुम्हारे पिता का पता लगाना है!” बच्चे को कई बार सभागार में घुमाया गया पर वह सोने का सेब किसी को नहीं मिल पाया! 

एक साल बाद राजा ने एक बार फिर ओझा से सलाह माँगी। इस बार ओझा ने शहर के सारे ग़रीब-निर्धन लोगों को दावत पर बुलाने की सलाह दी और सेब देने का तरीक़ा दोहराने को कहा। राजा ने शहर में मुनादी करवा दी।

सभी धोबी, मोची, नाई, कसाई, मछुआरों को भोज का बुलावा दिया गया। अधड़ा भी बनठन कर भोज में शामिल होने आया। सभी के लिए सभा भवन में कुर्सियाँ लगीं थीं। धाय नन्हे बालक को लेकर सभी के पास जाने लगी। सेब हाथ में लिए बालक ठुमक-ठुमक कर हर एक के पास जाने लगा। जैसे ही वह अधड़े के पास पहुँचा वह मुस्कुराने लगा और सेब अधड़े की ओर बढ़ा कर बोला, “यह सेब ले लो पापा।” 

दावत में आए सभी लोग ठहाका। लगा कर हंँस पड़े, “वाह भाई, क्या बात है! राजा की बेटी का दिल आया भी तो इस अधड़े पर!!”

राजा ख़ून का घूँट पीकर चुपचाप बैठे रहे। फिर हिम्मत करके बोले, “अब मेरी बेटी का विवाह इसी आदमी से होगा जिसे हमारे नाती ने अपना पिता कहा है!” 

कुछ ही दिनों बाद सारी तैयारी के साथ राजकुमारी की शादी अधड़े के साथ हो गई। 

शादी की रस्मों के बाद दूल्हा-दुल्हन शोभा यात्रा के लिए रथ का इंतज़ार करने लगे। लेकिन यह क्या? वहाँ तो एक बड़ा पीपा लाया गया और राजकुमारी को, अधड़े और उसके बच्चे के साथ डालकर, पीपे का मुँह बंद कर समुद्र में फेंक दिया गया। 

समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें उठ रही थीं। पीपा उन्हीं लहरों पर तैरते-तैरते पर दूर निकल गया। जब काफ़ी समय तक हिचकोले खा चुका तब अधड़े ने राजकुमारी से पूछा, “दुलहन मेरी, क्या तुम पीपे से बाहर निकलकर ज़मीन पर उतरना चाहोगी?”

राजकुमारी फुसफुसाई, “हाँ ज़रूर, लेकिन कैसे?” 

अधड़े ने मन ही मन कहा: 

“सर्पमीन के बच्चों की दुआ से, 
 पीपा लग जाए धरती तट से,”

कहने भर की देर थी कि पीपे का हिलना-हिचकोले खाना रुक गया। अंदर बंद तीनों प्राणियों ने ज़ोर लगाकर पीछे का ढक्कन खोल लिया और तीनों बाहर आ गए। 

वे भूखे थे। इसलिए अधड़े ने सबसे पहले सर्पमीन के बच्चों का नाम लेकर भोजन की इच्छा की। स्वादिष्ट भोजन आया तो तीनों ने भरपेट भोजन किया। जब पेट भर गया तब अधड़े ने राजकुमारी से पूछा, “क्या तुम मेरे साथ ख़ुश रह पाओगी?” 

“हाँ, रह तो लूँगी,” राजकुमारी बोली, “लेकिन कितना अच्छा होता कि तुम पूरे होते!” 

राजकुमारी की बात सुनकर अधड़े ने बहुत डरते-डरते, मन ही मन प्रार्थना की:

“सर्पमीन के बच्चों की दुआ से
 क्या मैं पूरा हो सकता हूँ, इस शरीर से?” 

और चमत्कार! अधड़े का शरीर पूर्ण हो गया और वह एक सजीला जवान बन गया, “बीवी अब तो तुम ख़ुश हो ना?” 

“बिल्कुल ख़ुश हूँ, लेकिन क्या ही अच्छा होता कि हम एक महल में रहते, इस सूने सागर तट पर नहीं!”

एक बार फिर अधड़ा मन में सोचने लगा, “क्या सर्पमीन के बच्चों की दुआ से हमारे पास एक महल, नौकर-चाकर बाग़ बग़ीचे हो सकते हैं? बग़ीचे में एक सोने और चाँदी के सेब वाला पेड़ हो तो और भी अच्छा हो।” अभी वह यह सब सोच ही रहा था कि एक-एक करके उसकी सारी इच्छाएँ पूरी हो गईं यहाँ तक कि सोने चाँदी के सेब वाले दो पेड़ भी वहाँ उग आए। 

कुछ दिनों बाद अधड़े ने, जो अब आधा नहीं, एक रूपवान युवक था, आसपास के सभी राजा-रानी और सामंत-ज़मींदारों को भोज पर आमंत्रित किया। 

जब मेहमान आने लगे तब वह स्वागत करते हुए सबसे कहता जाता था, “आपका स्वागत है, आइए, आनंद मनाइए, बस सोने-चाँदी के सेबों को छूने की कोशिश मत करिएगा। आप मुश्किल में पड़ जाएँगे।” सभी मेहमान उसे भरोसा दिलाते गए कि कोई भी उन पेड़ों को छुएगा भी नहीं। 

जब सब लोग बातचीत करने और खाने-पीने लगे तब एक बार फिर अधड़ा मन ही मन बोला:

“सर्पमीन के बच्चों की दुआ से मेरे ससुर जी की जेब में एक सोने का और एक चाँदी का सेब चला जाए!”

जब खाना पीना हो गया तो सब लोग बग़ीचे की सैर को गए। वहाँ सब ने देखा कि दोनों सेबों के पेड़ से फल नदारद थे। सब से पूछा जाने लगा कि सेब किसके पास है! पर सब ने इनकार कर दिया सेब किसी ने तोड़ा भी तो नहीं था। अब क्या हो? 

आख़िर में अधेड़े ने फिर घोषणा की, “मैंने आप सभी को पहले ही सावधान कर दिया था कि सेबों को कोई हाथ न लगाए। अब तलाशी लेने के सिवाय कोई चारा ही नहीं है।”

एक-एक करके सारे मेहमानों की तलाशी ली जाने लगी। जब राजकुमारी के पिता की तलाशी हुई तो उनकी दो जेबों से एक-एक सेब मिला। अधड़ा ऊँचे स्वर में बोला, “मैंने सब को पहले ही सावधान कर दिया था, क्या आपने तब नहीं सुना? आपकी इतनी हिम्मत कि दो-दो सेब तोड़ लिए हैं! अब आपको इस चोरी का फल भुगतना ही पड़ेगा!”

“लेकिन मुझे तो सेबों के बारे में मालूम ही नहीं है। पता नहीं कैसे ये मेरी जेब में आ गए, सच कहता हूँ, मैं तो पेड़ों के पास तक भी नहीं गया था!” राजकुमारी के पिता का सिर शर्म से झुका था, वह बोले जा रहे थे, “मैं किसी की भी क़सम खाने को तैयार हूँ!”

“सारे सबूत सामने है,” अधड़ा बोला, “फिर भी आप इंकार कर रहे हैं!”

“हाँ, मैं किसी की भी क़सम खाने को तैयार हूँ!”

“आप फिर दावा कर रहे हैं कि आप निर्दोष हैं?” 

“हाँ मैं ईश्वर की सौगंध खाकर कहता हूँ, मुझे इन फलों के बारे में कुछ भी नहीं मालूम,” राजा ने भर्राए गले से कहा 

अब अधड़ा नरमी से बोला, “आप जैसे निर्दोष हैं, ठीक वैसे ही आपकी बेटी भी निर्दोष थी, जैसा व्यवहार आपने उसके साथ किया था ठीक वही मैंने भी आपके साथ किया है!”

यह कहकर अधड़े ने अपना सही परिचय राजा को दिया। तभी सभा भवन में अधड़े की पत्नी राजकुमारी ने प्रवेश किया और पिता को प्रणाम करते हुए बोली, “मैं सपने में भी नहीं चाह सकती कि मेरे कारण मेरे पिता को कष्ट झेलना पड़े। माना कि उन्होंने मेरे साथ कठोर व्यवहार किया परन्तु फिर भी वे मेरे पूज्य पिता ही हैं। जो हुआ सो हुआ!” 

पत्नी की बात सुनकर अधड़े का हृदय अपनी पत्नी के लिए प्रेम से भर गया। 

राजा अपनी उस बेटी को पाकर निहाल हो गया, जिसका हत्यारा वह स्वयं को मान रहा था। उसकी निर्दोषिता की बात जान उसका हृदय पश्चाताप से भर गया। 

बड़ी अनुनय-विनय और क्षमा-याचना के साथ पिता अपनी बेटी-दामाद और नाती को अपने साथ अपने महल में वापस ले गया। सर्पमीन के बच्चों के आशीर्वाद से मिला सारा महल और रौनक़ देखते-देखते ग़ायब हो गए। 

“अधड़े के दिन बहुरे जैसे सभी के बहुरें, 
 मेरी कहानी सुनने वाले सौ बरस जिएँ”

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

 तेरह लुटेरे
|

मूल कहानी: इ ट्रेडेसी ब्रिगांनटी; चयन एवं…

अनोखा हरा पाखी
|

  मूल कहानी:  ल'युसेल बेल-वरडी;…

अभागी रानी का बदला
|

  मूल कहानी: ल् पलाज़ा डेला रेज़िना बनाटा;…

अमरबेल के फूल
|

मूल कहानी: ला पोटेंज़ा डेल्ला फ़ेल्स मैश्चियो;…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

कविता

यात्रा-संस्मरण

ललित निबन्ध

काम की बात

वृत्तांत

स्मृति लेख

सांस्कृतिक आलेख

लोक कथा

आप-बीती

लघुकथा

कविता-ताँका

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं