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रुपहली नाक

मूल कहानी: इल नासो ड'आर्जेन्टो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (सिल्वर नोज़); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

 

एक बार की बात है, एक विधवा धोबिन थी। ललिता, लतिका और लाड़ली नाम की उसकी तीन बेटियाँ थी। चारों सारा दिन हाड़-तोड़ मेहनत करतीं पर फिर भी कभी कभार फाके तक की नौबत आ जाती थी। एक दिन सबसे बड़ी बेटी ललिता दुखी होकर बोली, “इस तरह की ज़िन्दगी से तो अच्छा था कि यमदूत मुझे ले जाता।” 

“ ऐसा नहीं कहते बेटी, ” माँ बोली, “कहते हैं दिन भर में एक बार जीभ पर सरस्वती आती है। हमेशा शुभ बोलना चाहिए।” 

 कुछ दिन बीते थे कि उनके द्वार पर एक अतिथि आया। स्वस्थ, बलिष्ठ और शिष्टाचार की प्रतिमूर्ति। 

“ मुझे मालूम है कि काम करने में चतुर और मेहनती तुम्हारी तीन बेटियाँ हैं, ” वह आगंतुक माँ से बोला, “क्या आप उनमें से एक को मुझे दे सकेंगीं? मेरे घर के कामों के लिए।” 

माँ बेझिझक होकर 'हाँ' कहने वाली थी, परंतु आगंतुक की चाँदी जैसी चमकने वाली नाक देखते हुए वह रुक गई। ऐसी नाक वाला व्यक्ति उसे विश्वसनीय नहीं लगा। उसने ललिता को एक ओर ले जाकर धीरे से कहा, “मैंने अब तक दुनिया में किसी की ऐसी नाक नहीं देखी है, फिर भी यदि तुम जाना चाहती हो तो सोच समझ लो। तुम पर विपदा भी आ सकती है।” 

ललिता तो न जाने कब से घर छोड़ना ही चाहती थी, उसने माँ की बातों की परवाह नहीं की और आगंतुक के साथ चलने को तैयार हो गई। 

वे मीलों-मील चलते रहे। जंगल, पहाड़, मैदान पार करते रहे। बहुत दूर चलने के बाद उन्हें दूर से आती आग की भभक दिखाई दी। कुछ घबराहट के साथ ललिता ने पूछा, “वह दूर घाटी में चमक कैसे दिखाई दे रही है?” 

रुपहली नाक वाले ने कहा, “वही मेरा घर है। हम लोग वहीं तो जा रहे हैं।” 

अब ललिता चल तो रही थी, पर मन ही मन में बहुत डरी हुई थी। अंत में वे एक बड़े महल के सामने आ खड़े हुए। रुपहली नाक उसे अंदर ले गया और एक-एक कमरा दिखाने लगा। हर कमरा पहले वाले से अधिक सुंदर और आरामदेह था। कमरा दिखाने के बाद उसकी चाबी वह ललिता को देता जाता था। जब वेआख़िरी कमरे में पहुँचे, रुपहली नाक ने उसकी भी चाबी ललिता को देते हुए कहा, “इस कमरे को कभी ना खोलना, अगर खोलोगी तो बहुत पछताओगी। इस कमरे के सिवाय आज से तुम सारे महल की स्वामिनी हो।” 

“यह मुझसे कुछ छुपा रहा है!” ललिता ने मन ही मन सोचा और उसे देखने का दृढ़ निश्चय भी कर लिया। उस रात जब ललिता अपने कमरे में बेसुध सो रही थी, रुपहली नाक धीरे से वहाँ आया और चुपचाप एक गुलाब का फूल उसके बालों में लगाने के बाद उसी तरह दबे पाँव लौट गया। अगली दिन सुबह रुपहली नाक अपने काम पर चला गया। ललिता ने जब सारी चाभियों के साथ अपने को महल में अकेला पाया तो वह बिना एक क्षण खोए सीधे उस प्रतिबंधित कमरे के सामने पहुँच गई। अभी उसने कमरे के दरवाज़े में एक दरार ही की थी कि अंदर से धुआँ, गर्मी और आग की लपटें बाहर आने लगीं। उसने अंदर शापित आत्माओं को तड़पते देखा! यह नर्क का द्वार था और रुपहली नाक नर्क का रखवाला यमदूत! 

वह चीखती-चिल्लाती वहाँ से भागी, लेकिन गर्मी की लहरों ने उसके बालों के गुलाब को झुलसा दिया था! संध्या को जब रुपहली नाक लौटा तो उसने ललिता के बालों में लगा सूखा गुलाब देखा। वह तुरंत कड़क कर बोला, “तो तुम इस तरह की आज्ञाकारिणी हो!” और उसे उसी कमरे का द्वार खोलकर उस में धकेल दिया। 

अगले दिन वह फिर विधवा धोबिन के पास पहुँच गया। 

“तुम्हारी बेटी बड़े आराम से मेरे घर में रह रही है, लेकिन काम कुछ ज़्यादा है। अगर तुम अपनी दूसरी बेटी को भेज दो तो वह अपनी बहन की सहायता कर देगी। दोनों को एक दूसरे का साथ भी मिल जाएगा।” 

इस प्रकार रुपहली नाक लतिका को भी अपने घर ले आया। उसे भी उसने पूरा महल घुमाया और चाबियाँ देता हुआ बोला, “तुम सारे कमरे खोल सकती हो, बस आख़िरी वाला न खोलना।” 

ललिता बोली, “मुझे तुम्हारे कमरों को खोलने की ज़रूरत भला क्यों पड़ेगी? मुझे तुम्हारे काम से क्या लेना-देना! बस मैं और मेरा काम!” 

रात को जब ललिता सो गई तो रुपहली नाक उसके कमरे में गया। उसके बालों में एक सुंदर मोतिया का फूल लगाया और दबे पाँव बाहर निकल आया। अगले दिन सुबह जब रुपहली नाक अपने काम पर चला गया तो ललिता ने सबसे पहले दौड़ कर निषिद्ध कमरे का दरवाज़ा खोल दिया। धुँए, गर्मी और लोगों की कातर पुकार से बेहाल हो गई। उसने अपनी बहन ललिता की कराह और विनती भी सुनी, “प्यारी बहन, मुझे इस नर्क से निकालो!” लेकिन ललिता इतनी बदहाल-बदहवास हो गई थी कि उसने तत्क्षण दरवाज़ा बंद कर दिया और वहाँ से भाग चली। अब उसकी समझ में भी आ गया कि रुपहली नाक कोई और नहीं नर्क का पहरेदार था। इससे बचना मुश्किल था। शाम को जब मालिक लौटा तो लतिका के बालों में मुरझाया मोतिया देख कर उस की नाफ़रमानी समझ गया। बिना कुछ बोले उसने लतिका को घसीट कर उसी कमरे में बंद कर दिया, जिसे खोलने की बेअदबी उसने की थी। 

अगले दिन रुपहली नाक ने फिर अपनी शाही पोशाक निकाली और विधवा धोबिन घर जा पहुँचा। 

“मेरे घर में इतना काम है कि उन दोनों से भी नहीं सँभल पा रहा है। क्या आप मेरी सहायता नहीं करेंगी?” 

ऐसा कह कर वह धोबिन की तीसरी बेटी लाड़ली को लेकर लौटा। लाड़ली थी तो सबसे छोटी, पर थी, सबसे होशियार! 

उसे भी पूरा महल घुमाया गया और वही हिदायतें दी गई जो उसकी बहनों को मिली थीं। अपनी दोनों बहनों को ना देख पाने से वह बहुत सावधान हो गई थी। 

रात को सो जाने के बाद उसके बालों में भी रुपहली नाक ने चमेली के फूलों का एक गुच्छा लगा दिया। सुबह उठने पर लाड़ली जब तैयार होने के लिए शीशे के सामने गई तो अपने बालों में चमेली के फूल देखकर अचरज में पड़ गई, फिर सोचा ’वाह मालिक ने मेरे बालों में फूल लगाए हैं, कितने समझदार हैं! दिन भर के काम में ये ख़राब ना हो जाए, मैंने सँभाल कर रखूँगी। ’ और एक कटोरी में पानी लेकर उसमें उसने चमेली के गुच्छे को रख दिया, अपने बाल सँवारे और चल पड़ी उस रहस्यमय कमरे की ओर! अभी उसने पट तनिक ही खोला था कि आग की धधक और लोगों की चीख पुकार उसे भी सुनाई दी। ललिता और लतिका भी रो-रोकर पुकार रही थीं, “लाड़ली! लाड़ली! हमें बचा लो।” 

लाड़ली ने तुरंत दरवाज़ा बंद कर दिया और सोचने लगी कि अपनी बहनों को कैसे बचाए? 

जब तक मालिक शाम को लौटा तब तक लाड़ली बालों में फूल लगाकर घर का काम ऐसे निपटाने लगी मानो कुछ हुआ ही न था। रुपहली नाक ने लाड़ली के बालों में लगे चमेली के फूलों को देख कर कहा, “अहा, फूल अभी तक ताज़ा हैं!” 

“बिल्कुल ताज़े हैं, भला मुरझाए फूल भी कोई अपने बालों में लगाता है?” 

“मैं तो बस बात करने के लिए बात कर रहा था! तुम समझदार लगती हो, लगता है मेरी तुम्हारी ख़ूब पटेगी। तुम ख़ुश तो हो न?” मालिक बोला। 

“हाँ, लेकिन मैं और ख़ुश रहती अगर मुझे कोई चिंता न होती।” 

“तुम्हें क्या चिंता सता रही है?” 

“जब मैंने घर छोड़ा था तब मेरी माँ की तबीयत बहुत ठीक नहीं थी। मुझे पता नहीं है कि वह अब कैसी है।” 

“अगर तुम इस बात से परेशान हो तो मैं उधर से होता हुआ आऊंगा।” 

“मालिक आप कितने अच्छे हैं! अगर आप कल उधर जाएँ तो मैं आपको कुछ मैले कपड़े भी दे दूँ, यदि मेरी माँ की तबीयत ठीक होगी तो वह उन्हें धो देगी। महल के सभी पर्दे बहुत गंदे हैं, लेकिन जाने दीजिए गट्ठर आपके लिए भारी हो जाएगा।” 

“तुम वज़न की चिंता न करो, संसार का भारी से भारी वज़न मैं उठा सकता हूँ!” 

अब जब रुपहली नाक इधर–उधर हुआ तो लाड़ली ने आख़िरी कमरे का दरवाज़ा खोल कर अपनी बहन ललिता को बाहर निकाल लिया। उसे समझाया, “ललिता दीदी, तुम इस गठरी में चुपचाप सुन्न पड़ी रहना। बस एक बात का ध्यान रखना कि जब कभी रुपहली नाक गठरी ज़मीन पर रखने लगे तो कहना ’मैं देख रही हूँ-मैं देख रही हूँ’, और यह रुपहली नाक ही तुम्हें घर पहुँचाएगा। बस जो मैं बता रही हूँ उसको भूलना मत!” 

यह कहकर उसने ललिता को गठरी में बाँध दिया। अगले दिन जब मालिक काम पर जाने लगा तो लाड़ली ने कहा, “मैंने माँ के पास ले जाने वाले कपड़ों की गठरी बना दी है। इसे सीधे मेरी माँ के पास ही पहुँचाना और उसका समाचार ज़रूर लाना।” 

मालिक बोला, “क्या तुम्हें मुझ पर भरोसा नहीं है?” 

“मैं तुम पर पूरा भरोसा करती हूँ, वैसे भी मेरे पास एक पैदाइशी ताक़त है कि मैं बहुत दूर-दूर तक देख सकती हूँ। अगर तुम गठरी कहीं रखोगे या छोड़ोगे तो मुझे तुरंत मालूम हो जाएगा।” 

“हाँ बिल्कुल ठीक है, ” कहने को तो रुपहली नाक में कह दिया, पर उसे लाड़ली कि इस बात की सच्चाई पर, कि वह दूर-दूर तक देख सकती है, तनिक भी भरोसा न था। उसने गठरी कंधे पर उठाई, “अरे बाप रे! यह मैले कपड़ों की गठरी तो सचमुच भारी है!” 

“होगी नहीं क्या?” लाड़ली बोली, “न जाने कितने सालों से इस महल की चीज़ें धुली ही नहीं हैं, ऐसा लगता है।” 

रुपहली नाक गठरी कंधों पर लादे धोबिन के घर की ओर चल पड़ा। अभी वह आधे रास्ते ही था कि उसने सोचा ’कहीं ऐसा तो नहीं कि इस छोकरी ने मेरे घर की सारी कीमती चीज़ें गंदे कपड़ों के बहाने अपनी माँ के पास भेज दी हों’ इस विचार के कारण उसने गठरी कंधे से उतारी ही थी कि कहीं से आवाज़ ’आई मैं तुम्हें देख रही हूँ-मैं तुम्हें देख रही हूँ’। 

“हे राम, यह एकदम सच है! वह मुझे देख सकती है, ” रुपहली नाक बड़बड़ाया। उसने गठरी कन्धों पर लादी और सीधा लाड़ली के घर पहुँचकर दम लिया। 

“तुम्हारी बेटी ने कपड़े धोने के लिए भेजे हैं और तुम्हारा हालचाल पूछा है।” 

रुपहली नाक जब चला गया तो धोबिन ने गट्ठर खोला। अपनी बेटी को देखकर वह ख़ुशी से उछल पड़ी। 

एक सप्ताह बाद लाड़ली फिर से उदास रहने लगी और यमदूत मालिक से कहा कि उसे फिर अपनी माँ की चिंता सता रही है। इस बार उसने लतिका को गठरी में बाँधकर माँ के पास उसी युक्ति से पहुँचाने का प्रबन्ध किया जैसे ललिता को पहुँचाया था। इस बार भी जब उसने गठरी खोल कर देखनी चाही तो ’मैं तुम्हें देख रही हूँ-मैं तुम्हें देख रही हूँ’ की आवाज़ से डरकर इरादा छोड़ दिया। जब रुपहली नाक धोबिन के घर पहुँचा तो वह बहुत डर गई क्योंकि उसको ललिता से मालूम हो गया था कि वह यमदूत है। अगर वह पहले के कपड़ों की माँग करेगा तो धोबिन क्या करेगी? वह बड़ी हिम्मत करके रुपहली नाक के सामने आई। लेकिन भाग्य की बात! गट्ठर देकर रुपहली नाक बोला, “धुले कपड़े मैंं अगली बार लेकर जाऊँगा। इस समय तो इस गट्ठर के वज़न से मेरी पीठ और कंधे टूट कर रह गए हैं।” 

यमदूत के जाने के बाद धोबिन ने गठ्ठर खोला तो लतिका को देखकर गद्‌गद्‌ हो गई। बेटी को छाती से लगा लिया। लेकिन तनिक देर बाद ही अपनी छोटी बेटी लाड़ली के लिए उसका मन बेचैन हो गया। अब वह बेचारी अकेली उस दुष्ट रुपहली नाक के चंगुल में थी। 

इधर लाड़ली ने क्या किया!! बहुत थोड़े ही समय के बाद उसने फिर से माँ की चिंता की बात शुरू कर दी। बोझ ढोने से रुपहली नाक परेशान तो था पर साथ ही वह लाड़ली की आज्ञाकारिता और परिश्रमी स्वभाव से ख़ुश भी बहुत था, उसकी इच्छा को पूरा न करना उसे उचित नहीं लगा। 

जब शाम का धुँधलका घिरने लगा तब लाड़ली ने कहा कि उसके सिर में दर्द है और वह जल्दी सोने जाएगी। 

“मैं गंदे कपड़ों की गठरी बनाकर रख दूँगी क्योंकि दर्द के कारण हो सकता है मुझे रात में नींद ना आए और सुबह मैं जल्दी न जाग पाऊँ, तो आपको देर ना हो इसलिए आप गट्ठर लेकर काम पर चले जाएँ।” 

अब लाड़ली ने अपने को कमरे में बंद कर लिया। कपड़ों से उसने अपने आकार का एक पुतला बनाया, अपनी चोटियाँ काटीं और पुतले के सिर पर टाँक दीं। पुतले को बिस्तर में ओढ़ना उढ़ाकर सुला दिया, चुटिया तकिए के ऊपर टिका दी। ख़ुद को गट्ठर में रखकर बाहर ही सो गई। सुबह रुपहली नाक ने उसके कमरे में झाँका तो लाड़ली को मुँह ढककर सोता पाया। 

“बेचारी लड़की लगता है बीमार हो गई है!” उसने अपने मन में सोचा, “उसे जगाना ठीक नहीं है, यही सही समय है यह देखने का कि इस गट्ठर में सचमुच गंदे कपड़े ही हैं या कुछ और।” 

परंतु कोशिश करते ही कानों में आवाज़ ’आई मैं देख रही हूँ-मैं देख रही हूँ ’। 

“हे भगवान, यह तो बिल्कुल लाड़ली की आवाज़ है! इस से उलझना ठीक नहीं!” उसने झटपट गट्ठर कंधे पर लादा और धोबिन के घर की तरफ़ चल पड़ा। 

“मैं सारे कपड़े लेने के बाद लेने बाद में आऊंँगा, मुझे तुरंत वापस जाना है क्योंकि लाड़़ली की तबीयत अच्छी नहीं है। मैं वापस जा रहा हूँ। लाड़ली के पास।” 

और धोबिन का पूरा परिवार एक बार फिर साथ हो गया। लाड़ली अपने साथ बहुत सारा धन भी लाई थी। उन्होंने तुरंत वह जगह छोड़ दी और चल पड़े कहीं दूर जा बसने के लिए, सुख और संतोष से रहने के लिए . . . 

यह कहानी यहीं ख़त्म! अगली बार फिर एक नई कहानी! करिएगा इंतज़ार, मैं फिर आऊँगी!!

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