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संत की सलाह

मूल कहानी: आइ कॉनसिग्ली डि सोलोमन; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (सोलोमंस एडवाइस); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय

 

प्रिय पाठक, लोक कथाओं का काल निर्धारण एक दुष्कर कार्य है, परंतु इनमें निहित मानव के स्वाभाविक गुणों, इच्छाओं और दुर्बलताओं का वर्णन देश-काल से परे है, वे सनातन सत्य हैं। इस कथा में आप पाएँगे कि क़ानून हमेशा से ही अंधा रहा है और मनुष्य के लिए धन कितना महत्वपूर्ण है। कथा इस प्रकार हैः

कभी, कहीं, किसी देश में एक दुकानदार था, जिसकी परचून की दुकान थी। एक दिन सुबह-सुबह जब वह दुकान खोलने गया तो उसने देखा कि दुकान के आगे, दरवा़ए पर एक मानव-शव पड़ा है। वह थर-थर काँपने लगा। उसे लगा कि हत्या के आरोप में वह क़ैद कर लिया जाएगा और हो सकता है कि प्राण दंड भी दे दिया जाए। उसने उसी समय अपनी पत्नी और तीन बेटों को वहीं छोड़कर, शहर छोड़ देना ही उचित समझा और ऐसा ही कर भी बैठा।

जब वह दूसरे शहर में पहुँचा तो उसने काम की तलाश शुरू की, पर निराशा ही मिली। कुछ दिन कष्ट में कटे। एक दिन उसे पता चला कि किसी भले-मानुष को एक सेवक चाहिए। वह वहाँ पहुँचा तो मालूम हुआ कि सुबुद्धि नामक संत को सेवक चाहिए। किसी अन्य रोज़गार के अभाव में दुकानदार ने संत सुबुद्धि की सेवा करना स्वीकार कर लिया। सुबुद्धि जी इतने पहुँचे हुए संत थे कि शहर के लोग उनसे सलाह लेने आते थे। दुकानदार का मन लग गया और वह पूरी श्रद्धा और समर्पण भाव से संत की सेवा में जुट गया।

बीस वर्षों तक उसने संत की सेवा, बिना किसी वेतन के की। अब उसे लगने लगा कि वह अपने परिवार से जाकर मिले। पिछले बीस वर्षों में उसका संपर्क सबसे टूट चुका था। उसे विश्वास था कि हत्या का मामला भी अब तक पूरी तरह ठंडा पड़ गया होगा।

वह सुबुद्धि के पास गया और बोला, "स्वामी, मैं अब अपने परिवार के साथ रहना चाहता हूंँ, यदि आप मेरा हिसाब कर दें तो कृपा होगी।"

पिछले बीस वर्षों में उसने एक पाई तक नहीं माँगी थी। संत ने हिसाब लगाकर उसकी हथेली पर तीस चमचमाती अशरफ़ियाँ रख दीं। सेवक ने स्वामी को प्रणाम किया और चल पड़ा। अभी वह कुछ ही क़दम बढ़ा था कि संत ने पीछे से आवाज़ लगाई, " सारा शहर मुझसे सलाह माँगने आता है और तुम बिना कुछ लिए जा रहे हो?"

सेवक ने पूछा, "आपकी एक सलाह की क़ीमत क्या है?" 

संत ने कहा, "दस अशरफ़ियाँ।" सेवक ने कुछ पल विचार किया और वापस जाकर दस अशरफ़ियाँ संत के चरणों में रखकर एक सलाह माँगी। "पुरानी राह कभी मत छोड़ो,” संत ने शांत स्वर में कहा।

"यही सुनने के लिए मैंने दस अशरफ़ियाँ दे दीं?"

"वह इसलिए कि तुम यह बात हमेशा याद रखो," संत बोले। 

सेवक फिर चल पड़ा। अभी कुछ ही क़दम चला था कि उसने कुछ सोचा और बोला, “जब तक मैं आपके पास हूंँ तब तक मुझे एक और सीख दे दीजिए।"

"उसके लिए दस अशरफ़ियाँ फिर लगेंगी," संत बोले। 

उसने दस अशरफ़ियाँ देकर एक और बात सुनी, "दूसरों के काम में दख़ल मत देना, अपने काम से काम रखना।"

दुकानदार मन में सोचने लगा कि बीस बरस बाद घर जाऊंँ और कुल दस अशरफ़ियाँ लेकर इससे तो अच्छा है कि स्वामी जी से एक और सलाह ही ले लूंँ। अब दस अशरफ़ियाँ क्या! और ख़ाली हाथ क्या! तो उसने बाक़ी की दस अशरफ़ियाँ भी संत को देते हुए एक और सलाह माँगी ली।

"क्रोध को कल तक के लिए टाल दो।"

वह वापस मुड़ा और चलने लगा। एक बार फिर संत ने आवाज़ देकर उसे बुला लिया। उन्होंने अपने प्रिय सेवक को एक डब्बा देते हुए कहा कि इसको वह तभी खोले जब अपने पूरे परिवार के साथ हो और उसे आशीर्वाद देकर विदा कर दिया।

सेवक अपनी राह पर चला जा रहा था। कुछ दूर जाने पर उसे यात्रियों का एक क़ाफ़िला मिला। क़ाफ़िले के सरदार ने उससे कहा, “क्या तुम हमारे साथ चलना चाहोगे? हम छोटे रास्ते से जाएँगे, यदि तुम्हारी इच्छा हो तो हमारे साथ आ सकते हो।" सेवक ने कुछ देर विचार किया। उसने अपने मालिक से दस अशरफ़ियों में जो सलाह ली थी वह थी 'पुरानी राह कभी न छोड़ो’, उसने इतनी महँगी सलाह को आज़माना चाहा। सरदार को धन्यवाद दे, वह अपने रास्ते पर ही चलता रहा। अपनी राह पर बढ़ते-बढ़ते कुछ समय बाद उसने बंदूकों की आवाज़ सुनी, शायद यात्रियों के क़ाफ़िले पर डाकुओं का हमला हो गया था! ’भला हो उन दस अशरफ़ियों का जो मैंने मालिक को दे दी थीं, मेरी जान बच गई’, दुकानदार ने मन ही मन सोचा।

चलते-चलते वीरान जगह में रात पड़ गई, उसे कोई सराय भी न मिली। आख़िर में उसे उस बियाबान में भी एक घर दिखाई दिया जिसमें रोशनी हो रही थी। उसने द्वार खटखटाया और रात भर का आश्रय माँगा। मालिक दयालु था। उसने दुकानदार को भीतर बुला लिया। उसने भोजन तैयार किया और खाना परोस कर अतिथि को साथ भोजन करने को आमंत्रित किया। दोनों ने साथ बैठ कर भोजन किया। जब वे खा चुके तब मकान के मालिक ने फ़र्श में बना एक दरवाज़ा खोला, जो तहखाने में जाता था। उस दरवाज़े से एक स्त्री बाहर निकली, जो अंधी थी। मालिक ने एक खोपड़ी में उसे खाना परोसा और एक नरकुल को चम्मच की तरह इस्तेमाल करने के लिए औरत को दे दिया। स्त्री ने धीरे-धीरे खाना ख़त्म कर लिया। मालिक उसे फिर तहखाने में छोड़ आया और दरवाज़ा फिर बंद कर दिया। सब काम समाप्त कर वह दुकानदार से मुख़ातिब हुआ, "जो कुछ तुमने अब तक देखा उसके बारे में तुम्हारा क्या ख़्याल है ?"

यात्री को फिर दस अशरफ़ियों में ख़रीदी गई दूसरी सलाह याद आ गई, "मैं सोचता हूंँ कि ऐसा करने के पीछे तुम्हारे अपने कारण अवश्य होंगे।"

इस पर मकान के मालिक ने बताया, “वह स्त्री मेरी पत्नी है। मेरे घर से बाहर चले जाने पर वह पर-पुरुष के साथ समय बिताती थी। एक दिन मैं जल्दी घर आ गया और दोनों को साथ देख लिया। जिस बर्तन में वह खाना खाती है, वह उसके प्रेमी का सिर है और वह नरकुल जो मैंने उसे चम्मच की जगह दिया, उससे मैंने इसकी आँखें फोड़ी थीं। अब तुम बताओ कि मैंने सही किया था या ग़लत?"

"तुम्हें जो सही लगा होगा वही तो तुमने किया होगा और वह ठीक ही होगा।"

"वाह-वाह,” मेज़बान बोल पड़ा, "जो भी यह कहता है कि मैंने ग़लत किया, मैं उसे मौत के घाट उतार देता हूंँ।"

और यात्री ने अपने बारे में सोचा! "उन दस अशरफ़ियों का भला हो जिनके कारण मेरी जान दूसरी बार बच गई।"

सुबह होते ही यात्री फिर चल पड़ा और संध्या समय तक अपने शहर पहुँच गया। बदले हुए शहर में उसे अपना गली-मोहल्ला और मकान खोजना पड़ा। वहाँ उसने देखा कि उसके घर में ख़ूब रोशनी हो रही है। खिड़की से छन कर बाहर आ रही रोशनी में उसने देखा कि उसकी पत्नी एक जवान के गालों को प्यार से सहला रही है। यह दृश्य देखकर उसके तन-बदन में आग लग गई! उन दोनों की हत्या करने के लिए उसने अपनी बंदूक तक निकाल ली। अपनी ख़ाली जेब टटोलने पर उसे संत की दी गई तीसरी सलाह याद आ गई, 'क्रोध को कल तक के लिए टाल दो'। अब उसके हाथ ढीले पड़ गए। अपने ग़ुस्से को अंदर ही अंदर पीकर, वह पड़ोसियों के पास गया और पूछा, "उस पास वाले मकान में कौन रहता है ?"

"उस मकान में जो औरत रहती है, उसके लिए आज बहुत अधिक ख़ुशी का दिन है। जिस बेटे को उसने बहुत मुसीबत से, अकेले ही, पाला है वह आज पादरी बन गया है, और उसने आज अपना पहला उपदेश गिरजाघर में दिया है। माँ की ख़ुशी सँभाले नहीं सँभल रही है।" 

दुकानदार का मन नाच उठा, "जय हो उन दस अशरफ़ियों की!! जिन्हें देकर मैंने तीसरी सलाह ख़रीद ली थी!! नहीं तो आज मैं अपने ही परिवार का हत्यारा बन गया होता।"

वह दौड़ कर अपने घर गया। पत्नी ने दरवाज़ा खोला। बेटे तो उसे पहचानते तक न थे !

जब बधाई देने वाले पड़ोसी चले गए तब उसने परिवार के सामने संत का दिया डब्बा खोला!! ज़रा अनुमान लगाइए कि उसमें क्या था? उसमें मिठाई के साथ-साथ वे तीस चमचमाती अशरफ़ियाँ भी थीं जो संत ने सलाह के बदले में ले ली थीं, ताकि उनकी सलाह याद रखी जाए!

तो देखी आपने धन की माया!

मुफ़्त की सलाह बस कान तक रहे, ख़रीदी हुई सदा साथ-साथ चले॥

बस यह क़िस्सा नहीं पूरा हुआ, फिर जो कभी मिली, तो सुनाऊँगी एक दूसरा नया मज़ेदार क़िस्सा!!

इन्तज़ार करिएगा।

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