स्मृतियाँ–मुंबई की
संस्मरण | स्मृति लेख सरोजिनी पाण्डेय15 Oct 2021 (अंक: 191, द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)
आज 'साहित्य कुंज' के 'व्हाट्सएप' पटल पर श्री हाफ़िज़ जी का समीक्षात्मक आलेख, ममता कालिया जी की पुस्तक 'जीते जी इलाहाबाद' के बारे में पढ़ा तो सहसा अपने 'जिए गए' शहरों के बारे में भी कुछ लिखने की इच्छा जागृत हुई। परंतु सोचा कि संस्मरण तो महान लोगों के होते हैं, मैं क्या लिखूँ! पर चंचल मन फिर नहीं माना, तर्क सामने पेश हो गया, ज़िंदगी तो सबकी, एकदम अपनी होती है और अपने लिए उतनी ही महत्वपूर्ण, क्या राजा क्या रंक!
सो लेखनी उठाई और शुरू हो गई,, परिणाम आपके सामने है—
बात ई०सन् 1980 के दशक की है। 'तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग' में काम करने वाले पति की नियुक्ति देहरादून जैसे छोटे शहर में रहने के बाद मुंबई (तब का बंबई) महानगर में हो गई, जहाँ उन्हें सागर-तल में तेल खोजने के लिए माह में दस-पंद्रह दिन (कभी-कभी तो अधिक भी) घर से दूर छोटे-छोटे सर्वे शिप अथवा सागर तट पर स्थित खेमों में रहना होता। नियुक्ति के छह महीनों के बाद बोरीवली (पश्चिम) नामक उपनगर में एक मध्यमवर्गीय कॉलोनी में दो कमरों का एक छोटा सा फ़्लैट, चौथी मंज़िल पर मिल गया। और हम पति-पत्नी अपनी दो बरस की बिटिया के साथ हो गए 'बंबइया'।
हालाँकि इस उपनगर में नरीमन प्वाइंट या जुहू-बांद्रा जैसी तड़क-भड़क तो नहीं थी, परंतु सोलह अन्य परिवारों के साथ, चौथी मंज़िल पर रहना, पति का बस और फिर लोकल ट्रेन से तीस-पैंतीस किलोमीटर की यात्रा कर ऑफ़िस जाना, सुबह सात से शाम के सात बजे तक काम पर रहना, और हर माह औसतन दस दिन घर से बाहर रहना, यह सब कुछ उत्तर प्रदेश के छोटे शहरों में पली-बढ़ी एक नवयुवती के लिए साधारण बात तो नहीं थी! उन्हीं दिनों का एक लोकप्रिय फ़िल्मी गीत भी तो है– अमिताभ बच्चन पर फ़िल्माया गया– "ई है बंबई नगरिया तू देख बबुआ s s s, सोने चाँदी की डगरिया तु देख बबुआ s s।" तो साहब, हम भी देखने लगे यह 'बम्बई नगरिया'और हो गए 'बंबइया'।
पहले महीने में तो मुझे रोज़ ही सिर में दर्द रहता। सड़कों पर आने-जाने वाले वाहनों की आवाज़ों और सड़क पर लगी बत्ती की घर (फ़्लैट) के अंदर तक आती रोशनी के कारण रात में ठीक से नींद भी न आतीथी। डॉक्टर को दिखाया तो मालूम हुआ कि मार्च महीने के उत्तर भारत के सूखे मौसम के बाद मुंबई की नम हवा मेरे शरीर को रास नहीं आ रही है, कुछ समय लगेगा और सब ठीक हो जाएगा। सचमुच डॉक्टर की बात सही निकली!
उन दिनों ऑनलाइन शॉपिंग और होम-डिलीवरी का प्रचलन नहीं था। हमारी कॉलोनी में तो शाक-भाजी से लेकर अंडे-पाव वाले तक सड़क पर अपना सामान, अधिकांशतः, सिर पर लेकर, आवाज़ें लगाकर बेचते थे। बाद के समय में 'मैफ़्को' की मोटरगाड़ी अंडा, मांस-मछली और पैकेट-बंद मटर इत्यादि सप्ताह में एक दिन लाने लगी। ख़रीदार अपना बर्तन लेकर आते और सामान ले जाते, आजकल की ऑनलाइन शॉपिंग से निकलने वाला पैकिंग का कचरा भी उत्पन्न नहीं होता था! इनमें 'भाजीs s वालीs s', 'भंगार वाला' (कबाड़ी) तो परिचित थे, क्योंकि इन वस्तुओं की आवाज़ें उन दिनों भी लगभग हर शहर में सुनाई देती थीं। नई आवाज़ें थीं– 'बारिक चावल वाला जी ss', 'सूरती कोलम वाला जीss'। यह आवाज सुनकर तो मैं हैरत में पड़ गई, चावल! फेरी पर इसे बेचा जाए? (मैं खेतिहर परिवार से सम्बंध रखती हूँ) बाद में जाना कि उन दिनों बंबई में दूसरे प्रदेशों से चावल के आयात पर रोक थी, केवल सरकारी राशन की दुकान पर कार्ड-धारक को चावल मिल सकता था, वह भी यूनिट के हिसाब से। बाद में मैं भी चावल के लिए घंटों राशन की दुकान पर क़तार में खड़ी हुई थी। ये फेरीवाले चोरी-छुपे पास के राज्य गुजरात से चावल लाकर बेचते थे।
एक दिन तो ग़ज़ब ही हो गया, कानों में आवाज़ आई, "मीट आला s s मीट ले लो, s sमीट आलाs s"। मैं शाकाहारी, सनातनी परिवार में पली-बढ़ी बालिका और वैसे ही परिवार में बहू बन कर आई थी, कभी खुली आँखों मांस (मीट) देखा भी ना था। टीवी भी तब भारत में नहीं आया था कि पर्दे पर ही देखा हो। क्योंकि तब तक जीवन की वास्तविकता का नग्न रूप दिखाने वाले धारावाहिक भी प्रचलन में न थे। हाँ, जीव-विज्ञान की कक्षा में मेंढक, केंचुए काटे ज़रूर थे पर वह भी संरक्षित होते थे या फिर केवल आंतरिक अंग देखने के लिए काटे जाते। मांस की दुकानों के आगे चिक पड़े होते थे। और यहाँ, इस महानगर में, गलियों, मोहल्लों में मीट सड़क पर बिक रहा है! हाथ का काम छोड़ जब तक सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की पर आऊँ, तब तक फेरीवाला कुछ दूर जाकर, नज़रों से ओझल हो चुका था। नन्हीं बिटिया को लेकर या छोड़ कर चार मंज़िल नीचे जाऊँ, इतनी भी उत्सुकता यह 'मीट' की फेरी की आवाज़ मेरे मन में न जगा सकी थी। परंतु रह-रह कर मन में विचार आता कि सड़क पर बिकते हुए मांस का दृश्य कैसा होगा? इस महानगर से मेरा मोहभंग होने लगा।
ईश्वर की माया देखिए कि दो-चार दिन बाद ही फिर वही स्वर कान में पड़ा, सौभाग्य से उस दिन मैं खिड़की के पास ही थी, लपक कर नीचे झाँका, यह क्या? एक आदमी सिर पर टोकरी में कोई सफ़ेद वस्तु रखे आवाज़ लगाता जा रहा है, "मीटा sला s sमीट ले लोss" मुझे अपना जीव-विज्ञान का सारा ज्ञान निरर्थक लगा। इस तरह के सफ़ेद रक्त हीन 'मीट' की रंच मात्र भी जानकारी मुझे ना थी। परंतु यह हताशा और आत्मग्लानि अधिक समय तक नहीं रही। लगभग उसी समय मेरी सहायिका (मुंबई की भाषा में मेरी कामवाली बाई) आ गई। मैंने उससे बड़े साहस से पूछा कि अभी जो फेरीवाला जा रहा था वह कौन सा मीट बेच रहा था? उसने बड़े भोलेपन से पूछा, "पाहिजे का (चाहिए क्या?) मी आंणते (मैं लेकर आती हूँ)"। मैंने घबरा कर उसे अपने पूर्ण शाकाहारी होने की बात बताई। वह अधेड़ आयु की, समझदार महिला थी। कुछ क्षण विचार करके, हँसते हुए मुझे समझाया कि फेरीवाला मांसाहार नहीं बल्कि समुद्र तट से इकट्ठा किया हुआ, अपरिष्कृत 'नमक' बेच रहा है, जो कि पैकेट बंद नमक से अधिक गुणकारी होता है; मराठी भाषा में नमक को 'मिठ' कहते हैं। मैं तो जैसे आसमान से गिरी एक बार फिर समझ में आया की भाषा भी क्या ग़ज़ब चीज़ है! बाद के दिनों में मैंने रविवार को लगने वाली मराठी भाषा की कक्षा में प्रवेश लिया और प्रारंभिक भाषा का ज्ञान प्राप्त किया।
इन फेरी वालों के साथ-साथ और भी अनेक स्मृतियाँ मुंबई के साथ जुड़ी हैं, जैसे कि पच्चीस पैसे के चार चीकू बेचने वालों को पहली बार जब 'पावली चार-पावली चार" की आवाज़ लगाते सुना तो उत्सुकता हुई कि यह कैसा भाव है? बाद में मालूम हुआ कि 'पावली' का अर्थ है 'चवन्नी' (पाव रुपया) बिल्कुल अनोखा परंतु अत्यंत सार्थक शब्द! अब तो यह सिक्का और शब्द दोनों प्रचलन ग़ायब हो चुके हैं! एक अंगूर वाला था, जो दो किलो अंगूर की पेटी पंद्रह रुपये में प्रति सप्ताह घर पहुँचा जाता, मना करने पर कहता, "बच्चे खाएँगे बाई! रखले!" क्या दिन थे वे! मस्त बम्बइया दिन।
'मुंबा देवी' मुंबई की अधिष्ठात्री देवी हैं, उनके बारे में स्थानीय लोगों का कहना हुआ करता था (मालूम नहीं कितना सच?), "मुंबा देवी किसी को भूखा नहीं रखती पर यहाँ का धन किसी को साथ ले भी नहीं जाने देती!" यह कहावत शायद उन दिनों इसलिए भी अधिक प्रचलित हो गई थी, क्योंकि सूती कपड़े के कई कारखाने उन दिनों बंद हो गए थे और मैं जिस प्रदेश के मूलनिवासी न थी। वहाँ से ’बम्बई कमाने' आए बहुत से लोग बेरोज़गार हो गए थे।
उस ज़माने की और भी कई यादें स्मृतियों के पिंजरे में क़ैद हैं, जिन्हें कभी-कभार पिंजरे का झरोखा खोल देख लेती हूँ, उन्हें चुगा-पानी देकर फिर से झरोखे को बंद कर देती हूँ। वे स्मृतियाँ तभी मुझसे मुक्ति पाएँगी जब मैं इस भवसागर से मुक्ति पाऊँगी।
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