अँजुरी का सूरज
काव्य साहित्य | कविता सरोजिनी पाण्डेय1 Mar 2024 (अंक: 248, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
कभी-कहीं किसी दिन ऐसी अनहोनी हो जाए,
साँझ को पश्चिम में ढलता सूरज
दैवात् सरक कर मेरी अंजुरी में झर जाए,
सोचती हूँ तब—
क्या करूँगी मैं उस स्वर्णमय मनके का?
लगाऊँगी टिकुली इसकी, झलकाऊँगी इसे टीके सा?
या पहनूँगी कर्णफूल इस स्वर्णिम जवाकुसुम का,
अपनी लालिमा से जो मोहेगा मन सबका,
एक कान का कर्णफूल तो अटपटा हो जाएगा!
कान मेरा एक तो छूँछा ही रह जाएगा!
तो फिर बनाऊँगी बाजूबंद इस वलय का
जीवन भर मेरी जो कलाई पर छनकेगा,
सोचती हूँ कभी इसे चोटी में सजा लूँगी
अलबेली अपनी वेणी से जगती को रिझा लूँगी,
एक-एक कर विचार मेरे मन में आते हैं
क्षणांश में ही वे तिरोहित भी होते जाते हैं,
डोरी में पिरोकर यह सोनमोती गले में पहन लूँगी
हृदय के निकटतम मैं इसे रख लूँगी,
नथुनी की झुलनी या इसे मैं बनाऊँगी,
हिलती रहे हरदम, इसलिए मुस्कुराऊँगी,
देखते ही देखते साँझ लेकिन ढल गई
साथ ही मेरे मनचाहे नगीने को भी ले गई,
आकाश से लुढ़क कर सूरज धरती में धँस गया
रात भर के लिए कहीं गहरे जाकर सो गया॥
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टिप्पणियाँ
ममता दुबे 2024/02/27 09:18 PM
पंक्तियां जो मन भा गई,देखते ही देखते सांझ ढले गेयर मेरे नगीने को ले गई आकाश से लुढ़कर धरती मैं धंस गया।सरोजिंजी आप की कल्पना पर हम कुर्बान है।क्या खूब मिले हैं हम आपको लिखने का शौक मुझे पढ़ने का।धन्यवाद। ममता दुबे
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शैली 2024/02/28 07:21 AM
बहुत सुन्दर चित्र उससे सुन्दर कल्पना और रचना। हार्दिक बधाई