अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

अँजुरी का सूरज

कभी-कहीं किसी दिन ऐसी अनहोनी हो जाए, 
साँझ को पश्चिम में ढलता सूरज 
दैवात् सरक कर मेरी अंजुरी में झर जाए, 
 
सोचती हूँ तब— 
क्या करूँगी मैं उस स्वर्णमय मनके का? 
लगाऊँगी टिकुली इसकी, झलकाऊँगी इसे टीके सा? 
या पहनूँगी कर्णफूल इस स्वर्णिम जवाकुसुम का, 
अपनी लालिमा से जो मोहेगा मन सबका, 
एक कान का कर्णफूल तो अटपटा हो जाएगा! 
कान मेरा एक तो छूँछा ही रह जाएगा! 
 
तो फिर बनाऊँगी बाजूबंद इस वलय का
जीवन भर मेरी जो कलाई पर छनकेगा, 
सोचती हूँ कभी इसे चोटी में सजा लूँगी 
अलबेली अपनी वेणी से जगती को रिझा लूँगी, 
 
एक-एक कर विचार मेरे मन में आते हैं 
क्षणांश में ही वे तिरोहित भी होते जाते हैं, 
 
डोरी में पिरोकर यह सोनमोती गले में पहन लूँगी 
हृदय के निकटतम मैं इसे रख लूँगी, 
नथुनी की झुलनी या इसे मैं बनाऊँगी, 
हिलती रहे हरदम, इसलिए मुस्कुराऊँगी, 
 
देखते ही देखते साँझ लेकिन ढल गई
साथ ही मेरे मनचाहे नगीने को भी ले गई, 
आकाश से लुढ़क कर सूरज धरती में धँस गया 
रात भर के लिए कहीं गहरे जाकर सो गया॥

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

शैली 2024/02/28 07:21 AM

बहुत सुन्दर चित्र उससे सुन्दर कल्पना और रचना। हार्दिक बधाई

ममता दुबे 2024/02/27 09:18 PM

पंक्तियां जो मन भा गई,देखते ही देखते सांझ ढले गेयर मेरे नगीने को ले गई आकाश से लुढ़कर धरती मैं धंस गया।सरोजिंजी आप की कल्पना पर हम कुर्बान है।क्या खूब मिले हैं हम आपको लिखने का शौक मुझे पढ़ने का।धन्यवाद। ममता दुबे

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

कविता

सांस्कृतिक कथा

आप-बीती

सांस्कृतिक आलेख

यात्रा-संस्मरण

ललित निबन्ध

काम की बात

यात्रा वृत्तांत

स्मृति लेख

लोक कथा

लघुकथा

कविता-ताँका

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं