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भोर . . .

दिन भर के श्रम के बाद 
वन-प्रदेश के विहग-वृन्द, 
नीड़ों-तरुओं पर सोते हैं, 
प्रत्यूष की बेला में वे सचेतन-सजग होते हैं
क्षुधा से ग्रस्त उदर और शिथिल अंगों की गुहार भी सुनते हैं, 
अंधकार उन्हें अपना शत्रु-सम लगता है, 
जो सभी तृण, तरु, आकाश को
काली चादर से ढके रहता है, 
सावधान कर कर्ण-पटल, पंखों में सिर छुपाए, 
वे प्रतिपल अपने प्रतिपालक सूर्य की प्रतीक्षा करते हैं, 
उषा काल में सूर्य अपना अरुण केतन लहराता है, 
करने को तम से युद्ध वह 
कर में धनुष, 
और कांधे पर रश्मि-तूणीर सजाता है, 
देख कर युद्ध हेतु सज्ज होते सूर्य को, 
अब तक तंद्रित बैठे पक्षी
चैतन्य हो उठते हैं 
देने को अपने आराध्य सूर्य को संबल 
वे दलबद्ध होते हैं, 
अपनी गुंजार से भरता हुआ नभ-प्रांगण दुर्बल होते तिमिर पर
यह पक्षी-दल अपनी शक्ति भर प्रहार करता है
सूर्य-रश्मि के शर और खगों के जयगान से
शनैः शनैः
तम का मन और तन छिन्न-भिन्न होने लगता है 
देखते ही देखते तिमिराछन्न नभ
सूर्य के आलोक से आलोकित हो उठता है, 
विजयी सूर्य का स्वर्णमय अरुण केतन आकाश पर फहरता है, 
चमकने लगते हैं जब 
क्षुप, तरु, तृण, तरुण सूर्य के आलोक से, पक्षियों का समूह
करने को उदर पूर्ति
तब धीरे से धरा पर उतरता है, 
शान्त, नीरव, वन-प्रांतर की भोर में, 
यही क्रम दिन प्रतिदिन होता है। 

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