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किंकर्तव्यविमूढ़ता!

 

अनिर्णय की स्थिति ठीक नहीं होती है। वह चाहे स्वयं के जीवन से सम्बंधित हो या सामाजिक जीवन से या कोई और क्षेत्र हो। निर्णय करना चाहिए, निर्णय करने पड़ते हैं। जीवन के गतिशील बने रहने के लिए निर्णय आवश्यक होते हैं। जब निर्णय किये जाते हैं तो कभी-कभी ग़लत निर्णय भी हो जाते हैं, निर्णय सही भी होते हैं। निर्णय सही होते हैं तो जीवन विकास के पथ पर अग्रसर होता है पर जब कभी निर्णय ग़लत हो जाते हैं तो असुविधा होती है, कभी कभी विकास अवरुद्ध हो जाता है। 

व्यक्ति के सामने कोई विशेष परिस्थिति है। शुभ चिंतक उस परिस्थिति के शुभ पक्ष भी बता रहे हैं तो कुछ अशुभ पक्ष भी बता रहे हैं। यह मनोवैज्ञानिक रूप से सत्य है कि इनमें से जो मशवरे आपके मन के अनुकूल हैं उनसे आपका मन मोहित होता है, आपके मन में एक गुदगुदी सी होती है। अशुभ पक्ष सुनकर आप हताश व निराश होते हैं कोफ़्त होती है ऐसे परामर्शों पर और परामर्श देने वालों पर। वे ईर्ष्यालु लगने लगते हैं, शत्रु लगने लगते हैं; भले ही बाद के जीवन में उस परिस्थिति के संदर्भ में वही अशुभ लगने वाले मशविरे सही व खरे उतरें। 

जब निर्णय लिया गया तब तत्कालीन परिस्थितियों में लिया गया, संयोग से दुर्भाग्य से यह ग़लत हो गया। अब क्या किया जाए? पश्चाताप करें, बैठ जायें, रुक जाएँ? 

नहीं। 

सुविज्ञ उस ग़लत निर्णय से उत्पन्न परिस्थिति को दरकिनार करते हैं और जीवन को गतिशील बनाये रखने के लिए प्रगति पथ पर आगे बढ़ते रहते हैं। कुछ उन परिस्थितियों से जूझते हुए गिरते, पड़ते, उठते हैं और लगातार आगे बढ़ने की कोशिश करते हैं। विपरीत परिस्थिति उसे घेरती है, कोशिश करती है कि वह टूटे, गिरे पर वह “यही तो जीवन है” मन्त्र को मान लेता है। उसके इस संघर्ष मयी जीवन पर लोग व्यंग्य अवश्य करते हैं, “बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से खाय।”

लेकिन ग़लत निर्णय से उत्पन्न परिणामों से संघर्ष कर रहा वह व्यक्ति कबीर के इस कथन को पूरे अर्थ में, पूरे सन्दर्भ में देखता है:

“करता था सो क्यों किया
अब करि क्यों पछताय। 
बोया पेड़ बबूल का
आम कहाँ से खाय।”

आशय यह कि परिस्थिति को न कोसो, उसे पराजित करो और आगे बढ़ो। 

कभी कभी किसी किसी से कुछ निर्णय बहुत ग़लत हो जाते हैं। यह निर्णय गले की फाँस बन जाते हैं, न उगलते बनता है, न निगलते। यह मर्मान्तक पीड़ा पहुँचाते हैं, मरणांतक दर्द देते हैं। ऐसे निर्णयों के बारे में यही कहा जा सकता है:

“जाको प्रभु दारुण दुख देही, 
ताकि मति पहलेहि हर लेही।” 

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि “विनाश काले विपरीत बुद्धि:” जब बुरा समय आता तो दिमाग़ काम करना बंद कर देता है। यह सही है पर अगर संकट के समय मन पर क़ाबू कर लिया तो कई समस्याएँ टल सकती है। अहंकार, लालच, और क्रोध भी व्यक्ति की बुद्धि को विभ्रम में डाल देते हैं। अस्तु ऐसे समय में धैर्य रखें और सही समय का इंतज़ार करें तो सफलता अवश्य ही मिलती है। किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति लम्बे समय तक नहीं रहनी चाहिए। 

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