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चौकड़ी

 

चौकड़ी . . . । 

चौकड़ी बहु श्रुत, बहु पठित, बहु प्रयुक्त शब्द है। आजकल यह शब्द चलन में कुछ अधिक ही है। 

हिंदी भाषा में चौकड़ी एक ऐसा शब्द है जिससे प्रायः हर कोई परिचित है। शिक्षित या अशिक्षित, गाँव या शहर, इस गुरुतर शब्द का अस्तित्व सर्वत्र है। सभी परिचित हैं। कई-एक इसका सामान्य अर्थ या इसके बहु अर्थ भले ही न जानते हों पर इसके लक्ष्यार्थ, व्यंग्यार्थ सब जानते हैं। 

चौकड़ी, संज्ञा शब्द है, स्त्रीलिंग है। इसका अर्थ सामान्य रूप से हिरण की वह दौड़ है जिसमें वह चारों पैर एक-साथ फेंकता हुआ दौड़ता है। हिरण के सन्दर्भ में ही इसका अर्थ फलाँग, कुलाँच, उड़ान और छलाँग भी होता है। 

विभिन्न शब्द कोश देखने से यह स्पष्ट होता है कि हिरण या तेज़ दौड़ने वाले जानवरों से इतर चौकड़ी एक गहने को भी कहा जाता है, तो चारपाई की उस बुनावट को भी चौकड़ी कहा जाता है जिसमें चार-चार सुतलियाँ इकट्ठी या एक साथ बुनी जाती हैं। उस गाड़ी या छकड़े को भी चौकड़ी कहा जाता है जिसमें चार बैल या घोड़े जुते हों। 

बैठने का एक ढंग भी पालथी या चौकड़ी कहलाता है जिसमें दाहिने पैर का पंजा बाँये तथा बाँये पैर का पंजा दाहिने पैर के नीचे दबाकर बैठा जाता है। ताश के खेल में भी चौकड़ी या चौकड़िया शब्द प्रयुक्त किया जाता है। 

हमारे इस अनोखे शब्द का दख़ल छंद शास्त्र में भी है। लोक साहित्य में एक छंद विशेष को चौकड़ी या चौकड़िया कहा जाता है। 

“हँसा फिरत विपत के मारे, अपने देश बिना रे। 
अब का बैठे तला तलैया, छोड़े समुद किनारे॥
पैला मोती चुनत हतै, अब ककरा चुनत बिचारे। 
अब तो ऐसे फिरत ईसुरी, जैसे मौ में डारे॥” (ईसुरी) 

चौकड़ी का एक आशय चार आदमियों के गुट के अर्थ में लिया जाता है। इस अर्थ में आशय चार आदमियों के गुट के वनस्वित प्रायःउपद्रवी व्यक्तियों की मंडली से अधिक लिया जाता है। चौकड़ी शब्द से सम्बंधित बहुतेरे मुहावरे भी इसी आशय से अधिक जुड़े हैं—चौकड़ी भूल जाना अर्थात्‌ एक भी चाल न सूझना, बुद्धि का काम न करना, किंकर्तव्यविमूढ़ होना, सिटपिटा जाना, घबरा जाना, भौचक्का रह जाना। इसी प्रकार चौकड़ी जमना या चौकड़ी जमाना, चौकड़ी भरना आदि मुहावरे ख़ूब कहे सुने, लिखे पढ़े जाते हैं। 

चौकड़ी के कई अर्थ हैं, कई भाव हैं, कई प्रयोग हैं पर मेरी समझ में हमारे आसपास इसे तीन प्रसंगों में ख़ूब प्रसिद्धि मिली है—एक, वीर सपूत महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक की चौकड़ी, यह जन जन को ज्ञात है:

“रण बीच चौकड़ी भर भर 
कर चेतक बन गया निराला था, 
राणा प्रताप के घोड़े से 
पड़ गया हवा का पाला था।” 

द्वितीय, बुंदेलखंड में महाकवि ईसुरी की फागों के गायन के प्रसंग में:

“सुन आये सुख होई, दई देवता मोई। 
इन फागन पै फाग न आवै, कइयक करौ अनोई। 
भोर भखन कौं उगलत रै गओ, कली कली में गोई। 
बस भर ईसुरी एक बचो न, सब रस लओ निचोई।” 

चार आदमियों के गुट के अर्थ में तो चौकड़ी शब्द ऐसा प्रिय हुआ है कि इसका ‘चार आदमियों का गुट’ अर्थ फीका पड़ गया, चमक गया ‘षड्यंत्रकारियों का गुट अर्थ।’ यहाँ तक कि अब इस अर्थ में चार संख्या भी नज़रंदाज हो गयी, मुकम्मल अर्थ हो गया ‘कुछ विघ्न संतोषियों, उपद्रवियों, षडयंत्रकारियों का गुट।’ अब इस गुट में सदस्यों की संख्या चार भी हो सकती है, कुछ अधिक भी। 

इस अर्थ में चौकड़ी की घुसपैठ यत्र-तत्र-सर्वत्र है। परिवार में, गाँव में, शहर में, दफ़्तर में, मेलों में, रेलों में, संगठनों में विघटनों में सब जगह इसका अस्तित्व मिलता है। मज़ेदार बात यह कि एक चौकड़ी दूसरी चौकड़ी में मज़े ले ले कर मीन-मेख निकालती, उपहास उड़ाती हुई देखी जाती है। एक बात यह भी कि जब चौकड़ी के इस अर्थ में ही इतने विशेषण जुड़े हैं तो इस चौकड़ी से किसी के भले की अपेक्षा तो की नहीं जा सकती लोग इसमें, इससे अहित की आशंका को देखते हुए इससे सतर्क रहने का प्रयास करते देखे जाते हैं। 

एक बात और चौकड़ी के बारे में, पक्ष में या विरोध में लोग खुलकर बात न के बराबर करते हैं; कानाफूसी अधिक की जाती हुई देखी जाती है। यह भी कि चौकड़ी के लोग परस्पर बड़ी आत्मीयता से जुड़े होते हैं। इसका कारण बताते हुए बुधजन कहते हैं कि चूँकि उनके स्वभाव, आचरण, आदतें, व्यवहार, जीवन दृष्टिकोण परस्पर लगभग मिलते जुलते होते हैं, सबका लक्ष्य भी लगभग एक जैसा होता है, इसलिए। 

चौकड़ी को ख़ूब कोसा भी जाता है। इसमें प्रायः एक उपसर्ग जोड़ कर इसे प्रयोग करने में प्रयोगकर्त्ता को बड़ी संतुष्टि-सी मिलती है। सच इस रूप में इस शब्द में बड़ी शक्ति है। 

जिस शब्द को इस अर्थ में प्रयोग किया जावे कि उसमें सत का भाव ही न हो, शिव की झलक भी न हो तो इसमें आनंद नहीं बसता, केवल आभासित होता है। 

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