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यायावरी: अपनों की खोज की

समीक्षित पुस्तक: अथ श्री चौहान कुल कथा
लेखक: शंभू प्रसाद सिंह
प्रकाशक: ‎ अंजुमन प्रकाशन प्रा. लि.
पेपरबैक: ‎ 210 पेज
मूल्य: ₹265.00
ISBN-10‏: ‎ 9388556895
ISBN-13: ‎ 978-9388556897

अपनी जड़ों को पहचानने, अपने पूर्वजों के बारे में जानने की उत्कंठा प्रायः हर किसी में होती है, होनी भी चहिए पर सुदूर पूर्वजों (Great Great Grand parent) के बारे में जानने में कई कठिनाइयाँ हैं। 

कारण? 

यह कि बहुत कम लोगों ने अपने सुदूर पूर्वजों की जानकारियाँ सहेज कर—लिपिबद्ध करके या स्मृति में, रखी हैं। अधिकांश परिवारों में तीन-चार पीढ़ियों से पहले के पुरखों की जानकारी प्रायः नहीं होती है। 

कुछेक परिवारों की जानकारी उनके ‘पटियों’ (परिवार का सिजरा रखने वाले, इन्हें अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है) ने सहेज कर रखी, पर धीरे-धीरे यह परंपरा भी टूट गयी। तीर्थ स्थलों के ‘पण्डों’ के पास प्रायः उन्हीं परिवारों की जानकारी उपलब्ध हो पाती है जिनके यहाँ से हर पीढ़ी में कोई न कोई उस तीर्थ स्थल पर जाता रहा है। 

नामों की पुनरावृत्ति भी सुदूर पूर्वजों की ठीक-ठीक जानकारी करने में बड़ी बाधा है। समयानुसार नामों में परिवर्तन आगम, लोप, विपर्यय, प्रयत्न-लाघव अन्यान्य कारणों से होते रहे हैं, इसलिए भी नाम, स्थान नाम में प्रमाणिकता की कठिनाई आती है। 

पूर्वजों का स्थान परिवर्तन होता रहा है। रोज़ी-रोटी के लिए, राजनीतिक कारणों से और भौगोलिक कारणों से भी। कौन कहाँ गया, आगे क्या हुआ, इसकी प्रामाणिक जानकारी कम ही मिल पाती है। 

उत्तराधिकार के कारण भी कई समुदायों, उप समुदायों में परिवर्तन हुए; किसी को नाना ने गोद ले लिया, कोई घर-जमाई बन गया; ऐसा होने से एक वंश ने दूसरे वंश का स्थान ले लिया/वंश प्रतिस्थापन हो गया। 

प्रक्षिप्त कथाएँ, अतिरंजितता आदि और भी कई कारण हैं, अपने सुदूर पूर्वजों के बारे में जानने में आने वाली कठिनाइयों के बीच। 

इन सबके बावजूद यदि कोई अपनी जड़ों की पड़ताल करने का प्रयत्न करता है तो निश्चित ही वह व उसका प्रयत्न वंदनीय है। 

शंभू प्रसाद सिंह शैक्षिक रूप से सुयोग्य तो हैं ही उनमें निरंतर अध्ययन-शीलता का विशेष गुण है। वे सृजनशील भी हैं और क्रियाशील भी। उनमें भाव पक्ष की प्रबलता है, कुछ सोचने फिर उसे अमलीजामा पहनाने की विलक्षण क्षमता है। साहित्य और इतिहास की उनकी समझ बेहतर है। इस पुस्तक ‘अथ चौहान कुल कथा’ से पहले उनकी कोई पुस्तक तो मैंने नहीं पढ़ी, पर पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख, कहानी, नाटक पढ़े हैं। साथ कार्य करने से उनकी सृजन-क्षमता भी देखी है। 

इन्हीं परिप्रेक्ष्य में ‘अथ चौहान कुल कथा’ इतिहास, भाषा-शैली, शोधपरकता, इस लेखन की सामाजिक उपादेयता के परिपेक्ष्य में भी। 

‘अथ चौहान कुल कथा’ में लेखक का मूल उद्देश्य अपनी जड़ों की तलाश है। अपने कुल की कथा कहने का प्रयास है। अस्तु पुस्तक में संगृहीत अन्य कथावस्तु इसी साध्य के साधन के रूप में दर्ज हुई है। हाँ, यह ‘साधन’ भी कहीं कहीं साध्य जैसा बन गया है। 

पुस्तक है तो इतिहास, पर लेखक कहीं भी इसमें ऐतिहासिक स्रोतों का दावा नहीं करता। यह कोई उपन्यास या कथा कहानी भी नहीं है। अस्तु कलेवर की दृष्टि से हम इसे एक इतिहास (कुल का इतिहास) ग्रन्थ ही मानकर विचार कर रहे हैं। 

पुस्तक का पहला सोपान ‘पुरखों के बहाने कथा की शुरुआत’ लेखक के अपने अन्वेषण-प्रयास का विवरण है। इसमें लेखक की विषय के प्रति उत्कंठा, समर्पण भावना और उद्यमशीलता स्पष्ट होती है। 

दूसरा सोपान ‘भारत के इतिहास पर एक नजर’ एक सूची भर है जिसमें लेखक ने 1500 ई.पू. से 2021-22 ई तक के इतिहास/ऐतिहासिक घटनाओं को अपने ढंग से 248 कालखण्डों में विभाजित कर प्रस्तुत किया है। 

तीसरे सोपान ‘तुर्कों का प्रवेश और क्षत्रियों का प्रतिरोध’ में लेखक ने उस काल के इतिहास की एक झलक प्रस्तुत की है। उस समय का दौर एक संक्रमण-काल था। उसका पूरा इतिहासोचित ब्योरा 14 पृष्ठों में दिया जाना नामुमकिन है पर लेखक ने सारभूत ब्यौरे देने का प्रयास अवश्य किया है। इस पुस्तक के विन्यास में इतना विवरण पर्याप्त कहा जा सकता है। इतना अवश्य कि यदि लेखक क्रमशः एक-एक, अलग-अलग विदेशी आक्रमण और विशेष राजा/शूरवीर के संघर्ष एवं उसकी सफलता, विफलताओं के संक्षिप्त कारकों, त्रुटियों का उल्लेख करता तो पाठक को समझने में सरलता होती। 

पुस्तक के चौथे सोपान ‘क्षत्रियों का संक्षिप्त इतिहास’ में क्षत्रियों की उत्पत्ति और विस्तार पर दृष्टिपात किया गया है। वर्ण व्यवस्था में क्षत्रिय एक वर्ण है जबकि जाति व्यवस्था में समाज में क्षत्रिय को एक जाति के रूप में जाना, समझा जाता है, हालाँकि क्षत्रियों के लिए अब अलग अलग क्षेत्र में ठाकुर, राजपूत, बाबूसाहेब आदि भी कहा जाता है। 

वर्ण व्यवस्था कब क़ायम हुई, इस पर विद्वानों, इतिहासकारों में मतभेद है। “चारों वर्णों का सर्वप्रथम एकत्र उल्लेख ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में मिलता है किन्तु यहाँ भी उनके साथ वर्ण शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है। यहाँ सम्पूर्ण मानव समाज की, कल्पना एक विराट पुरुष के रूप में की गयी है . . . आर्यों ने समाज के जिन विभिन्न समूहों अथवा वर्गों का निर्माण किया उनमें उनके गुण के साथ-साथ उनके प्रधान कर्म को भी महत्त्व दिया गया। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत विभिन्न वर्णों अथवा समूहों को उनके प्रधान गुण और कर्म के आधार पर विभाजित किया गया तथा उनके कर्मों को प्रबल रूप से व्यवस्थित किया गया। प्राचीन धर्मशास्त्रों में वर्णों की उत्पत्ति ईश्वरकृत एवं दैवीय मानी गई।” (प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था:विस्तृत अध्ययनSavita Ad-Hok. Lecturer in History, Haryana-http://ignited.in/a/58529#:~:text)

क्षत्रियों की उत्पत्ति का उल्लेख करते हुए लेखक लिखता है, “प्राचीन मान्यताओं और सिद्धांतों के अनुसार क्षत्रिय की उत्पत्ति ब्रह्मा की भुजाओं से हुई मानी जाती है।”

इससे पहले लेखक ने क्षत्रियों के विभिन्न कुलों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में दो समवेत दोहे प्रस्तुत किये हैं”

“दस रवि से दस चन्द्र से बारह ऋषिज प्रमाण। 
चार हुतासन सों भये कुल छत्तीस वंश प्रमाण॥
भौमवंश से धाकरे टाँक नाग उनमान। 
चौहानी चौबीस बँटि कुल बासठ वंश प्रमाण॥”

आगे लेखक ने प्रो. यज्ञदत्त शर्मा का एक उद्धरण प्रस्तुत किया है, “प्राचीन क्षत्रिय जो अपने आपको सूर्य एवं चंद्रवंशी मानते हैं, यह विचार भारतीय अनुश्रुतियों के अनुकूल है। इसमें क्षत्रिय समाज दो भागों में बँट गया। कालांतर में इसकी तीसरी शाखा यदुवंशी बनी। सभी क्षत्रिय इन्हीं तीन शाखाओं में विभक्त हुए। कालांतर में इन शाखाओं की जातियों की उपशाखाएँ बनीं। इनमें कुछ विशेष व्यक्तियों के नाम से भी जातियाँ बनीं। हर्ष की मृत्यु के पश्चात इन जातियों ने अपने-अपने राज्य क़ायम किये और स्वयं को राजपूत कहकर गर्व महसूस किया। इन राजपूतों का जीवन और आदर्श प्राचीन क्षत्रियों जैसा ही था। उनमें विदेशीपन की कोई गन्ध नहीं थी। इस दृष्टि से राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के ही वंशधर हैं।”

कुल विभाजन को परम् संत चौधरी गरीबदास सिंह ने अपनी पुस्तक ‘वृहत्तर कनार साम्राज्य’ में पृष्ठ 7 पर इस प्रकार स्पष्ट किया है:

“इस तरह के विभाजन के पाँच आधार होते हैं—1. महापुरुष के नाम से–शृंगी से सेंगर। 2. स्थान विशेष से–सिसौदी से सिसौदिया। 3. प्रमुख घटना के कारण–गाड़ी के खंभों से शत्रुओं को मारने के कारण चौपटखम्ब। 4. पदवियों के आधार पर–रावल या रावत। 5. प्रतीक के आधार पर–वंश परम्परा में बड़ा होने के कारण बडगूजर।”

क्षत्रिय और राजपूत को समानार्थी मानते हुए लेखक कहता है कि “कई विदेशी इतिहासकारों ने राजपूतों को विदेशी बताया है। इसका सबसे बड़ा कारण यह माना है कि छठी शताब्दी से पहले किसी भी प्राचीन ग्रन्थ या शिलालेख में राजपूत शब्द की चर्चा नहीं मिलती, बल्कि राजपुत्र की चर्चा मिलती है। वे राजपूत को राजपुत्र के अपभ्रंश के रूप में नहीं देख पाए। राजपूत हिंदी शब्द है यह संस्कृत शब्द राजपुत्र का अपभ्रंश है . . . यजुर्वेद में राजा के लिए राजन्य और वंशज के लिए राजपुत्र की चर्चा है।”

क्षत्रियों के संक्षिप्त इतिहास को लेखक ने विभिन्न ग्रन्थों, इतिहासकारों के मतों के परिप्रेक्ष्य में लिखने का अच्छा प्रयास किया है। परन्तु यह इतिहास लिखने से पहले वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति, जाति व्यवस्था के उद्भव पर भी कुछ प्रकाश डाला जाता तो यह सोपान और अधिक ज्ञानवर्धक बन सकता था। हालाँकि बाद के सोपानों में इस विषय में लेखक द्वारा कुछ स्फुट तथ्य दिए गए हैं। 

पाँचवाँ सोपान चौथे का ही पूरक है, विस्तार है। छटवें से 11वें सोपान तक लेखक ने अपने कुल चौहान कुल का विस्तृत वर्णन किया है। इस सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इतिहास की भूल-भुलैयों में लेखक ने एक राह बनाने का बहुत कुछ सफल प्रयास किया है। मुझे लगता है कि यह छह सोपान इस समुदाय, तत्सम्बन्धी इतिहास पर शोध करने वाले अनुसन्धित्सुओं के लिए प्रकाश स्तंभ साबित हो सकेंगे। 

बारहवाँ सोपान बहुत रोचक है। इसमें विशेष रूप से ऐतिहासिक किरदारों के सम्बन्ध में प्रचलित कथाओं को इतिहास की कसौटी पर परखा गया है। यह पड़ताल भ्रांतियों के निवारण में बड़ी महत्त्वपूर्ण बन पड़ी है। 

तेरहवें सोपान में लेखक ने अपने आसपास के अपने कुल को मूल से जोड़ने का विवेचन किया है। सारपूर्ण जानकारियाँ दी गयी हैं। इतने परिश्रम के बाद चौहान कुल कथा तो बहुत कुछ स्पष्ट हुई है पर लेखक की अपनी जड़ें अप्रकट ही रह गयी हैं। 

इस शोधपरक ग्रंथ में पर्याप्त इतिहास है (कुछ कही, कुछ अनकही सोपान में यह भली-भाँति स्पष्ट है) तथापि लेखक ने कहीं भी यह दावा नहीं किया है कि उनकी रचना ऐतिहासिक स्रोतों पर आधारित है। पुस्तक में जनश्रुतियों, लोक मान्यताओं, सुनी-सुनाई बातों को भी यथेष्ठ स्थान दिया गया है फिर उनकी पड़ताल भी की गई है। 

किसी पुस्तक की उपादेयता में उसकी भाषा की अहम भूमिका होती है। भाषा बोधगम्य (आसानी से समझी जा सकने वाली) और संचरणीय (Communicable) होनी चाहिए। इस पुस्तक में यह विशेषता है। व्याकरण शब्द, वाक्य में शुद्धता चाहता है उसे व्याकरण-दोष क़तई मान्य नहीं; हाँ, भाषा विज्ञान इसमें कुछ रियायत का पक्ष अवश्य लेता है। हिंदी का क्षेत्र बहुत विस्तीर्ण है। इसमें कई विभाषाएँ व बोलियाँ शामिल हैं, इसमें लोक का भी अच्छा दख़ल है। यह हिन्दीतर क्षेत्रों में भी आसानी से बोली व समझी जाती है। इसलिये ‘कोस-कोस पर बदले पानी और चार कोस पर वाणी . . .’ यह कहावत भारत जैसे बहुरंगी और विविधता भरे देश के लिए शब्दश: सटीक बैठती है। इस पुस्तक की भाषा व शैली में क्षेत्रीय टोन (प्रस्तुति का लहजा) का प्रभाव परिलक्षित होता है। जैसे—‘ऐसी औपचारिकता से दूरी बना लिया है’ (पृष्ठ 22) आदि। शैली इतिवृत्तात्मक तो है पर उसमें ऊब नहीं है, व्याख्यात्मक शैली है पर उसमें उपदेशात्मकता नहीं है। यहाँ एक कुल कथा का तानाबाना है, जिसमें अपनी स्वाभाविक आनंदानुभूति है। 

पुस्तक में यत्र, तत्र टंकण की अशुद्धियाँ दृष्टिगोचर हुई हैं। व्यक्ति नाम, स्थान नाम, समूह/अभियान नामों की वर्तनी सम्बन्धी अशुद्धियाँ खटकती हैं। अगले संस्करण में इनमें सुधार किये जाने की आवश्यकता है। 

जहाँ तक शोधपरकता का प्रश्न है तो एडवांस्ड लर्नर डिक्शनरी ऑफ़ करेंट इंग्लिश में शोध के विषय में कहा गया है, “ज्ञान की किसी भी शाखा में नवीन तथ्यों की खोज के लिए सावधानीपूर्वक किए गए अन्वेषण या जाँच-पड़ताल को शोध की संज्ञा दी जाती है।”

एक अन्य स्थान पर शोध की अवधारणा इस प्रकार स्पष्ट की गयी है, “व्यापक अर्थ में शोध या अनुसन्धान (Research) किसी भी क्षेत्र में ‘ज्ञान की खोज करना’ या ‘विधिवत गवेषणा’ करना होता है . . . नवीन वस्तुओं की खोज और पुरानी वस्तुओं एवं सिद्धान्तों का पुनः परीक्षण करना, जिससे कि नए तथ्य प्राप्त हो सकें, उसे शोध कहते हैं। शोध के अंतर्गत बोधपूर्वक प्रयत्न से तथ्यों का संकलन कर सूक्ष्मग्राही एवं विवेचक बुद्धि से उसका अवलोकन-विश्लेषण करके नए तथ्यों या सिद्धांतों का उद्घाटन किया जाता है।”

इस दृष्टि से पुस्तक के कथ्य और तथ्यों में शोध परकता का पर्याप्त पुट है। 

पुस्तक की सामाजिक उपादेयता है। हम अपनी जड़ों से जुड़ें, अपना अतीत जाने और अब तक होते आये परिवर्तनों को बारीक़ी से समझें फिर समयानुसार परिवर्तन को स्वीकार करें, आगे बढ़ें, यही मानवता का तक़ाज़ा है। 

अपने समग्र में ‘अथ चौहान कुल कथा’ कथ्य, शिल्प, भाषा, शोध, सामाजिक उपादेयता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें लेखक की जिज्ञासु वृत्ति, शोध-दृष्टि क़ाबिले तारीफ़ और लेखन-कौशल सराहनीय है। 

डॉ. आर.बी. भण्डारकर 
उप महानिदेशक दूरदर्शन (से. नि.) 
सी-9, स्टार होम्स, रोहित नगर फेस-2भोपाल-39

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टिप्पणियाँ

शम्भु पी सिंह 2024/02/23 09:03 PM

पुस्तक की बहुत ही विस्तृत समीक्षा। समीक्षक ने पुस्तक के हर पक्ष का विस्तार से वर्णन किया है। साधुवाद।

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