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भाषा की ज़रूरत

उक्त शीर्षक पढ़कर मन को उद्वेलित करने वाले कई सवाल उठ सकते हैं, जैसे किसी भाषा को भाषायी पहचान हेतु किन तत्वों की ज़रूरत होती है? भाषा की ज़रूरत किसको है? इन्सानों के अलावा क्या पशु-पक्षियों को भी भाषा की ज़रूरत होती है? यदि होती है, तो किन-किन अवसरों पर और किस-किस रूप में? इन्सानों को किन-किन संदर्भों में भाषा (लिखित और मौखिक) की ज़रूरत होती है? आदि-आदि। लेकिन इस लेख का सीधा-सीधा सम्बन्ध भाषा को पढ़ने-पढ़ाने की ज़रूरत, उसकी आवश्यकता और उसके महत्व से है। बिन भाषा के विभिन्न प्रकार के खेल, बढ़ईगिरि, राजमिस्त्री, मेकेनिक आदि के कौशल तो शायद सीखे जा सकते हैं लेकिन पढ़ना-लिखना सीख पाना संभव नहीं है। यदि किसी बच्चे के संदर्भ में देखा जाए तो वह घर-परिवार, समाज और परिवेश में बहने वाले भाषा रूपी झरने से अपनी आवश्यकता के शब्द सोख कर, धाराप्रवाह बोलना और भाषा को पूर्णत: समझना सीख जाता है। वह अपने ज्ञान के परिवेशीय दायरे में आने वाले अधिकांश विषयों पर बातचीत कर सकता है। तो फिर प्रश्न यही उठता है कि उसको अलग से किसी भाषा के पठन-पाठन की ज़रूरत क्या है? यदि कोई बच्चा परिवेशीय भाषा को पढ़ना-लिखना न भी सीखे तो भी वह अपना जीवनयापन अच्छे से कर ही सकता है। ‘भाषा को पढ़ने-पढ़ाने की ज़रूरत क्यों?’ के साथ ही मन मे एक जिज्ञासा और उठ सकती है कि यदि भाषा ही न होती तो फिर क्या होता? बिन भाषा समाज का स्वरूप कैसा होता? क्या हम फिर भी पढ़-लिख पाते? पढ़ते-लिखते नहीं तो क्या करते? जब बात पढ़ने-लिखने की आ जाती है तो भाषा के साथ लिपि को जोड़कर देखना भी आवश्यक हो जाता है। क्योंकि पुरानी अवधारणा है ‘यदि भाषा आत्मा है तो लिपि उसका शरीर है।’ (जबकि यह आंशिक सत्य ही है।) बिना लिपि के किसी भाषा का पठन-पाठन असम्भव सा है। इसीलिए भाषा के मौखिक रूप की अपेक्षा उसका लिखित रूप अधिक उपयोगी और महत्वपूर्ण माना जाता है। 

यह तो प्रामाणिक रूप से ज्ञात नहीं कि भाषा की उत्पत्ति कब और कैसे हुई होगी? लेकिन इतना सत्य है कि प्रत्येक युग और काल में भाषा ने अपनी स्वीकार्यता को जीवंत रखा है। आज भले ही विज्ञान और तकनीकी का युग हो लेकिन भाषा के महत्व को कोई भी नकार नहीं सकता। विज्ञान और तकनीकी का भी कोई कोना भाषा से अछूता नहीं है। लिखित अक्षरों के कारण ही हम संसार में छिपे ज्ञान-विज्ञान को समझ पा रहे हैं। हजारों साल पुरानी पीढ़ी का ज्ञान हमें भाषा के माध्यम से ही प्राप्त हुआ है। भाषा के माध्यम से ही हम उसे आगे बढ़ा रहे हैं और न जाने यह सिलसिला कब तक ज़ारी रहेगा?   

‘भाषा’ देखने, कहने और सुनने में बड़ा साधारण सा शब्द लगता है लेकिन परिभाषा की दृष्टि से उतना ही जटिल भी है। क्योंकि उसके साथ एक ऐसी फ़ेंटेसीमयी अवधारणा छिपी हुई है जिसे समझना असंभव तो नहीं, लेकिन दुष्कर अवश्य है। आज तक न ज्ञात कितने हज़ार पृष्ठों की सामग्री भाषा को परिभाषित करने और उसकी अवधारणा को समझने में लिखी जा चुकी है और यह सिलसिला अब भी जारी है। वास्तविकता यही है कि जो चीज़ देखने, कहने, सुनने में सरल और सीधी-साधी लगती है, उसे परिभाषित करना उतना ही कठिन होता है। आमतौर पर कहा जाता है कि भाषा ध्वनि और उसके प्रतीकों की ऐसी नियमबद्ध व्यवस्था है जिसमें हम अपनी इच्छाएँ, भावनाएँ, जिज्ञासा आदि व्यक्त करते हैं। कुछ लोग उसे सम्प्रेषण का माध्यम भी कहते हैं। या फिर बोलने की एक ऐसी तरकीब बताते हैं जिसमें हम अपने मनोभाव व्यक्त करते हैं। यह सब कुछ कितना सत्य है मैं विश्वासपूर्वक नहीं कह सकता।
 
ऊपर वाले प्रसंग को दोहराते हुए यदि मैं बच्चे के सन्दर्भ में कहूँ कि जब एक बच्चा परिवेश (माहौल) से भाषा को धाराप्रवाह बोलना, समझना और अपनी इच्छा व्यक्त करना सीख जाता है, तो फिर किसी भाषा को पढ़ना–लिखना सीखने का अतिरिक्त भार उस पर क्यों डाला जाए? मैंने अक्सर विद्यालयों में देखा है कि बच्चा जब अपने परिवेश, रिश्ते-नाते, खेल आदि के बारे में बातचीत करता है तो सहज होता है और हमसे खुलकर बात भी करता है लेकिन जैसे ही उसके साथ अ, आ, क, त आदि या किसी भी भाषा के वर्णों और अमात्रिक-मात्रिक शब्दों पर बात होती है तो हल्का सा भय उसके चेहरे पर अवश्य झलकने लगता है। वर्णों और शब्दों तक तो जैसे-तैसे बातचीत ठीक-ठाक चल भी जाती है लेकिन आगे की डगर उसके लिए और भी कठिन होती जाती है। गहराई से विचारें तो वर्ण, अक्षर, शब्द, मात्रा आदि का एकदम प्रारम्भिक स्तर के कक्षा के बच्चे के लिए कोई विशेष महत्व भी नहीं है। न वह उसके खेल से जुड़ी होती हैं और न खान-पान से। न वह उसकी किसी आवश्यकता को पूरी करती हैं और न उसे कोई आनंद देती हैं। कम से कम प्राथमिक स्तर पर तो कोई भी बच्चा पढ़ने-लिखने को एक बोझ-भार ही मानता है। मैं यहाँ पर बच्चे के पढ़ने-पढ़ाने की बात नहीं करूँगा, क्योंकि इस समय विषय दूसरा है। हालाँकि कृष्ण कुमार की पुस्तक ‘बच्चे की भाषा और अध्यापक’ का अवलोकन करते हुए बच्चे के पढ़ने-लिखने के सन्दर्भ में इसका हल्का सा उत्तर या कहूँ की प्रसंग मुझे मिला भी। वे कहते हैं, ‘भाषा के नाम पर अध्यापक कोई एकदम नई चीज़ नहीं पढ़ा सकता। वह ऐसी परिस्थितियाँ अवश्य रच सकता है जिसमें बच्चे पहले से सीखे हुए भाषाई कौशल जैसे बोलना और सुनना का विकास कर सकें और नए कौशल जैसे पढ़ना और लिखना सीख सकें।’ लेकिन यह मेरी उस जिज्ञासा को शान्त नहीं करता, जिस पर मैं विचार कर रहा था कि आख़िर भाषा को पढ़ना–पढ़ाना ज़रूरी क्यों है? इस मुद्दे पर विचार-मंथन करते हुए जो तथ्य मेरे सामने आए उनसे आप सब को अवगत कराना चाहूँगा। ये तथ्य कितने सटीक हैं, मैं यह तो विश्वासपूर्वक नहीं कह सकता लेकिन भाषा को पढ़ने-पढ़ाने की ज़रूरत को समझने में इन्होंने मेरी मदद अवश्य की है। 

भाषा को सभ्यता-संस्कृति का हिस्सा मानने में शायद ही किसी को कोई कठिनाई हो। उसे सभ्यता और संस्कृति से अलग करके नहीं देखा जा सकता। जिस प्रकार अलग-अलग देशों, क्षेत्रों और वहाँ रहने वाले विभिन्न वर्गों और सम्प्रदाय के लोगों का रहन-सहन, खान-पान, वेषभूषा आदि भिन्न-भिन्न होते हैं वैसे ही उनकी भाषा भी अलग होती है, जो उनकी सभ्यता और संस्कृति की वाहक होती है। भाषा ही वो तंत्र है जो एक भाषी समुदाय को आपस मे जोड़े रखता है। और दूसरों से अलग पहचान दिलाता है। इस कारण भाषा में दोहरी विशेषता मानी गयी है। एक ओर यदि यह जोड़ती है तो दूसरी ओर तोड़ती भी है। भाषा को लेकर बड़े-बड़े विवाद भी होते रहे हैं। भाषा को सभ्यता, संस्कृति और कला-कौशल का परिचायक मानकर लोग उसकी स्थापना के लिए लड़ते-झगड़ते रहे हैं।

साहित्य, संस्कृति, कला और सभ्यता आदि का विकास भाषा से ही संभव हुआ है। अत: यह एक ऐसा रास्ता है जिसके द्वारा एक पीढ़ी अपने अनुभव, अपना ज्ञान-विज्ञान, अपनी खोजें, अपनी कला दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित कर देती है। इसके द्वारा ही हम पूर्वजों की संस्कृति को समझने में सक्षम होते हैं। बहुत सी भिन्नताओं में से यही वह बिन्दु है जो इन्सानों को जानवरों से अलग करता है। चूँकि भाषा किसी देश, जाति, वर्ग, संप्रदाय की सभ्यता, संस्कृति और पहचान का प्रमुख हिस्सा होती है इसलिए भाषा को लोगों की अस्मिता से जोड़कर भी देखा जाता है। हमारी अस्मिताएँ भाषा से ही निर्मित होती हैं। और शायद इंसान अपनी सभ्यता, संस्कृति और अस्मिता की स्थापना व उसको बचाने के लिए भी भाषा का पठन-पाठन करता है और कर रहा है।

भाषा को ज्ञान का वह साधन माना जाता है जो मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। इससे हम भूत के बारे मे जानकारियाँ एकत्रित करते हैं, वर्तमान को समझते हैं और भविष्य के बारे में बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ करते हैं। इतना ही नहीं भाषा को किसी एक दायरे में बाँधकर नहीं देखा जा सकता। एक व्यक्ति या समुदाय अपनी भाषा को देश-परिवेश के दायरे से सुदूर ले जा सकता है और दूसरों की भाषा ग्रहण कर सकता है। अत: भाषा हमें कहीं न कहीं सभ्यता–संस्कृति से जोड़े रखती है। सभ्यता और संस्कृति के अस्तित्व व विकास में भाषा इंसान की महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी जा सकती है। भाषा, सत्ता को स्थापित करने का प्राथमिक टूल है। सत्तायी शक्ति दूसरी बहुत सी चीज़ों से तो आती ही है लेकिन भाषा भी उनमें से एक महत्वपूर्ण संसाधन है। परंतु जब सत्ता बदलती है तो भाषा भी हस्तांतरित हो जाती है। भारत में इसे आर्य, मुग़ल और अँग्रेज़ों के संदर्भ में देखा-समझा जा सकता है।

भाषा का अपना कोई स्वभाव नहीं होता यह जिस भी क्षेत्र में जाती है उसी के जैसी हो जाती है। विज्ञान-तकनीकी में जाएगी तो उसके जैसी, मानवीय-विषयों में जाएगी तो उनके जैसी। इसलिए भाषा दूसरे विषयों तक पहुँचने, उन्हें जानने समझने का टूल है। जब बात पढ़ने-लिखने की आती है तो हमारा ध्यान सीधे किताबों की ओर जाता है। हमारी स्कूली शिक्षा पूरी तरह से किताबों पर ही आधारित है और किताबें किसी न किसी भाषा में ही लिपिबद्ध होती हैं। भाषा के द्वारा शिक्षा के विभिन्न पहलुओं तक पहुँचने के साथ ही सभी विषयों जैसे गणित, विज्ञान, समाजशास्त्र आदि तक पहुँचा जाता है। यहाँ तक कि किसी भाषा को पढ़ने-पढ़ाने के लिए भी भाषा की ही ज़रूरत होती है। भाषा के पठन-पाठन से हमारा मूल प्रयोजन अपने मनोविचारों को व्यक्त करने में सक्षम होना और दूसरों द्वारा कही गयी बात को ठीक से समझ सकने योग्य होना ही है। इसीलिए भाषा को विचारों की संवाहिका माना जाता है। बिन भाषा हम अपनी पूरी बात न किसी को समझा सकते हैं और न उसकी समझ सकते हैं। यदि भाषा पर हमारी पकड़ मज़बूत है तो हम एक बात दूसरे को कई प्रकार से समझा सकते हैं। वरना कई बार अर्थ का अनर्थ हो जाता है।

परिवेश से हम भाषा के कुछ थोड़े से शब्द और कौशल– सुनना, बोलना, सपने देखना आदि सीखते हैं। लेकिन पढ़ने-लिखने के बाद हम गूढ़-गंभीर विषयों पर तर्क-वितर्क करने, कल्पना की ऊँची-ऊँची उड़ाने भरने, साहित्य का रसास्वादन लेने के साथ ही और न ज्ञात कितनी क्षमताएँ हासिल करते (कर सकते) हैं। अत: भाषा सदैव हमारे शब्दकोश में वृद्धि करके भावों और विचारों को पुष्ट करती रहती है। देखा जाए तो सम्पूर्ण संसार भाषामयी विशाल सागर है और जिस मनुष्य को भाषा(ओं) का जितना अधिक ज्ञान होगा वह इसमें उतनी ही दूर और गहराई तक तैर सकेगा। भाषा का अच्छा ज्ञान व्यक्तित्व निर्माण की तो कुंजी होता ही है, जीवन में सफल और ग्राही भी बनाता है। भाषा दूसरे विषयों तक पहुँचने का सबसे अच्छा टूल (माध्यम, ज़रिया) है। भाषा के अतिरिक्त किसी भी विषय की कक्षा सबसे पहले भाषा की ही कक्षा होती है, बाद में उसे दूसरे विषय (Subject) से जोड़ा जाता है। यही कारण है कि जब बच्चा पहली बार स्कूल में प्रवेशित होता है तो उसे पहले-पहल भाषा का ही ज्ञान कराया जाता है, उसके बाद ही दूसरे विषयों की बारी आती है। किसी कक्षा-कक्ष में बिन भाषा के बच्चों के साथ वार्तालाप संभव नहीं है। भाषा की अच्छी जानकारी न होने पर हम किसी भी विषय की गहरी समझ तो हासिल कर ही नहीं सकते, साथ ही कई बार विषयों (subjects) के गंभीर तथ्य (Facts) भी विद्यार्थियों को समझा पाने में असमर्थ हो जाते हैं।

हम सबने यह कथन अवश्य पढ़ा या सुना है कि ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।’ उसके सारे क्रियाकलाप समाज में रहकर ही सम्पन्न होते हैं। बिन भाषा के सभ्य समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हम भाषाई दुनिया में रहते हैं और भाषा से ही अपने काम-काज का संचालन करते हैं। किसी भी समाज के सभी लोगों के चिंतन-मनन और शिक्षा की आधारशिला भाषा ही होती है। बिन भाषा न सामाजिक सम्बन्ध स्थापित हो सकते हैं और न आपसी सहभाव बन सकता है। संसार का सम्पूर्ण ज्ञान-विज्ञान भाषा में ही लिपिबद्ध है। भाषा एक सामाजिक व्यवहार है जिससे समाज के सभी क्रियाकलाप सम्पन्न होते हैं। भाषा ही मानव को समाज में प्रतिष्ठित करती है और उसे इस योग्य बनाती है कि वह अपने सुख-दुख, हर्ष-विमर्ष, भय-क्रोध आदि भावों को दूसरों के सामने प्रस्तुत करने में सक्षम हो सके। आवश्यकताओं की पूर्ति और वस्तुओं के आदान–प्रदान हेतु हम भाषा का ही प्रयोग करते हैं। हमारे सभी सामाजिक उद्देश्य भाषा से ही पूरे होते हैं। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि भाषा है तो समाज है और समाज है तो उसकी कोई न कोई भाषा भी है। सभी राष्ट्रों के संचालन और कामकाज का आधार भाषा ही है। संसार का शायद ही कोई कार्यालय हो जिसका कामकाज भाषा (मौखिक और लिखित) में न होता हो। संसार के सभी बाहरी काम तो हम भाषा में करते ही हैं लेकिन हमारे आंतरिक क्रियाकलाप (विचार, कल्पना, इच्छा-भाव, सपने बुनना आदि) भी भाषा के माध्यम से ही होते हैं। बिन भाषा न कोई विचार पनप सकता और न कोई भाव उजागर हो सकता। यदि भाषा का ज्ञान नहीं है तो संसार सूना है। इस पूरे विवरण को यदि एक वाक्य ‘बिन भाषा सब सून’ में कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी।  

जब से इंसान सभ्य हुआ है और उसने समुदाय में रहना आरभ किया है उसे भाषा की हमेशा ज़रूरत रही है और आगे भी रहेगी। लेकिन जिसने समाज, सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान आदि सबसे नाता तोड़कर मौनव्रत धारण कर लिया हो शायद इसकी इसे ज़रूरत न हो।

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