चाह लम्बी तसल्ली छोटी थी
शायरी | ग़ज़ल ममता बाजपेयी1 Jun 2020
चाह लम्बी तसल्ली छोटी थी
चंद क़तरों में प्यास सिमटी थी
भूख फैली थी इक समंदर सी
चाँद के जैसी इक ही रोटी थी
मुफ़लिसी का महल था घर अपना
बस चवन्नी थी वो भी खोटी थी
आस के आँकड़ों का क्या कहना
जितनी बाँधी थी उतनी टूटी थी
ज़िल्लतों के लबादे लम्बे थे
चमड़ी अपनी भी थोड़ी मोटी थी
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