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घासलेटी आन्दोलन और ’उग्र’

पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ हिन्दी साहित्य में एक विद्रोही कथाकार के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने ऐसे समय में लिखना आरम्भ किया था, जब हिन्दी साहित्य में ‘आदर्शवाद’ का बोलबाला था। साहित्य यथार्थ से अधिक कल्पना में लिखा जा रहा था। ऐसे आदर्शवादी साहित्यिक पृष्ठभूमि वाले वातावरण में जब उन्होंने अपनी क़लम की नोक से समाज के यथार्थ की पोल खोलनी आरम्भ की तो, समाज बिलबिला उठा। क्योंकि ‘उग्र’ के साहित्य में सामाजिक बुराइयाँ अपने नग्न रूप में सामने आयीं थी। इसलिए उनकी बेबाकी और नग्न सच्चाई को कुछ सफ़ेदपोश-आदर्शवादी बर्दाश्त नहीं कर पाए। फलतः उनको सबक़ सिखाने के उद्देश्य से उन्हें बदनाम किया जाने लगा और ताने-उलाहने मिलने लगे। उनके साहित्य पर अशिवत्व, अमर्यादित, आदर्शहीन और अश्लीलता के आरोप लगाए जाने लगे। उनकी सपाटबयानी ने पंडे-पुरोहितों तक में खलबली पैदा कर दी थी। इसलिए जब उन्होंने सुधारवादी कहानियाँ लिखना आरम्भ किया, तो उन्हें पंडे-पुरोहितों की ओर से हाथ-पाँव तोड़ डालने की धमकियाँ भी मिली। इसके कई प्रमुख कारण थे, प्रथम तो उन्होंने समाज के उस वर्ग को अपने साहित्य का आधार बनाया था, जिसे दलित, पतित, नीच वर्ग कहा जाता था। उस समय तक यह वर्ग साहित्य की परिधि से दूर था। अतः उनको मर्यादाहीन साहित्यकार समझा गया। 

दूसरा, उन्होंने समलैंगिकता जैसा एक ऐसा विषय चुना था, जिसका साहित्य में उस समय नाम लेना भी अपराध समझा जाता था। इस विषय को जब उन्होंने अपने कथा-साहित्य की विषयवस्तु के रूप में चुना तो साहित्य में भूचाल सा मच गया। उनके ‘चाकलेट’ नामक कहानी संग्रह की लगभग सभी कहानियों का प्रमुख विषय था- समलैंगिकता, अमानुषिक व्यभिचार, अप्राकृतिक यौन संबंध। उस समय तक यह विषय वर्जित समझा जाता था। अतः समस्त हिन्दी समाज दो वर्गों में विभक्त हो गया। एक यदि ‘उग्र’ के पक्ष में हो गया तो दूसरा उनकी जमकर आलोचना करने में जुट गया। ‘चाकलेट’ के अलावा दिल्ली का दलाल, बुधुआ की बेटी, फागुन के दिन चार जैसी उपन्यास कृतियों के माध्यम से भी ‘उग्र’ ने सामाजिक विडंबनाओं, कुरीतियों, स्त्री-पुरुष के यौन संबंध, समलैंगिकता जैसे विषयों पर क़लम चलाई। अतः वर्जित विषयों पर लिखने के कारण वे साहित्यिक बिरादरी में अछूत हो गए। आलोचक-पंडितों का एक वर्ग जैसे जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी, ईश्वरी प्रसाद शर्मा, सकल नारायण पांडेय, कृष्ण बिहारी मिश्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, ज्योति प्रसाद मिश्र, रूप नारायण पांडेय और यहाँ तक कि युवा लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी तक उनको अपनी-अपनी हैसियत से धिक्कारने लगे।

‘उग्र’ का सर्वाधिक मुखर विरोध किया ‘विशाल भारत’ के संपादक पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने। उन्होंने ‘उग्र’ के साहित्य को ‘घासलेटी साहित्य’ की संज्ञा दी। हिन्दी साहित्य कोष, भाग-1 के अनुसार, “घासलेटी का अर्थ है- निकृष्ट, निकम्मा, गंदा। अनैतिकता को प्रश्रय देने वाला तथा लैगिंक विकृतियों को चित्रित करने वाला साहित्य।” चतुर्वेदी जी ने ‘उग्र’ के बहिष्कार हेतु लम्बे समय तक घासलेटी नामक आन्दोलन चलाया। चाकलेट, दिल्ली का दलाल, बुधुआ की बेटी जैसी उस समय अश्लील और विवादास्पद मानी जाने वाली पुस्तकों को हाथ में लिए हुए, ‘उग्र’ के ‘विशाल भारत’ में कार्टून छापे। उन कार्टूनों में जंगली और असभ्य पुरुषों द्वारा ‘उग्र’ की पुस्तकों का स्वागत करते हुए दिखाया गया और सभ्य पुरुषों द्वारा नाक-मुँह सिकोड़ते हुए। परिणाम स्वरूप चाकलेट, दिल्ली का दलाल, बुधुआ की बेटी आदि पुस्तकों में वर्णित विषयों को लेकर विद्वानों में विविध मत प्रचलित हुए। किसी ने ‘उग्र’ की तरफ़दारी की तो किसी ने मुखर विरोध किया। ‘चाकलेट’ की कहानियों को ईर्ष्या से पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने भ्रष्ट, अश्लील और कामुक बताया। क्योंकि उनका आदर्श महावीर प्रसाद द्विवेदी का आदर्श था, जो ‘जूही की कली’ जैसी कविता को भी अश्लील घोषित करता था। 

शिक्षण संस्थाओं, बाल संस्थाओं में हो रहे बालकों के यौन-शोषणों को उद्देश्य करके ‘चाकलेट’ की कहानियाँ लिखी गयीं थीं। जिसका एक उदाहरण देखिए, “वह शख्स इस फन का पूरा उस्ताद है। त्याग और प्रेम के जाल में बालकों को फँसाता है। परन्तु सुंदर बालकों को। जिसे रूप है, वही उसकी क्लास का मॉनिटर है। जिसे रूप है वही गालों पर कोमल चांटे खाकर ‘स्टैंड अप ऑन द बेंच’ के ऑर्डर से बच सकता है। बेचारे बद-शक्लों की उसके राज्य में मौत ही समझिए।” इस प्रकार की पंक्तियाँ पढ़कर आदर्शवादी तिलमिला गए। वे ‘उग्र’ को छिछोरा और लौंडेबाज़ तक कहने लगे। लेकिन समस्त मतवाला मंडल, सरस्वती पत्रिका, भारत, सरोज, हिन्दी पंच, नवयुग जैसे पत्रों ने ‘उग्र’ का खुलकर समर्थन किया। कुछ आलोचक इसे सुधारवादी साहित्य मानकर इसके समर्थन में खड़े हुए। मतवाला मंडल को समलैंगिकता के ऊपर बहुत सी कहानियाँ, कुछ शिकायती और कुछ प्रशंसात्मक पत्र प्राप्त भी हुए। सरस्वती पत्रिका ने चाकलेट आन्दोलन पर विनोद करते हुए लिखा, “जो इतने निर्बल चरित्र हैं कि एक कहानी पढ़ते ही मोरी में गिर पड़ते हैं उनका भगवान ही मालिक है। ऐसे निर्बल चरित्रवालों के लिहाज से कोई लेखक अपने कला प्रदर्शन द्वारा समाज का उपकार करने के कार्य से कैसे विमुख हो सकता है?” दूसरी ओर पशुवृत्ति वाले लोगों का पर्दाफ़ाश हुआ तो समाज में हड़कंप सा मच गया। लोगों ने अपने-अपने ढंग से ‘उग्र’ की आलोचना आरम्भ कर दी। उनके के निजी जीवन और लेखन को लेकर अख़बारों द्वारा उन पर कड़े प्रहार किए जाने लगे। उनके चरित्र पर कीचड़ उछालने लगे। उनके उपन्यासों और कहानियों को अश्लील, समाज संहारक, उद्देश्यहीन, भोंडा और पागल का प्रलाप घोषित करने लगे।

इस मामले ने इतना तूल पकड़ा कि बनारसीदास चतुर्वेदी ने महात्मा गाँधी जैसे युग-पुरुष को भी घासलेटी आन्दोलन में खींच लिया। उन्होंने सन् 1926 में गाँधी जी को एक नोट लिखकर भेजा और इस प्रकार के साहित्य की निंदा करने को कहा। गाँधी जी ने चाकलेट के संबंध में चतुर्वेदी जी को लिखा कि “चाकलेट” नामक पुस्तक पर जो पत्र आपने लिखा था, उसके विषय में मैंने ‘यंग इंडिया’ को नोट लिखकर भेज दिया है। पुस्तक को नहीं पढ़ा था, टीका केवल आपके पत्र पर निर्भर थी, मैंने सोचा इस प्रकार टिप्पणी करना ठीक नहीं, पुस्तक पढ़नी चाहिए। मैंने पुस्तक आज समाप्त की है, मेरे मन पर जो प्रभाव पड़ा वह आप पर नहीं पड़ा। लेखक मानवीय व्यवहार पर घृणा पैदा करता है। पुस्तक का मक़्सद पाक-नेक है और इस अमानवीय कृत्य के प्रति लेखक क्रांति पैदा करता है।” गाँधी जी के ये विचार पढ़ते ही चतुर्वेदी जी दौड़ते हुए वर्धा पहुँचे। अनेक पुस्तकों से गाँधी जी के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत किए। गाँधी जी ने चतुर्वेदी जी के दृष्टिकोण से सहमति जताई और एक बयान जारी कर दिया। जिसमें इस प्रकार के साहित्य की निंदा की गई। यह सब जानकर ‘उग्र’ को बड़ा धक्का लगा और वे हिन्दी साहित्य से अलग होकर मुंबई फ़िल्मी जगत में चले गए।

बनारसी दास चतुर्वेदी जैसे नैतिक, ज़िम्मेदार पत्रकार और साहित्यकार ने न ज्ञात किस रणनीति के तहत गाँधी जी के उस वास्तविक नोट को पूरे बाईस वर्ष छिपाए रखा जिसमें गाँधी जी ने ‘उग्र’ की पुस्तक का उद्देश्य पाक-नेक और सुधारवादी माना था। चतुर्वेदी जी ने सन् 1951 के हिंदुस्तान में ‘पूज्य बापू के रूप में’ शीर्षक लेख में ‘घासलेट का सच’ उपशीर्षक से गाँधी जी का वह पत्र पहली बार व्यक्त किया। गाँधी जी ने इस पुस्तक का हेतु शुद्ध, पाक-नेक माना था। चतुर्वेदी जी ने गाँधी जी का वह पत्र उस समय न प्रकाशित करके बड़ा अनर्थ किया था। क्योंकि इससे ‘उग्र’ जी को बड़ी बदनामी मिली थी, सम्भवतः इसके पीछे एक विचारणीय षड़यंत्र था।

घासलेटी साहित्य को लेकर हिन्दी जगत में अनेक बहसें हुई। उस समय का शायद ही कोई पत्र रहा हो, जिसमें ‘घासलेट या चाकलेट’ संबंधी चर्चा न छपी हो। ‘उग्र’ को बदनामी के साथ ही लोकप्रियता भी ख़ूब मिली। क्योंकि चाकलेट का प्रकाशन होते ही हिन्दी जगत में हलचल छा गयी थी। कलकत्ते में पुस्तकों की दुकानों पर बड़े पैमाने पर चाकलेट और दिल्ली का दलाल की बिक्री हो रही थी और प्रकाशित संस्करण समाप्त होते जा रहे थे।

‘उग्र’ पर घोर अश्लीलता और आदर्शहीना के आरोप लगते रहे, परन्तु वे दुगने उत्साह के साथ विरोधियों का सामना करते रहे। उनके पढ़ने वालों के लिए अज्ञात नहीं रह सकता कि उन्हें धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और कामोद्दीपक अत्याचारों के विरुद्ध खड़े होने के लिए ही निरंकुश, नग्न और उग्र होना पड़ा था। वे ख़ुद सब कुछ झेलकर खड़े हुए थे। पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने इस प्रकार के साहित्य की निंदा करते हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा जैसी संस्थाओं और श्रीधर पाठक, पद्मसिंह शर्मा, पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे गणमान्य व्यक्तियों से भी ऐसे साहित्य की अवहेलना करने को कहा। इसीलिए मुजफ्फरपुर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अवसर पर पं. पद्मसिंह शर्मा की अध्यक्षता में घासलेटी साहित्य के विरोध में प्रस्ताव पास किया गया। सम्मेलन में उपस्थित अन्य गणमान्य व्यक्तियों ने भी घासलेटी साहित्य की अवहेलना की। प्रेमचंद ने भी इस साहित्य को हानिकारक माना। उनका मानना था कि चाकलेट आदि को रोकने के लिए सबसे अच्छा तरीक़ा पंफ्लेट छापना है। साहित्य में उसे लाने की आवश्यकता नहीं।

‘चाकलेट’ के कारण ‘घासलेटी आन्दोलन’ से चिढ़कर सन् 1930 में ‘उग्र’ फ़िल्मी जगत से जुड़ गए थे और 1938 तक वहाँ रहे। वे फ़िल्मों में संवाद, पटकथा और गीत आदि लिखने लगे। उनकी लिखी फ़िल्मी कहानियाँ अश्लील होती थीं, लेकिन उनकी माँग सदैव बनी रहती। जब वे ‘सागर फिल्म कंपनी’ के लिए फ़िल्मी कहानियाँ लिख रहे थे, उस समय उनकी भेट आचार्य चतुरसेन शास्त्री से हुई। एक रात चतुरसेन जी, ‘उग्र’ के साथ शूटिंग देखने चले गए। ‘उग्र’ द्वारा लिखी फ़िल्म कहानी के अश्लील दृश्य देखकर वे हतप्रभ रह गए। वापस घर लौटकर उन्होंने ‘उग्र’ के विरुद्ध ‘विशाल भारत’ को एक लेख लिखा। इस समय तक घासलेटी आन्दोलन का मामला कुछ शांत हो चला था। बनारसी दास चतुर्वेदी प्रेमचंद के समक्ष प्रतिज्ञा कर चुके कि अब ‘उग्र’ के विरुद्ध कुछ नहीं लिखेंगे, लेकिन शास्त्री जी का पत्र मिलते ही वे अपनी प्रतिज्ञा भूल गए और उन्होंने फिर से ‘उग्र’ के विरुद्ध ‘घासलेटी आन्दोलन’ छेड़ दिया। 

अश्लीलता, अशिष्टता और अशिवत्व के जितने दोष ‘उग्र’ की रचनाओं पर आरोपित किए गए, उससे ज्ञात होता है कि वे विद्वेषपूर्ण आलोचना के शिकार थे। उनका अधिकांश साहित्य समाज की कुरीतियों पर प्रहार करता है और नैतिकता, सहानुभूति, मनुष्यता के शाश्वत मूल्यों की स्थापना करता है। वैसे ‘हिन्दी साहित्य कोष’ में छपी महेन्द्र भटनागर की यह उक्ति भी ध्यान खींचती है कि “उग्र के साहित्य की भर्त्सना आदर्शवादी-नीतिवादी समीक्षकों की ओर से होना स्वाभाविक है। ‘उग्र’ ने अपनी रचनाओं का मन्तव्य यही बताया कि वे समाज की निकृष्टताओं को प्रोत्साहित करने के लिए नहीं प्रत्युत उनके प्रति अरुचि उत्पन्न करने के लिए लिखी गयी हैं।” आरोप झेलते हुए भी ‘उग्र’ ने कभी किसी की निंदा नहीं की। वे दृढ़ और स्पष्टवादी साहित्यकार थे। उन्होंने जो कुछ लिखा उसका उद्देश्य यश, प्रतिष्ठा और अर्थोपार्जन नहीं, सत्साहित्य सृजन ही है। समाज की सारी बदसूरती पर ज़ोरदार आक्रमण करना और जीवन मूल्यों की रक्षा करना उनके साहित्य लेखन का अभीष्ट है। बुद्धिवाद के इस युग में जहाँ आज गर्भपात जैसी वस्तु भी मूल्यहीन नहीं रह गई है, जिससे अस्तित्व को ही ख़तरा पैदा हो गया है। उसके सन्दर्भ में यदि आज उनके साहित्य का पूनर्मूल्यांकन करें तो वह निर्दोष, श्लील और शिष्ट दिखाई देता है। उनके साहित्य पर लगाए आरोप आज बड़े हास्यास्पद लगते हैं। लेकिन वास्तविकता यह भी है कि घासलेटी आन्दोलन से संबद्ध विभिन्न पत्रों में प्रचारित विवादों को देखने से ज्ञात होता है कि इस आन्दोलन ने हिन्दी में तुलनात्मक आलोचना का नया मानदंड स्थिर किया था।

सन्दर्भ-

    1. ‘उग्र’ का परिशिष्ट- डॉ. भवदेव पांडेय 
    2. ‘उग्र’ और उनका साहित्य- डॉ. रत्नाकर पांडेय 
 

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