मज़हबी
शायरी | ग़ज़ल अंजुम कानपुरी5 Mar 2016
सजदे में सर, सजदे में नहीं ज़िन्दगी तो क्या
कुछ इस तरह होती है मेरी, बन्दगी तो क्या
शब्दों में कान, कानों में शब्द हुआ नहीं मेरा
क़ाबिले-पेश न रही, दिल की कली तो क्या
शब्द = भजन; क़ाबिले-पेश = अर्पण-योग्य
होना था मश्ग़ूल-ए-हक़, मगर हो क्या गया
सू-ए-ज़न ही फिर रही, मेरी बेख़ुदी तो क्या
मश्ग़ूल-ए-हक़ = सत्य के लिए रत; सू-ए-ज़न = अविश्वास, संशय, पक्षपात
मानिन्द-ए-बर्क-ए-फ़लक़, आया गया यहाँ
इक पल न रही आपसे ये आशिकी तो क्या
मानिन्द-ए-बर्क-ए-फ़लक़ = आसमानी बिजली की तरह
जाना नहीं माना नहीं, 'अंजुम' को ग़म बड़ा
यूँ कहता रहूँ मैं हो गया हूँ, मज़हबी तो क्या
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