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परंपरा

रात मरहाराम ने एक सपना देखा। एक व्यक्ति काफी दिनों से बीमार था। बचने की उम्मीद नहीं थी। संयोग से उसके घर एक सिद्ध पुरुष का आगमन हुआ। उन्होंने उसे एक औषधि दिया। उस औषधि के सेवन से वह स्वस्थ हो गया। औषधि

की कृपा से उस समय उसने मौत को जीत लिया था। औषधि पर श्रद्धा हो जाना स्वाभाविक था। वह उसकी पूजा करने लगा।

मरते वक्त उसने अपने पुत्र से कहा कि इस औषधि को वह संभाल कर रखे, पता नहीं कब आवश्यकता पड़ जाय। पुत्र ने पिता की परंपरा का निर्वाह किया। वह जीवन भर उसकी श्रद्धापूर्वक पूजा करता रहा। बीमार पड़ने पर भी उसने उस

औषधि का सेवन नहीं किया। उनके बच्चों ने भी उसकी परंपरा का निर्वाह किया।

अगली पीढ़ी को बस इतना ही पता था कि यह एक दिव्य वस्तु है। पूर्वज इसकी पूजा करते आये हैं इसलिये इसकी पूजा करन उनका भी धर्म बनता है। इससे पुण्य लाभ होता है।

एक बार उस परिवार का मुखिया उसी रोग से पीड़ित हो गया जिससे कभी उसका पूर्वज ग्रसित हुआ था। जिस दिव्य वस्तु की वह रोज़ पूजा करता था, उसके सेवन से वह रोग मुक्त हो सकता था, परंतु उसने ऐसा नहीं किया। दिव्य वस्तुएँ पूजा के लिए होती हैं, सेवन करने के लिए नहीं। वह कालकवलित हो गया।

उस औषधि का नाम था, ईश्वर।

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