पी गये उधार में
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी समीर लाल 'समीर'31 May 2008
जिस किसी ने भी जीवन में कभी इश्क़ में चोट खाई हो या किसी को खाते हुए देखा, पढ़ा या सुना हो, उन सभी को आमंत्रण है। आइये, आइये-महफ़िल सजी है। ग़ज़ल चल रही है, सुनिये। दाद दिजिये, हालात पर थोड़ा दुख जताइये और महफ़िल की शोभा बढ़ाइये। बाक़ी बचे भी आमंत्रित हैं। कुछ अनुभव ही बढ़ेगा। ऐसी द्विव्य बातें और महफ़िलें बार-बार तो होती नहीं।
वैधानिक चेतावनी: थोड़ा मार्मिक टाईप है। आँख से अश्रुधार बह सकती है, रुमाल ले कर बैठें। वरना क्म्प्यूटर के कीबोर्ड में आँसू गिरने से शार्ट सर्किट हो सकता है। :)
तब अर्ज किया है:
सो गया मैं चैन से
रात भर दबा के पी, खुल्लम खुल्ला बार में
सारा दिन गुज़ार दिया बस उसी खुमार में
ग़म ग़लत हुआ ज़रा तो इश्क़ जागने लगा
रोज़ धोखे खा रहे हैं जबकि हम तो प्यार में।
कैश जितना जेब में था, वो तो देकर आ गये
बाक़ी जितनी पी गये, वो लिख गई उधार में।
यों चढ़ा नशा कि होश, होश को गँवा गया
और नींद पी गई उसे बची जो जार में।
वो दिखे तो साथ में लिये थे अपने भाई को
गुठलियों भी साथ आईं, आम के अचार में।
याद की गली से दूर, नींद आये रात भर
सो गया मैं चैन से चादर बिछा मज़ार में।
हुआ ज़फ़र के चार दिन की उम्र का हिसाब यूँ
कटा है एक इश्क़ में, कटेंगे तीन बार में।
होश की दवाओं में, बहक गये समीर भी
फूल की तलाश थी, अटक गये हैं खार में।
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