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क़िस्सा-ए रामलाल-श्यामलाल

वैसे तो हर शहर, हर प्रदेश, हर मुल्क में रामलाल-श्यामलाल जैसे लोग पाए जाते हैं पर मेरे यूनिट में जो रामलाल-श्यामलाल नामक जीव हैं, वे हर मायने में बेजोड़ हैं। बेजोड़ से मेरा अभिप्राय इनके अद्वितीय कारनामों से है। वैसे तो रामलाल पूरा गऊ है पर जब पीता है तो "गोल्लर" (सांड) हो जाता है। सामने जो आये, पटक देता है। उसके इस ख़ास गुण से बड़े अधिकारी भी ख़ासा परिचित हैं, इसलिए उससे थोड़ी दूरी बनाये "मीडियेटर’ के ज़रिये काम लेते हैं। वैसे रामलाल है तो पेंटर के पद पर लेकिन है एक कुशल आर्टिस्ट। उसके बनाये चित्र सचमुच बोलते हैं। उसके आर्ट का सभी लोहा मानते हैं,पर दारु पीने के बाद गरम लोहे-सा हो जाता है। कोई उस पर हाथ भी धरा कि हाथ जला। समय-बेसमय पीने का शौकीन हैं। कभी भी, कहीं भी "मार" लेता हैं। बड़े लोगों की तरह कोई फ़िक्स टाइम-टेबल नहीं।

अब श्रीयुत श्यामलालजी से मिलें- यूनिट के जांबाज़ वर्कर हैं (ऐसा वे मानते हैं)। अपने कार्यस्थल पर बहुत कम पाए जाते हैं (ऐसा उनके सहयोगी कहते हैं) यूनिट के सभी कार्यक्रमों में दख़ल रखते हैं। दूसरे यूनिट के कार्यक्रमों में भी इनकी बेख़ौफ़ उपस्थिति रहती है। इसके अलावा प्लांट के बाहर भी सभी कार्यक्रमों में ये बिना आमंत्रण-निमंत्रण के पाए जाते हैं। "रहने को घर नहीं, सारा जहाँ हमारा है" जैसे फ़लसफ़े को आत्मसात कर कहते हैं- प्लांट का कार्यक्रम- हमारा अपना कार्यक्रम, भला अपने कार्यक्रम में आमंत्रण-निमंत्रण की क्या आवश्यकता? जलसा हो या उद्घाटन, क़व्वाली हो या कवि-सम्मलेन, सभी जगह ये पाए जाते हैं। वी.आई.पी. के साथ (मुफ़्त) फ़ोटो खिंचवाने में इन्हें महारत हासिल है। फ़ोटोग्राफ़रों के बीच इनकी ख्याति "घुसपैठिये" जैसी है। आज तक बेचारे समझ नहीं पाए कि ये महोदय फ़्रेम में कब और कैसे एंट्री मारते हैं। चुनकर ऐसी जगह घुसते हैं कि उसे "डीलीट" भी नहीं किया जा सकता। फिर दूसरे दिन सुबह–सुबह अख़बारों में अपनी तस्वीर तलाशते फिरते हैं। कई सालों से यह सिलसिला चला आ रहा। प्लांट के लोग अख़बारों में वी.आई.पी. की तस्वीर बाद में देखते हैं, पहले श्यामलाल को खोजते हैं। और श्यामलाल भी इतने उदार हैं कि मिल ही जाते हैं।

तो क़िस्सा यूँ है कि एक बार हम तीनों, कंपनी द्वारा बोकारो में आयोजित "क्वालिटी-सर्कल" कम्पीटीशन में शिरकत कर ईनाम जीतने में सफल रहे। मुझे पाँच हज़ार रुपये नगद के साथ प्रमाणपत्र, रामलाल को तीन हज़ार रुपये नगद के साथ प्रमाणपत्र और श्यामलाल को एक शील्ड के साथ प्रमाणपत्र मिलना तय हुआ। कंपनी स्थापना दिवस के दिन, हेड-आफिस कोलकाता में यह ईनाम मिलना मुक़र्रर हुआ। हमारी यूनिट को भी दो-तीन एवार्ड मिलने थे जिसे ग्रहण करने एक जी.एम.का भी जाना तय हुआ।

हम तीनों ट्रेन से कोलकाता पहुँचे। जी.एम. साहब "इंडिगो" की फ़्लाइट से हमसे पहले पहुँचे। पार्क होटल के कन्वेंशन हाल में कार्यक्रम होना था। उस दिन अच्छी-ख़ासी भीड़ थी वहाँ। पूरा हाल सूटेड-बूटेड लोगों से भरा पड़ा था। हमारे बैठने की व्यवस्था काफ़ी पीछे की ‘रो’ में थी। मंच से काफ़ी दूर थे हम। कार्यक्रम शुरू होने में अभी दस मिनट बचे थे कि एकाएक रामलाल लापता। जिस बात का डर था, वही हो गया। अब करते क्या और उसे खोजते कहाँ? मैं और श्यामलाल - जी.एम. साहब के साथ अपनी निर्धारित सीट पर बैठ गए। कार्यक्रम शुरू हुआ- पुष्प-गुच्छ भेंट, स्वागत-गान, लेम्प-लाइटिंग, वेलकम-स्पीच सब निकल गया पर रामलाल नहीं आया आख़िरकार पुरस्कार-वितरण शुरू हो गया। हम सतर्क हो गए। क्या मालूम कब नाम आ जाए। तभी अचानक रामलाल को मंच के पास वाले गेट से घुसते देखा। मद्धिम रोशनी में वह सीट तलाश रहा था। फिर देखा- वह दूसरी पंक्ति की किसी खाली सीट में हौले से धँस गया। एकबारगी मैं डर गया कि कहीं वह कोई नाटक न क्रियेट कर दे। उसके क्रिएटिविटी से मैं वाकिफ़ था। पीने के बाद वह "सुपरमैन" हो जाता था। मेरा पूरा ध्यान उसी पर केंद्रित था कि अचानक पुरस्कार लेने के लिए श्यामलाल के नाम की घोषणा हुई। इधर श्यामलाल अपनी बहादुरी के कारनामे जी.एम. साहब के कान में बुदबुदाने में व्यस्त था। मैंने उसे कोहनी मार इशारा किया। तभी देखा- रामलाल मंच में चढ़कर मुख्य-अतिथि के कर-कमलों से शील्ड और प्रमाणपत्र ग्रहण कर फ़ोटो खिंचा रहा है। इधर श्यामलाल लगभग दौड़ते-दौड़ते मंच की ओर लपका। लेकिन पहुँचते-पहुँचते वह "एपिसोड" ख़त्म हो गया। उद्घोषक किसी और नाम की घोषणा कर रहा था।

श्यामलाल उदघोषक के पास पहुँच उसे इशारे से समझाने की कोशिश करने लगा कि उसका पुरस्कार कोई और ले गया। उदघोषक भी "तो मैं क्या करूँ?" वाली मुद्रा में इशारा किया- "जाओ बाद में देखते हैं" बेचारा श्यामलाल मुँह तमतमाए और लटकाए पुनः अपनी सीट पर आकर कातर दृष्टि से मेरी ओर तकने लगा। लगा जैसे कह रहा हो- पहली बार तो व्यक्तिगत बड़ा पुरस्कार मिला, उसे भी वो बेवड़ा ले गया, अब प्रेस में क्या छपवाऊँगा- बाबाजी का ठुल्लू? मैंने इशारा किया- "शांत रहो। कुछ करते हैं।" पाँच मिनट बाद रामलाल के नाम की घोषणा हुई। पुनः रामलाल फुर्ती से चढ़ा और पुरस्कार ग्रहण कर फ़ोटो खिंचवाया। फिर यूनिट-अवार्ड के लिए जी. एम. साहब के नाम की घोषणा हुई। हम तीनों मंच तक पहुँचे नहीं कि रामलाल पहले ही चढ गया और जी.एम. के बगल में खड़े हो, शील्ड पकड़ फ़ोटो खिंचाया। यूनिट को तीन अवार्ड मिले- तीनों बार रामलाल ने अपने फ़ुरतीलेपन का सबूत दिया। कार्यक्रम समाप्त हुआ तो रामलाल ने राहत की साँस ली जैसे उसी ने सब कुछ निपटाया हो। इधर श्यामलाल का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर था। रामलाल को गाली पे गाली दिए जा रहा था और मुझसे ‘कुछ करने’ की गुजारिश कर रहा था। मैंने रामलाल को चमकाया- "क्यों बे? इसके नाम का पुरस्कार लेने तू क्यों चढ गया?" तो जवाब मिला- "अरे। मुझे लगा कि मुझे पुकारा गया इसलिए चला गया।" मैंने कहा- "अच्छा ठीक है, एक बार जब तूने ले लिया तो दोबारा क्यों गया?"

उसका उत्तर था- "मेरा नाम पुकारा गया तो मैं क्यों न जाता?"

उसके जवाब से मेरा दिमाग़ गरम होने लगा। मैंने कहा- "साले। इस बेचारे का फ़ोटो ही नहीं हुआ। और तू दो-दो बार खिंचवा लिया। अब यूनिट में "बॉस" को क्या दिखाएगा? ठीक है। अब चल। इसका पुरस्कार इसे सौप दे।" वह कुछ नकारात्मक मुद्रा में दिखा। मैंने उसे "आप्शन" दिया- "अच्छा। शील्ड तू रख ले। अपना वाला पुरस्कार – तीन हज़ार रुपये इसे दे दे।" इतना कहना भर था कि उसने फ़ुर्ती से शील्ड रामलाल को सौंप दी।

मैंने श्यामलाल को समझाया कि मुख्य-अतिथि से फ़ोटो के लिए बात करता हूँ, तुम कहीं मत जाना, यहीं रहना। अवसर देखकर मुख्य-अतिथि को क़िस्सा-ए रामलाल-श्यामलाल समझाया, वे तुरंत समझ गए, बोले- "हाँ,हाँ ले आइये उसे। हम तो यहाँ आये ही हैं इसी काम के लिए।" जब श्यामलाल को लेकर अतिथि के पास पहुँचा तो वहाँ फ़ोटोग्राफ़र को ग़ायब पाया। मुख्य-अतिथि से माफ़ी माँगते अविलम्ब फ़ोटोग्राफ़र लाने की बात कहते बाहर गेट की तरफ लपका। सौभाग्य से वह फ़ोटो-सेशन करते दिख गया। उसे माजरा समझाया कि जल्दी चलो नहीं तो चीफ़-गेस्ट चला जायेगा। मुझे डर था कि कहीं चीफ़-गेस्ट चला गया तो श्यामलाल ‘ऊपर’ न चला जाये। फ़ोटोग्राफ़र मिनटों में पहुँच गया। येन-केन-प्रकारेण अब सब कुछ नार्मल था। मैं भी और श्यामलाल भी। फ़ोटोग्राफ़र कैमरा लिए श्यामलाल को अतिथि के साथ पोज़ कराकर "रेडी" बोला ही था कि अचानक फ़्रेम के अंदर रामलाल घुस गया। मुख्य-अतिथि और श्यामलाल के बीच शील्ड के पीछे खड़ा ही हुआ कि कैमरा "क्लिक"हो गया और मुख्य-अतिथि "जयहिंद" बोलते चले गए। फ़ोटोग्राफ़र भी ओ.के. कहते खिसक गया।

मैं और श्यामलाल एक-दूसरे को तकते स्तब्ध खड़े रहे और सामने "हँसता हुआ नूरानी चेहरा" लिए रामलाल शील्ड थामे मुस्कुराता रहा। दो मिनट बाद ही मैं नार्मल हो गया और मन ही मन हँसा कि श्यामलाल जैसे घुसपैठिये को उसने एक ही बार में छठी का दूध याद दिला दिया। सौ सुनार की तो एक लौहार की।

आज भी श्यामलाल इस घटना को याद कर तमतमा जाता है... और रामलाल है कि आज तलक नहीं समझ सका कि श्यामलाल को अलबर्ट पिंटो की तरह ग़ुस्सा क्यों आता है।

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