संकल्प
कथा साहित्य | लघुकथा प्रमोद यादव8 Jan 2019
रोज़ देखता कि जैसे ही वह दुकान खोलता, पहले तिजोरी खोल धूप-बत्ती करता। श्लोक-वोक पढ़ता। फिर गद्दी के ऊपर दीवाल में टँगी देवी-देवताओं की फोटुओं को हाथ जोड़ प्रणाम करता। इतना कुछ करते ही रहता कि तेरह साल का छोटू बिला नागा उसी समय नीबू और हरी मिर्च की माला लिए पहुँच जाता। नीबू–मिर्च की माला ले मन्त्र-जाप करते एक पाँच का सिक्का वह उसकी हथेली पर धरता और कुर्सी खींच उसमें चढ़कर मेन गेट के बीचों-बीच माला टाँग देता। फिर छोटू आगे की दूकान तरफ बढ़ जाता। और वह अपने काम में लग जाता। यह रोज़ का सिलसिला था।
एक दिन मैंने दोस्त से पूछा कि क्या तुमने कभी छोटू से बातचीत की है? तो उसने सिर हिलाया- "नहीं।"
फिर उसी ने पूछा- "क्यों पूछ रहे हो? भला उससे क्यों बात करूँ और क्या बात करूँ? ग़रीब लड़का है। रोज़ नीबू-मिर्च लिए आ जाता है तो रख लेता हूँ। सारे लोग रखते हैं तो मैं भी रख लेता हूँ।"
"केवल इसिलए रख लेते हो कि सभी रखते हैं या फिर टोना-टोटका मानते हो?"
"अरे नहीं यार। मैं इसलिए रखता हूँ कि वह ग़रीब है। पर औरों की तरह भीख तो नहीं माँग रहा। वह मेहनत करता है। अपनी मेहनत का खाता-पीता है।"
"क्या सचमुच ही वह ग़रीब है?" मैंने पूछा।
"अरे ग़रीब है तभी तो ये काम करता है। वर्ना ये तो उसके पढ़ने-लिखने के दिन हैं। और फिर उसे तो चार साल से ऐसे ही देख रहा हूँ। कभी ढंग के कपड़े भी नहीं पहनता।"
"अच्छा ये बताओ क्या तुमने कभी उससे उसके घर-परिवार के बारे में कुछ पूछा है?"
"अरे इतनी फुर्सत नहीं यार। सुबह-सुबह बोहनी करूँ कि उससे बातें करूँ? मैंने आज तक न कभी उससे कोई बात की। न ही कुछ पूछा। पर तुम बताओ, तुम ये सब क्यों पूछ रहे हो? "
"अब रहने भी दो यार। सुनकर तुम्हें धक्का लगेगा।"
"अरे यार। पहेली मत बुझाओ। बताओ। बात क्या है?"
"बात ये है बुद्धू कि जिसे तुम ग़रीब समझे हो वो पड़ोस वाले गाँव के एक खाते-पीते संपन्न घर का लड़का है। उनकी एक दिन की कमाई तुम्हारे महीने भर की कमाई से ज़्यादा है। अभी-अभी ही मुझे पता चला है।"
"नहीं यार। ऐसा हो ही नहीं सकता। एक संपन्न घर का लड़का भला इतना छोटा काम क्यों करेगा?"
"शायद तुम्हें मालूम नहीं पर हरेक सफल कारोबारी जानता है कि काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता। बस, उसे लगन और प्रेम से चुपचाप करते रहो तो सफलता क़दम चूमती ही है। और छोटू यही करता है।"
"नहीं यार। तुम झूठ बोल रहे हो। मैं उस ग़रीब को अच्छी तरह जानता हूँ। कल सुबह तुम दुकान आओ। उसी से पूछ लेंगे। सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।"
"दूध का दूध तो नहीं मालूम पर तू पानी-पानी ज़रूर हो जाएगा," मैं मन ही मन बुदबुदाया।
दूसरे दिन सुबह ज्यों ही छोटू आया, उसने उसे पकड़ लिया। और सीधे सवाल किया- "बता छोटू। जो कुछ तुम्हारे बारे में सुना - क्या ये सच है?"
"जी…," उसने सिर झुकाए धीरे से कहा।
"अरे, किस विषय में पूछ रहा हूँ, तुम्हें मालूम है?"
उसने फिर कहा- "जी…।"
"तुम्हारे पिता क्या करते हैं? क्या उनकी भी कोई दुकान है?"
"जी, ...चिटफंड का कारोबार हैं। छोटा-सा एक दफ़्तर है," इस बार उसने कुछ लम्बा सा जवाब दिया।
"अपने दफ़्तर में नीबू-मिर्च टाँगते हो?"
"नहीं।"
"क्यों…?"
"हम टोना-टोटका नहीं मानते।"
सुनकर दोस्त पानी-पानी हो गया फिर भी हिम्मत न हारते हुए पूछा- "तुम और तुम्हारे पिताजी महीने में कितना कमा लेते हो?"
"पता नहीं। एक बार उन्होंने गिनने की कोशिश की थी पर ग्यारह लाख छियासठ हज़ार के बाद गिन नहीं पाए। उन्हें चक्कर आ गया था।"
इतना सुनना भर था कि दोस्त को चक्कर आ गया।
दूसरे दिन सुबह छोटू आया तो उसने उसे बैरंग लौटा दिया। अब बिना नीबू-मिर्च की माला के दूकान चल रही है।
ग़रीब लोगों से उसका विश्वास उठ गया है। कोई भिखारी भी आता है तो उसे लगता है कि कहीं वो बिलगेट की तरह अमीर तो नहीं? कहीं उसका स्विस बैंक में एकाउंट तो नहीं? तरह-तरह के सवाल पूछ परेशान कर डालता है। भीख की जगह भाषण देता है। दुकानदारी कम, भाषणबाज़ी ज़्यादा करता है। और अब तो इसी के भरोसे जीता है। यही उसका पेशा है। जिसे वह पूरे लगन से करता है। जी हाँ, अब वो आदमी नहीं नेता है। देता कुछ नहीं- बस, केवल लेता है।
बहुत ही कम समय में वह संतुष्ट दिखने लगा है। क्योंकि रुपये गिनते अब उसे भी छोटू के बाप की तरह चक्कर आने लगा है।
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