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राज़ की बात

एक तल्ख़ हक़ीक़त बता रहा हूँ, अगर आप आम आदमी हैं तो समझिये आपका बेड़ा गर्क है। इस मुल्क में आम आदमी का जीना दुश्वार ही नहीं बल्कि हराम भी है। कदम-कदम पर रिश्वतखोरी. बेईमानी है. धोखे और फरेब है। एक बहुत पुराना गाना है- "बाबूजी धीरे चलना… प्यार में ज़रा सम्हलना… बड़े धोखे हैं इस राह में…"। तब उस ज़माने में निश्चय ही यह प्रणय-गीत रहा होगा पर आज के सन्दर्भ में ये आम आदमी का गीत है। अब यहाँ “प्यार” का अर्थ थोड़ा बदल गया है। इश्क़-मुश्क वाला न होकर केवल “लगाव” (अटेचमेंट) रह गया है। कवि वार्न कर रहा है - ऐ बाबू धीरे चलो… और सम्हलकर चलो। ऊँचे तबके के अवसरवादी लोगों के (नेताओं के) झाँसे में मत आओ। ये समय-बेसमय (चुनाव-उप चुनाव के दिनों) आपसे प्रगाढ़ प्रेम का नाटक करेंगे… हाथ मिलायेंगे… गले मिलेंगे (फिर काटेंगे भी)…। इनसे बच के रहो या दूर ही रहो। इनके चक्कर में आओगे तो ढूँढते रह जाओगे (अपना वजूद)। जब सौ साल बाद भी आपको आम ही रहना है। कोई “ख़ास” नहीं तो जल्दबाज़ी क्यों? हाय तौबा क्यों? ज़िंदगी की राह को धीरे-धीरे ही नापो वर्ना हाथ-पाँव जल्दी फूल जायेंगे। भागम-भाग तो ज़िंदगी भर है।

कभी इस विभाग से उस विभाग। तो कभी इस दफ़्तर से उस दफ़्तर। कभी भाई के लिए तो कभी भाँजी के लिए। कभी राशन के लिए तो कभी गैस के लिए। बस उसे तो दौड़ना ही है। बड़े लोग तो नौकर-चाकर को दौड़ा लें। आम आदमी किसे दौड़ाए? हॉस्पिटल भी उसे ही जाना… कोर्ट-कचहरी भी उसे ही जाना… निगम-नलघर उसे ही जाना है… टेलीफोन बिजली बिल उसे ही पटाना है। और जब तक इन जगहों पर आप किसी को पटा कर रखेंगे नहीं, आपका भला (काम) होने वाला नहीं । हॉस्पिटल में काम है तो डाक्टर न सही पर वार्ड ब्वाय को ज़रूर पटाकर रखें। डाक्टर परिचित होकर भी परेशान कर सकता है पर वार्ड ब्वाय नहीं। बस… उसकी मुट्ठी थोड़ी ज़रूर गर्म करनी होगी। थाने का काम हो तो टी.आई. या इन्स्पेक्टर से परिचय किसी काम का नहीं। वो सीधे-सीधे आपका काम नहीं करेगा। वह मुंशी के मार्फ़त ही आपको मारेगा। मुंशी ही अनुमानित ख़र्च बतायेगा। कोर्ट का काम हो तो अपर कलेक्टर या डी.जे. भले परिचित निकले पर सीधे काम नहीं करेगा। बड़े बाबू से संपर्क साधने को कहेगा। फिर बड़ा बाबू ही साधकर बतायेगा कि केस में कुल कितना कैश लगेगा। ...कुल मिलाकर कहानी ये कि आम आदमी की कहीं भी ख़ैर नहीं। जेब ढीली करेगा तभी काम होगा। कितने दिनों में होगा उसका कोई ख़ुलासा नहीं। पेमेंट के पश्चात भी काम होगा ही… इसकी कोई गारंटी नहीं।

दुर्भाग्य से मैं भी इसी कैटेगरी से ताल्लुक़ रखता हूँ। सरकारी हाई स्कूल में गणित का टीचर (लेक्चरार) हूँ। गुणा-भाग में तो एक्सपर्ट हूँ पर ज़िंदगी के गुणा-भाग में बिलकुल ही सिफ़र। जब कभी भी उपरोक्त विभागों अथवा दफ़्तरों से पाला पड़ा। चारों खाने चित्त हुआ। एक तो रिश्वत-खोरी से ही मुझे एलर्जी है। और फिर तनख़्वाह से बचता ही क्या हैं कि किसी को कुछ दे? आम आदमी की बीवी एक बनारसी साड़ी की फ़रमाईश में बेचारी बूढ़ी हो जाती है। एक सोने की लटकन की आस में आखिरी साँस तक अटकी रहती है। ऐसे में इनकी फ़रमाइशें कैसे पूरी करे? लेकिन ज़िंदगी में कई बार कुछ काम ऐसे आन पड़ते हैं कि उसका क्रियान्वयन ज़रूरी हो जाता है। ऐसे ही एक कार्य में एक बार उलझ गया। मामला कोर्ट-कचहरी से सम्बंधित था।

पहले तो आस जगी कि रेखराम के होते मेरा काम हो जाएगा। पर उसकी फ़ितरत से वाकिफ़ होते शंका भी बनी रही कि बिना लिए-दिए वो कुछ करेगा नहीं। अब ज़मीन का मामला था तो उससे मिलना भी ज़रूरी था। पत्नी को पहले ही बता दिया था कि मेरा सहपाठी ज़रूर रहा है। और एक ज़माने में दोस्त भी। पर जब से कोर्ट में घुसा है। घूसखोर हो गया है। हरामखोर हो गया है। बिना लिए-दिए किसी का भी काम नहीं करता। कलेक्टर के यहाँ बड़ा बाबू होने का भरपूर फ़ायदा उठाता है। कोर्ट-कचहरी के सारे कामों का ठेका ले रखा है। किसी ज़माने में जो टूटे-फूटे कच्चे मकान में दुबका रहता वो आजकल थ्री बी.एच.के. अपार्टमेन्ट में पसरा रहता है। स्कूल के दिनों के बाद उससे यदा-कदा ही भेंट हुई । पर जब कभी मिला - ये ज़रूर कहा कि कोर्ट का कोई काम निकले तो याद कर लेना, करवा दूँगा।

पत्नी बार-बार कह रही कि आपके साथ पढ़े हैं। बचपन के दोस्त हैं तो आपसे पैसे थोड़े ही लेंगे? और लेंगे भी तो औरों से कम ही लेंगे। एक बार मिल तो लो। आख़िर काम तो वहीं से होना है। न चाहते हुए भी मिलना मजबूरी हो गया। मैं उस हरामखोर दोस्त को अच्छी तरह जानता हूँ। वो पैसे के लिए अपने सगे बाप को भी न छोड़े तो मैं भला किस खेत की मूली? फिर भी पत्नी के कहने पर एक दिन उससे मिलने कलेक्टोरेट चला गया। बहुत देर तक तो उसने जान-बूझ कर मुझे नहीं देखने का नाटक किया। नज़र अंदाज़ करता रहा। बेवजह ही इधर की फ़ाईल उधर और उधर की फ़ाईल इधर पटकता रहा। पास खड़े लोगों को सलाह–मशविरा देता रहा। किसी को लाख की बात कहता तो किसी को हज़ार की। मैं चुपचाप खड़ा उसके दाँव-पेंच देखता रहा। जब सब चले गए तो मेरी ओर देखते बड़ी एक्टिंग के साथ कहा- "अरे? कब आये? बैठो… बैठो। बताना तो था... कि आये हो। हाँ बोलो कैसे आये…? सब ख़ैरियत तो है?" मैं चुप रहा।

वही फिर बोला- "अच्छा चलो चाय का वक़्त हो गया है… कैंटीन चलते हैं। वहीं बातें करेंगे।" मैं उसके पीछे-पीछे हो लिया। चाय की चुस्की लेते उसने पूछा – "हाँ बताओ। क्या बात है? कैसे आना हुआ?" तब मैंने सारी बातें उसे विस्तार से बता दीं। सुनकर एकदम गंभीर हो गया। चुप्पी साध गया। मैंने पूछा- "क्या बात है यार? काम हो जाएगा न?" उसने बड़ी देर बाद लम्बी चुप्पी तोड़ते कहा- "केस बहुत पेचीदा है यार। सामनेवाला मुक़दमा ठोक देगा तो मिनटों में निपट जाओगे।"

मैंने पूछा- "तो फिर?"

"तो फिर क्या? …कुछ ज़्यादा ही ख़र्च करोगे तभी उबर पाओगे। मुझे तो उम्मीद नहीं दिखती। पर बचपन के दोस्त हो तो कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी जेब ढीली हो। पर इस केस में बहुत सारे लोगों को पटाना पड़ेगा। उन्हें खिलाना-पिलाना पड़ेगा। बोलो तो आगे बात करूँ?"

"कितना लग जाएगा यार?" मैंने धड़कते दिल से पूछा।

"वो कल ही बता पाऊँगा यार। बड़े अधिकारियों से बात करनी होगी। वैसे तुम एक आवेदन बनाकर रखो। कल शाम तक बताता हूँ," इतना कह वह उठ गया। मुझे उसकी बातों पर तनिक भी विश्वास नहीं हुआ। उसकी बातों में साफ़ मक्कारी झलक रहा था।

दूसरे दिन शाम को उसके अपार्टमेंट में गया तो उसने जो इस्टीमेट बताया उसे सुन मैं मटियामेट होते-होते बचा। पूरे एक लाख अस्सी हज़ार का ख़र्च बताया। ऊपर से ये एहसान भी जताया कि अपना हिस्सा वो नहीं ले रहा। इसलिए बीस हज़ार कम। अन्यथा पूरे दो लाख…। मैंने तुरंत ही अपनी असमर्थता ज़ाहिर कर दी। इतने रुपये नहीं होने का रोना रोया तो उसने कहा- "कोई बात नहीं यार। जब हो तो आ जाना। मैं कौन सा आज ही रिटायर हो रहा हूँ।" मैं हामी भरते लौट आया। पत्नी को बताया तो बोली- "सचमुच ही पेचीदा मामला होगा जी तभी इतना ख़र्च बताया। आख़िर दोस्ती की ख़ातिर अपना हिस्सा तो बेचारे छोड़ ही रहे हैं। अब दोस्त है तो कोई लाख-दो लाख तो अपनी जेब से कुर्बान नहीं करेगा न?" न जाने क्यूँ मुझे उसकी मीठी-मीठी बातों पर कतई विशवास नहीं था। वह मक्कार तो स्कूल के ज़माने से ही था।

इस घटना को बीते पंद्रह-बीस दिन ही हुए थे कि एक दिन अचानक वो घर आ धमका। आते ही कहने लगा- "यार… खूब छकाया तुमने। काफ़ी ढूँढते- ढूँढते मुश्किल से घर मिला। यहाँ कबसे आ गए भई? पुराने घर गया तब पड़ोसियों ने बताया कि आजकल इधर आ गए हो। बैठने को नहीं कहोगे?"

"अरे आओ रेख। ...आज रास्ता कैसे भूल गए?" मैं भी आश्चर्य चकित था कि ये मक्कार अचानक यहाँ कैसे?

"अरे तुम्हें शायद मालूम नहीं। सप्ताह भर पहले ही यहाँ नई कलेक्टर साहिबा आ गई हैं। पुराने का ट्राँसफर हो गया। जब से आई है, तुम्हें याद कर रही है। परसों शाम उन्होंने तुम्हें भाभी जी के साथ बंगले पर डिनर में बुलाया है। और हाँ… तुमने आवेदन लिखा था क्या? नहीं लिखे होगे तो एक कोरे पेपर पर साइन भर करके दे दो। आवेदन मैं बना लूँगा। मैंने “ऊपर वालों” से बात कर ली है। कल शाम तक तुम्हारा काम हो जाएगा।"

"और पैसे?" मैंने पूछा।

"कौड़ी भर भी नहीं यार। तुमसे पैसे लूँ तो दोस्ती किस बात की? मैंने बात कर ली है। सबको पटा लिया है। मामला सुलझा लिया है।"

"अरे वाह… अचानक ये कैसा चमत्कार हो गया भई? और ये तो बताओ कौन कलेक्टर आई है और क्यों मुझ पर मेहरबान हैं?"

तभी दरवाज़े के पीछे खड़ी पत्नी बाहर निकल आई और नमस्ते कर धन्यवाद देने लगी कि दोस्ती के चलते आपने बिना कुछ लिए-दिए काम करने का जो बीड़ा उठाया वह स्तुतनीय है। आपका मुँह मीठा कराती हूँ। इतना कहते वो मिठाई लेने चली गई।

"अबे बता न कौन आई है?" मैंने धीरे से पूछा.

अम्बिका यार…!" उसने भी धीरे से मुँह खोला।

"अम्बिका?...अम्बिका शर्मा?....जो हमारे साथ पढ़ती थी? ए.डी.एम. शर्मा की बेटी…?"

"हाँ यार… वही… उसने ज्वाइन करते ही मुझे अपने कार्यालय में देखा तो घंटों हँसती रही। फिर तुम्हारे बारे में पूछी कि कहाँ है? मैंने बताया कि यहीं मास्टरी कर रहा है तो ख़ुश हुई और बोली कि किसी दिन उन्हें बंगले में सपरिवार आमंत्रित करो खाने पर। ...और तुम भी अपनी फ़ैमिली के साथ पधारो।"

"हूँ… तो ये बात है जनाब।" मैं तुरंत ही समझ गया कि मेरा मामला एक दिन में कैसे सुलझने वाला है… वो भी बिना कोई लेन-देन के।

मैंने कहा- "ठीक है यार… जब अम्बिका यहाँ आ गई है तो अब तुमसे अक्सर मुलाक़ात होती ही रहेगी। चलो परसों वहीं मिलते है।"

तभी पत्नी मिठाई लेकर आ गई। रेखराम को खिलाते बोली- "भैया। मैं जानती थी कोई काम आये न आये पर बचपन के दोस्त ज़रूर एक दूजे के काम आते हैं। आप लाखों का काम फ़्री में करा रहे हैं। आपका ये एहसान हम कभी नहीं भूलेंगे।"

"अरे नहीं भाभी जी ये तो मेरा फ़र्ज़ है। दोस्त के लिए इतना कुछ भी न करूँ तो लानत है मेरी नौकरी पर," कहते, हें-हें करते और मुझे देख झेंपते हुए वह चला गया।

पत्नियाँ सबकी एक जैसी ही होती हैं- सीधी-सादी और मूर्ख! अब भला मेरी पत्नी को कौन बताये कि ये मामला फ़्री में कैसे निपट रहा? इसके पीछे की कहानी ये है कि स्कूल के दिनों में अम्बिका से मेरी अच्छी दोस्ती थी। वो हर मामले में उस्ताद थी। पढाई-लिखाई, खेलकूद, नाच-गाना, वाद-विवाद। सब में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती। मैं भी उससे इतर नहीं था इसलिए उससे अच्छी पटरी बैठती। रेखराम भी मेरे ग्रुप में था। उसे लड़कियों के सानिध्य में उठने-बैठने का बड़ा ही शौक था। जबकि लड़कियाँ उसे दुत्कारती थीं। अक्सर लड़कियाँ जानबूझकर उससे काम करवातीं… ताकि दूर रहे। अम्बिका तो उससे इतना काम लेती कि कभी-कभी झल्ला कर वह कहता— "यार… ये साली हमेशा मुझसे नौकरों की तरह काम करवाती है। कभी कापी मँगवाती है तो कभी पुट्ठा, कभी समोसे तो कभी भुट्टा!"

एक दिन का वाक़या है। बरसात के दिन थे। हम सब फ़िजिक्स लैब में बैठे थे। कि अम्बिका बोली- "रेख, मेहरबानी करके एक गिलास पानी पिलाओगे क्या? बड़ी प्यास लगी है।" वो इतने प्यार से बोली कि रेखराम को उठना ही पड़ गया। वह पानी लेने चला गया और दस मिनट बाद गिलास भर पानी ले लौटा। गिलास थामते अम्बिका बोली- "पानी लेने नदी चले गए थे क्या? बड़ी देर कर दी लाने में।" रेखराम चुप रहा। …दो घूँट पीते ही अम्बिका मुँह बनाते बोली- "यार, बड़ा ही कसैला है पानी का स्वाद। अजीब सा कैसे लग रहा है?"

रेख ने तुरंत ही जवाब दिया- "अरे बरसात में क्लोरिन मिलाते हैं न पानी में। कभी-कभी ज़्यादा मात्रा में घुल जाता है तो स्वाद कसैला हो जाता है।"

अम्बिका ने किसी तरह नाक-भौं सिकोड़ गिलास खाली कर दिया।

छुट्टी के बाद घर लौटते-लौटते रेख ने अम्बिका के विषय में बाते करते कहा- "साली… रोज़-रोज़ काम करवाती है। आज मैंने ऐसा काम किया कि ज़िंदगी भर याद करेगी।"

मैंने पूछा- "क्या किया बे?"

तब उसने कसैले पानी का राज़ बताया जो अम्बिका पी गई थी। बताया कि उसने पानी में थोड़ा अपना पेशाब भी मिला दिया था। कहने लगा- "साली याद करेगी कि किससे पाला पड़ा था।"

तब मैंने चिल्लाते हुए उसे कहा था - "बेवकूफ़… वो क्यों तुम्हें याद करेगी? उसे तो इस बात का इल्म भी नहीं। लेकिन जिस दिन भी तुम्हारी इस नीच हरकत से वाकिफ़ होगी वो तुझे छठी का दूध ज़रूर याद दिला देगी।"

आज बरसों बाद शायद मेरी बातें उसे याद आ गई। वह जान गया कि छठी के दिन आ गए। तभी मेरा मुँह बंद करने के लिए "होम डिलवरी" कर रहा है। मेरे काम को प्राथमिकता के साथ मुफ़्त में करा रहा है। मुझ नाचीज़ को आम से ख़ास बना रहा है।

अब ऐसी ऊटपटांग बातें मैं पत्नी को बता भी नहीं सकता। कहीं ये बातें वो जान गई तो रेखराम के पेट में हाथ डाल मिठाई निकाल लेगी। इतनी वीरांगना तो है मेरी पत्नी! ईश्वर करे ये राज़ की बात… हमेशा राज़ ही रहे। इसी में भलाई है…. रेखराम की भी… और मेरी भी।

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