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स्त्री-विमर्श और मीडिया

मीडिया में साहित्य और स्त्री-विमर्श के लिए स्थान
(वरिष्ठ कथाकार और मीडिया विशेषज्ञ चित्रा मुद्‌गल से संवाद)

साहित्य, संस्कृति और जन संचार के क्षेत्र में स्त्री की अस्मिता और  मानवीय संस्कृति के निर्माण में  उसकी रचनात्मक भूमिका आज चर्चा के केन्द्र में है। उसकी ऐतिहासिक स्थिति, सामाजिक पहचान, अपने अस्तित्व औैर अस्मिता के लिए उसका संघर्ष, लोकतांत्रिक व्यवस्था में उसकी भागीदारी और संस्कृति के विकास मे उसकी भूमिका पर बहुत-कुछ कहा-लिखा गया है, मीडिया में उस पर व्यापक बहस भी हुई है और यह लगभग तय पाया गया है कि इस आधी आबादी को उसका वाजिब हक दिये बगैर और उसका आत्मिक सहयोग लिये बगैर सामाजिक विकास की प्रक्रिया में कुछ भी बेहतर कर पाना संभव नहीं है। उल्लेखनीय बात यह भी है कि स्त्री स्वयं आज अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्षरत है। स्त्री-प्रश्नों से जुड़े इस सांस्कृतिक विमर्श में सबसे निर्णायक भूमिका प्रकारान्तर से महिला रचनाकारों और विचारकों ने ही निभाई है, बेशक इसकी शरुआत पश्चिमी देशों में पहले हुई हो और वहाँ वूमन-लिबरेशन को एक आन्दोलन के बतौर लिया गया हो,  लेकिन भारतीय संदर्भ में इस विमर्श का अपना अलग स्वरूप और उसकी अलग पहचान रही है, जहाँ हमारे सामाजिक ढाँचे और मूल्य-व्यवस्था के भीतर ही स्त्री ने अपने अस्तित्व और अस्मिता से जुड़े सवालों के हल ढूँढने का प्रयत्न किया है और उसे कामयाबी भी मिली है।  

 नारी-अस्मिता और मानवीय विकास से जुड़े मसलों पर अपने रचनात्मक लेखन और सांस्कृतिक सहभागिता निभाने वाले लोगों में हिन्दी की चर्चित कथाकार चित्रा मुद्गल आज एक जाना-पहचाना नाम है। १० दिसंबर १९४४ को चेन्नई में जन्मी और मुंबई में शिक्षा प्राप्त करने वाली चित्राजी आधुनिक भारतीय कथा-साहित्य में एक उल्लेखनीय और सम्मानित रचनाकार हैं। न केवल लेखन के क्षेत्र में, बल्कि अपने सामाजिक, आर्थिक और मानवीय अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले विभिन्न समुदायों - विशेषकर स्त्रियों, श्रमिकों, दलितों और उपेक्षित बुजुर्गों के बीच रहकर उनके न्यायिक अधिकारों के लिए उन्होंने काम किया है। ऐसे आन्दोलनकारी संगठनों से भी उनका गहरा संबंध रहा है। उनके रचनात्मक लेखन के बारे में कहा जाता है कि ’समकालीन यथार्थ को वे जिस अद्‌भुत भाषिक संवेदना के साथ अपनी कथा-कृतियों में परत-दर-परत अनेक अर्थ-छवियों में अन्वेषित करती हैं, वह चकित कर देने वाला है।‘

 अपनी चालीस सालों की रचना-यात्रा में ’आंवां‘, ’एक ज़मीन अपनी‘ और ’गिलिगडु‘ जैसे तीन चर्चित उपन्यास, तेरह कहानी-संग्रह, तीन बाल उपन्यास, चार बालकथा-संग्रह, दो वैचारिक निबंध संग्रह और छह संपादित पुस्तकें उनकी प्रकाशित हो चुकी हैं। श्रमिकों-दलितों-स्त्रियों की समस्याओं और संस्कृति से जुड़े दूसरे पक्ष पर चित्राजी की अपनी अलग सोच रही है। इन रचनात्मक और सामाजिक कार्यों के साथ उन्होंने दूरदर्शन के लिए ’वारिस‘ जैसी टेलिफिल्म का निर्माण किया। दूरदर्शन के राष्ट्रीय नेटवर्क पर प्रसारित ’एक कहानी‘, ’मंझधार‘, और ’रिश्ते‘ जैसे लोकप्रिय धारावाहिक में उनकी प्रसिद्ध कहानियों को भी शामिल किया गया। इनके अलावा भी उनकी अनेक कहानियाँ टेलिफिल्मों के निर्माण के लिए चयनित की जा चुकी हैं। वे स्वयं इस वक्त प्रसार भारती बोर्ड की सम्मानित सदस्य हैं और प्रसार भारती की महत्वाकांक्षी परियोजना  भारतीय भाषाओं की कालजयी कथाओं पर आधारित कार्यक्रम-शृंखला ’इंडियन क्लासिक्स‘ की कोर-कमेटी की वे अध्यक्ष हैं।

 चित्राजी को साहित्य में उनके रचनात्मक अवदान और उनकी सामाजिक सेवाओं के लिए अब तक अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है, जिनमें बहुचर्चित उपन्यास ’आंवां‘ पर सहस्राब्दि का पहला अन्तर्राष्ट्रीय ’इन्दु शर्मा कथा सम्मान‘ लन्दन से तथा बिड़ला फाउण्डेशन का ’व्यास सम्मान‘ हाल ही में मिला है। इससे पहले हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा १९९६ में साहित्यकार सम्मान, सहकारी विकास संगठन, मुंबई द्वारा फणीश्वरनाथ ’रेणु‘ सम्मान, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ’साहित्य भूषण सम्मान‘ काया फाउण्डेशन द्वारा ’विदुला सम्मान‘ आदि अनेक पुरस्कार और सम्मान आप प्राप्त कर चुकी हैं। चित्रा जी ने ’आंवां‘, ’अपनी एक ज़मीन‘ और ’गिलीगडू‘ जैसी कृतियों के माध्यम से हिन्दी के कथा-साहित्य में और विशेषतः स्त्री-विमर्श और उपेक्षित बुजुर्गों की समस्या के समाधान में निश्चय ही अपनी महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई है, इन सभी रचनात्मक कार्यों, मीडिया में उनकी सक्रिय भागीदारी और उनके बहुआयामी अनुभव को ध्यान में रखते हुए पिछले दिनों (मार्च, २००५ में) जब वे जयपुर आईं, तो उनसे यह बातचीत आयोजित की गई, जो यहाँ अविकल रूप में प्रस्तुत की जा रही है :

 

नंद भारद्वाज :

चित्रा जी, सबसे पहले तो जयपुर में आपका स्वागत ! हम जानना ये चाहेंगे कि आधुनिक कथा-साहित्य में महिला कथाकारों की उनके समर्थ लेखन के माध्यम से एक अलग तरह की पहचान बन गई है, वहाँ संघर्ष का एक अलग ही रूप दिखाई देता है। ऐसा नहीं है कि महिलाओं ने कोई अलग से ध्यान रखा हो, लेकिन कहीं उनका जो अपना रचना-संसार है शायद उसके भीतर से ये पक्ष ज्यादा मजबूती से उभर कर सामने आता है। और शायद यही वजह है कि आपके लेखन में भी वह पक्ष सबसे ज्यादा प्रभावशाली ढंग से उभर कर सामने आया है। खासतौर से मैं ’आंवां‘ और ’ एक ज़मीन अपनी‘ को ध्यान में रखकर यह बात कह रहा हूँ। जहाँ जो दोनों स्त्री पात्र हैं -’आंवां‘ की नमिता पाण्डे और ’एक ज़मीन अपनी‘ की अंकिता, वे कितने बड़े अनुभव को अपने में समेटती हैं और नारी-संघर्ष के बड़े पक्ष को सामने लाती हैं। जानने की इच्छा यह है कि ये जो कथा-पात्र हैं, ये जो कथा-संसार आपने रचा है, उससे आपका सरोकार सीधे किस तरह से बनता है और इन कथाओं के माध्यम से क्या कहने की कोशिश आपकी रही है?

चित्रा मुद्‌गल :

नंद भारद्वाज जी, सबसे बड़ा प्रश्न तो आधी आबादी का ये रहा है कि उसे अपने मुख पर अंगुली रखे रहना पड़ा है, चाहे बात संस्कारों की हो, मर्यादा की हो, चाहे शील की  या संकोच की हो या परम्पराओं की हो, इस शील और संकोच को लेकर स्त्री अब तक जीती रही है। अभिव्यक्ति में आप देखिये कि १९०० में माधवराव सप्रे की कहानी आई, ’टोकरी भर मिट्टी‘ और उसके ठीक बाद १९०७ में स्त्री की अभिव्यक्ति बंग महिला राजेन्द्रबाला घोष ने की, तो कहने का तात्पर्य यह है कि स्त्री को भी ये लगने लगा था कि कहीं-न-कहीं उसे अपनी आत्म-चेतना की अभिव्यक्ति दर्ज करानी है। उसको दर्ज कराये बिना शायद वो अपनी संचेतना की परिभाषा सही ग्रहण नहीं कर सकती। और यही संघर्ष उसका, जैसे ही उसे ये आभास हुआ कि उसे अब केवल लोक-गीतों तक सीमित नहीं रहना है, लोक-परम्पराएँ जो उसके लिए निर्धारित हुई हैं, उस तक सीमित नहीं रहना है और वो एक बहुत बड़ी हस्ती है, समाज में उसकी बहुत बड़ी भागीदारी है - माँ के रूप में, बहिन के रूप में, बेटी के रूप में, जो सारे दायित्वों को निभाती रही, लेकिन अब कहीं उसके मन की बात भी होनी चाहिए और शिक्षा का इसमें काफी योगदान रहा। तो मुझे लगता है कि जैसे-जैसे स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में आई, मैं उस पूरे आन्दोलन में नहीं जाऊँगी, जो स्वतंत्रता का आन्दोलन रहा। गाँधीजी ने कैसे घर से औरत को बाहर आने का हौसला दिया, गाँधीजी ने कैसे घरों के भीतर चरखा पहुँचाया - चरखा पहुँचाना मुझे हमेशा ये लगता रहा है कि एक स्वावलम्बन की चेतना का कहीं बीजारोपण गाँधीजी ने किया। चरखा चलाओ, वहाँ की सेविकाएँ हैं, वे आयेंगी, आपकी कतली में कितना धागा आपने बना लिया है, उसका बंडल वो ले जाएँगी, उसका पारिश्रमिक दो आने हुआ, चार आने हुआ, आपको दिया जाएगा। स्वावलंबन की जो बात गाँधीजी ने रोपी, चरखे को घर में पहुँचा करके और स्त्रियाँ उसको अपने खाली समय में चलाने लगी, ये जो संचेतना आई। मुझे लगता है शिक्षा के साथ-साथ जैसे ही स्वावलंबन का सिलसिला शुरू हुआ, तो उसके साथ-साथ उनकी ज़मीन को भी विस्तार मिला, व्यापकत्व मिला और वे उसी को आज आप देखतें हैं कि वे कहीं दर्ज कर रही हैं। अपनी कहानी को, अपनी अनुभूतियों को, अपनी अस्मिता की परिभाषा को, यानि अब तक जो परिभाषा उसे दी गई थी, उसको वह कण्डीशन की तरह जी रही थी और अब जो परिभाषा उसे चाहिए थी, वो स्वयं उसे अर्जित करनी थी कि आखिर मैं हूँ क्या? मैं क्या सोचती हूँ? प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों में, आप देखेंगे कि चाहे वो उपन्यास ’निर्मला‘ हो, ’गोदान‘ हो, उनमें आप एक दृढ़ स्त्री को पाते हैं, धनिया के रूप में। पति का विरोध भी वो करती है कि तुम मूर्ख क्यों हो भई! इतने सीधे क्यों हो भई! इसी तरह से देखते हैं कि उनकी तमाम कहानियों में नैराश्य है, जिसमें स्त्री लड़का पैदा नहीं करती। इसीलिए चौथी लड़की को जन्म देना पड़ता है, इसीलिए उसे पाँचवी लड़की को जन्म देना पड़ता है और उसी जन्म के प्रसव के समय वो खत्म हो जाती है। तो प्रेमचन्द ने वस्तुस्थिति का वर्णन तो किया, किन्तु समाज में स्त्री है क्या और उसकी ताकत भी धनिया या उन महिलाओं के रूप में नज़र आती है। तो कहने का अर्थ है कि वस्तुस्थिति समाज में क्या है, कितनी बेचारगी भरी है, वो आपको पुरुषों के द्वारा लिखी गई स्त्री के बारे में नज़र आती है। वो वस्तुस्थिति करुणामय ढंग से नज़र आती है, इसका अधिकार क्या होना चाहिए, यह जानने का अधिकार उसको नहीं मिला। लेकिन वो अधिकार कैसा होना चाहिए, उसको तो वही तय कर सकती थी, जब स्वयं वो अपने बारे में लिखती। जब १९०७ में पहली कहानी आई राजेन्द्रबाला घोष की ’दुलाईवाली‘ और ऊषादेवी मित्रा की ’प्रथम छाया‘, तो मुझे याद है कि उनमें अपनी बात कहने की उत्सुकता कितनी प्रबल ढंग से व्यक्त हुई थी।

नंद भारद्वाज :

चित्रा जी, आपने बहुत बड़ा रचना-संसार अपनी कहानियों में, उपन्यासों में समेटा है। आपका अपना जो व्यक्तिगत जीवन है, मुझे एक बहुत बड़े दायरे में फैला हुआ दिखता है। आप चेन्नई में पैदा हुईं फिर आपने उत्तर भारत में अपना घर-परिवार बसाया, आपने अपनी ज़िन्दगी के महत्वपूर्ण संघर्ष के जो वर्ष हैं वे बंबई महानगर में बिताये, उसके बाद आप बरसों से दिल्ली में हैं और कहीं-न-कहीं ये रचना-संसार, ये अनुभव भी आपके कथा-संसार में रिफ्लेक्ट होता है। थोड़ा बतायेंगे कि इन चालीस सालों में स्त्री का जो संघर्ष है, वो आपकी कहानियों में तो दर्ज हुआ ही है, वो आपको बाहर जीवन में किस तरह से बदलता हुआ दिखाई देता है?

चित्रा मुद्‌गल :

हाँ, बदलता हुआ तो दिखाई देता है। हमारी मनु दी (मन्नू भंडारी) की कहानियों को अगर आप देखेंगे तो ’आपका बंी‘ की शकुन अपनी शिक्षा का उपयोग कर दाम्पत्य जीवन की कलह को न स्वीकारते हुए निर्णय करती है कि वो अलग जीवन जीने की चेष्टा करेगी और वो उसको अपनाती है। तलाक के रूप में फिर परिणति होती है। पहली बार मनु दी की दुविधाग्रस्त नायिकाएँ, जो प्रेम के लिए चार कदम आगे बढ़ाती हैं और फिर चार कदम वापस आ जाती हैं। ये नायिकाएँ निर्णयात्मक भूमिका में पहुँचती हैं, निर्णय लेती हैं। उसके बाद तो बंटी का संघर्ष शुरू होता है कि स्त्री के निर्णय का प्रभाव बच्चे पर क्या पड़ेगा। उसकी उपेक्षा करके वो नहीं चल सकती। तो वो जो मनु दी ने चाहा तो वो निर्णय लेने की क्षमता स्त्री में पैदा की। और पहले की जो अपनी नायिकाओं की दुविधाएँ थीं, उसका अन्त किया। ये बताता है कि सीढ़ी-दर-सीढ़ी पायदान चढ़ती हुई औरत, अपने को जानने की चेष्टा करती हुई औरत, कहीं-न-कहीं अपने बारे में सोचती है और निर्णय लेती है, तो परिवर्तन लक्षित होता है। एक लेखक की पूर्ववर्ती कहानियों को आप पढ़ लेंगे और उसके बाद की भी तो यह अपने आप स्पष्ट होता चला जाएगा। इसी तरह हम पाते हैं कि कृष्णा सोबती ने ’सूरजमुखी अंधेरे के‘ में ये चित्रित किया है कि स्त्री के साथ शोषण कैसा होता है - लड़की के साथ, बच्ची के साथ। लेकिन आप जब ये पाते हैं कि जब ’मित्रो मरजानी‘ आती है, पहली बार शायद हिन्दी कहानी में बड़ा शोर मच रहा है देह का। देह, देह आजकल तो देह ही देह हो रहा है। ’मित्रो मरजानी‘ में पहली बार मित्रो जो है, अपनी सास से एक वाक्य कहती है कि “अम्मा, अपने बेटे को किसी नीम-हकीम को लेजाकर दिखा लो, ये लीला इसके वश की नहीं।”  इस भाषा में स्त्री की जो आदिम आवश्यकता है, जिसे हम यौन कहते हैं, यौन की कामना, यौन-सम्बन्ध की एक कामना, अपनी शर्त पर यह पहली बार दर्ज होती है। पहली बार कोई औरत यह कहती है कि उसकी भी यौन आकांक्षा है, वो बाँझ नहीं है। बड़ी-बड़ी बातें होती हैं। देखिये, हमारे वेद-पुराणों में उड़न-खटोला था, यहाँ से वहाँ पहुँच जाते थे, भगवान राम ने तीर मारा और पुल तैयार कर दिया, ये सब था, अगर हम विज्ञान में इतने आगे होते तो उस समय का वो विज्ञान ये निर्धारित नहीं कर सका कि लड़का पैदा करना औरत के वश में नहीं है - केवल औरत के वश में नहीं है, ये स्त्री-पुरुष दोनों के सम्मिलित प्रयास का परिणाम होती है सन्तानें। तो ये जो बड़ी-बड़ी बातें स्त्री को ग्लोरीफाई करने के लिए की गई, तो स्त्री-लेखन के माध्यम से चाहे उस समय चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की कहानी हो, कौशल्यादेवी अश्क की कहानियाँ हों, शिवरानी देवी की कहानियाँ हों, आप पायेंगे कि उन्होंने अपने शील-संकोचों के तहत वो बातें कहीं, लेकिन मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती इन लोगों का लेखन जब सामने आता है, तो परिवर्तन लक्षित होता है।

नंद भारद्वाज :

चित्राजी, यह प्रयत्न मैं आपकी कहानियों और उपन्यासों में एक बड़े स्तर पर भी देखता हूँ - जैसे नमिता पाण्डे है, या अंकिता है; ये ऐसे चरित्र हैं, जो अपनी ज़िन्दगी के सारे महत्वपूर्ण फैसले खुद अपने बल-बूते पर लेती हैं, वे किसी सामाजिक दबाव से उन्हें प्रभावित नहीं होने देतीं, इसके बावजूद कहीं मुझे लगता है कि जो हमारा सामाजिक ढाँचा है, जो सामाजिक मूल्य हैं, या जिसे हम परम्परा से जोड़कर देखते हैं, तो कहीं मुझे ऐसा भी लगता है कि वे उससे सामंजस्य बिठाने की कोशिश करती हैं - ऐसा क्यों है?

चित्रा मुद्‌गल : 

मेरा ऐसा मानना है कि पश्चिम का जो वूमन लिब मूवमेंट है, वो हमसे अलग है। मैं उस पर बिल्कुल विश्वास नहीं करती। मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि स्त्रीत्व की परिभाषा न राजेन्द्र यादव तय करेंगे, न कोई दूसरा पुरुष लेखक। मैथिलीशरण गुप्त लिख सकते हैं कि इनकी त्रासदी क्या रही है - द्रोपदी पर लिख देंगे या उर्मिला पर लिख देंगे कि क्या त्रासदी रही है - वस्तुस्थिति औरत की क्या है, लेकिन वह उसके मन ने कैसे झेला है, ये तो आधी आबादी जब अभिव्यक्ति करेगी, तभी वह अपनी परिभाषा भी अर्जित करेगी - इसलिए मेरे अपने पात्रों के साथ भी मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि ठीक है स्त्रीत्व की परिभाषा हमें चाहिए, लेकिन स्त्रीत्व की पूरकता तो परस्परता ही तय करेगी। मैं एक ऐसा समाज नहीं सोच सकती हूँ, जो पश्चिमी लेस्बियन (समलिंगी) लोगों का समाज है, हमारा समाज एक स्तर पर वसुधैव-कुटुम्बकम की सोच रखने वाला समाज रहा है, हमारे समाज में परस्परता रही है, उस परस्परता का अपना मूल्य है। हमारे यहाँ अर्द्धनारीश्वर की अवधारणा भी रही है, जो विश्व में शायद पहली बार भारत के जीवन दर्शन के रूप में पहचानी गई है - उस दर्शन में मैं विश्वास करती हूँ और पूरकता पर विश्वास करती हूँ, इसलिए कहीं आपको यह ज़रूर लगता होगा कि मेरे सोच में भारतीय स्त्री का जो एक विशेष दर्जा है समाज में, और जो उसे हासिल नहीं हुआ, उसे देने की बातें बहुत हुईं, महिमा-मण्डन हुआ, तो उसको हम सही रूप में देना चाहते हैं। हम इसे आधी आबादी के अलग संघर्ष के रूप में नहीं देखते। बाकी आधी आबादी - पुरुष, अगर अपनी मानसिकता नहीं बदलेगा, तो स्त्री को कभी वह दर्जा हासिल नहीं हो सकता, इसलिए मेरे लिए समाज में स्त्री और पुरुष दोनों उसके आवश्यक अंग हैं, एक-दूसरे के पूरक हैं, इसलिए मेरी लड़ाई विषमता की लड़ाई है, मूल्यांकन की लड़ाई है, उसकी क्षमता को दर्ज करवाने की लड़ाई है।

नंद भारद्वाज : 

विषमता की लड़ाई का एक महत्वपूर्ण पक्ष आपके लेखन में औैर भी कई रूपों में सामने आता है - जैसे वह दलितों के संघर्ष के रूप में भी सामने आता है, श्रमिकों के संघर्ष  और श्रमिकों में भी खासतौर से जो असंगठित क्षेत्र के श्रमिक हैं, जैसे ’आंवां‘ में इस समस्या को बहुत गहराई से उठाया गया है, बल्कि वहाँ जो श्रमजीवा का संगठन है, उसमें जो महिलाएँ काम करती हैं - इसकी मैं आपसे जानकारी चाहूँगा कि यह संघर्ष किस तरह आपकी कहानियों और उपन्यासों में चिन्ता का विषय बना है?

चित्रा मुद्‌गल :

मेरी पृष्ठभूमि एक ऐसे खान-दान से जुड़ी रही है, जहाँ औरत के गले में जितने गहने, तिलक में चढ़ावे के रूप में जो आते हैं, उससे लादकर उसे बैठा देने की रही है। उसमें यह भी रहा है कि वे मुख्य दरवाजे से नहीं निकलेंगी, घर के पिछवाड़े एक दरवाजा होता था, जिसे खिड़की कहा जाता था, वहीं से आपको निकलना है, वहीं से स्त्री को प्रवेश करना है - तो ये सब चीजें जो मैं देखती रही हूँ -अपनी माँ, दादी, अपनी ताई और घर की बुआओं को देखती रहीं हूँ जो एक चादर ओढ़कर वहीं से आती-जाती रहीं - वहीं उनके लिए पालकी आ जाती थी, और बाद में थोड़ा परिवर्तन आया तो इतना कि अब एक जीप उसकी जगह आकर खड़ी हो गई, जिसके पर्दे, जो पुरूषों के लिए खुले रहते, औरतों के लिए तिरपाल उस पर डाल दिया जाता, तो ये चीजें देखते-देखते मैं मानती हूँ कि कहीं-न-कहीं मुझे अपनी माँ को लेकर एक असंतोष तो हुआ ही होगा, और वो कहीं मेरे भीतर भरा रहा होगा। जब विशाखापत्तनम से एक छह साल की बच्ची घर जाती है, तो कहा जाता है कि नहीं-नहीं यहाँ से कैसे भागकर जा रही हो, पिछवाड़े से जाओ, जोर से चीखकर कहा जाता है कि इसे ले जाओ पकड़कर, तब मेरे मन में प्रश्न आता है। मैं सोचती हूँ मेरी बहन के मन में यह क्यों नहीं उठा - शायद वो सहन करके सोचती रह गई होगी, मेरी माँ के मन में क्यों नहीं उठा, शायद उसने इसे अपनी नियति मान लिया होगा, मुझे लगा कि मैं इसको अपनी नियति नहीं मान सकती। जब मैं इंटरमीडिएट में आई तो मैंने यह देखा कि कुछ लोग जो बाहर के घर में आते हैं किसी और काम से, तो मेरा सबसे पहला साबका दत्ता सामंत से पड़ा, जो पिता के साथ कुछ चर्चा करने के लिए आए थे और मैंने जो उनकी पक्षधरता की तो उन्हें लगा कि मैं बहुत अलग ढंग से सोचती रही हूँ, पिता के प्रभाव से मुक्त होकर। एक अधिकारी की बेटी के मन में जिस तरह की कंडीशनिंग होनी चाहिए, उससे मुक्त होकर और यकीन मानिये कि आज के सोच से अलग, इंटरमीडिएट के स्तर पर थी - बारह बजे के बाद मेरी पढ़ाई खत्म हो जाती थी, उसके बाद मैंने वहाँ बैठना शरू किया और मेरी ज़िन्दगी में उनकी बहुत बड़ी भूमिका है। मैं नहीं जानती थी कि बाहर का संसार क्या है - एक जीप से आना, बैठना, जाना और वहाँ संरक्षण में रहना, मुझे पहली बार किसी ने बताया कि आपकी दुनिया आपसे अलग भी है। बाहर की दुनिया है श्रमिकाओं की, औरतें मजदूरी के लिए निकलती हैं, उनका हाल आप देखिये। मुझे तो तब तक मजदूरी नहीं करनी पड़ी थी – मुग्‌दलजी से ब्याह करने के बाद मजदूरी भी करनी पड़ी, जब मुझे यह बताया गया कि पाँच सौ रुपये का मनीऑर्डर तो उस मशक्कत में भी भेजना ही पड़ेगा, घर का एक लड़का कमाता है, उसको गाँव को भी देखना पड़ता है। तो ये जो मशक्कत थी, उस मशक्कत ने मुझे कहीं एक दृष्टि दी, दूसरी महिलाओं को देखने की दृष्टि दी और ये लगा कि मेरी माँ की स्थिति - गहने, गुड़िया, खाना-पीना जैसी समर्थता की मजबूरी थी, लेकिन यहाँ असमर्थता की मजबूरी है। यह औरत अगर अपना चूल्हा-चौका करके मजूरी के लिए नहीं निकलेगी तो घर के चूल्हे पर दुबारा हाँडी नहीं चढ़ पायेगी। तो ये एक औरत जिससे मेरी मुलाकात हुई, उस मुलाकात ने मुझे ये दृष्टि दी। निश्चय ही मैं यह मानती हूँ कि मेरे अन्दर का वो जो कहीं एक असन्तोष रहा होगा अपने घर-परिवार के प्रति, उसको एक मुखरता मिली जब उस दुनिया से मेरा साबका पड़ा और उस दुनिया को जाना और उसके साथ फिर हो गई।

नंद भारद्वाज :

आपने अपने नये उपन्यास में एक नया और बहुत जीवंत विषय उठाया है, खासतौर से मैं ’गिलिगडु‘ की ओर इशारा कर रहा हूँ, जहाँ आपने समाज में जो हमारे बुजुर्ग हैं, उनके साथ जिस तरह का बरताव हो रहा है, उससे कहीं बहुत भीतर से आहत हकर आपने पूरी संवेदनशीलता से उसे पकड़ने की कोशिश की है जैसे, थोड़ी उसकी पृष्ठभूमि के बारे में भी कुछ बताना चाहेंगी?

चित्रा मुद्‌गल :    

जी, मैं बताना चाहती हूँ कि मैं वृद्धाश्रम से जुड़ी हुई हूँ, मेरा नया उपन्यास ’गिलिगडु‘ उसी समस्या से जुड़ा है। कुछ लोगों ने इस संदर्भ में उषा प्रियंवदा की कहानी ’वापसी‘ की भी चर्चा की है, जबकि वह कहानी एक अवकाश-प्राप्त व्यक्ति की कहानी है, एक ऐसे अवकाश-प्राप्त व्यक्ति की, जो सत्ता में था और जब उस सत्ता से बाहर आया तो घर में जो पत्नी की सत्ता है, उसके बीच वह कैसा महसूस करता है, उसकी कहानी थी। लेकिन आज वह स्थिति बहुत आगे बढ़ गई है। देखिये, ५६ वर्ष के भारतीय समाज के विकास की जब हम बात करते हैं तो एक स्तर पर बाजारीकरण और उदारीकरण हमें कहीं मनुष्य के हित की बात लगती है - एक सभ्य समाज में भौतिक सुखों का मनुष्य अधिकारी है, यह बात एक हद तक तो ठीक है। लेकिन ये सारा विकास जिस मनुष्य के हित की बात करता है, वही मनुष्य रिटायर्ड होकर जब अपने घर आता है तो उस अवकाश-प्राप्ति के बाद अपने घर में ही जगह नहीं पाता, जिस घर को वह बनाता है, उसके पीछे जो पूरी हमारी व्यवस्था है - उपभोक्तावादी व्यवस्था, उसने इस रिटायर्ड व्यक्ति के दुख को और बढ़ा दिया है। उसी को उन्होंने उषा प्रियंवदा की कहानी से भी जोड़ दिया। मेरा कहना है कि वो जो रिटायर्ड पर्सन है, वो आज किन स्थितियों में पहुँच गया है - सारा सुख, सारे फ्लाई-ओवर्स मनुष्य को तेजी देने के लिए बताए जा रहे हैं, मैं पूछना चाहती हूँ किस मनुष्य को, वो मनुष्य आज कहाँ जाकर पड़ा हुआ है। उसकी जगह है क्या? यानि वह भी वही वस्तु हो गया है जिसका जब तक उपयोग है, तब तक है, फिर उठाकर क तरफ डाल दीजिये या वृद्धाश्रम भेज दीजिये। विदेशों में जो ओल्ड-एज होम बने हुए हैं, कुछ इसी तरह की व्यवस्था यहाँ भी जैसे ज़रूरी होती जा रही है। नंद भारद्वाजजी, यह देखकर दुःख होता है जब २२५ बिस्तरों वाले वृद्धाश्रम के लिए पाँच हजार एप्लीकेशन आपके पास आती हैं। उन पाँच हजार एप्लीकेशन्स में बड़े-बड़े ओहदे वाले व्यक्ति हैं, जिन्होंने अपने प्रोविडेण्ट फण्ड को लगाकर अपने औैर परिवार के लिए घर बनाया, अपनी औैलाद को ऊँची से ऊँची तालीम दिलवाई, उनके लिए सारी सुख-सुविधाएँ जुटाईं, लेकिन आज उन्हीं के लिए सिर पर छत तक नहीं बची। ये जो नये उपभोक्तावादी समाज में परिवर्तन आया है, जहाँ मनुष्य बिल्कुल अकेला खड़ा है, और उसी समाज को बनाने वाला वह बुजुर्ग जैसे अब अर्थहीन और उपयोगिताविहीन हो गया है, यह किस तरह की उपभोक्तावादी संस्कृति है और वह आने वाली पीढ़ी को क्या दे रही है? हम अपने देश में वसुधैवकुटुम्बकम् की बात करते रहे हैं, कौटुम्बीय जीवन पर हमारी आस्था रही है, घर के बुजुर्ग आशीर्वाद रहे हैं, लेकिन आज उसी कुटुम्ब में उनके लिए कोई जगह नहीं रह गई है। यह इतनी बड़ी समस्या है कि समाज आखिर मनुष्य को कहाँ ले जाएगा?

नंद भारद्वाज :    
चित्राजी, आपने मीडिया के साथ बहुत बरसों से साझा किया है और ये जो तमाम समस्याएँ आप उठाती हैं, चाहे स्त्रियों की हो, दलितों की हो, श्रमिकों हो या बुजुर्गों की समस्याएँ हों, इनको लेकर जो समझ विकसित होनी चाहिए या जो जागरूकता हमारे समाज में आनी चाहिए, क्या आप मीडिया को उसमें साझा करता हुआ पाती हैं?

चित्रा मुद्‌गल : 

मुझे यह कहते हुए कोई संकोच या हिचक नहीं है कि मीडिया की भूमिका बहुत गैर-जिम्मेदाराना रही है। मैं आपको नाम लेकर कह सकती हूँ कि आप अनारा गुप्ता का केस ले लीजिये, ऐसे ही वो दिल्ली का खूनी दरवाजा वाला केस ले लीजिये - आप एक लड़की के बारे में इतना प्रचारित करते हैं, बाद में जब जूते पडते हैं तो आप फौरन चेहरे पर एक परदा डाल लेते हैं, ये क्या है? आप लड़की को इस्तेमाल कर उसकी सुर्खी बनाते हैं, आप जो शोषण करने वाले लोग हैं, उनकी सुर्खी नहीं बनाते, उनको तो अभियुक्त भर बनाते है और लड़की को जो आप सुर्खी बनाते हैं तो आप विचार कीजिए कि उसे कितना भोगना पड़ता है - वह बार-बार मरती है, हजार बार मरती है। यह ठीक है कि मीडिया अन्दरूनी चीजों को बाहर ला रहा है, मैं यह भी मानती हूँ कि वे बातें पहले मालूम नहीं पड़ती थी, आज मीडिया वो जिम्मेदारी तो निभा रहा है, वह थोड़ा गैर-जिम्मेदार भी हो रहा है। जिस तरह से वो गंभीर मामलों को सामने ला रहा है, मैं मानती हूँ कि बाजार के उस पर जबरदस्त दबाव हैं, वह बाजार में खड़ा है, लेकिन यह विवेक मीडिया में होना चाहिए कि वह सुर्खी किस चीज को बना रहा है। जो सार्वजनिक हित के मामले हैं, उन्हें सामने लाना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा लोगों को दिखाकर उन्हें हिलाना चाहिए और अपने को दिखाने के लिए विवश करना चाहिए कि आगे की स्टोरी में वे क्या लेकर आने वाले हैं, इसे अपने काम करने की शैली बना लेना चाहिए। उसे यह भी नहीं भूलना चाहिए कि जब वो कहता है कि वो जनता की आवाज है, चाहे बाजारवाद के कितने ही दबाव हों, कैसी भी प्रतिस्पर्धा की लड़ाई हो, जब मीडिया अपने आप को चौथी सत्ता कहता है, खास तौर से इलैक्ट्रॉनिक मीडिया, जो अपने आपको इसी चौथी सत्ता के रूप में प्रस्तुत करता है, तो आप कहीं उस चौथी सत्ता के दायित्व को भी तो निभाइये। मीडिया को अपना लगातार आत्मनिरीक्षण करते रहना चाहिए कि उसके कार्य-व्यवहार का समाज पर क्या प्रभाव पड़ने लगा है।

नंद भारद्वाज :

चित्राजी, आप प्रसार भारती के सदस्य के रूप में मीडिया से जुड़ी हुई हैं, दूरदर्शन ने पिछले कुछ बरसों में भारतीय कथा-साहित्य को लेकर कुछ बेहतर काम करने का मन बनाया है। जो कालजयी कथाएँ हैं उन पर सीरीज तैयार की जा रही है, उसे अपने स्थाई सॉफ्टवेयर का हिस्सा बनाने की भी एक कोशिश दिखाई देने लगी है और आप स्वयं भी इस प्रयत्न से जुड़ी हुई हैं, थोड़ा खुलासा करेंगी कि यह कितनी बड़ी योजना है, क्या काम अब तक हुआ है और आगे इसकी क्या संभावनाएँ आपको दिखाई दे रही हैं?

चित्रा मुद्‌गल :   

देखिये, काम बहुत अच्छे से और बड़े उत्साहजनक ढंग से शुरू हुआ था और यह बड़े गहरे स्तर पर महसूस किया जा रहा था कि इस तरह का काम इस लोक प्रसारण माध्यम को करना ही चाहिए। इसकी शुरुआत का श्रेय जाता है पं. विद्यानिवास मिश्र को, जो प्रसार भारती बोर्ड के सदस्य तो थे ही, इस महत्वाकांक्षी परियोजना की कोर-कमेटी के चेयरमैन भी थे। उनकी यह भी सोच थी कि आखिर १५ साल से हम जो साहित्यिक कृतियाँ दिखा रहे थे दूरदर्शन पर वो एक तरह से असाक्षर भारतीय समाज को पढ़वा रहे थे, क्योंकि आखिर उसे भी हक है। जो भारतीय साहित्य है उसके बारे में वह बात भी करता है, तो उस समाज को क्लासिक्स के माध्यम से उस साहित्य की झलक दिखाई जा रही थी। एक बार किसी ने मृणालसेन से पूछा कि आप गरीबों की फिल्में बनाते हैं, लेकिन गरीब तो उन्हें नहीं देख पाते। मृणालसेन ने उत्तर दिया कि गरीबों के देखने के लिए मैं फिल्म नहीं बनाता। मैं उस समाज को दिखाने के लिए फिल्म बनाता हूँ, जो अपने को बड़ा सभ्य और सुसंस्कृत समझता है, जबकि वह यह तक नहीं जानता कि उसका अस्तित्व जिस बाहरी समाज पर टिका हुआ है, उस बाहरी समाज की हालत क्या है, वह कैसी ज़िन्दगी जीने को विवश है। यह सभ्य समाज उसकी पीठ पर खड़ा है। आज सड़क पर जितनी गाड़ियाँ दौड़ती हैं, उसकी पीठ पर दौड़ती हैं। दरअसल यही वह संघर्षशील भारतीय समाज है, जो हमारी कालजयी कृतियों के माध्यम से सामने आ रहा है औैर इससे चेतना का एक नया धरातल विकसित होने की प्रक्रिया बन रही है।

पिछले १२-१५ सालों में दुनिया में दूसरे चैनल्स की जो प्रतिस्पर्धा शुरू हुई, उससे कहीं दूरदर्शन भी उसके प्रभाव में आया लगता है और उसने भी सी.आई.डी., आपबीती, नकाब औैर भूत-प्रेत, ये-वो सब दिखाना शुरू कर दिया है और लोग देख रहे हैं। पर मेरी हमेशा यह सोच रही है कि आप रेडियो मिर्ची बनने जाएँगे तो आप न आकाशवाणी रह पाएँगे और न मिर्ची ही बन पाएँगे। आकाशवाणी जो रहा है, उसे वही बना रहना चाहिए, उसमें परिष्करण कैसे हो सकता है और के प्रतिस्पर्धा के दौर में आकाशवाणी और दूरदर्शन कैसे अपनी साख कायम रख पाते हैं, इस पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है। मेरा यह भी मानना है कि बाजार की इस प्रतिस्पर्धा का सामना आप अपने चरित्र को तिलांजलि देकर तो बिल्कुल नहीं कर पाएँगे। मैं समझती हूँ, इंडियन क्लासिक्स पर आधारित कार्यक्रम शृंखला के पीछे कहीं इस सोच की महत्वपूर्ण भूमिका ज़रूर रही है। इसी सोच पर विद्यानिवासजी का भी बल रहा और जब वे राज्यसभा के सदस्य होकर चले गये तो प्रसार भारती बोर्ड ने यह जिम्मेदारी मुझे सौंप दी। मैंने भी इससे जुड़ कर बहुत उत्साह महसूस किया। इस काम से जुड़े दूरदर्शन के तमाम अधिकारियों में भी मैंने इस उत्साह को देखा है। आप स्वयं इससे जुड़े रहे हैं, इसकी कोर-कमेटियों की बैठकों में उत्साह से भाग लिया है। इन कोर-कमेटियों में सारी भारतीय भाषाओं के प्रतिष्ठित लेखक शामिल रहे हैं, जिनमं प्रतिभाराय (उड़िया), इंदिरा गोस्वामी (असमिया), यू.आर. अनंतमूर्ति (कन्नड़), एम. टी. वासुदेवन नायर (मलयालम), चन्द्रकान्त बांदिवडेकर (मराठी), जोसफ मैकवान (गुजराती), पद्मा सचदेव (डोगरी) जैसे प्रमुख रचनाकार इसके सदस्य रहे हैं। इसकी १९० कड़ियों का पहला चरण पूरा हो चुका है, जिसका प्रसारण भी शुरू हो गया है और इस काम को अच्छी सराहना भी मिल रही है। इस सारी प्रक्रिया से एक ऐसा खाका निकलकर आया है कि हमारी जो कालजयी कृतियाँ हैं और जो वर्तमान की सबसे महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं, जिनकी संभावना बनती है, इसके दूसरे चरण में उनको भी शामिल किया गया है। दूसरे चरण में इस योजना के आकार को थोड़ा और बड़ा कर लिया गया है, २४ भारतीय भाषाओं की महत्वपूर्ण रचनाओं को भी शामिल कर लिया गया है, साथ ही इसमें कला और संस्कृति के दूसरे क्षेत्र भी जोड़ लिये गये हैं और मैं आश्वस्त हूँ कि यह काम जल्दी ही पूरा हो जाएगा। नंद भारद्वाजजी, मुझे लगता है, और यह बात सभी महसूस करगे कि केवल सूचना का अधिकार, जो दर्शकों को मिला है, या समाचार जानने का जो अधिकार दर्शकों को है, वो तो जो सरकार आती है, उसका भौंपू बनने की विवशता झेलता है, लेकिन साहित्य उस विवशता को नहीं झेलता। साहित्य को अगर सही जगह देनी है तो उसे दर्शक तक पहुँचाइये - आपकी सफलता, आपकी ईमानदरी सब-कुछ का अंश वहाँ तक पहुँचे और क्लासिक्स पर आधारित शृंखला के निर्माण के पीछे यही भावना काम कर रही है। मैं निराश नहीं हूँ, सरकार भी शायद इस बात को समझती है, सोचती है और मैं उम्मीद भी कर रही हूँ कि जल्दी ही यह दूसरा चरण भी पूरा हो जाएगा और यह काम इसी तरह आगे बढ़ता रहेगा।

नंद भारद्वाज :    

चित्राजी, आपकी उम्मीदों के साथ हमारी और सारे दर्शक-वर्ग की भी उम्मीदें जुड़ी हुई हैं, आपने वाकई बहुत संजीदगी से इस काम को इस मुकाम तक पहुँचाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान किया है, हम भी आशावान हैं कि यह काम जल्दी ही पूरा होगा। इस महत्वपूर्ण संवाद के लिए पुनः आपका हृदय से आभार!

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