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ऑस्ट्रेलिया की हिंदी साहित्यकार भावना कुँवर से संवाद

 

यूँ तो डॉ. भावना कुँवर जी भारत में पली बढ़ी हैं लेकिन कुछ दशकों से उन्होंने ऑस्ट्रेलिया को अपनी कर्मस्थली बनाया हुआ है। ऑस्ट्रेलिया की व्यस्त दिनचर्या के बावजूद भावना जी साहित्यिक रूप से अत्यंत सक्रिय हैं। क़लम की उर्वरता उन्हें नित ऊर्जावान बना रही है और इसी कारण वे साहित्य की लगभग अपरिचित सी और अपेक्षाकृत उन नवीन विधाओं में रचना कर रही हैं जहाँ अक़्सर साहित्यकारों की नज़र नहीं जाती। उनके सेदोका, चोका, हाइकु और ताँका संग्रह हिंदी पाठकों में काफ़ी चर्चित रहे हैं और लोकप्रिय भी हुए हैं। “साठोत्तरी हिंदी ग़ज़ल में विद्रोह के स्वर एवं उसके विविध आयाम” शीर्षक अपने परिश्रम साध्य शोधप्रबंध में भावना जी ने हिंदी ग़ज़ल के सभी परिचित एवं अपरिचित ग़ज़लकारों की ग़ज़लों के माध्यम से ग़ज़ल के विभिन्न आयामों की पड़ताल की है। हाल ही में प्रकाशित ‘कूल कछुआ, स्मार्ट कंगारू’ इक्कीसवां काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ है जिसमें उनके अट्ठाईस बालगीत संकलित हैं। ये बालगीत इतने सरस और रुचिकर हैं जो न केवल बच्चों को लुभायेंगे वरन्‌ बड़े बूढ़े भी इन्हें पढ़कर मुस्करायेंगे। आप आस्ट्रेलिया से ‘ऑस्ट्रेलियांचल’-ई पत्रिका भी नियमित रूप से निकाल रही हैं। बहुआयामी प्रतिभा की धनी भावना जी अपने सौम्य व्यवहार और सरल-सहज मुस्कान से अपने आसपास के परिवेश को सकारात्मकता देती हैं। कुँवर बेचैन जी की पुत्रवधू और ग़ज़लकार प्रगीत कुँवर जी की अर्धांगिनी भावना जी से बड़े ही सौहार्दपूर्ण वातावरण में हुई डॉ. नूतन पाण्डेय से हुई बातचीत के प्रमुख अंश पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत हैं: 

 

डॉ. नूतन पाण्डेय— 

आपका भारत से प्रवासी होने का सफ़र किन परिस्थितियों में हुआ? 

डॉ. भावना कुँवर— 

नूतन जी, सबसे पहले तो आपको इस संवाद के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। जैसा आपने पूछा, हमारी प्रवासी यात्रा दो दशक पहले प्रारम्भ हुई। मैं भारत में पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में हिंदी की लेक्चरर थी। मेरे पति प्रगीत कुँअर जो कि एक चार्टेड एकाउंटेंट हैं उनको ईस्ट अफ़्रीका की एक बहुत रेप्युटेटिड कंपनी से जॉब का ऑफ़र आया और हम परिवार सहित युगांडा माइग्रेट हो गए। मुझे भी वहाँ पर अध्यापिका की जॉब मिल गयी। 6 वर्ष कैसे निकल गए पता ही नहीं चला। वैसे तो हमारे बच्चे यू.के. बेस्ड प्राइवेट स्कूल में पढ़ रहे थे फिर भी हमें लगा कि अब हायर स्टडीज़ के लिए और अच्छे देश में जाना चाहिये तो हम परिवार सहित ऑस्ट्रेलिया मूव कर गए। 

डॉ. नूतन पाण्डेय— 

भारत, युगांडा और ऑस्ट्रेलिया तीन अलग-अलग ध्रुव देशों, भिन्न भाषाओं, भिन्न संस्कृतियों में सामंजस्य किस तरह बैठाया? क्या कल्चरल शॉक जैसा कुछ अनुभव हुआ? 

डॉ. भावना कुँवर— 

भारत जैसे विकासशील देश से युगांडा जैसे अविकसित देश का सफ़र और फिर वहाँ से ऑस्ट्रेलिया जो एक बहुत विकसित देश है, तक के सफ़र का एक अलग ही अनुभव रहा। भारत की ही तरह युगांडा में भी प्राकृतिक संपदा एवं आदिवासी सभ्यता से रूबरू होने का अवसर मिला। अब चाहे घर में काम करने वाली मेड हो या फिर आसपास के स्थानीय मित्र हों। सबसे अलग-अलग तरह का अनुभव हुआ। मैं वेजिटेरियन हूँ तो मुझे बहुत सारी वेजिटेरियन डिशिज़ मेरी मेड से सीखने को मिलीं। सबसे बड़ी बात ये लगी कि वहाँ की मेड हमारा पूरा खाना बनाना जानती थी चाहे आप पूरी-सब्ज़ी की बात करें, चाहे समोसे आदि की। उन सबके बीच रहकर उन कुरीतियों को तोड़ने का अवसर भी मिला जो हमारे समाज में फैली हुई हैं, रंग-भेद और छोटे-बड़े की कुरीतियाँ। वहाँ रंग-भेद मायने नहीं रखता वहाँ सब मिल-जुलकर एक साथ काम करते हैं, साथ खाते-पीते हैं। मेरा अपना अनुभव तो यही रहा। इसके बाद यहाँ ऑस्ट्रेलिया में आकर गोरों के बीच भी मेरा अनुभव अलग ही है। जब हम ऑस्ट्रेलिया आए तो कुछ हमारे पारिवारिक मित्र बने जो कि गोरे लोग हैं उनसे हमारी मित्रता आज तक भी है। मैंने तो सिर्फ़ यही महसूस किया, अनुभव किया कि बात रंग की है ही नहीं, बात है तो सिर्फ़ आपके व्यवहार की। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

लिखने की मूल प्रेरणा आपको कहाँ से मिली, ससुराल के साहित्यिक वातावरण ने आपके लेखन को किस तरह प्रभावित किया? 

डॉ. भावना कुँवर— 

लिखने की मूल प्रेरणा की अगर बात करूँ तो लिखने का शौक यूँ तो बचपन से ही था क्योंकि साहित्यिक परिवार में पली-बढ़ी थी। मेरे पिता श्री चंद्रबली शर्मा जो रिटायर्ड प्रिंसिपल हैं वे अपनी कविताएँ लिखकर अक़्सर मुझे सुनाया करते थे, पर उन्होंने उनको कभी पब्लिश नहीं कराया। पापाजी मुक्त छंद के साथ-साथ कुंडलियाँ बहुत लिखा करते थे, हालाँकि अब ये विधाएँ वो कम ही लिखते हैं, अब हाइकु, संस्मरण और कहानियाँ, लघुकथाएँ ज़्यादा लिखा करते हैं। मैंने हाल ही में उनकी सभी रचनाओं को एकत्रित करके एक पुस्तक का रूप दिया है और उसे ‘अयन प्रकाशन’ से प्रकाशित कराकर उनके जन्मदिन पर उनको भेंट स्वरूप दिया है। इस पुस्तक का नाम है, “विरह वेदना”।

पिताश्री हिंदी संस्कृत से पोस्ट ग्रेजुएट, बी.टी. हैं। पापाजी को पुस्तक पढ़ने का बहुत शौक़ था उन्होंने अपने घर में पाँच-सात बड़ी अलमारियों की एक लाइब्रेरी बना रखी थी, उसमें सब तरह की पुस्तकें हुआ करती थीं, जैसे उपन्यासों में—कृष्ण चन्दर का ‘एक गधे की आत्मकथा’, यज्ञदत्त शर्मा का ‘संक्रान्तिकाल’, गुरुदत्त के ‘सम्भवामि युगे युगे’ और ‘परित्राणाय साधूनाम’, विमल मित्र का ‘पति पत्नी संवाद’, प्रबोध कुमार सान्याल का ‘उलटा दाँव’, उपेन्द्रनाथ अश्क का ‘शहर में घूमता आईना’ और ‘एक नन्ही कंदील’, रवीन्द्रनाथ टैगोर का ‘गोरा’, जैनेन्द्र कुमार का ‘त्यागपत्र’, कविताओं में बच्चन जी की ‘मधुशाला’, कहानियों में—‘हितोपदेश’ और ‘पंचतंत्र’, नाटकों में-जयशंकर प्रसाद के ‘चन्द्रगुप्त’, ‘स्कन्दगुप्त’ आदि। 

मैंने दुष्यंत कुमार जी का ग़ज़ल संग्रह “साये में धूप” वहीं से पढ़ा वो आज भी मेरे पास है। गोदान आदि पुस्तकें तो मैं अपने साथ ऑस्ट्रेलिया भी ले आयी हूँ हालाँकि उन पुस्तकों की हालत अब काफ़ी जर्जर हो चुकी है फिर भी मैंने उनको बहुत सम्भाल कर रखा हुआ है। ज़्यादातर हमें जब भी स्कूल की पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ देनी होतीं थीं तब हम लिखा करते। बड़े हुए तो उल्टी-सीधी शायरी करके डायरी के पन्ने भरने लगे, जो आज भी टूटे-फटे पेज बड़े सँभालकर रखे हुए हैं। जब पीएच.डी. ग़ज़ल पर की तो बहुत सारी पुस्तकें ग़ज़ल पर पढ़ीं। दुष्यंत कुमार जी की “साए में धूप” मेरी आज भी पंसदीदा पुस्तक है। अब ये शौक़ बढ़ने लगा था तो लेखन में और ज़्यादा रुचि आने लगी थी। मैंने मेरी पीएच.डी. में अपने श्वसुर डॉ. कुँअर बेचैन जी की ज़्यादातर ग़ज़लों के शेर लिए हैं। मैंने सभी बड़े-छोटे शायरों को पढ़ा है और ज़्यादा से ज़्यादा शायरों को अपनी थीसिज़ में शामिल किया है। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

आपने ग़ज़ल और हाइकु विधा में बहुत लिखा है। पहले ग़ज़ल की बात करें तो ग़ज़ल के प्रति आपका रुझान युवावस्था से ही रहा है, आपके शोध प्रबंध का विषय भी ‘साठोत्तरी ग़ज़लों में विद्रोह के स्वर’ था। ग़ज़ल पसंद थीं, इसलिए शोध का यह विषय चयन किया या फिर शोध के बाद ग़ज़ल लेखन के प्रति रुचि जागृत हुई? 

डॉ. भावना कुँवर— 

जी नूतन जी, ग़ज़ल पढ़ने के साथ-साथ ग़ज़ल सुनने का शौक़ भी बचपन से ही था। मैंने ग़ुलाम अली जी, पंकज उधास जी और जगजीत सिंह जी द्वारा गायी गईं मशहूर शायरों की ग़ज़लों को ख़ूब सुना। पहले तो सीडी की जगह कैसेट आया करती थीं, मेरे पास पूरा क्लैकशन हुआ करता था, सारी ग़ज़लें मुझे याद भी रहती थीं। कवि सम्मेलन में भी ग़ज़ल सुनना मुझे बहुत अच्छा लगता था। जब बात आयी हिंदी में शोध की तो मैंने अपनी प्रिय विधा ग़ज़ल को ही चुना। हाइकु पर खू़ब काम करने के बाद अब बारी आयी हिंदी ग़ज़ल पर काम करने की, उनकी बारीक़ियों को समझने की। आजकल काफ़ी ग़ज़लें लिखी गयीं हैं और पत्र-पत्रिकाओं और साझा संकलन में तो ख़ूब प्रकाशित हुई हैं। अब समय आया है अपनी प्रिय विधा को प्रकाशित कराने का क्योंकि समयाभाव के कारण कभी उनको एकत्रित ही नहीं कर पायी। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

मीर, फ़िराक़ गोरखपुरी, फ़ैज़, दुष्यंत कुमार, राहत इन्दौरी, निदा फ़ाज़ली, स्वर्गीय डॉ. कुँअर बेचैन जी आदि ग़ज़ल की ऐसी शख़्सियत हैं जिन्होंने लोकप्रियता की बुलंदियों को छुआ है, आप किसे अपना आदर्श मानती हैं? 

डॉ. भावना कुँवर— 

मैं सभी से बहुत प्रभावित रही हूँ दुष्यंत कुमार जी को तो बचपन में पढ़ा ही है और अपनी शोध की पुस्तक भी उनको ही समर्पित की है। दूसरे पापाजी (श्वसुर) डॉ. कुँअर बेचैन जी की ग़ज़लें उनका गाने का अन्दाज़ मुझे बहुत पसंद है, परिवार का सदस्य होने के कारण उनसे सीधा संवाद भी सम्भव था तो ग़ज़ल की बारीक़ियों को सीखने और उनको धुन में कैसे ढाला जाता है ये सब सीखने का अवसर भी मिला। मैं और पति प्रगीत दोनों ही ग़ज़लें लिखते हैं, प्रगीत के लिए तो सब यह भी कहते हैं कि उनकी आवाज़ हू-ब-हू पापाजी से मिलती है। हम तीनों मिलकर लगभग रोज़ ही ग़ज़ल पर चर्चा किया करते थे, हमें बहुत काम इस क्षेत्र में करने थे, किन्तु दुर्भाग्य ने उन्हें अचानक ही हमसे छीन लिया। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

आपके कई हाइकु संग्रह भी निकल चुके हैं। हाइकु साहित्य की अपेक्षाकृत नई विधा कही जा सकती है, जिसमें निश्चित संख्या में शब्दों का चयन करके रचना की जाती है। अत्यंत सीमित शब्दों में किसी विषय को अभिव्यक्त करना कितना मुश्किल है? 

डॉ. भावना कुँवर— 

जी आपने सही कहा हाइकु एक बहुत छोटी विधा है, जिसमें तीन पंक्तियाँ और कुल सत्रह वर्ण होते हैं। पहली पंक्ति में पाँच, दूसरी पंक्ति में सात और तीसरी पंक्ति में पाँच वर्ण होते हैं। सत्रह वर्णों में अपनी बात कहना काफ़ी मुश्किल तो होता है, किन्तु मेरा मानना शुरू से ये रहा है कि चाहे एक ही हाइकु लिखा जाए पर इतना प्रभावशाली होना चाहिये कि पढ़ने वाले के मुख से बरबस ही वाह निकल जाए, इसके लिए मैं हाइकु को कई बार इधर-उधर करके लिखती हूँ और प्रयास करती हूँ कि वह उच्च कोटि का हाइकु बने और साथ ही अगर मुझे कोई हाइकु कमज़ोर लगता है तो मैं उसे अपनी पुस्तक में नहीं रखती। 

जी हाइकु पर मेरे 6 संग्रह निकल चुके हैं, जिसमें से दो संग्रह मेरे हैं, “तारों की चूनर”, “धूप के ख़रगोश” इसके अलावा मैंने 4 संग्रहों का सह-संपादन किया है, जो हैं—चन्दनमन (हाइकु संग्रह), यादों के पाखी (हाइकु संग्रह) डॉ. सुधा गुप्ता के हाइकु में प्रकृति (अनुशीलन ग्रन्थ), हाइकु काव्यः शिल्प एवं अनुभूति (एक बहुआयामी अध्ययन) 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

आपने अन्य विधाएँ जैसे ताँका, सेदोका, चोका, हाइकु और हाइगा पर भी काफ़ी काम किया है। उसके बारे में भी कुछ बताएँ। 

डॉ. भावना कुँवर— 

हाइकु की तरह ही मुझे ताँका, सेदोका, चोका और हाइगा लिखना बहुत पसंद है। मैंने इन सभी विधाओं में बहुत काम किया है और बहुत काम अभी करना बाक़ी है। काफ़ी पुस्तकें हैं जिन पर अभी काम चल रहा है किन्तु जो प्रकाशित हो चुकी हैं वो आपसे साझा करती हूँ, “जाग उठी चुभन” मेरा सेदोका संग्रह, “परिन्दे कब लौटे” चोका संग्रह और “यादों का गाँव” मेरा ताँका संग्रह प्रकाशित हुआ है। इसके अलावा मैंने कुछ पुस्तकों का सह-संपादन भी किया है, जो हैं, “भाव कलश” (ताँका संग्रह), “अलसाई चाँदनी” (सेदोका संग्रह), “उजास साथ रखना” (चोका-संग्रह), “गीले आखर” (चोका संग्रह)। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

आपको प्रथम प्रवासी हाइकुकार, सेदोकाकार और चोकाकार के नाम से क्यों जाना जाता है? 

डॉ. भावना कुँवर— 

मुझे प्रथम प्रवासी सेदोका, चोका और हाइकुकार के नाम से इसलिए जाना जाता है कि इन विधाओं पर विदेश से मेरे संग्रह ही प्रथम प्रकाशित संग्रह हैं। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

आपकी अन्य पुस्तकें भी हैं वे किन विधाओं पर हैं? 

डॉ. भावना कुँवर—

नूतन जी, मेरी अन्य विधाओं पर प्रकाशित पुस्तकें हैं, “जरा रोशनी मैं लाऊँ” ये एक ‘मुक्त छंद’ है। “साठोत्तरी हिंदी ग़ज़ल में विद्रोह के स्वर”, मेरे शोध ग्रंथ पर है और कई बाल रचनाओं पर पुस्तकें हैं जिनमें से एक है, “कूल कछुआ स्मार्ट कंगारू”। कुछ और पांडुलिपियाँ भी प्रकाशन के लिए तैयार हैं और जल्दी ही पब्लिश होने की प्रतीक्षा में हैं जैसे—हाइगा संग्रह, दोहा संग्रह, माहिया संग्रह, दो बाल-संग्रह, एक लघुकथा संग्रह, एक कहानी संग्रह और दो ग़ज़ल संग्रह, एक संस्मरण संग्रह। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

आप विदेश में रहकर भी इतना कैसे लिख पाती हैं जबकि आप फ़ुल टाइम जॉब भी करती हैं, विस्तार से इस बारे में बताएँ कि कब-कब आपने हिंदी के लिए क्या-क्या काम किया? 

डॉ. भावना कुँवर— 

जी मैं यही कहूँगी कि अभाव ज़्यादा सालता है। हम प्रवासी लोग अपनों से दूर यहाँ परदेस में रहते हैं तो अपनों की याद अपने देश, घर, गाँव की याद, तीज-त्यौहार हर वक़्त हमारे ज़हन में कहीं ना कहीं चलते ही हैं, वही सब लेखन में उभर आता है। 

जी, मैं फ़ुल टाइम जॉब करती हूँ तो भी जब भी कोई ख़्याल मन में आता है उसे नोट कर लेती हूँ और जब भी समय मिलता है उसको पूरा कर लेती हूँ क्योंकि ख़्याल तो मेरे मन में सोते-जागते हर वक़्त आते ही हैं, यही कारण है जो इतना लिख भी पाती हूँ, अगर ख़्याल ही ना आएँ तो लिखना भी सम्भव नहीं है। 

एक क़िस्सा सुनाती हूँ—जब हम युगांडा से ऑस्ट्रेलिया आ गए तो यहाँ आकर जॉब की तलाश शुरू हुई। मुझे जॉब तो मिली किन्तु सिडनी में नहीं दूसरे शहर पर्थ में मिली। जॉब टयूटर की थी, मुझे बस दो घंटे पढ़ाना होता और फिर पूरे दिन होटल के रूम में। मैं बस अपना खाना-पीना करती और कुछ ना कुछ लिखती रहती, इससे समय भी अच्छा कट जाता और साहित्य सृजन भी हो जाता। कुछ महीने मैंने पर्थ में काम किया फिर परिवार को सिडनी में छोड़ना मेरे मन को ज़्यादा रुचा नहीं, तो मैं वापस सिडनी आ गयी और मैंने यहाँ अपना काम शुरू किया, अपनी कोचिंग क्लासिस शुरू की, लोगों को हिंदी पढ़ाना शुरू किया। साथ ही महिला संसाधन न्यूमाइग्रेंट सेंटर (सिडनी) में निःशुल्क स्वैच्छिक शिक्षण द्वारा “हिंदी” के प्रति बच्चों में जागरूकता लाने का प्रयास किया। फिर कोगरा प्राइमरी स्कूल (सिडनी) में आर्ट सिखाने का कार्य किया, फिर मुझे सिडनी यूनिवर्सिटी सीसीई में जॉब मिली और मैंने काफ़ी समय तक वहाँ हिंदी पढ़ाई। अब प्राईवेट ट्यूटरिंग करती हूँ और एक ऑस्ट्रेलियन कंपनी में सेल्स एंड एकाउंट डिपार्टमेंट में कार्यरत हूँ। अपनी चित्रकलाओं की प्रदर्शनी लगाती हूँ। लेखन के कार्य से जुड़े रहने के साथ-साथ सम्मेलनों और गोष्ठियों में जाना निरंतर चलता रहता है, कभी ऑस्ट्रेलिया तो कभी ऑस्ट्रेलिया से बाहर। 

बहुत अजीब लगता है कि भारत में जहाँ लोग हिंदी बोलने में अपना अपमान समझते हैं वहीं हम यहाँ विदेशों में हिंदी सिखाकर गर्व का अनुभव करते हैं। जब भी कभी मेरे अँग्रेज़ छात्र मुझसे हिंदी में बात करते हैं या ये कहूँ कि मुझसे भी ज़्यादा शुद्ध हिंदी में बात करते हैं तो मेरा मन ख़ुशी से खिॆल उठता है और गर्व की अनुभूति होती है। ज़्यादा से ज़्यादा काम साहित्य पर करना चाहती हूँ, लोगों को जोड़ना चाहती हूँ, अपने हिन्दुस्तानी छात्रों को उत्साहित करती हूँ अपनी मातृभाषा को ना सिर्फ़ सीखने के लिए बल्कि उसमें कुछ ना लिखते रहने के लिए। मैं उनको लिखना भी सिखाती हूँ, चाहे वह हाइकु हो या कोई और विधा। 

आज मैं ही नहीं मेरे पिता श्री, माताश्री भी मुझ पर गर्व करते हैं अपनी मातृभाषा से परदेस में रहकर भी इस क़द्र जुड़े रहने से। अपनी मातृभाषा के लिए भविष्य में बहुत कुछ करना है और ये जुड़ाव मेरे मन के भीतर से उमड़ता है और कुछ ना कुछ उपलब्धि ज़रूर कराता है। 

माँ सरस्वती की अनुकम्पा यूँ ही बनी रही तो ये सृजन का सिलसिला कभी थमेगा नहीं और नवांकुरों को उनके देश, उनकी मिट्टी, संस्कार, सभ्यता, संस्कृति से जोड़ने की छोटी सी ही सही, एक कड़ी मैं भी बन सकूँगी। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

आपने एक फ़िल्म में भी अनुवाद का कार्य किया है उस बारे में भी कुछ बताएँ? 

डॉ. भावना कुँवर— 

आपको याद ही होगा जब ताज होटल मुम्बई में आतंकवादी हमला हुआ था। उस दर्दनाक घटना पर ऑस्ट्रेलिया के निर्माता Lliam Worthington ने अँग्रेज़ी में एक फ़िल्म बनाई जिसका नाम है, “One Less God” उसमें मैंने हिंदी में संवादों का अनुवाद किया है। निर्देशक को मेरा चेहरा भी पंसद आया तभी शायद एक दो होली के दृश्यों में उन्होंने मुझे भी शामिल किया। इस फ़िल्म को कई इंटर नेशनल एवार्ड भी प्राप्त हुए हैं। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

जब ग़ज़ल की बात चलती है तो आम धारणा में उसे उर्दू भाषा से जोड़कर देखने की परंपरा है, आप ग़ज़ल विधा को किस तरह से देखती हैं? क्या भाषाएँ भावों को अभिव्यक्त करने के दो भिन्न ज़रिया मात्र हैं या कुछ और? 

डॉ. भावना कुँवर— 

मेरा मानना है कि काव्य की कोई भी विधा किसी भाषा और क्षेत्र की सीमाओं तक ही सीमित नहीं रह सकती उसकी लोकप्रियता उसको दुनिया के कोने-कोने तक ले जाती है माना कि ग़ज़ल को उर्दू से जोड़ा जाता है लेकिन उसकी लोकप्रियता कई भाषाओं में है। हिंदी में भी ग़ज़ल ने अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया है। हिंदी ग़ज़ल की शुरूआत दुष्यंत कुमार से हुई और बाद में काफ़ी लोगों ने इसे आगे बढ़ाया हमारे पिताश्री डॉ. कुँअर बेचैन जी ने “ग़ज़ल का व्याकरण” नाम से एक पुस्तक निकाली जिसका चौथा संस्करण हमने उनके जाने के बाद 2021 में निकाला है, उसमें ग़ज़ल की उर्दू की बहरों को हिंदी में कैसे लिखा जा सकता है ये समझाया गया है। मंचों पर भी हिंदी ग़ज़ल को बहुत सराहा जाने लगा है। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

आप ऑस्ट्रेलियांचल हिंदी ई-पत्रिका की संपादक भी हैं। ई-पत्रिकाएँ क्या प्रिंट पत्रिकाओं की पूरक कही जा सकती हैं? 

डॉ. भावना कुँवर— 

मैं ऑस्ट्रेलिया, कैनाडा और भारत की अनेकों साहित्यिक पत्रिकाओं एवं वेब पत्रिकाओं में संपादन एवं सह-संपादन का कार्य समय-समय पर करती रही हूँ। माना कि कई-कई दिन निकल जाते थे काम करते-करते, बहुत मेहनत की है इस क्षेत्र में मैंने, बिना किसी स्वार्थ और धन के। इतना समय लगाया कि इस बीच तैयार पड़ी पांडुलिपियाँ भी पब्लिश नहीं करा पायी। फिर मन में विचार आया कि क्यूँ ना यहाँ से एक साहित्यिक ई-पत्रिका मैं स्वयं निकालूँ क्योंकि एक तो कोई साहित्यिक ई-पत्रिका यहाँ से निकलती नहीं है दूसरे मैं अपने समय के हिसाब से अपना काम कर पाऊँगी। 

जी बिल्कुल पूरक कहीं जा सकती हैं, आज इंटरनेट का ज़माना है जिसमें हम दूर-दूर बैठे भी पत्र-पत्रिकाओं का भरपूर आनंद ले सकते हैं। आज के तकनीकी युग में ये ज़्यादा सुविधाजनक हैं क्योंकि इनको भेजने मैं ख़र्चा नहीं आता। देश-विदेश के किसी भी कोने में इनको मेल में, व्हाट्सएप पर आसानी से भेजा जा सकता है। किसी भी डिवाईस पर इनको आसानी से पढ़ा जा सकता है। प्रिंट पत्रिकाओं को दूर देशों तक पहुँचाने का ख़र्चा और समय दोनों ही लगते हैं। 

बस एक बात है जो मैं महसूस करती हूँ कि पुस्तक को हाथ में लेकर पढ़ना मुझे कुछ अलग ही एहसास देता है पर इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि ई-पत्रिकाएँ कम आँकी जाती हैं या उनका महत्त्व कम हो जाता है। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

आप ऑस्ट्रेलिया में शिक्षण क्षेत्र से भी जुड़ी हैं, आपने हिंदी सीखने केलिए पुस्तकें भी फ़ेयर की हैं, ऑस्ट्रेलिया में हिंदी की स्थिति किस प्रकार की है, लोग हिंदी सीखने के प्रति कितनी रुचि लेते हैं? 

डॉ. भावना कुँवर— 

क्षण क्षेत्र से जुड़ी रही हूँ और अभी भी जुड़ी हूँ। अभी मैं हिंदी की प्राइवेट क्लासिस ही लेती हूँ। हिंदी की कुछ पुस्तकें संयुक्त प्रयासों से पब्लिश हुई हैं। कुछ पुस्तकें हैं—अक्षर सरिता, शब्द सरिता, स्वर सरिता, गीत सरिता। ये प्राथमिक कक्षाओं के लिए हिंदी भाषा-शिक्षण की शृंखला है। जिससे हिंदी सीखने में बहुत ही मदद मिलेगी। इसके अलावा मैंने बच्चों के लिये बाल-गीत भी लिखे हैं, बाल-कविताएँ भी लिखी हैं जिनको वो आसानी से याद भी कर सकते हैं। आगे भी मेरी कई योजनाएँ हैं कि किस तरह से हिंदी को नवांकुरों तक ले जाया जाए। 

हिंदी सीखने में रुचि की बात अगर करूँ तो बहुत पेरेन्टस हैं जो अपने बच्चों को भारतीय सभ्यता और संस्कृति से जोड़े रखना चाहते हैं और चाहते हैं कि वो अपनी मातृभाषा को कभी ना भूलें और उससे प्यार करें जब इस तरह की भावनाएँ माता-पिता अपने बच्चों को देते हैं तो बच्चे भी ख़ुशी-ख़ुशी आगे बढ़ते हैं और उनमें एक अलग ही जोश होता है। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि बच्चों को हिंदी सिखाना है या नहीं इसमें बहुत बड़ा हाथ माता-पिता का भी है।

यहाँ कई स्कूल हैं जिनमें हिंदी आ गई है। माला मेहता जी का सैटरडे स्कूल भी है जो बहुत पुराना है जिसमें पहले से ही हिंदी सिखाई जाती है। 

पेरेंट्स अपने बच्चों को अपनी सभ्यता और संस्कृति से जुड़े रहने के लिये हमेशा तत्पर रहते हैं। उन्हें भाषा के महत्त्व को समझाते हैं और प्रेरित करते हैं कि वे अपनी मातृभाषा को सीखें। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

विश्वविद्यालय और स्कूल के पाठ्यक्रम में भी आपकी कुछ रचनायें शामिल की गयीं हैं उसके बारे में भी कुछ बतायें? 

डॉ. भावना कुँवर— 

CCE ”भाषा मंजूषा” में कक्षा 8 के पाठ्यक्रम में एक यात्रा-संस्मरण सम्मिलित है। अरुणाचल प्रदेश के “राजीव गाँधी विश्वविद्यालय” के बी.ए. के पाठ्यक्रम में मेरी रचना, “छाया घना अँधेरा ज़रा रोशनी मैं लाऊँ, ये सोचकर क़लम को मैंने उठा लिया है” को शामिल किया गया। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

आप विश्वरंग (टैगोर इंटरनेशनल लिटरेचर एंड आर्ट समिति) ऑस्ट्रेलिया की कोर्डिनेटर भी हैं इसके बारे में कुछ बताएँ? 

डॉ. भावना कुँवर— 

जब नवम्बर 2019 में पहली बार विश्वरंग कार्यक्रम आयोजित हुआ तब प्रवासी साहित्यकारों को भी आमन्त्रित किया गया जिसमें सौभाग्य से मुझे भी आमन्त्रण मिला। भोपाल में हफ़्ते भर चले साहित्यिक उत्सव में प्रवासी साहित्यकारों को सम्मानित भी किया गया। देश-विदेश कि जानी मानी हस्तियाँ इसमें शामिल थीं। तभी आने वाली योजनाओं पर भी चर्चा हुई और फिर कोरोना के क़हर ने दुनिया को हिलाकर रख दिया जिसके कारण विश्वरंग को वर्चुअल रूप से किया गया जिसमें 2020 में मुझे ऑस्ट्रेलिया का कोर्डिनेटर बनाया गया। इसके बाद 2021 भी वर्चुअल रूप से मनाया गया। 

पूरा कार्यक्रम बच्चों पर फ़ोकस था। मैंने ऑस्ट्रेलिया के अलग-अलग शहरों से लोगों को जोड़ते हुए उनके साक्षात्कार लिए और बच्चों के लिए कहाँ-कहाँ क्या-क्या हो रहा है सबकी वीडियो बनाकर “विश्वरंग वर्चुअल” 2021 में शामिल कीं। बहुत ख़ुशी की बात यह है कि नवम्बर 2022 में विश्वरंग प्रत्यक्ष रूप में होने जा रहा है। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

और साहित्य लेखन प्रकाशन की दशा कैसी है, जब कोई नई पुस्तक प्रकाशित होकर आती तो लोगों की प्रतिक्रया किस प्रकार की होती है? 

डॉ. भावना कुँवर— 

तकनीकी बदलाव के कारण अब बहुत सुविधाजनक हो गया है। अब उतना समय नहीं लगता जितना पहले लगा करता था। अब लेखक प्रूफ़ रीडिंग आदि की जटिलताओं से बाहर आ गए हैं। कितने ही तरह के फॉन्ट उपलब्ध हैं जिससे टाईपिंग में भी आसानी हो गयी है। दूर बैठकर अब ये चिंता नहीं कि पांडुलिपी कब पहुँचेगी हम नेट के माध्यम से आसानी से मेल में सब भेज सकते हैं। 

नयी पुस्तक के प्रकाशन पर प्रतिक्रिया पॉज़िटिव ही रहती है क्योंकि एक तो पाठक वर्ग बढ़ गया है। कम्यूटर के आने के बाद हर क्षेत्र में आन्दोलन आया है जिसमें साहित्य क्षेत्र भी अछूता नहीं रहा है। लेखन, प्रकाशन एवं पाठन तीनों क्षेत्रों में बहुत प्रगति हुई है। 

मैं अपनी पुस्तक पर प्रतिक्रिया की बात करूँ तो मुझे बहुत सराहा जाता है ख़ासकर मेरी अलग-अलग विधाओं पर काम करने की बात को लेकर। ज़्यादातर लोगों का यही कहना रहता है कि जिन विधाओं पर बहुत कम काम हुआ है मैं उन पर काम करके लोगों में उन विधाओं पर काम करने की उत्सुकता, प्रेरणा का काम कर रही हूँ। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

आपका दिल के दरमियाँ ब्लॉग http://dilkedarmiyan.blogspot.com/ पाठको के बीच बहुत लोकप्रिय है, आप सोशल मीडिया पर भी सक्रिय रहती हैं नई पीढ़ी पर सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव को किस तरह देखती हैं और विभिन्न संवेदनशील मुद्दों पर क्या वह उत्तरदायी भूमिका निभा पाता है? 

डॉ. भावना कुँवर— 

नूतन जी मेरे ब्लॉग की शुरूआत 9 अगस्त 2006 में रक्षा बन्धन पर हुई थी। सबसे पहले मैंने वहाँ हाइकु पोस्ट किये थे जिनको बहुत सराहा गया था, ये वही दौर था जब मैं हाइकु पर काम कर रही थी। बहुत से अच्छे पाठक मुझसे जुड़े, जिसमें सभी उम्र के पाठक थे, नयी पुरानी दोनों ही पीढ़ियाँ शामिल थीं। कुछ नयी पीढ़ी के लोग मुझसे हाइकु लेखन सीख भी रहे थे। हमारी छोटी बेटी उस वक़्त मात्र सात साल की रही होगी उसको भी और बड़ी बेटी को भी मेरे हाइकु सुनने का बहुत शौक़ था। नयी-नयी बातें ब्लॉग के बारे में बड़ी बेटी काव्या किया करती थी उसके सुझाव मुझे हमेशा ही अच्छे लगे। छोटी बेटी ऐश ने तो उस वक़्त कई हाइकु बना डाले जिनका कि अनुवाद भी हुआ है। अन्त में मैं यही कहना चाहूँगी कि एक दौर था जब ब्लॉग का अलग ही प्रभाव था अब जीवन कुछ ज़्यादा ही फ़ास्ट हो गया है अब लोगों पर दूसरों का लिखा पढ़ने का वक़्त नहीं है, लेकिन मेरा मानना है कि ये ब्लॉग का समय फिर से लौटेगा, कब ये तो पता नहीं, इस फ़ेसबुक के दौर ने ब्लॉग को ठंडा ज़रूर कर दिया है पर समाप्त नहीं किया है।

मेरा एक पेंटिग का ब्लॉग—http://drbhawna.blogspot.com/ भी है, जिस पर मैं अपनी बनाई पेंटिग, पेंसिल वर्क पोस्ट करती रहती हूँ जब भी समय मिलता है। एक फ़ेसबुक पेज भी है—https://www.facebook.com/UnendingCreativity/ जिस पर मैं आर्ट वर्क पोस्ट करती हूँ। 
पेंटिग में रुचि होने के कारण ही मेरी कुछ पुस्तकों का कवर पेज मैंने खु़द बनाया है और इतना ही नहीं अपनी पुस्तकों में रचनाओं के अनुरूप चित्र बनाकर पुस्तकें प्रकाशित कराईं हैं। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

आपको टेक्सटाइल और फ़ैशन डिज़ाइनिंग का शौक़ रहा है। लेखन और फ़ैशन डिज़ाइनिंग दोनों ही कलाएँ मौलिकता और सृजनशीलता की माँग रखती हैं, आपको इन दोनों ज़ोन में कितना कम्फ़र्ट महसूस करती हैं? 

डॉ. भावना कुँवर— 

टेक्सटाइल और फ़ैशन डिज़ाइनिंग की बात अगर मैं करूँ तो मैं कहना चाहूँगी कि जब बहुत छोटी थी तो मेरा आर्ट बहुत अच्छा था जैसा कि मेरे पेरेन्टस कहते हैं। उनका कहना था कि घर परिवार में दूर-दूर तक कोई भी आर्ट या पेन्टिग नहीं करता था, सब मेरी आर्ट देखकर चौंक जाया करते थे और कहते थे कि ये गॉड गिफ़्टिड है, तो मुझे हाईस्कूल और इण्टर में आर्ट दिलाया गया और बी.ए. में मेरे विषय थे—आर्ट ऑनर्स, मनोविज्ञान और हिंदी। मैंने आर्ट ऑनर्स में पास किया। मेरे शहर में एम.ए. में न तो आर्ट था न मनोविज्ञान, तो मुझे मजबूरी में हिंदी में एम.ए. करना पड़ा, क्योंकि मेरे दो ही सपने थे या तो आर्टिस्ट बनूँ या साइकेट्रिक, पर कोई भी सपना पूरा नहीं हो पाया, तो मैंने अपने शहर से ही एक प्राइवेट कॉलेज से पाँच साल का टेक्सटाइल और फ़ैशन डिज़ाइनिंग का डिप्लोमा किया, क्योंकि उसमें सभी तरह के आर्ट भी सीखने का अवसर मिला तो मेरा अधूरा सपना कुछ हद तक पूरा भी हो गया और अपनी मातृभाषा हिंदी में एम.ए. करने का गौरव भी प्राप्त हुआ। अपनी डिग्री समाप्त करके मुझे इंडिया में पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज में जॉब भी मिल गई और कई वर्षों तक मैंने अध्यापन का कार्य भी किया बाद में युंगाडा (पूर्वी अफ्रीका) चली गई, वहाँ जाकर टीचिंग के साथ-साथ अपनी कोंचिग क्लासिस भी शुरू कर दीं और वहीं से मैंने अपने दोनों ब्लॉग बनाए। 

आज साहित्य से जुड़ी हूँ लेकिन टेक्सटाइल और फ़ैशन डिज़ाइनिंग में काम करने का अवसर मिला तो ख़ुशी-ख़ुशी करूँगी क्योंकि अनुभव तो है ही। ये डिप्लोमा लेने से मुझे बहुत लाभ भी मिला मैं अपने घर की इंटीरियर डेकोरेटर ख़ुद हूँ मुझे बाहर से किसी को बुलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। इस काम को करने में एक अलग ही तरह के आन्नद की अनुभूति होती है। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

रेडियो और टीवी पर भी आपको काफ़ी सुना है उसके बारे में भी कुछ बताएँ? 

डॉ. भावना कुँवर— 

जी यहाँ सिडनी में “रेडियो दर्पण” नाम से रेडियो चैनल से साक्षात्कार और काव्य पाठ किया है और भारत से दूरदर्शन सहित कई प्रचलित चैनलों से भी मेरे काव्य पाठ का प्रसारण हुआ है। इसके अलावा देश-विदेश के अन्य कई चैनलों से प्रसारण होता रहता है। 

डॉ. नूतन पाण्डेय—

आपको काफ़ी सारे सम्मानों से भी सम्मानित किया गया है उसके बारे में भी कुछ बताएँ? 

डॉ. भावना कुँवर— 

  • भारत में (2011) “हाइकु रत्न सम्मान” 
  • (2018) “कविता कोष सम्मान” और “हिन्दुस्तानी भाषा काव्य प्रतिभा सम्मान“
  • (2019) ऑस्ट्रेलिया सिडनी में “हिंदीरत्न” और (2019) में ही अमेरिकन कॉलेज ब्रिसबेन “ईप्सा एवार्ड” प्राप्त हुआ है।
  • भोपाल में हुए “टैगोर इंटरनेशनल लिटरेचर एंड आर्टस फेस्टेवल” में विशेष आंमत्रण के साथ प्रवासी साहित्यकार सम्मान (2019) से सम्मानित किया गया है। 
  • भारत में (2021) काव्य कलश संस्था द्वारा, “काव्य शिरोमणी” की उपाधि से अलंकृत। 

डॉ. नूतन पाण्डेय 
सहायक निदेशक 
केंद्रीय हिंदी निदेशालय 
शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार 
ई मेल–pandeynutan91@gmail.com 
 

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