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समाज को जगाने के लिए टॉर्चबियरर की तरह से होता है साहित्यकार –नीरजा माधव 

साहित्य की अनेक विधाओं में अपनी क़लम से चमत्कृत करने वाली हिंदी साहित्यकार डॉ. नीरजा माधव पाठकों के मध्य जितनी लोकप्रिय हैं, उतनी ही साहित्य मनीषियों द्वारा प्रशंसित भी रही हैं। आपके उपन्यास ‘यमदीप’, ‘तेभ्य स्वधा’, ‘गेशे जम्पा’, ‘अनुपमेय शंकर’, ‘अवर्ण महिला कांस्टेबल की डायरी’, ‘ईहा मृग’ और ‘देनपा: तिब्बत की डायरी’ आदि अनूठे कथानक और शैली की प्रभावोत्पादकता के कारण अपने आपमें अद्भुत और विशिष्ट हैं। नीरजा माधव जी की कई रचनाओं के अनुवाद भारत की विभिन्न भाषाओं में हुए हैं। डॉ. नीरजा माधव ‘सर्जना पुरस्कार’, ‘यशपाल पुरस्कार’, ‘भारतेन्दु प्रभा’, मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी अवार्ड, ‘शंकराचार्य पुरस्कार’, ‘शैलेश मटियानी पुरस्कार’, ‘राष्ट्रीय साहित्य सर्जक पुरस्कार ‘काशीरत्न सम्मान’ और नारी शक्ति पुरस्कार 2021 जैसे अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित हो चुकी हैं। प्रस्तुत है डॉ. नीरजा माधव से डॉ. नूतन पाण्डेय की बातचीत:

नूतन पाण्डेय:

नीरजा जी, सबसे पहले हमें बताएँ कि लेखन के प्रति आपकी रुचि कैसे और कब जागृत हुई? 

नीरजा माधव: 

नूतन जी, छात्र जीवन से ही मेरे भीतर लेखन के प्रति एक अभिरुचि जागृत हो गई थी। कारण उसका यह था कि मेरे पिताजी एक शिक्षक थे और उनका ट्रांसफ़र होता रहता था। अपनी पढ़ाई के लिए मैं बचपन से ही उनके साथ-साथ जाती रहती थी। पिताजी उपन्यास और कहानियों की किताबें अपने पढ़ने के लिए लाइब्रेरी से ले आया करते थे घर पर। मैं उस समय कक्षा छह या सात में पढ़ती थी। यह समय 1972-73 का था। 1972 के आसपास क्या समय था, आप समझ ही सकती हैं। उपन्यास, कहानियाँ पढ़ना, रेडियो सुनना उस समय बड़ों के प्रति अमर्यादित आचरण जैसा माना जाता था। इसलिए जब पिताजी अपनी किताबों को मेज़ पर रखकर कहीं बाहर जाते थे, तो मैं चुपके-चुपके उत्सुकतावश उन किताबों को पढ़ा करती थी और पिताजी के आने से पहले ही यथास्थान बंद करके रख देती थी। फिर बीच में पढ़ाई के कारण मैं बहुत अधिक साहित्य नहीं पढ़ पाई। एक कारण यह भी रहा कि हिंदी विषय हाईस्कूल के बाद छूट गया और मैंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी, संस्कृत, और दर्शनशास्त्र लेकर बीए तथा अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. की पढ़ाई की। हाँ, भीतर कहीं साहित्य का कोई बीज तो दबा था जो एम.ए. की पढ़ाई करते हुए कविता के रूप में धीरे-धीरे अंकुरित होने लगा। कह सकती हैं कि अन्य लेखकों की तरह ही शायद मैंने भी अपनी शुरूआत कविता से की है और छात्र जीवन को ही अपने लेखन का प्रारंभ बिंदु मानती हूँ। आगे चलकर अंग्रेज़ी विषय में रिसर्च करते हुए कुछ लेख, कुछ संस्मरण और कुछ कहानियाँ भी मैंने लिखीं जिनको सन् 1989 में पहली बार व्यक्तिगत रूप से एक संग्रह के रूप में मैंने प्रकाशित करवाया, ‘प्रथम छंद से स्वप्न’। तो संक्षेप में मेरे लेखन का प्रस्थान बिंदु यही था। 

नूतन पाण्डेय:

किन्नर समुदाय की भावनात्मक और शारीरिक समस्याओं पर आधारित आपका यमदीप उपन्यास बेहद चर्चित रहा। किन्नर विमर्श एक ऐसा विषय है जिस पर साहित्य में अभी भी बहुत ज़्यादा कुछ नहीं लिखा गया है, वह कौन सा क्षण था, जिसने आपको इस अनछुए से मुद्दे पर उपन्यास लिखने को प्रेरित किया? 

नीरजा माधव: 

हाँ, ऐसा भारत में प्रायः लोग कह रहे हैं कि थर्ड जेंडर पर मैंने सबसे पहले लेखनी चलाई और उनके आंतरिक मर्मान्तक जीवन पर उपन्यास ‘यमदीप’ लिखा। मुझे लगता है कि अपने प्राचीन साहित्य में शिखंडी, बृहन्नला या तृतीया प्रकृति समुदाय का उल्लेख और चरित्र हमें मिलता है। बीच के कालखंड में यह समुदाय अत्यंत उपेक्षित और एक तरह से समाज से बहिष्कृत हो गया और अपनी अभिशप्त ज़िन्दगी के साथ उस गुमनाम बस्ती में भाग जाने के लिए विवश हुआ क्योंकि ना तो उन्हें परिवार अपनाता था और न ही समाज उन्हें स्वीकार करता था। अपने साथ हुए क्रूर प्राकृतिक मज़ाक़ के कारण समाज के भीतर तथाकथित हम सभी लोगों के बीच यह तृतीय प्रकृति समुदाय, जिन्हें आज थर्ड जेंडर कहा जाता है, स्वयं को रख पाने में सहज नहीं महसूस करते थे। इसलिए जैसे ही उनके शरीर में थर्ड जेंडर का होने के लक्षण प्रकट होने लगते थे, वे या तो चुपचाप परिवार से बहिष्कृत कर दिए जाते थे या स्वयं ही उस हिजड़ों की बस्ती में जाने के लिए अभिशप्त होते थे। यह एक दर्दनाक स्थिति है किसी भी व्यक्ति के लिए, जो मन से, मस्तिष्क से स्वस्थ हो परन्तु एक प्राकृतिक विकृति के कारण स्त्री या पुरुष कहला पाने की स्थिति में ना हो। कल्पना करना भी बहुत भयावह लगता है। 

नूतन पाण्डेय:

उपन्यास लिखते के दौरान आप निश्चित ही किन्नर समुदाय के संपर्क में आई होगी, उनकी मनोस्थिति को जानने का भी प्रयास किया होगा। उनसे मिलकर आपको किस प्रकार के अनुभव हुए? 

नीरजा माधव: 

ऐसे लोगों का एक समूह जब मेरे घर मेरी बेटी के जन्म पर नाचने-गाने और नेग माँगने के लिए आया तो मेरा मन उनके प्रति पीड़ा से भर उठा। यदि किसी के घर इन्हें नेग ना मिले तो इनके खाने-पीने, जीवन यापन की व्यवस्था कौन करता है? ये प्रश्न सहज ही मेरे मन में उभरे-कैसे जीते हैं ये लोग अपने परिवार से दूर रहकर? शिक्षा के अँधेरे में जीवन बिता देना इन्हें कैसा लगता है? ये तमाम प्रश्न मेरे भीतर उमड़ने घुमड़ने लगे। उस समय मैं आकाशवाणी वाराणसी में कार्यक्रम अधिकारी के रूप में पोस्टेड थी। मैंने मन में एक संकल्प लिया कि इनकी बस्तियों में जाकर इनसे इंटरव्यू करके इन पर एक कार्यक्रम बनाऊँगी ताकि इनकी आवाज़ आकाशवाणी के माध्यम से दूर तक पहुँचा सकूँ। मैंने कई कई बार इनकी बस्तियों में जाकर इंटरव्यू लेने का प्रयास किया, परन्तु बहुत कठिनाई से इनके बारे में तथ्य जुटा पाई। क्योंकि ये लोग बाहरी समाज से जल्दी घुलते-मिलते नहीं। वहीं पर इनके कुछ सांकेतिक शब्दों से भी परिचित हुई! पूरे रीति रिवाज़ और जीवन शैली को खंगालने के बाद मैंने एक प्रोग्राम बनाया , ‘अंदाज गुरु।’ लेकिन केवल कार्यक्रम बनाने से मेरे मन को संतोष नहीं था। बार-बार मन में आता था कि समाज को जगाने के लिए मुझे इनके बारे में कुछ लिखना चाहिए। उसी का परिणाम रहा कि मैंने इन लोगों की मर्मान्तक पीड़ा को एक उपन्यास के रूप में उकेरा और ‘यमदीप’ उपन्यास में इनके लिए आरक्षण, शिक्षा की व्यवस्था, मानवीय अधिकारों आदि की माँग की। 

नूतन पाण्डेय:

आपने 2002 में ही थर्ड जेंडर के लिए आरक्षण और मानवाधिकारों की माँग उठाई। 2014 में उच्चतम न्यायालय ने थर्ड जेंडर को वह सभी अधिकार प्रदान किए जिनकी माँग आपने अपने उपन्यास के ज़रिए की थी। आपके प्रयत्नों से समाज के एक उपेक्षित से माने जाने वर्ग को उसके अधिकार मिलते हैं, संतुष्टि तो हुई ही होगी? 

नीरजा माधव: 

बिल्कुल सही कहा नूतन जी आपने, जब माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अप्रैल 2014 में इस समुदाय को भी तमाम अधिकार आरक्षण और सुविधाएँ मिलीं जिनकी माँग मैंने अपने उपन्यास यमदीप के माध्यम से की थीं तो मन को बहुत संतोष हुआ लगा कुछ सार्थक किया मैंने। साहित्यकार कभी भी तलवार नहीं चलाता परन्तु पिंचू होने का काम तो करता है समाज को जगाने के लिए टॉर्चबियरर की तरह से होता है साहित्यकार शायद साहित्यकार का एक दायित्व मुझसे पूरा हुआ इस उपन्यास के बाद 10–12 वर्षों बाद कुछ अन्य साहित्यकारों ने भी इनके मुद्दे पर लिखा पूरे भारत में थर्ड जेंडर को लेकर एक विमर्श उठा लेकिन दुखद यह है कि विमर्श में अपने आप को महान लेखक सिद्ध करना ज़्यादा उद्देश्य रहा और इन लोगों की समस्याओं को दूर करना या इनको सामाजिक स्वीकार्यता दिला पाना गौण हो गया। यह भी बताओ नूतन जी कि मेरे उपन्यास के बाद 14–15 वर्षों बाद जो विमर्श छेड़ा दुर्भाग्य से उसका नाम लोगों ने किन्नर विमर्श कर दिया इनके लिए किन्नर शब्द का प्रयोग उचित नहीं है क्योंकि किन्नर शब्द हिमाचल प्रदेश की एक जाति के लिए किया जाता है जो सांस्कृतिक रूप से बहुत समृद्ध है और उन लोगों ने भी किन्नर शब्द पर आपत्ति की थी। हम लोगों ने बचपन में कविता पढ़ी है यदि होता किन्नर नरेश मैं राजमहल में रहता सोने का सिंहासन होता सिर पर मुकुट चमकता। राहुल सांकृत्यायन जी ने एक यात्रा वृत्तांत ही लिखा है किन्नर देश में तो ‘किन्नर’ शब्द का प्रयोग थर्ड जेंडर या हिजड़ा समुदाय के लिए नहीं किया जा सकता लेकिन अपने आपको इनका मसीहा बताने के फेर में अधिकांश लेखकों ने इन्हें किन्नर कहना शुरू किया। हिजड़ा शब्द का अर्थ आप शब्दकोश में पा जाएँगी जो इनके संदर्भ में है। इस शब्द से मिलता-जुलता एक शब्द और है हिज्र, जिसका अर्थ होता है संकट के समय अपनी मातृभूमि से वियोग। कितना सत्य है कि ये अपनी मातृभूमि, अपने परिवार को छोड़ने के लिए विवश होते हैं। तो, यह शब्द अपशब्द से सामान्य शब्द तब बन जाएगा जब हम सभी समाज के लोग इनको सामाजिक स्वीकार्यता देंगे। शब्दों को बदल देने मात्र से इनके जीवन में कोई सुधार नहीं आने वाला है। यह सुखद पक्ष है कि माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अधिकार मिलने के बाद इनमें अपने अस्तित्व की लड़ाई करने की चेतना जागृत हुई है और विभिन्न क्षेत्रों में अब ये आगे आने लगे हैं। यह साहित्य की एक मौन विजय कही जाएगी। 

नूतन पाण्डेय:

यह सत्य है कि वर्तमान सरकार द्वारा थर्ड जेंडर के लिए विशेष प्रयत्न किये जा रहे हैं लेकिन आपके दृष्टिकोण में ऐसी कौन सी स्थितियाँ निर्मित की जानी अपेक्षित हैं, जिनके द्वारा किन्नर समाज को समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके और उनकी ऊर्जा को सकारात्मक दिशा दी जा सके? 

नीरजा माधव: 

उनको समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए सबसे पहली आवश्यकता है कि इन्हें शिक्षा से जोड़ा जाए। शिक्षा से जोड़ने के लिए यह भी बहुत ज़रूरी है कि इनकी दैहिक संरचना और इनकी सामाजिक स्वीकार्यता के बारे में अधिक से अधिक पाठ्यक्रमों में नई पीढ़ी को पढ़ाया जाए, क्योंकि लोगों के भीतर इनके प्रति सामान्यतः एक उपेक्षा भाव, उदासीनता या फिर भय का भाव रहता है कि ये भोंडे प्रदर्शन करने लगते हैं। ये तालियाँ बजाने लगते हैं या अश्लीलता पर उतर जाते हैं। इस भय से लोग इनके पास नहीं जाना चाहते, या इन्हें अपने पास नहीं बैठाना चाहते। तो सबसे पहले तो भय का या दूरी का यह वातावरण समाप्त करना होगा। यह शिक्षा के माध्यम से सम्भव है। आप देखिए पाठ्यक्रमों में सब कुछ पढ़ाया जाता है, परन्तु इस समुदाय के बारे में कोई जानकारी हमारी नई पीढ़ी के पास नहीं होती और दूसरा दायित्व है कि राजनीति के साथ-साथ समाज और परिवार भी इन्हें अपने से अलग ना समझे। ये अपने परिवार में उसी प्रकार रहें जैसे कोई अन्य दिव्यांग बालक जो कान से, या हाथ पैर से विकलांग होता है, या आँख से दृष्टि से बाधित होता है, परन्तु अपने माता-पिता के साथ रह लेता है। वैसे ही इनके भीतर एक अक्षमता है, जिसके साथ ये अपने परिवार में रह सकते हैं, शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं, नौकरी कर सकते हैं। बस इसे समझने और समझाने की आवश्यकता है। 

नूतन पाण्डेय:

तिब्बती शरणार्थियों द्वारा अपनी स्वतंत्रता के लिए किये जा रहे अथक प्रयत्न और भारत-चीन सीमा विवाद पर आपने 'गेशे जंपा’ उपन्यास लिखा है जो तिब्बती विश्वविद्यालय, सारनाथ (वाराणसी) के पाठ्यक्रम में चलाया जा रहा है, इसके साथ ही आपने ‘देनपा: तिब्बत की डायरी’ भी लिखी है। इस तरह की वैश्विक समस्याओं के प्रति आपका क्या दृष्टिकोण है और आपकी नज़र में इनका समाधान किस तरह निकाला जा सकता है? 

नीरजा माधव: 

आप सही कह रही हैं नूतन जी! तिब्बती शरणार्थियों की अहिंसक मुक्ति साधना और उनकी राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक छटपटाहट को केंद्र में रखकर मैंने दो उपन्यास और एक बाइलिंगुअल पोयट्री कलेक्शन साहित्य समाज को दिया। ‘देनपा: तिब्बत की डायरी’ बाद में लिखा गया उपन्यास है और गेशे जम्पा 2006 में प्रकाशित हुआ। आप जानती हैं पूरा इतिहास, कि किस तरह से चीन ने तिब्बत पर अपना बलात् अधिकार कर लिया और परम पावन दलाई लामा जी को अपने लाखों तिब्बती अनुयायियों के साथ भारत में आकर शरण लेनी पड़ी। हिमाचल प्रदेश में उनके निर्वासित सरकार का मुख्यालय है। ये तिब्बती शरणार्थी बौद्ध धर्म में आस्था रखते हैं, इसलिए सारनाथ में भी ये रहते हैं। संयोग है कि मेरा आवास भी सारनाथ में है। 

अपने आसपास इन तिब्बती शरणार्थियों को मैंने विभिन्न रूपों में देखा है। एक घटना से उद्वेलित होकर मैंने इनके ऊपर उपन्यास लिखने का मन बनाया। सबसे पहले भारत में प्रसार भारती हो जाने के बाद मैंने सोचा कि आकाशवाणी में कार्यक्रम अधिकारी के रूप में कार्य करते हुए मैं देखूँ कि प्रसार भारती को कितने अधिकार प्राप्त हैं। यानी हम प्रोग्राम प्रोड्यूसर कितने स्वतंत्र हैं कोई भी कार्यक्रम बना पाने में? उस समय भारत की अपनी राजनीतिक पॉलिसी के चलते तिब्बत के मुद्दे को उठाना मना था। फ़िलहाल हम आकाशवाणी, दूरदर्शन के लोग तो नहीं उठा सकते थे क्योंकि हम सरकारी कर्मचारी थे। लेकिन प्रसार भारती बन जाने के बाद मैंने सोचा कि मैं शरणार्थियों की आवाज़ बनूँ। एक कार्यक्रम इनकी वेदना और अपने देश से दूर रहने की छटपटाहट पर बनाऊँ। मैंने महत्त्वपूर्ण तिब्बती बौद्ध भिक्षुओं, तिब्बती संस्थान के तत्कालीन निदेशक और छात्र-छात्राओं से साक्षात्कार लेकर एक कार्यक्रम बनाया , ‘मुझे आकाश चाहिए।’ आकाश का तात्पर्य ही था कि मुझे मेरी मातृभूमि वापस मिलनी चाहिए। आकाश से विशाल कुछ नहीं होता और मातृभूमि से महान भी कुछ नहीं होता। परन्तु उस कार्यक्रम को सुनकर मेरे उच्चाधिकारियों में एक विवाद छिड़ गया क्योंकि उस कार्यक्रम को मैंने आकाशवाणी के राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए भेज दिया था। पता चला, कुछ अधिकारी कार्यक्रम को प्रथम पुरस्कार देने के पक्ष में थे और कुछ ने कहा कि यह पॉलिसी के विरुद्ध है। इस प्रोग्राम ऑफ़िसर को मेमो मिलना चाहिए। उस बात को यहीं छोड़ती हूँ। बस इतना बता दूँ कि न पुरस्कार मिला और ना ही मेमो मिला। उसी के बाद मैंने सोचा कि बिना लिखित रूप से आवाज़ उठाए इनकी समस्या को हम विश्वव्यापी नहीं बना सकते, क्योंकि तिब्बती मुद्दे पर एक विचित्र ढंग का मौन पूरे विश्व ने ओढ़ रखा था। मानवाधिकारों के प्रश्न पर कभी-कभी थोड़ा बहुत हो-हल्ला मचता और फिर सभी शांत हो जाते। एक बड़े देश चीन से टकराने या उसका विरोध करने का साहस शायद किसी में नहीं था। तो, मैंने उस समय इनकी सांस्कृतिक, राजनीतिक छटपटाहट को केंद्र में रखते हुए और चीन की विस्तारवादी नीति को रेखांकित करते हुए ‘गेशे जम्पा’ लिखा और फिर परम पावन दलाई लामा जी के आग्रह पर मैंने दूसरा उपन्यास ‘देनपा: तिब्बत की डायरी’ लिखा। 2019 में मैंने इनकी समस्या पर केंद्रित एक बाइलिंगुअल पोयट्री कलेक्शन जो हिंदी और इंग्लिश दोनों भाषाओं में है, ‘फ़्री टिबेट’ शीर्षक से लिखा। 

आपको मालूम होगा कि तिब्बत की समस्या को आज़ादी के बाद से हमारे महान भारतीय नेताओं ने भी सदन में उठाया था। उनका भी है मानना था कि तिब्बत जब तक चीन और भारत के बीच में बफ़र स्टेट के रूप में एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्थित था, तब तक भारत और चीन के बीच सीमा विवाद नहीं था। तमाम तरह की टकराहटें, अतिक्रमण की समस्याएँ सैन्य समस्याएँ और सुरक्षा पर होने वाला भारी ख़र्च एकमात्र तिब्बत पर चीन द्वारा बलात् अधिकार कर लेने के कारण भारत के समक्ष भी उपस्थित हो गया। चीन कभी अरुणाचल में अपना दावा करता है यह कहते हुए कि यह साउथ टिबेट है और कभी डोकलाम या लद्दाख में या कहीं और भारत की भूमि में अतिक्रमण करने की कोशिशें करता है। 

तो, तिब्बत की स्वतंत्रता भारत के संदर्भ में भी बहुत महत्त्वपूर्ण है और यदि मानवाधिकारों की दृष्टि से देखें तो सभी को इस धरती पर अपनी स्वाधीनता के साथ रहने का अधिकार है। यदि भारत 1947 में अँग्रेज़ों से आज़ादी चाहता था तो वह आज़ादी आज तिब्बत के लोगों को चीन से क्यों नहीं चाहिए? कूटनीतिक ढंग से विश्व को इस मुद्दे पर सचेत करते हुए इसका समाधान निकल सकता है, क्योंकि चीन की विस्तारवादी नीति से दुनिया के अनेक देश प्रभावित है और पूरे विश्व के लोग धरती पर शान्ति चाहते हैं। ये कुछ महत्त्वपूर्ण कारण रहे कि मैंने तिब्बत पर अपनी लेखनी चलाई और कई कृतियाँ साहित्य समाज को मैंने दी। ‘गेशे जम्पा’ का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। स्वयं मैंने इसका अंग्रेज़ी में रूपांतरण किया ताकि विश्व के अधिक लोगों तक यह मुद्दा उपन्यास के माध्यम से पहुँच सके। 

नूतन पाण्डेय:

यहाँ मैं आपके उपन्यास ‘ईहामृग’ की बात करना चाहूँगी जिसमें तथागत की भूमि सारनाथ के दीर्घकालिक सामाजिक-सांस्कृतिक अध्यायों को आपने इस ख़ूबसूरती से अनावृत किया है, लगता है मानो शहर अपनी कहानी ख़ुद सुना रहा हो। उपन्यास में अतीत का गौरव है तो वहीं वर्तमान विसंगतियों पर चिंता भी है, चूँकि सारनाथ आपकी कर्मभूमि है, सारनाथ से आपका लम्बे समय से भावनात्मक जुड़ाव भी रहा है समय के साथ बदलते इस शहर को जिससे आप किस रूप में देखती हैं? 

नीरजा माधव: 

आपने सही कहा। मेरा उपन्यास “ईहामृग” जो भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ था, सारनाथ की पृष्ठभूमि पर केंद्रित है। सारनाथ एक ओर बौद्ध धर्म के अनुयायियों का एक महत्त्वपूर्ण स्थल है, वहीं पर सनातन धर्म का एक पौराणिक स्थान भी है। यहाँ पर सारंग नाथ जी का एक मंदिर है जो बहुत प्राचीन है और कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य भी इस मंदिर में आए थे और उन्होंने जीर्णोद्धार किया था। इसी से हम इसकी प्राचीनता का अनुमान लगा सकते हैं‌। इसी सारंग नाथ के नाम पर इस क्षेत्र का नाम सारनाथ नाम पड़ा। बाद में गौतम बुद्ध ने भी आकर यहाँ अपने शिष्यों को ज्ञान दिया। इसलिए सारनाथ एक ऐसा महत्त्वपूर्ण स्थान है काशी का, जहाँ पर सनातन धर्म भी है और उसी की एक शाखा बौद्ध धर्म भी है। दोनों धर्म की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं, तो, वहीं दोनों के अपने-अपने कुछ पाखंड भी हैं। 

विश्व के तमाम देश बौद्ध देश के रूप में आज जाने जाते हैं। उन देशों से लोग शान्ति की तलाश में सारनाथ भ्रमण के लिए आते हैं। लेकिन सारनाथ में रहने वाले इस क्षेत्र के मूल निवासी आज भी अभाव, ग़रीबी, अशिक्षा और बेरोज़गारी जैसी समस्याओं से जूझते हुए अपना जीवन यापन करते हैं। एक तरफ़ यहाँ की भूमि पर विश्व के तमाम देशों के बड़े-बड़े समृद्ध बौद्ध मंदिर बन चुके हैं, वहीं पर यहाँ के मूल निवासियों का जो जीवन स्तर है वह बहुत दयनीय है। कई बार यहाँ के लोग बुद्ध की मिट्टी की छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनाकर उसके हाथ पैर को खंडित कर, उस पर धुएँ और भंगरैया, जो एक तरह का पौधा होता है उसको रगड़ कर, उस मूर्ति को पुराना बनाते हैं। थोड़ा मिट्टी पोतकर उनके बच्चे विदेशियों के सामने उन मूर्तियों को ले जाकर बताते हैं कि यह मूर्ति खंडहरों में ख़ुदाई के दौरान मिली है। इसका दाम बहुत अधिक है परन्तु आपको मैं केवल 100 डॉलर में या 50डॉलर में दे दूँगा। सौदा पट जाता है तो ये बच्चे ख़ुशी-ख़ुशी अपने घर की ओर चलते हैं। यानी बौद्ध धर्म हो या सनातन धर्म, दोनों के मूल में जो भूख है, जो पीड़ा है, जो ग़रीबी है, वह कहीं न कहीं डोलती रहती है। तो, इन विसंगतियों की ओर भी ध्यान देना आवश्यक है। जिस शान्ति की चाहना में विश्व भर से लोग भागते हुए सारनाथ की ओर आते हैं, वह शान्ति कितनी अलभ्य और ईहामृग की तरह है, इस तथ्य को रेखांकित करता है उपन्यास। 

काशी मेरा अपना शहर है। मैं कहीं भी, विश्व के किसी कोने में रहती हूँ, मेरा मन बार-बार भाग कर काशी आ जाता है। अधिक समय मैं बाहर टिक नहीं पाती क्योंकि एक अजीब-सा लगाव है इस नगर के साथ मेरा। इसके रहस्य और सौंदर्य को भी मैंने लिखा है तो इसकी विसंगतियों को भी मैंने रेखांकित किया है अपनी कृतियों में। एक लंबे समय से काशी को समझने का प्रयास कर रही हूँ, पर ऐसा लगता है, पता नहीं समझ भी पाऊँगी कि नहीं। विश्वनाथ की नगरी को समझ पाना इतना आसान तो नहीं। 

नूतन पाण्डेय:

यह बहुत ही दुखद है कि आज कुछ स्वार्थ केन्द्रित मानसिकता वाले लोग राष्ट्रवाद को नकारात्मक ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं, आपकी वैचारिक कृति ‘अर्थात् राष्ट्रवाद’ इस मुद्दे के विविध आयामों का तथ्यात्मक विश्लेषण करती हैं। भारत की वर्तमान परिस्थितियों के संदर्भ में आप राष्ट्रवाद को किस तरह परिभाषित करेंगी? 

नीरजा माधव: 

देखिए नूतन जी, राष्ट्रवाद कोई नया शब्द भारत के लिए तो नहीं है। क्योंकि वैदिक मनीषा में भी राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अवधारणा थी। मैंने पूरी पुस्तक ही राष्ट्रवाद के विभिन्न पक्षों पर केंद्रित करते हुए लिखी। सच्चाई यही है कि आज़ादी के बाद से कुछ लोगों ने राष्ट्रवाद को बहुत ही संकुचित अर्थों में प्रयोग करने का प्रयास किया ‌। राष्ट्रवाद का मतलब राष्ट्र से प्रेम करने वाली किसी राजनीतिक पार्टी का अनुयायी होना मात्र नहीं होता है, बल्कि राष्ट्रवाद एक बहुत व्यापक शब्द है जो अपने राष्ट्र की भौगोलिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक सीमाओं से होता हुआ पूरे विश्वकल्याण की बात करता है। वसुधैव कुटुंबकम् का नारा देने वाले भारत के राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में कम से कम यह बात 100% लागू होती है। हमें यह भी जानना चाहिए के राष्ट्र केवल किसी काग़ज़ पर पेंसिल से खींची हुई लकीर मात्र नहीं है, बल्कि इसकी भौगोलिक, प्राकृतिक, सांस्कृतिक विरासत से हमारा जो सहजात सम्बन्ध है, या जन्म लेते ही जिस प्रकार यहाँ के पेड़, झरने, नदियाँ, पहाड़, समुद्र सब अपने हो जाते हैं, अपने से लगने लगते हैं, यह लगाव हमें जन्मजात मिला होता है और यही जो लगाव है, या राष्ट्र के प्रति प्रेम है, हमारे राष्ट्रवाद के मूल में है। तो अपनी कृति ‘अर्थात् राष्ट्रवाद’ में मैंने राष्ट्रवाद के विभिन्न उदार पक्षों को सामने लाने का प्रयास किया है। 

नूतन पाण्डेय:

पिछले कुछ समय से साहित्य में विमर्शों का दौर चल रहा है, इन विमर्शों में स्त्री विमर्श ने समाज को सर्वाधिक प्रभावित किया। क्या आपको लगता है कि स्त्री विमर्श के नाम पर आज जो साहित्य समाज को परोसा जा रहा है उससे महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार आयेगा या फिर ये सब कोरे शोशेबाज़ी है। 

नीरजा माधव: 

आपने बिल्कुल सही कहा कि स्त्री विमर्श के नाम पर आज जो कुछ भी साहित्य समाज में परोसा जा रहा है, वह केवल नारेबाज़ी है। इससे महिलाओं की स्थिति में कोई सुधार नहीं आने वाला है। बल्कि परिवार टूट रहा है, समाज विखंडित हो रहा है और बच्चों के रूप में जो हमारे भावी नागरिक हैं, उनमें संस्कारों का अभाव हो रहा है। यह सब हो रहा है तथाकथित स्त्री विमर्श के नाम पर। कुछ भटकी हुई स्त्रियों द्वारा समाज को जो दिग्भ्रमित करने का कार्य किया जा रहा है, उसके कारण। 

भारतीय स्त्री का एक उज्जवल अतीत रहा है। बस अध्ययन करने की आवश्यकता है। मध्य काल में स्त्रियों की उस स्थिति में क्षरण की रेखा दिखाई देती है जो उस समय की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों की देन है। परन्तु जैसे ही स्वाधीन भारत में स्त्री ने क़दम रखा, वह अपनी पुरानी स्थिति को पुनः प्राप्त करने लगी है। परिवर्तन हो रहा है। परिवर्तन कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसको एकाएक सामने लाकर रख दिया जाए। यह होता है धीरे-धीरे। स्त्रियों की स्थिति में परिवर्तन हो रहा है। सरकारों के प्रयास से, स्त्री के स्वयं के आत्म बल के कारण और परिवार में पुरुष सदस्यों के भी सहयोग के कारण। इसी पुरुष के अस्तित्व को नकारने का एक मूर्खतापूर्ण अभियान है तथाकथित आज का स्त्री विमर्श। हम पिता, भाई, पुत्र, पति के रूप में पुरुष को नकार कर अकेलेपन के साथ नहीं चल सकते। स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता को बढ़ावा देने से हमारा भारतीय समाज और परिवार टूटेगा। इसलिए भी ज़रूरी है कि स्त्री विमर्श को भारतीयता के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया जाए। इस बिंदु को ध्यान में रखते हुए मैंने अपने ललित निबंध शैली में एक कृति साहित्य समाज को दी है, ‘भारतीय स्त्री विमर्श’ नाम से। देखिए, इसका भी कोई असर दिखाई पड़ता है अथवा नहीं? 

नूतन पाण्डेय:

उपन्यास से आगे बढ़कर आपकी कहानियों पर बात करें तो आपकी कहानियों के विषय वैविध्यपरक हैं जो मूलतः मानवीय मुद्दों पर आधारित हैं। इन कहानियों में सामाजिक अधिकारों की बात है, महिला अस्मिता के प्रति जागरूकता है, पारिवारिक और नैतिक मूल्यों पर ज़ोर है, सामाजिक विघटन पर चिंताएँ हैं, राष्ट्रवाद है, भारतीय सांस्कृतिक गौरव है, कुल मिलकर वे सारे मुद्दे हैं जिनसे भारतीय समाज बनता है। क्या सोचकर आप कहानी के लिए किसी विषय का चयन करती हैं? 

नीरजा माधव: 

नूतन जी, मेरी कहानियों के बारे में जो प्रश्न आपने किया, उन प्रश्नों के सारे उत्तर भी आपके प्रश्नों में ही निहित हैं। यह सच है कि कोई भी कहानीकार अपना विषय समाज के बीच से ही चुनता है। कई बार कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समस्याएँ भी लेखक का ध्यान अपनी ओर खींचती हैं और वह उन विषयों पर अपनी कहानियों का ताना-बाना बुनता है। जैसे-मेरी एक कहानी है ‘पत्थरबाज’। यह पूरे विश्व को पता है कि कश्मीर की समस्या पहले क्या थी, किस तरह हमारे वीर सैनिकों के ऊपर वहाँ पत्थरबाज़ी की घटनाएँ होती थीं, कैसे आतंकवादियों को कुछ राष्ट्रद्रोही टाइप के लोग शरण देते थे जिसके कारण पूरा कश्मीर अशांत रहता था। आतंकियों की यह घुसपैठ कैसे होती थी, उसके बाद क्या होता था, यह पूरे विश्व से छिपा हुआ नहीं था। तो इस तरह के अंतरराष्ट्रीय मुद्दे भी कहानियों के विषय बने मेरे। 

ज़रूरी नहीं कि कहानियों का विषय जो हमारे वर्तमान समाज में घटित हो रहा है, वह ही हो। वह भी होता है, और कई बार किसी घटना को सुनकर, पढ़कर या चित्र में देखकर भी एक लेखक का हृदय विचलित होता है। एक कहानी मैंने लिखी ‘पुन्नो के दारजी’, जो अमृतसर में सन् 1919 में जलियाँवाला बाग़ कांड हुआ था, उसके ऊपर केन्द्रित है। बताना ज़रूरी है कि तमाम साहित्यिक वादों, जैसे दक्षिणपंथ, वामपंथ आदि से अलग हटकर उस कहानी को सभी ने पसंद किया। ‘हंस’ पत्रिका में वह प्रकाशित हुई। उसका कई-कई प्रांतों के शहरों में नाट्य मंचन हुआ। और उस कहानी के लिखने के पीछे प्रेरणा बना कैलेंडर का एक चित्र, जिसमें जलियाँवाला बाग़ चित्रित था। एक कुआँ था, लाशें पटी हुई थीं, कुछ बाहर बिखरी हुई थीं। यानी एक मार्मिक दृश्य प्रस्तुत कर रहा था वह चित्र। संयोग से वह सरकारी कैलेंडर मेरे आकाशवाणी के अपने कक्ष के दीवार पर टँगा हुआ था। एक दिन कार्यक्रम प्रस्तुत करके मैं आकर अपने कक्ष में बैठी थी और एकाएक उस कैलेंडर के चित्र पर मेरा ध्यान चला गया था। प्रतिदिन देखती थी उस कैलेंडर को, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। लेकिन उस दिन उसे चित्र ने ध्यान अपनी ओर खींचा और मेरे मन में एक विचार आया कि ज़रूरी तो नहीं कि जालियाँ वाले बाग़ में जितनी भी भीड़ इकट्ठा हुई थी वह शहीद होने के लिए अपने मन को तैयार करके गई थी? बहुत सारे ऐसे भी लोग रहे होंगे जो यूँ ही चले गए होंगे उत्सुकतावश और वे भी मारे गए। यानी ना चाहते हुए भी शहीद हो गए। और जो कुएँ में गिरे या जिनकी लाशें पट गईं वहाँ, बाद में क्या उनका अता-पता चला? बस इस एक विचार से मेरे मन में एक पूरी कहानी का ताना-बाना तैयार हो गया था। नायिका के रूप में वर्तमान की एक वृद्ध महिला जिसके पति उस जनसभा में सुनने के लिए गये थे और वहीं शहीद हो गये की कल्पना की मैंने। वह उस समय गर्भवती थी। किस तरह से अपने पति की असामयिक मृत्यु से क्षुब्ध होकर वह भी आज़ादी के आंदोलन से स्वयं को जोड़ लेती है। देश के आज़ाद होने के बाद जिस तरह की परिस्थितियों, लूट-खसोट, भ्रष्टाचार वह अपने समाज में देखती है, उसका मन पश्चाताप से भर उठता है। अपनी पति के शहादत को वह याद करती है और उनकी तस्वीर को वह आज़ादी के बाद जो लोगों का मोहभंग हुआ था, सारी कहानियाँ सुनाती हैं। वह बूढ़ी स्त्री अपने पति की तस्वीर को जो कहानी सुना रही है, उसके माध्यम से हमारे पाठक भी आज़ादी के पहले और आज़ादी के बाद के अंतर को साफ़-साफ़ समझ पाते हैं। 

तो हर कहानी के पीछे की एक अलग कहानी होती है नूतन जी। कभी-कभी विषय आपको भीतर तक आंदोलित करते हैं। कभी-कभी आप अपने समाज को देखकर लोगों को सतर्क करने के लिए भी कोई विषय उठाते हैं। यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है कि कहानी के लिए एक लेखक कौन सा विषय चुनेगा? 

नूतन पाण्डेय:

दैनिक समाचारपत्रों में अक़्सर आपके ललित निबंध छपते रहते हैं, आपके दो ललित निबंध संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं। भाषा का लावण्य, सहजता, प्रवाहमयता और विषय को रोचक ढंग से अभिव्यक्त करने की विशिष्टता ललित निबंधों का आकर्षण होती है। मूल भाव के साथ-साथ स्वयं को अभिव्यक्त करते हुए पाठक से किस तरह संवाद स्थापित कर पाती हैं? 

नीरजा माधव: 

जहाँ तक ललित निबंधों का सवाल है नूतन जी, तो वर्तमान युग में प्रायः यह विधा लुप्त होने के कगार पर है। एक लंबी शृंखला ललित निबंधकारों की हम लोग देखते हैं, जिसमें कुबेरनाथ राय, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पंडित विद्यानिवास मिश्र जैसे ज्ञानी विद्वान हुआ करते थे। दुर्भाग्य से इस शृंखला में स्त्रियों की संख्या ना के बराबर है। मेरे ललित निबंधों को पढ़कर पंडित विद्यानिवास मिश्र जी मुझे लगातार प्रोत्साहित करते रहते थे। एक बार उन्होंने मुझसे कहा भी था कि कथा साहित्य भले ही लिखती हो, लेकिन ललित निबंध लिखना मत छोड़ना। पुत्री की तरह उनका स्नेह मुझे मिलता था। मैं उन्हें बाबूजी कहा करती थी और सच बताऊँ तो मेरे ललित निबंधों के वे प्रशंसक थे। उनके द्वारा दी गई इस प्रेरणा के कारण ही मैं आज तक ललित निबंध लिखती हूँ और साथ ही इस विधा में मेरी अपनी विशेष रुचि है। दरअसल ललित निबंधों के लेखन के लिए कुछ आवश्यक तत्त्व होते हैं, जैसे-आपको अपने धर्म, संस्कृति, दर्शन आदि का भी ज्ञान होना चाहिए, साथ ही साथ भाषा पर पूरा नियंत्रण होना चाहिए। इस विधा में कथा तत्त्व और नाट्य तत्त्व भी समाहित होते हैं, तो काव्यात्मक प्रवाह भी होता है। लेकिन विचारों की प्रमुखता महत्त्वपूर्ण होती है, जो वर्तमान से अतीत और अतीत से भविष्य तक की यात्रा पाठकों को करवाती है। इसलिए ललित निबंधों के लेखन में अध्ययन और सजग प्रस्तुति की भूमिका अत्यधिक होती है। ‘चैत चित्त मन महुआ’, ‘सांझी फूलन चीति’, ‘यह राम कौन हैं’, ‘भारत का सांस्कृतिक स्वभाव’ आदि मेरे ललित निबंध संग्रह हैं। हिंदी के प्रमुख दैनिक अख़बारों के संपादकीय पृष्ठ पर भी मेरे ललित निबंध प्राय प्रकाशित होते रहते हैं। संतोष यह है कि अभी भी इस तरह के निबंधों के पाठक हैं तो यह विधा लुप्त नहीं होने पाएगी। 

नूतन पाण्डेय:

भारतीय समाज में श्रीराम का चरित्र एक ऐसा आदर्श चरित्र है जो उत्तर से दक्षिण तक लोकप्रिय है। प्रभु राम अपने मर्यादित चरित्र के माध्यम से समाज के समक्ष एक ऐसा आदर्श उपस्थित करते हैं जिसका अनुकरण विश्व मानवता के लिए कल्याणकारी है। श्रीराम के चरित्र का गायन विश्व की समस्त भाषाओं में हुआ है। आज जब हर तरफ़ वर्जनाएँ टूट रही हैं, मर्यादाओं का उल्लंघन हो रहा है, राम और भी प्रासंगिक हो जाते हैं। आपकी पुस्तक ‘यह राम कौन हैं’ लिखने के पीछे मूल उद्देश्य क्या रहा? 

नीरजा माधव: 

नूतन जी, राम ही एकमात्र विश्व के ऐसे अवतारी पुरुष हैं जो हर मनुष्य के हर पल के साक्षी हैं। उसके जन्म से लेकर मृत्यु तक के साथी हैं और एक निर्विवादित सत्य के रूप में आदिकाल से हमारे साथ-साथ चल रहे हैं। उनके साथ हमारा एक आत्मीय रिश्ता है। तुलसीदास कहते हैं: ना-तोसे मोसे नाते अनेक। तो अनेक तरह का नाता राम के साथ इस संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के साथ है उनका। लेकिन कितनी विचित्र बात है ना कि एक ही समय में वे निर्विवादित परम सत्य भी हैं, और इस संसार में उनसे अधिक विवादित भी कोई दूसरा नहीं है। 

राम केवल राजा रहे होते, धर्माचार्य रहे होते, न्यायी रहे होते, तो अब तक इतने लंबे कालखंड में उनका अस्तित्व अन्य राजाओं, धर्माचार्यों की तरह से मद्धिम पड़ गया होता। लेकिन क्या कारण है कि अनेक विवादों के बावजूद राम का अस्तित्व वैसे का वैसा ही बना हुआ है? आमजन को भी राम उतने ही प्रिय हैं जितना एक दार्शनिक या वैज्ञानिक को। तो राम के इन्हीं अनेक रूपों पर चिंतन-मनन करते हुए मैंने ललित निबंध शैली में ‘यह राम कौन हैं’, के सारे निबंध लिखे हैं। इस पुस्तक का लोकार्पण अयोध्या में महंत नृत्य गोपालदास जी और माननीय इंद्रेश जी की उपस्थिति में अयोध्या शोध संस्थान में हुआ था। 

नूतन पाण्डेय:

अभी हाल ही में फीजी में बारहवाँ विश्व हिंदी सम्मलेन हुआ जिसमें विदेश मंत्रालय की ओर से भारत का प्रतिनिधित्व करने का अवसर आपको मिला। इस तरह के सम्मलेनों का आयोजन हिंदी की वैश्विकता के लिए कितने उपयोगी हैं? 

नीरजा माधव: 

12वें विश्व हिंदी सम्मेलन, फिजी में भारत सरकार ने मुझे भी भेजा था अपने प्रतिनिधिमंडल में। इस तरह के सम्मेलनों का विश्व के ऊपर प्रभाव तो पड़ता है हिंदी को लेकर। भारत के लोग, भारत की सरकार सजग है, यह भी संदेश पूरे विश्व को जाता है। लेकिन हम भारतीय लोगों को विचार करना है कि अपने छोटे-छोटे निहित स्वार्थों को लेकर हिंदी को पूरी तरह से लागू करने में हमारी जो उदासीनता है, वह संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को प्रतिस्थापित होने में बाधा बन रही है। आप देखेंगे कि संयुक्त राष्ट्र संघ में जो 6 भाषाएँ स्वीकृत हैं, वे सब की सब अपने देश की राष्ट्रभाषाएँ हैं। हम अपने देश में हिंदी को अभी राजभाषा के रूप में भी पूरी तरह से लागू नहीं कर पाए हैं। अंग्रेज़ी का वर्चस्व बना हुआ है। राष्ट्रभाषा जब तक हिंदी नहीं बनेगी, तब तक हमें लगता है कि कोई परिणाम हमारे सामने नहीं आ पाएगा। यह भी सच है कि पूरे विश्व में बहुत सारे देशों में हिंदी बोली जा रही है, समझी जा रही है, पढ़ाई जा रही है, लेकिन अपने देश में कहीं ना कहीं अपेक्षित तो हो रही है। इस ओर सरकार को भी ध्यान देना होगा और इस ओर हम भारतीयों को भी ध्यान देना पड़ेगा। 

नूतन पाण्डेय:

आप आकाशवाणी में उच्च अधिकारी के पद से सेवा निवृत्त हुई हैं, किस तरह के अनुभव आपको इस सेवा में रहते हुए मिले, खट्टे भी और मीठे भी। रेडियो का काला अध्याय के माध्यम से आपने पाठकों तक आकाशवाणी के किन विषयों को पहुँचाने की कोशिश की है? 

नीरजा माधव: 

संघ लोक सेवा आयोग द्वारा कार्यक्रम अधिकारी आकाशवाणी/ दूरदर्शन के रूप में मेरा चयन हुआ था। उस नौकरी को करते हुए अनेक प्रकार के खट्टे–मीठे, उतार–चढ़ाव वाले अनुभव भी हुए, जो प्रायः सभी को होते हैं। मेरे साथ कुछ ज़्यादा इसलिए हुआ कि मैं केवल एक अधिकारी ही नहीं थी, साथ ही साथ में लिखती भी थी और लेखन भी ऐसे बिंदुओं पर, ऐसे विषयों पर, जो कई बार सरकार की पॉलिसी के ख़िलाफ़ होते थे। उदाहरण के लिए तिब्बत का मुद्दा। सन् 2006 में मेरा उपन्यास ‘गेशे जम्पा’ प्रकाशित हुआ। सरकार की पॉलिसी के ख़िलाफ़ था। इसलिए विभाग में मुझे कई तरह से परेशान करने की कोशिशें की गईं। यहाँ तक कहा गया कि आप की नौकरी जा सकती है। इसी तरह के न जाने कितने अनुभव हुए। उनका वर्णन अब क्या करूँ? अब तो सेवा मुक्त हो चुकी हूँ। तो उनके आग्रहों और दुराग्रहों की चदरिया मैं उन्हीं को सौंपती हूँ। एक और उदाहरण से स्पष्ट हो जाएगा। भारत सरकार का एक नियम है, जो महिला अधिकारियों पर कुछ विशेष रूप से लागू होता है, कि अपने सर्विस के अंतिम दो वर्षों में उन्हें अपना होमटाउन यानी गृह जनपद अवश्य मिलेगा, लेकिन मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ। मेरा ट्रांसफ़र दूसरी जगह पर किया गया और मेरे निवेदन के बावजूद मुझे मेरा गृह जनपद नहीं दिया गया। ऐसी ही अनेक बातें हैं, जिन्हें जब मैं याद कर लेती हूँ तो सर्विस पीरियड का अनुभव कड़वाहट में बदल जाता है। 

हाँ, विषय विशेषज्ञ के रूप में मैं निःशुल्क काशी विद्यापीठ वाराणसी में पत्रकारिता के छात्रों का एक पीरियड लेने के लिए विशेष रूप से विश्वविद्यालय द्वारा आमंत्रित थी। यह सिलसिला कई वर्षों तक चला। इस दौरान विद्यार्थियों ने मुझसे निवेदन किया कि रेडियो पर हिंदी में कोई मैटेरियल हम लोगों को परीक्षा देने के लिए नहीं मिलता है। कृपया आप जो लेक्चर देती हैं उसे ही यदि पुस्तक के रूप में छपवा दें तो हम विद्यार्थियों का बहुत भला हो जाएगा। तो, विद्यार्थियों के आग्रह पर ही मैंने उस समय ‘रेडियो का कला पक्ष’ नाम से एक पुस्तक लिखी थी, जिसे विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी ने प्रकाशित किया था। तब से लेकर आज तक रेडियो की दुनिया में बहुत तकनीकी परिवर्तन आ चुके हैं, इसलिए मैं यह नहीं कह सकती कि वह पुस्तक आज भी प्रासंगिक है, लेकिन अपनी विषयवस्तु के मामले में वह हमेशा प्रासंगिक रहेगी। 

नूतन पाण्डेय:

अरे, हम हिजड़े हैं, इंसान थोड़े ही हैं जो मुँह फेर लें, आपके उपन्यास यमदीप की यह पंक्ति उपन्यास की टैगलाइन है, व्यापक अर्थ में देखें तो इसके गहरे मायने हैं। एक जागरूक और सचेतन साहित्यकार होने के नाते आप अपने साहित्य के माध्यम से पाठकों को क्या सन्देश देना चाहती हैं? 

नीरजा माधव: 

थर्ड जेंडर पर मैंने एक उपन्यास ‘यमदीप’ लिखा जो सन् 2002 में सामयिक प्रकाशन नई दिल्ली से आया था। पाठक और साहित्य समाज के लोग भी यह स्वीकार करते हैं कि हिंदी साहित्य का यह पहला उपन्यास है जो पूरी तरह से थर्ड जेंडर की आंतरिक त्रासदी और पीड़ा पर केंद्रित है। इस उपन्यास के प्रकाशन के 12–15 वर्षों बाद अन्य अनेक लेखकों ने भी इस विषय को अपनी रचना का माध्यम बनाया।     

भारत के राष्ट्रपति माननीय श्री रामनाथ कोविंद जी के हाथों थर्ड जेंडर और तिब्बती शरणार्थियों की अहिंसक मुक्ति साधना पर प्रथम लेखनी चलाने के लिए मुझे ‘नारी शक्ति पुरस्कार-2021’ से सम्मानित भी किया गया। एक तरह से मेरे द्वारा लिखे गए इन दो अनछुए विषयों को भारत के राष्ट्रपति द्वारा रेखांकित किया गया। यह मेरे लिए बहुत गौरव का क्षण था और आज भी मैं अपनी लेखनी को इस बात के लिए धन्य मानती हूँ कि मेरे इन उपन्यासों ने भारत के साहित्य का प्रतिनिधित्व किया है। 

अन्य दिव्यांग बच्चों की तरह से ही थर्ड जेंडर के बच्चों की भी पारिवारिक और सामाजिक स्वीकार्यता हो, उन्हें वे सारी सुविधाएँ मिलें जो किसी भी भारतीय नागरिक को मिलती हैं, उनके लिए शिक्षा, रोज़गार में आरक्षण जैसी सुविधा देकर उन्हें मुख्य धारा में शामिल किया जाए, ये तमाम माँगें मैंने अपने इस उपन्यास के माध्यम से की थीं। और यह साहित्य की मौन विजय कही जाएगी कि बिना किसी जुलूस, धरना, प्रदर्शन के माननीय उच्चतम न्यायालय ने थर्ड जेंडर के लोगों को वे सारी सुविधाएँ सारे अधिकार सन् 2014 में दे दिए। 

नूतन पाण्डेय:

साहित्य से हटकर कुछ अपने परिवार के बारे में भी अपने पाठकों को कुछ बताएँ, जैसे आपका मायका, आपकी शिक्षा दीक्षा आदि। नीरजा से नीरजा माधव बनने का सफ़र कैसा रहा? 

नीरजा माधव: 

नूतन जी, पहला प्रश्न आपने मेरे परिवार, मेरी शिक्षा दीक्षा के बारे में किया है और दूसरा नीरजा से नीरजा माधव बनने का सफ़र। मेरे सफ़र पर एक पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है इसलिए बहुत संक्षेप में आपसे बताऊँगी। 

पिताजी शिक्षक थे। माँ एक धर्मनिष्ठ महिला थीं। दोनों के संस्कारों ने मेरा पालन पोषण किया। जौनपुर के एक सुदूर गाँव कोतवालपुर में मेरा जन्म हुआ था। पिताजी के साथ साइकिल पर बैठकर मैंने तमाम पाठ पढ़े जो आज भी मेरे अँधेरों में दीए की तरह टिमटिमाते हैं और मेरे रास्तों को सुगम बनाते हैं। गाँव की प्राइमरी पाठशाला से कक्षा 5 तक की शिक्षा हुई। उसके बाद जहाँ-जहाँ पिताजी का ट्रांसफ़र होता था, वहाँ-वहाँ मैं उनके साथ रहती थी, और मेरी पढ़ाई चलती थी। कक्षा 9 से मैं बनारस के एक विद्यालय में पढ़ने के लिए आ गई थी। वहाँ हॉस्टल में रहकर पढ़ाई करती थी। आप समझ सकती हैं कि एक गाँव की लड़की जब अकेले हॉस्टल में रहने लगती है तो गाँव में तमाम तरह की फुसफुसाहटें जन्म लेने लगती हैं। लड़की और माँ-बाप से दूर? मेरे साथ भी ऐसा हुआ। लोगों को लगा कि बेटी अकेले कहीं रह रही है। लेकिन पिताजी अपने निर्णय पर अडिग थे। उन्हें मुझे पढ़ाना था तो, पढ़ाना था। नाते-रिश्तेदार विवाह के लिए ज़्यादा चिंतित होते हैं, सो मेरे भी थे। लेकिन पिताजी ने साफ़ मना कर दिया कि जब तक बेबी (मेरा घर का नाम बेबी है) की पढ़ाई पूरी नहीं हो जाती है और वह आत्मनिर्भर नहीं बन जाती है, तब तक इसका विवाह नहीं करूँगा। तो पिता के दृढ़ निश्चय के साथ-साथ उनकी बेबी अपनी शिक्षा-दीक्षा बनारस के उसे आर्य महिला कॉलेज से लेकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी विषय में पीएच.डी. करने तक पूरी करती रही। उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा शैक्षिक सेवा और फिर संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आकाशवाणी, दूरदर्शन में कार्यक्रम अधिशासी के रूप में एक राजपत्रित अधिकारी बनकर अपने पिता के सपनों को पूरा किया। डॉ. बेनी माधव से विवाह हुआ तो अपने सरनेम को हटाकर मैंने उनका माधव ले लिया। हमारी प्राचीन परंपरा भी रही है कि पति का नाम “वागर्थाविव सम्पृक्तौ” की तरह से जुड़ा रहा है। मुझे भी माधव बनना अच्छा लगा था। बेनी माधव और नीरजा माधव के दाम्पत्य-सफ़र के बारे में फिर कभी चर्चा करूँगी। 

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