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वे मनुष्य ही थे...

वे मनुष्य ही थे...(कविता संग्रह - अनुभूती - 1994)
(मराठी आदिवासी कवि डॉ. गोविंद गोरे की कविता का अनुवाद)
अनुवादक: नितिन पाटील

झुंड-झुंड में चलने वाले
बारीक पतली देह के
तेल लगे काले रंग के
अधनंगे, खुले बदन, तोतले से
झुर्रियों वाले ख़ामोश चेहरे के
पेट अंदर गये हुए
खोपड़ी में सिर अटके हुए
सिर पर उनके गगरी-मटके
शरीर कंधों पर बाल-बच्चे
संघर्ष करते निकल पड़े, जीने के लिए 
वे मनुष्य ही थे…

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