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विज्ञान और प्रौद्योगिकी विकास एवं जनमानस तक बौद्धिक सम्पदा का सम्प्रेषण: डॉ. अनिल अग्रवाल जी के विचार

किसी राष्ट्र की उन्नति में भौतिक सम्पदा की तुलना में बौद्धिक सम्पदा का अधिक महत्व है। इस संपदा का फ़ोकस वैज्ञानिक, तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी साहित्य माना जाता है। हम सभी जानते हैं कि विश्व में हर पल लगातार कुछ न कुछ नया घटित होता रहता है। उसे लिपिबद्ध करके ज्ञान के अमूल्य भंडार में सँजोना, उसे मानव जाति के कल्याण के लिए व्यवहार में लाना प्रबुद्ध मानव का धर्म है। लेकिन यह साहित्य, सूचनाएँ एवं तथ्य तभी सपनों को सही मायने में साकार कर सकती हैं जब यह अमूल्य धरोहर व्यक्ति की मातृभाषा में उपलब्ध हो। फिर चाहे मूल लेखन का रास्ता अपनाया जाये या फिर अनुवाद का। इस संबंध में प्रतिष्ठित मौलाना आज़ाद मेडिकल कालेज़ के प्रोफ़ेसर, फोरेंसिक क्षेत्र के विशेषज्ञ डॉ. अनिल अग्रवाल का इंटरव्यू प्रस्तुत है, जिन्होंने अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी में मूल लेखन करके इस दिशा में सार्थक योगदान दिया है। ये नेशनल बुक ट्रस्ट, प्रकाशन विभाग जैसी सरकारी एवं प्रभात प्रकाशन, रूपा जैसी गैर सरकारी प्रकाशन संस्थाओं से भी जुड़े हैं। इन संस्थाओं ने इनकी मूल रूप में हिंदी में लिखी चिकित्सा जगत से संबंधित पुस्तकें प्रकाशित कीं, वहीं साइंस रिपोर्टर, विज्ञान प्रगति, विधि भारती जैसी उच्च स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी-अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में तकनीकी विषय संबंधित अनेक सारगर्भित, विचारोत्तेजक लेख रोचक, सहज, सुबोध भाषा में छपे। इसके अलावा अंग्रेज़ी की अंतर्राष्ट्रीय स्तर की पत्र- पत्रिकाओं में इनके लेख प्रकाशित हो चुके हैं। साथ ही इन्होंने हिंदी और अंग्रेज़ी में www.anil.geradts.com नामक वेबसाइट तैयार की है जिसमें चिकित्सा अगत से जुड़ी नवीनतम घटनाओं, तथ्यों आदि की सूचना उपलब्ध है। इस प्रकार डॉक्टर साहब का कागज़ और कलम से ही नहीं, सूचना प्रौद्योगिकी के साथ भी गहरा संबंध है। प्रस्तुत है इनके साथ श्रीमती प्रवीण शर्मा द्वारा की गई बातचीत के अंश –

प्रवीण:

लेखक और पाठक के बीच अनुवादक महत्वपूर्ण कड़ी माना जाता है। आपके विचार में प्रायः लेखक और अनुवादक के बीच उतना सामंजस्य क्यों नहीं हो पाता, जितना होना चाहिए?

डॉ.अग्रवाल जी:

लेखक विषय का विशेषज्ञ होता है जबकि अनुवादक भाषा का विशेषज्ञ भले ही हो लेकिन उसे विषय का प्रत्यक्ष ज्ञान या अनुभव नहीं होता। कई बार नया अनुवादक व्यक्त विचार, संकल्पना या संदेश को पकड़ ही नहीं पाता। लेकिन हो सकता है कि अनुभवी अनुवादक के साथ ऐसा न हो। उदाहरण के लिए ‘हृदय’ या मानव शरीर के किसी अंग, बीमारी, टेस्ट की तकनीक, चिकित्सा पद्धति की जानकारी अनूदित पाठ में यांत्रिक रूप से व्यक्त की जायेगी, लेकिन इसके साथ-साथ उसकी संकल्पना को हमेशा, हर बार, हर अनुवादक अच्छी तरह से समझे, यह ज़रूरी नही!

इसके अलावा लेखक और अनुवादक की परस्पर पहुँच नहीं होती है। इन दोनों के बीच परस्पर संवाद होना ज़रूरी है। इन दोनों के बीच सामंजस्य इसी संवाद, संप्रेषण पर निर्भर करता है।

अनुवादक का अपना व्यक्तित्व होता है, लेखक का अपना! व्यक्तित्व में इस अंतर के कारण भी दूरी बढ़ जाती है। रचना कर्म में रचनाकार और अनुवादक- दोनों की पृष्ठभूमि, अनुभव, ज्ञान प्रतिबिंबित होता है। लेखक की अपनी रचनाधर्मिता होती है। इस कारण जहाँ कई बार अनुवाद मूल से भी आगे निकल जाता है, वहीं कभी-कभी अनुवाद शब्दों, वाक्यों का संचय मात्र बनकर रह जाता है। बेजान!

प्रवीण:

 चिकित्सा जैसे क्षेत्र में हिंदी में लेखन कार्य करते समय कौन –कौन सी कठिनाइयाँ आती हैं?

डॉ. अग्रवाल:     

उपलब्ध एवं नवीन साहित्य उच्च तकनीकी स्वरूप का होता है। हिंदी में लेखन का लक्ष्य आम जनता होती है। सामान्य जनमानस तक नई-नई सूचनाएँ प्रदान करने के लिए गूढ़-गम्भीर विचारों को आम बोलचाल की भाषा में व्यक्त करना दुरूह कार्य है। और यदि लेखक ऐसा कठिन कार्य संपन्न कर लेता है, तब भी इस बात की क्या गारंटी है कि जो व्यक्त किया जा रहा है, उसे पाठक ग्रहण कर रहा है। इसीलिए कई बार पाठक की किताब या लेख पढ़ते समय रुचि नहीं बनी रहती।

प्रवीण:

इस समस्या से निपटने के लिए आपके क्या सुझाव हैं?

डॉ. अग्रवाल जी:

इस समस्या से निपटने के लिए मेरे विचार में निम्नलिखित सुझाव या बातें काफ़ी महत्वपूर्ण होंगी-

  1. सर्वप्रथम, उदाहरणों का अधिकाधिक प्रयोग किया जाए।

  2. ‘सादृश्यता’ का उपयोग किया जाए। यदि हमारा ‘लक्ष्य’ या ‘निर्दिष्ट वर्ग’ ग्रामीण समुदाय है तो वहाँ ग्रामीण परिप्रेक्ष्य का सृजन किया जाए। जैसे ‘रक्त का संचरण’ समझाने के लिए हृदय और रक्त की धमनियों व शिराओं की संकल्पना ट्यूबवेल से खेतों में की जाने वाली सिंचाई, नालियों की सादृश्यता से रोचक, सहज ढंग से समझाई जा सकती है। इसी प्रकार से मानव शरीर के ऊत्तक(Cell) की संकल्पना समझाने के लिए ‘न्यूक्लियस’ को पार्लियामेंट/ पोस्ट ऑफिस के रूप में चित्रित किया जा सकता है। ये ऊत्तक डाकिए हैं, जो शरीर रूपी शहर में बिछी तंत्रिकाओं की सड़कों के जाल पर संदेश लाते-ले जाते हैं।

  3.  इसके अलावा, अधिक से अधिक चित्र, विशेष रूप से रेखाचित्र दिए जाएं। ‘बेताल की कथाओं’ के समान कार्टून शैली भी काफी उपयोगी सिद्ध हो सकती है।

  4. ‘कोर्ट केस’ की पद्धति भी अपनाई जा सकती है। उदाहरण के लिए, जीवाणु हानिकारक होते हैं। यह मुकद्दमा चलाया जाता है कि चूँकि कई जीवाणु मानव जीवन के लिए घातक हैं, अतः इन्हें फाँसी की सज़ा दी जाए। उस समय जीवाणु स्वयं अपनी पैरवी करता है तथा अपने बारे में सकारात्मक जानकारी देते हैं और बताते हैं कि इस सृष्टि में उनका अहं स्थान है।

लेकिन इस बात को ध्यान रखना है कि ऐसे साहित्य का उद्देश्य सामान्य पाठक को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक बनाना है, न कि ऐसा डॉक्टर बनाना, जो नीम-हकीम बनकर अपना और दूसरों का नुकसान करे। इसलिए लोगों को रोग, दवा आदि की इस उद्देश्य से जानकारी देना है कि वह डॉक्टर से अच्छे से अच्छा उपचार ले सके।

प्रवीण:

सादृश्यता, कोर्ट केस, रेखाचित्र, चित्र, कार्टून, विक्रम बेताल जैसी शैली के उदाहरण के अलावा अन्य ऐसी कौन सी पद्धति हो सकती है, जिससे विज्ञान और चिकित्सा जैसे गूढ़, गम्भीर विषय को जन-मानस तक कारगर ढंग से पहुँचाया जा सकता है?

डॉ. अग्रवाल:

इन सब माध्यमों के अतिरिक्त वार्तालाप या सुकरात विधि से भी तथ्यों को सहज, सरस ढंग से वर्णित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, ‘साइंस रिपोर्टर’ में मेरे ‘Poison Sleuth’ नाम से धारावाहिक रूप में लेख छपे थे, जिनमें रसायन, चिकित्सा, भौतिकी और विशेष रूप से फोरेंसिक साइंस से जुड़े महत्त्वपूर्ण एवं नवीनतम तथ्यों को प्रस्तुत किया गया है। पाठक जगत ने इसे काफी सराहा। इसके अनेक अंशों का हिंदी में अनुवाद भी छपा। अंत में, लेखक की लेखनी और कल्पना शक्ति पर विषय का प्रतिपादन आधारित होता है।

प्रवीण:

अंतिम सवाल, चिकित्सा जैसे विशेषज्ञता वाले विषयों में अध्ययन-अध्यापन का माध्यम ‘अंग्रेज़ी’ के स्थान पर अन्य भाषा हो- इस दिशा में क्या संभावनाएँ हैं?

डॉ. अग्रवाल:

रूस, चीन, जापान आदि कुछ देशों में तकनीकी विषयों के अध्ययन-अध्यापन का माध्यम पहले से ही वहाँ की भाषाएँ हैं, क्योंकि इन देशों में एक ही भाषा व्यवहार में लाई जाती है। लेकिन भारत जैसे बहुभाषायी देशों में शिक्षण माध्यम की अपनी समस्याएँ हैं क्योंकि भाषा को लेकर सर्वसम्मति बनना दुष्कर कार्य है।

दूसरे, समस्त पाठ्यपुस्तकों को कम से कम समय में एक साथ अनेक भाषाओं में तैयार करना, लिखना या अनुवाद का सहारा लेना कोई सीधा-सादा कार्य नहीं है।

तीसरा, सभी जानते हैं कि व्यक्ति विशेष रूप से बच्चा अपनी भाषा में जल्दी सीखता है, लेकिन एक माह में कई हज़ार विशिष्ट एवं शोधपरक पत्रिकाएँ विश्व में निरंतर तेज़ी से छप रही हैं। उनमें समाविष्ट सूचना के भंडार का तुरंत अनुवाद करने के लिए बहुत बड़े एवं जटिल नेटवर्क की ज़रूरत है। जबकि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अभी तक सर्वत्र बुनियादी सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में जब तक अनुकूल वातावरण तैयार नहीं होता, तब तक शिक्षण-अध्यापन की वर्तमान स्थिति बनाए रखना ही बेहतर होगा।

प्रवीण:

आपके विचार में विज्ञान का लक्ष्य प्रयोगशाला से निकल कर जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र तक पहुँचाना है। इस संबंध में भारत की पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी कहा है कि ‘हिंदी में जितना अनुवाद होना चाहिए, वास्तव में वह नहीं हो रहा है। राजनीति, वाणिज्य, व्यापार वगैरह के कामों के लिए तो हिंदी का उपयोग काफी बढ़ रहा है, लेकिन विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के लिए जो होना चाहिए वह अभी नहीं हुआ है.... भारत ने दूसरी भाषाओं के शब्दों के लिए कभी दरवाज़े बंद नहीं किए। उसने सबके विचारों को अपने में मिला लिया। इस से हमारी शक्ति बढ़ी।’ इस उद्धरण से स्पष्ट है कि भाषा, समाज या व्यक्ति के विकास में अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका है। फिर भी अनुवादक को समुचित महत्व क्यों नहीं दिया जाता?

डॉ. अग्रवाल:

इसका सबसे बड़ा कारण ‘सांस्कृतिक उपनिवेशवाद’ है। अनुवाद के प्रति सही सोच नहीं रखी जाती। अनुवाद के प्रति उदासीनता बरती जाती है। समस्याएं हमारे ‘सिस्टम’ में निहित हैं। यही कारण है कि अनुवाद जैसे विशाल और घनी छाया के वृक्ष के नीचे पथिक आनंद लेता है, ज़रूरतें पूरी करता है, थकावट दूर करता है, और फिर आगे निकल जाता है। दुबारा मुड़कर न तो पेड़ को देखता है, न ही उसका शुक्रिया अदा करता है। इस पेड़ की तभी याद आती है, जब व्यक्ति फिर ज़रूरत के रेगिस्तान में पहुँचता है। इस स्थिति से निपटने के लिए एन.जी.ओ. और बड़े-बड़े बिज़नेस हाउस को पहल करनी चाहिए। हमें विद्यमान वातावरण को खत्म करना है। ज्ञान के क्षेत्र को भाषायी नकारात्मक सोच के दायरे से बाहर निकालना है ताकि प्रौद्योगिकी, विज्ञान, चिकित्सा में होने वाले नए-नए आविष्कार, सूचनाओं से चुनिंदा लोगों का ही नहीं बल्कि तमाम भाषा की दीवारों को तोड़कर समस्त मानव जाति का कल्याण हो।
 

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