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ज़माना ही ऐसा था

मेरी बड़ी सरहज जो - गाँव की है, अपनी गाली कला के लिए ख्यात हैं। गाली चाहे गीत के रूप में हो या किसी को बदनाम करने के लिए, सब में पद्मश्री प्राप्त हैं। शरीर का रंग ऐसा कि कोयल भी शर्मा जाय। और मुहफट तो ऐसी की शर्म भी बेशर्म हो जाती है उनके सामने। अपनी शादी की रात जब मैंने अपनी ही जीवन संगिनी को एक बार देखने की इच्छा व्यक्त की तो उन्होंने ही भरे आँगन में मुझे सबसे पहले बेशर्म कहा था। फिर सासु माँ ने भी उनके डर से उनका समर्थन करते हुए कहा था कि- "आज तक इस आँगन में यह काम नहीं हुआ है बबुआ जी, यह गाँव है।" उस दिन मुझे ख़ुशी इस बात से हुई कि मुझे शहरी समझा गया। शायद इसीलिए साले लोगों ने भी मुझे पीटने से मुक्त किया था।

मेरी लड़ाकू सरहज की ही चलती आ रही है आज तक मेरे ससुराल में। सो उस दिन उन्हीं की अनुशंसा से तय हुआ कि कुछ देर के लिखे दूल्हा-दुल्हन को एक कमरे में ढुका दिया जाय। फिर ऐसा ही हुआ। मुझे एक ऐसे दमघोंटू कमरे में ले गईं सरहज जी जहाँ, जाड़े के दिन में भी पसीने आते हैं। थोड़ी देर बाद उसी कमरे में मेरी जीवन संगिनी को भी ढुका दिया गया। बाहर से सांकल लगाकर सरहज जी हम दोनों की रखवाली भी कर रही थीं, यह बात बिना बताये ही मुझे मालूम हो रही थी। अब उस "एकांत प्रान्त बहुजन निर्जन" में हम दोनों की बोलती बंद थी। क्योंकि प्रत्येक दो मिनट पर सरहज जी का एक सन्देश सुनाई पड़ता था कि - "देखब पाहून! अबे पूजा करे के बा! कथा बाकी बा।"

उनका यह उपदेश मुझे गुरुमंत्र की तरह भारी लग रहा था।

गवना के एक साल बाद जब मैं पहली बार ससुराल गया था तब श्रीमतीजी भी वहीं थीं। यह भी एक आपराधिक यात्रा ही थी मेरी। क्योंकि उस ज़माने में ससुराल जाना सिर्फ अमर्यादित ही नहीं, युवकों के लिए दंडनीय अपराध भी माना जाता था। पर विवशता थी मेरी। मेरे हॉस्टल में इतने ससुराली पत्र आते थे कि मेरे सहपाठी लोग भी छुपकर पढ़ने के आदि हो गए थे। बहुत दिनों बाद पता चला कि मैं जिसे अपनी पत्नी का पत्र समझकर पढ़ता था, उसकी मूल लेखिका मेरी बड़ी सरहज थीं। ये …गाँव की हैं। तीसरी कक्षा में ही गाँव के मास्टर के साथ झोंटा-झोंटी करने के कारण उनके पिताजी ने उनकी आगे की प्रतिभा विकास पर ब्रेक लगा दिया था। इन्होंने ही एक पत्र में लिखा था -

क्या खता मुझसे हुई जो पत्र आना बंद हैं!
रेलवे हड़ताल है या डाकखाना बंद है!!

इस पत्र का जवाब मुझे एम.ए. हिंदी के पूरे पाठ्यक्रम में कहीँ नहीं मिला। उत्तर खोजने में अभी एक माह ही बीता था कि दूसरी चिठ्ठी आई, जिसमे लिखा था-

अँगूठी के नग को नगीना कहते हैंl
पत्र का जवाब नहीं देनेवाले को कमीना कहते हैंll

एकदम सत्य बात है कि इसी "कमीना" पत्र ने मुझे पहली बार "नालंदा शब्द सागर" खोलकर अपना अर्थ देखने और समझने के लिए मुझे मजबूर किया था। इसी से हमारे कई सहपाठियों का भी शब्द ज्ञान बढ़ा। कविता करने की कला तो मुझे भी मालूम थी, पर लाजवाब था उस समय! (वैसे मैंने जो जवाब लिखा था उस समय, वह यहाँ नहीं लिखा जा सकता है)

लेकिन कुछ ही दिनों बाद एक ऐसा पत्र आया, जिसे लोग "गँवारू पत्र" कहते हैं। अंतर्देशीय पत्र पर फूलों की बेढंगी चित्रकारी के बीच लिखा था -

लिखती हूँ खत खून से स्याही न समझियेl
मरती हूँ तेरी याद में जिन्दा न समझियेll

जैसा की प्रायः होस्टलों में होता है, इसे भी मुझसे पहले मेरे रूम-मेट ने ही पढ़ा था। उसीने बताया कि मुझे ससुराल जाना चाहिए। मेरा मानना है कि सच्चा मित्र वही है जो बुरे काम में साथ दे, अच्छे काम में तो सब कोई साथ देता है। चूँकि ससुराल जाना तब बुरा काम ही माना जाता था, पर मैं गया। बड़ी सरहज जो आँचल से अपना मुँह ढँक कर ही मुझे बेशर्म बनाने कि कोशिश कर रही थीं, एक ही दिन में तीन बार बेसन के हलवा, पकौड़ा, कड़ी-बरी खिलाईं तो कुछ शक़ हुआ मुझे। फिर पता चला कि किसी ने उन्हें बताया था कि बेसन के व्यंजन मुझे बहुत पसंद हैं। फिर मैंने हाथ जोड़ कर बताया कि पसंद तो है पर इतना नहीं कि ससुराल में भी यही खाया जाये। तभी सासु माँ ने एक भोजपुरी मुहावरा सुनाया कि-दूध-दही सपनो में न पायो, दामाद के भोजन कैसे करायो।

स्पष्ट करना है कि जो सरहज मुँह ढँक कर बतियाती थी उनके सामने के चार दाँत हाल ही में टूट चुके थे। मतलब कि वे बेदाँती थी। इसीलिए वे मुझे अपना मुँह नहीं दिखाना चाहती थीं। इसी सरहज ने मुझे रात में छत पर अकेले सोने का फ़रमान जारी किया, जिसका समर्थन ससुराल के सभी भद्र जनों ने एकमत होकर किया था। भोजन के बाद मुझे छत पर ले जाया गया जहाँ चाँदनी बिखरी हुई थी। जब सारा गाँव सो रहा था, तब मैं चाँद और चाँदनी के साथ रात्रि जागरण कर रहा था। जाने कब सोया, पता नहीं। पर कुछ हलचल से नींद खुली तो देखा कि श्रीमतीजी किसी अपराधिन कि तरह बिस्तर के किनारे बैठी हैं। ज़माना ही ऐसा था। फिर हम दोनों डरते-डरते ही सो गए। थोड़ी देर बाद फिर नींद खुली तो देखा कि हमारे बगल में मेरी बेदाँती सरहज खड़ी होकर हमारी रखवाली कर रही हैं। मुझे जागते देखीं तो बड़े अदब के साथ बोलीं - "पाहुन! मच्छरदानी लगा दीं का?"

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