अदृश्य आवाज़ों का विसर्जन
कथा साहित्य | कहानी प्रगति गुप्ता1 Oct 2025 (अंक: 285, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
अभी सूर्योदय में कुछ समय बाक़ी था। वह काफ़ी समय से इधर-उधर भटक रही थी। अब वह समुद्र के किनारे सटी हुई चट्टान पर जाकर तनिक विश्राम कर लेना चाहती थी। सदियों से हर चोले से छूटने के बाद समुद्र के किनारे आकर बैठना उसे बहुत शान्ति देता था। समुद्र की निरंतर टकराती हुई लहरें इस चट्टान को बहुत ठंडा कर देती थीं। न जाने क्यों उसे लगता था कि चट्टान ने यह ठंडक उसी के लिए ही ग्रहण की हो। निरंतर शरीरों की यात्रा और उनसे निर्वासन उसे बहुत थका रहा था।
यात्राएँ जब इंसान को थका देती हैं तो फिर वह क्यों नहीं थक सकती? नए चोले के मिलने तक इसी सूक्ष्म रूप में घूमना भी उसे बहुत थकाता है। शायद! . . . पीड़ादायक यात्राओं की थकान उसे कुछ ज़्यादा ही चोटिल करती है। जब किसी अदृश्य सत्ता ने अदृश्य रहकर सभी की डोर थाम रखी हो तो स्वयं को शांत रखने का अभ्यास ख़ुद ही करने पड़ते हैं।
एकाएक वह सोचने लगी कि मनुष्य भी कितना अजीब प्राणी है। हमेशा असंख्य प्रश्नों को अपने झोले में लेकर चलता है, मगर उसे एक भी प्रश्न करने का अधिकार नहीं है। बस निमित्त की स्वीकारोक्ति ही क्यों उसके हिस्से आई है। वह अभी तक नहीं समझ सकी।
अब तो चोला शब्द भी उसे बहुत आहत करता है। बार-बार होने वाले निष्कासन पर भी असंख्य प्रश्न उसके भीतर उठते हैं। क्यों आदमी अपने स्वार्थों से उबर नहीं पाता? . . . और निर्दोष को बलि चढ़ा देता है। अपने प्रश्नों के उत्तर खोजने पर उसे कभी नहीं मिले। उसके ‘मैं ही क्यों’ का जवाब सम्पूर्ण आदमज़ाद के पास नहीं था। अब तो नए चोले के लिए इंतज़ार करना भी उसे कष्टप्रद लगने लगा था।
जैसे-जैसे वह समुद्र के निकट पहुँच रही थी, स्वतः ही शांत होती जा रही थी। दूर से समुद्र कितना शांत दिख रहा था, बिल्कुल उसकी तरह। सुबह-सुबह उसके ऊपर हौले-हौले दौड़ती हुई लहरें कितनी अलसाई-सी रेंगती हुई प्रतीत हो रही थीं। मानो समुद्र के विशाल सीने पर धीरे-धीरे अँगड़ाइयाँ ले रही हों, और समुद्र लहरों के संग शांत पड़ा आनंदित हो रहा हो। आज न जाने क्यों उसे लगा काली घुप्प रात के बाद उषा ने भी हौले से मुस्कुराकर उसे शांत करने की कोशिश की हो।
अनंत काल से ही हर निर्वासन के बाद प्रभात से संध्या तक का समय वह इसी चट्टान पर बैठकर निकालती है। यहाँ से निकलने से पहले वह समुद्र में अपनी समस्त बेचैनी और प्रश्नों सहित डुबकी लगाती है, ताकि निर्वासन तक की स्मृतियों को तिलांजलि देकर निमित्त भविष्य के लिए बढ़ सके।
उसकी पीड़ाओं से उपजे अश्रुओं को शायद समुद्र ही सहृदयता से स्वीकार कर उसे हल्का कर सकता था। लहरों के साथ रात भर बेचैन विचरने की वजह भी उसकी सहृदयता ही थी। किसी की पीड़ा और बेचैनी को ख़ुद में समेटना, छोटी बात नहीं हो सकती।
पर आज इस चट्टान पर आना पहले जैसा नहीं था। चट्टान उसके जैसी असंख्य आवाज़ों से पहले से ही गुंजायमान् थी। सिर्फ़ वह ही उन आवाज़ों को सुन सकती थी। हर आवाज़ के स्वर की आद्रता व तीव्रता बहुत अलग थी। पर पीड़ाओं का भार बहुत कुछ एक जैसा था। वह जैसे ही वहाँ पहुँची, उसकी आवाज़ के लिए भी स्वतः ही जगह बन गई।
एक समय था जब वह इस चट्टान पर अकेले ही पहुँचा करती थी। समुद्र को साक्षी बनाकर अपनी पीड़ा कहती थी। समुद्र शांत रहकर कुछ इस तरह सुनता, मानो उसके घावों पर राहत का मरहम लगा रहा हो। अपनी व्यथा कहने-सुनाने के बाद वह शांत हो जाती। पर आज तो असंख्य सहयात्रिणियाँ उसी चट्टान पर आकर जमा हो गई थीं।
प्रायः सहयात्री शीघ्र ही मित्रता की ओर बढ़ जाते हैं, क्योंकि उनकी कुछ बातें और पीड़ाएँ एक जैसी होती हैं। जिन्हें साझा करने से चैन आ जाता है। बतकही उनके बीच माध्यम बनती है, पर यहाँ तो सिर्फ़ आवाज़ें ही आवाज़ें थीं। उनके एकत्र होने का उद्देश्य सिर्फ़ अपनी-अपनी पीड़ाएँ बोलकर शांत होना था। जिन्हें नाम मिलने से पूर्व ही उनके शरीरों से निर्वासित कर दिया गया था। इसलिए वह सिर्फ़ पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी . . . आवाज़ें ही हो सकती थीं।
उसने कुछ भी बोलने से पहले दूसरी आवाज़ों को सुनना चाहा। फिर अंत में अपनी पीड़ा को बयान करने का सोचा। चट्टान के दृश्य को देख आज वह काफ़ी चकित और हैरान थी। एक ओर इतनी फिसलन होने के बाद भी चट्टान ने असंख्य विद्यमान आवाज़ों को अपनी गोद में समेटकर आश्रय दिया हुआ था। दूसरी ओर इनमें से एक भी आवाज़ को आदमज़ाद सहेजकर नहीं रख सकी थी।
एकाएक सभी सहयात्रिणियों ने एक-दूसरे को देखा, और उनके बीच क्षण भर को गहरा सन्नाटा पसर गया। फिर अशांतता इस सूई पटक सन्नाटे के बीच बहुत देर तक शांत नहीं रह पाई। सौभाग्यवश अपनी-सी पीड़ाओं वाली आवाज़ें एक-दूसरे को सुनने-सुनाने को एक जगह एकत्र हुई थीं।
अचानक पहली आवाज़ ने पसरी हुई ख़ामोशी को तोड़ते हुए अपनी मूर्खता का उपहास उड़ाते हुए बोलना शुरू किया—
“मैं निमित्त के आदेश पर उस दिन बहुत ख़ुश थी, क्योंकि मुझे एक वैभव संपन्न परिवार में जन्म लेना था। उस परिवार का इकलौता बेटा अपनी पत्नी के पहली बार गर्भवती होने से बहुत ख़ुश था। उसने अपने माँ-बाप को चहकते हुए सूचित किया। संपूर्ण परिवार बेटे की प्रथम संतान के आगमन की सूचना पाकर बेहद उल्लसित था।
“ऐसा गर्भ पाकर मैं भी मन-ही-मन बहुत प्रफुल्लित थी। धड़कनों के आते ही अपनी पूर्व यात्राओं के निष्कासन की पीड़ा को भूल चुकी थी। बहू के माँ बनने की ख़ुशी में उसे सभी सुविधाएँ बिस्तर तक पहुँचाई जाने लगीं। बहू के आराम को ध्यान में रखते हुए कई नौकरों की व्यवस्था उसके आस-पास की गई। बहू को अपने खाने का चम्मच भी ख़ुद उठाकर खाने की ज़रूरत नहीं थी। उसकी एक आवाज़ पर घर के सभी नौकर-चाकर हाज़िर हो जाते थे।
“धड़कनें आने के बाद मैं आस-पास की सभी बातें सुनने लगी थी। धीरे-धीरे घर के बड़ों की खुसर-फुसर मुझ तक पहुँचने लगी। मैंने एक दिन सास को ससुर से कहते हुए सुना कि सोलह हफ़्ते होने वाले हैं। घर के पंडित और डॉ. बुआ को बुला लो, ताकि पता चल सके पोता है या पोती . . . पहला पोता ही होना चाहिए। मुझे उसके नन्हे पैरों की आहट के संग दादी की पुकार सुननी है।
“सास की कही बातों ने मेरी ख़ुशियों पर अचानक पूर्ण-विराम लगा दिया, क्योंकि उस दिन मेरा निर्वासन तय हो गया था। न जाने कितनी जड़ी-बूटियाँ उन्होंने छलपूर्वक बहू को खिलाकर उसके शरीर से मुझे निष्कासित किया। उस दिन भयंकर रक्तस्त्राव के संग मैंने ख़ुद के अधबने चोले को छोड़ा था। मेरा शरीर अधबना था, मगर हृदय धड़क रहा था। पर कुटिल बुद्धि और निष्ठुर मंशाओं पर कब किसका ज़ोर चला था?
“आज भी लाल रंग का स्मरण आते ही मेरी दूजहनी छूटती है। मुझे इस उदित होते सूर्य की लालिमा भी बहुत आहत करती है। इसलिए मैं सूर्योदय से पहले ही तुम सबसे विदा लूँगी। तुम सबकी पीड़ा सुनना चाहती थी . . . पर मैं रुक नहीं पाऊँगी।” फिर अपनी नासमझी का उपहास उड़ाते हुए वह ज़ोर से हँसकर बोली . . . “वैभव सम्पन्न परिवार की अमीरी भी अपने महल में उसके लिए जगह न बना सकी।”
उसे समुद्र की ओर जाते हुए देखकर किसी ने भी पहली आवाज़ को नहीं रोका। सब आवाज़ें बहुत चोटिल और आहत थीं। सबका दुःख बहुत बड़ा था।
उसके जाते ही दूसरी आवाज़ ने बेहद दुःख भरी आवाज़ में अपनी व्यथा कहनी शुरू की। वह भी अपनी अनकही सबके सामने कहकर शांत होना चाहती थी।
“मैंने तो जन्म ले लिया था। मेरी माँ मुझे पाकर बेहद प्रफुल्लित थी। उसने मुझे अंक में भरकर पहला दुग्धपान करवाया। ममता से भरी हुई मेरी माँ दुग्धपान करवाते समय सतत रोती जा रही थी। उसके निरंतर किए हुए चुंबनों की बौछार से मेरा तन और मन भीतर तक भीग गया था। मेरी सारी काया उसके अश्रुओं से गीली थी। जिन्हें वह अपने आँचल से सतत पोंछ रही थी . . . और मैं मासूम नादान, अपनी जननी की ममता पर इतरा रही थी।
“न मेरी जननी के अश्रु बहना बंद होते थे, न उसका मेरे शरीर को पोंछना। उसकी ममता की छाँव में बेटी होना मुझे गर्व से भर रहा था। मैं उसके सीने से चिपक कर उसकी मुँदी आँखों में अपने लिए ख़ुशियाँ खोज रही थी। मानो मैं ऐसी ही ममता के लिए सदियों से भूखी थी।
“पहला दुग्धपान करवाकर जैसे ही दो हाथों ने जननी से मुझे विलग किया, वह चीखती-चिल्लाती और सुबकती रही, पर उन निर्मम हाथों ने उसे धक्का देकर परे कर दिया। फिर उन्हीं हाथों ने दूध से भरे बरतन में मुझे लिटाया, और अंतिम बुलबुले के आने तक मुझे उसके तले में दोनों हाथों से दबाया। नन्हे-नन्हे हाथ-पाँव चलाकर, जब मेरा शरीर थक कर हल्का हो स्वयं ही ऊपर आकर ठहर गया, तब उन निर्मम निष्ठुर हाथों को चैन मिला।
“एक स्त्री मेरी माँ बनी . . . दूजी मेरी हत्यारिन। मेरी माँ इस होनी को जानती थी। तभी उसकी आँखें मेरा अंत होने तक मेघों-सी बरसती रही थीं। माँ की सूनी आँखें मेरे संग-संग चली आई है। जब समुद्र में डुबकी लगाकर अपनी पीड़ाओं का विसर्जन करूँगी . . . तभी मेरा मन शांत होगा।”
अपनी बात पूर्ण कर दूसरी आवाज़ बग़ैर मुड़े समुद्र में डुबकी लगाने चली गई। बाक़ी चट्टान पर बैठी उसकी सहयात्रिणी आवाज़ें निःशब्द उसे जाते हुए देखती रही।
तभी क्रोध से भरी हुई तीसरी आवाज़ ने लगभग चीखते हुए उस अनब्याही लड़की की कोख का ज़िक्र किया। जो अपना मक़सद पूरा करने के लिए अपने शरीर का उपयोग करने में बिल्कुल नहीं हिचकती थी। गर्भ ठहर जाने पर किसी चिकित्सक के पास जाकर अजन्मों को अपने शरीर से निष्कासित कर देती थी।
तीसरी आवाज़ का क्रोध उस लड़की के लिए रह-रह कर उफ़न रहा था, क्योंकि उसे अपने मज़े के लिए किसी की जान लेने में कोई पीड़ा या अपराधबोध नहीं था। उसे गर्भ में आने वाले बच्चे के लिंग से भी कोई मतलब नहीं था। अपनी बात बताते में यह आवाज़ बहुत चोटिल और क्रोधित थी। तीनों बार उसी लड़की की कोख में आना उसकी निमित्त नियति थी।
तभी वह साथ में बैठी हुई सहयात्रिणियों से बोली, “कहने को वह कोख बहुत नरम मुलायम थी, पर इस चट्टान से ज़्यादा स्थिर नहीं थी। यहाँ बैठी हूँ तो बैठने में कोई दर्द नहीं है। बस निष्कासन की पीड़ा बहुत चोटिल आहत करती है।”
तीसरी आवाज़ अपना क्रोध उगलकर सबके साथ चट्टान पर ही बैठी रही। अब चौथी आवाज़ की अपनी पीड़ा को कहने की बारी थी।
चौथी आवाज़ ने ज्यों ही धूमिल ठंडी पड़ती अपनी आवाज़ में मन की व्यथा कहनी शुरू की, साथ बैठी आवाज़ों की चुप्पी में भी अनायास ही अनंत पीड़ा बिखरती हुई महसूस हुई।
“मैंने ग़रीब माँ-बाप की खोली में जन्म लिया था। माँ के होश में आने से पहले, शराबी बाप ने मुझे रातों-रात दूसरे शराबी के हाथों बेच दिया। और माँ के होश में आने पर मृत बेटी के पैदा होने की सूचना दी।
“रात के घुप्प अँधेरे में वह शराबी मेरे नग्न शरीर के साथ खिलौने की तरह खेलता रहा। मैं भूखी, प्यासी, चोटिल होकर डूबती आवाज़ में रोती कराहती रही। वह निर्मम पाषाण हृदय बेसुध-बेजान गुड़िया समझकर मुझे रात भर मसलता रहा। मैं जैसे ही शांत हुई मेरे चोटिल शरीर की पीड़ा भी शांत हो गई। मैं फिर अपना चोला छोड़कर इस चट्टान पर आकर बैठ गई। “
चौथी आवाज़ की दर्द भरी कारुणिक दास्तान को सुनकर चट्टान पर बैठी असंख्य आवाज़ों के अंदर असंख्य प्रश्न उठ खड़े हुए। पर सदियों से उनके उत्तर अधरझूल थे।
चौथी आवाज़ की बात पूर्ण होते ही पाँचवीं आवाज़ ने सूनी आँखों से आस-पास बैठी हुई सभी सहयात्रिणी को निहारा। फिर जैसे-तैसे अपनी काँपती आवाज़ में अपनी बात को कहना शुरू किया।
उसकी आवाज़ में कंपनों का वेग इतना गहरा था कि उसके शब्द टूट और छूट रहे थे। पर उसे अपनी पीड़ा साझा करके शांत होना था।
हर निष्कासन के बाद नियमित रूप से इसी चट्टान पर पहुँचने वाली आवाज़, पाँचवीं आवाज़ के पास ही बैठी थी। इन सबमें सिर्फ़ वही . . . सबसे ज़्यादा शांत थी। सदियों से इसी चट्टान पर आकर बैठना उसका नियमित अभ्यास था। उसने हमेशा ही नियतिबद्ध मिलने वाले निमित्त को स्वीकारकर ख़ुद को काफ़ी शांत कर लिया था।
पाँचवीं आवाज़ के दुजहते-डूबते स्वर को सुनकर वह उससे और सटकर बैठ गई। ताकि उसको संबल महसूस हो। और वह अपनी पीड़ा कहकर कैसे भी शांत हो। उसके पास आते ही पाँचवीं आवाज़ ने ख़ुद को सँभाल लिया और अपना बहुत कुछ . . . चिंदी-चिंदी हुआ अनकहा कहा।
“मेरी होने वाली जननी को ख़ुद के गर्भ का सत्रह हफ़्तों बाद पता चला था। उसको कोई दिक़्क़त थी। जिसकी वजह से उसे अपने गर्भ ठहरने का विलंब से पता चलता था। मैंने उसकी परेशानी को गर्भ में आने के बाद सुन लिया था। उसके पहले से तीन बेटियाँ थीं। घरवाले जिनकी वजह से उसे बहुत गालियाँ देते थे। जैसे ही उन लोगों को पुनः बेटी के गर्भ में होने का पता चला। उन्होंने मेरी जननी को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। रोज़-रोज़ की प्रताड़ना से तंग आकर उसने अपनी जान पर खेलकर मुझे निष्कासित करने का फ़ैसला किया।
“उस दिन मैंने अपनी माँ को बाप से बिलखकर रोते हुए कहते सुना कि ‘वह तो तीन ज़िन्दा बेटियों को सामने देखकर ख़ुद के मरने की भी कामना नहीं कर सकती।’ अपनी माँ की लाचारी भरी आवाज़ . . . आज भी मेरे भीतर गूँजती है।
“बेहोश होने से पहले उसने अपनी तीनों जनी हुई बेटियों को प्यार किया। फिर अपने पेट पर हाथ रखकर, मुझसे माफ़ कर देने की याचना की। उसकी बातें सुनकर मैं बहुत ख़ौफ़ में थी। क्या करेंगे मुझे गर्भ से निष्कासित करने वाले . . . मैं इसी उधेड़बुन में लगी थी।
“वह तो बेहोश थी। मुझे अपनी माँ के गर्भाशय में घुसने वाले नुकीले औज़ार जैसे ही अपने आस-पास महसूस हुए . . . मैंने ख़ुद को उस घुप्प अँधेरे में बहुत सिमटने की कोशिश की। पर मेरी सारी कोशिशें विफल रही। मैं भी छोटी-सी जगह में निर्मम हाथों द्वारा डाले हुए औज़ारों से कहाँ तक बच पाती? जब उन्होंने मुझे टुकड़ा-टुकड़ा कर निष्कासित करने का ठान रखा था।
“फिर तरह-तरह के औज़ारों से मुझे छोटा-छोटा काटकर शरीर से अलग किया गया। मैं अंदर ही अंदर चीख़ और कराह रही थी . . . जब तक मेरा दिल और दिमाग़ नहीं कटा था। मेरे नन्हे-नन्हे हाथ और पैर मेरे सामने ही काटकर अलग कर दिए गए। पर मेरी पीड़ा भरी पुकार को अंधकार भरे गर्भ में कोई सुनने वाला नहीं था। मेरे छोटे से दिल में ज्यों ही आकार एक नुकीला-सा औज़ार लगा . . . उसके बाद मुझे नहीं पता क्या हुआ।”
बस इतना-सा बोलकर पाँचवीं आवाज़ की ज़ोर से दूजहनी छूट गई। इसके बाद वह शांत होकर समुद्र की ओर ताकने लगी।
तभी सतमासी जन्मी एक और आवाज़ ने लगभग चीख़ते हुए कहा . . . “एक जानवर मेरी जननी को प्रेम और विवाह का झाँसा देकर, पूरा वर्ष शोषित करता रहा। बाद में उसने मेरी जननी को छोड़ दिया। जब मैं पैदा हुई तो घर की औरतों ने जननी को . . . ‘मृत पैदा हुई है’ बोलकर रात के अँधेरे में कचरे के ढेर पर फेंक दिया। मेरी जननी कुँवारी माँ बनी थी। इसलिए उसकी बेटी को स्वीकारने की हिम्मत किसी में नहीं थी।
“एक जानवर मेरा बाप था और दूसरा जानवर वह कुत्ता। जो मुझे सूँघता हुआ कचरे के ढेर पर पहुँच गया था। दोनों कुत्तों में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं था। एक ने मेरी जननी के जीवन को उधेड़ दिया था, दूसरे ने कचरे के ढेर से मेरे शरीर को उठाकर बोटी-बोटी उधेड़कर खा लिया था।” अपनी बात बोलकर ज़ोर से हुंकार भरकर वह आवाज़ भी ख़ामोश हो गई।
फिर एक-एक कर सभी ने अपनी अनकही पीड़ा समुद्र को साक्षी मानकर उसके आगे उड़ेल दी।
सभी सहयात्रिणियों की अनकही सुनकर वह और भी ख़ामोश हो गई थी। फिर उसने अपनी पीड़ा को स्वयं में ही दबाने की ठान ली। अंतिम बार उसने मन ही मन अपने बेदर्द बाप और उस बूढ़ी औरत को याद किया। जिसकी बातों को वह मानता था।
आज उसे भी दूसरी आवाज़ों की तरह अपने जन्म लेने के बाद का सारी घटनाएँ चलचित्र के जैसे चलती हुई दिखीं। वह जन्म लेने के बाद तेज़ ज्वर से पीड़ित थी। उसकी माँ रो-रोकर उसके बाप के आगे अपने हाथ जोड़ती रही। ‘इस बच्ची को किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा दो, नहीं तो यह अबोध मर जाएगी।’ पर बूढ़ी औरत के इशारे पर वह टस से मस नहीं हुआ।
उनके पहले भी दो बेटियाँ थी। वह बूढ़ी औरत उसके बाप को उसके मरने तक यही बोलती रही, ‘पहले ही दो जनी हुई हैं। एक मर भी गई तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। बेटा! तू सोच के देख ले कैसे उठाएगा तीन-तीन लड़कियों के ख़र्च।’ उस बूढ़ी औरत ने तो बेटी होने का पता चलते ही, कमरे में क़दम नहीं रखा था।
जैसे-जैसे उसको अपनी तपती देह और माँ के कारुणिक रुदन का ख़्याल आ रहा था, उसकी आवाज़ और भी गुम होती जा थी। उसकी माँ ने शायद कहीं सुन रखा था कि माँ का दूध अमृत होता है। माँ ने अपनी रुग्ण बेटी के तपते शरीर पर दो दिन दूध से ख़ूब मालिश की। उसकी माँ दूध पिलाने की अथक चेष्टा भी निरंतर करती रही। जबकि हाल ही में प्रसूता बनने की वजह से वह ख़ुद भी अथाह पीड़ा में थी। माँ के पसीना-पसीना होते शरीर को राहत देने के लिए उसकी दो छोटी-छोटी बहनें हरदम माँ के पास खड़ी रहती थीं। माँ जो भी माँगती, वह दोनों दौड़कर ले आती थीं।
दो दिन तक उसके चढ़ते ज्वर को बाप व बूढ़ी औरत नज़र-अंदाज़ करते रहे। फिर ज्यों-ज्यों उसका तपता शरीर ठंडा होना शुरू हुआ, माँ का तेज़ स्वरों में होने वाला विलाप भी उसके शरीर को शांत होने से न रोक सका। माँ को विलाप करते देख उसकी छोटी बहनें भी ख़ूब रो रही थीं। पर अब उस घर से जुड़ी उसकी यात्रा पूर्ण हो चुकी थी।
उस दिन गुम हुई उसकी आवाज़ आज भी गुम थी। चट्टान पर जुटी आवाज़ों की असंख्य पीड़ाएँ सुनकर भी वह निःशब्द रही।
पहले राजसिंहासन पाने या मृत्यु भय की वजह से लड़कों को मौत के घाट उतारा जाता था। मगर कृष्ण को बचाने के लिए तो कन्या का विकल्प ही सोचा गया था। फिर सदियों से ही अस्मिता बचाने या छोटी मानसिकताओं के नाम पर लड़कियों की बलि चढ़ती आई थी। न जाने कितने और निमित्त के आगे कुछ ऐसी ही कहानियाँ भविष्य में पुनः-पुनः चलने थीं। वह इस कटु सत्य को बहुत निकट से महसूस कर चुकी थी। तभी तो उसकी चुप्पी भी . . . बहुत कुछ बोलती थी।
उसे निःशब्द देखकर बाक़ी सब आवाज़ों ने उसकी भी अनकही पीड़ा पढ़ ली। लगभग एक-सी व्यथा, एक-सी यात्रा और लड़की होने की पीड़ा . . . उन सबने भोगी थी।
अब सवेरे से संध्या का समय हो चुका था। एकाएक सभी आवाज़ें एक साथ उठ खड़ी हुईं। सभी की आँखों में एक अनकहा रोष था। उनकी अनकही पीड़ाओं की व्यथा आदमज़ात की सोच में कहीं नहीं थी। उनकी अनकही पीड़ाओं की व्यथा आदमज़ात की सोच में कहीं नहीं थी। अब उनकी भी सहनशक्ति का अब बाँध टूटने लगा था। उन आवाज़ों में असंख्य प्रश्नों के साथ अब प्रतिकार लेने की भावना फूटने लगी थी। कहीं वह किसी क्षण में सम्पूर्ण आदमज़ात को शापित कर बंजर न बना दें। उसके बाद अगर सृष्टि की नव-कल्पना विधाता करे, तब लड़का या लड़की का जन्म समभाव की मनोवृत्ति के संग हो।
यह सच है कि सामूहिक रोष जब सभी सीमाओं को तोड़ देता है, तब किसी न किसी को अभिशप्त होना ही होता है।
फिर सभी आवाज़ें एक साथ समुद्र के ऊपर पहुँची। उन सभी ने एक साथ समुद्र में डुबकी लगाकर अपनी-अपनी पीड़ाओं का विसर्जन किया। भविष्य को समय पर छोड़कर नवीन यात्रा की प्रतीक्षा में समुद्र तट से अलग-अलग दिशाओं में प्रस्थान किया।
एक साथ इतनी कारुणिक आवाज़ों को ख़ुद में समाते हुए देखकर, अब समुद्र भी अपनी लहरों के संग कारुणिक आर्त्तनाद करने लगा . . . समुद्र का लहरों के संग-संग एक छोर से दूसरे छोर तक बेचैन घूमने का रहस्य उन आवाज़ों और समुद्र ने ही महसूस किया था।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कहानी
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं