ऐ कार वालो!
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य कविता डॉ. सुशील उपाध्याय1 Dec 2023 (अंक: 242, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
बे-कार (निर्कार!) लोग भी दुनिया में हैं।
तुम जब सड़क पर चलते हो,
सड़क को भूल जाते हो,
इंसान को भूल जाते हो।
वायुयान के वेग से धावते हो।
बारिश का तुम्हें पता नहीं लगता,
कीचड़ तुम्हारी निगाह में, स्मृतियों में नहीं रहता।
तुम्हारा यंत्र-चलित रथ चारों तरफ़ गंद फेंकता चलता है।
बे-कार लोग डर जाते हैं, कीचड़ से सन जाते हैं।
तुम्हारी कार से फेंका गया कीचड़
लोगों के सिरों को पार करता हुआ
सातवें आसमान तक जाने को आतुर रहता है।
कभी हम जैसों पर रहम करो,
बे-कार लोगों का ज़रा-सा ख़्याल करो,
सड़क हमारी भी है।
तुम ही मालिक नहीं हो। सच में, कोई भी मालिक नहीं है।
और, सुनो-
कार-वान होने से तुम देवता नहीं हो गए हो,
तुम ईश्वर के दूत भी नहीं हो,
कि तुम्हें कोई आख़िरी संदेश लेकर जाना है!
बात इतनी भर है कि तुममें संपदा जोड़ने का हुनर है।
याद रहे, तुम से पहले भी बहुत कार वाले हुए हैं,
आगे भी बहुत कार वाले होंगे।
हमेशा कोई नहीं होगा, न रहेगा।
जब घर से कार सवार होकर निकलो,
तब ख़ैर मनाओ,
कोई ऐसा दिन ना आए
जब निष्प्राण देह कार से खेंची जाए,
तुम्हारे कर्म सामने रखे जाएँ,
अचानक सूरज ढल जाए,
मिट्टी की देह मिट्टी में मिल जाए।
आग खा जाए, जैसे सबको खाती है।
सुनो और समझो,
गोरख ने क्या कहा है—
हबकि न बोलिबा,
ढबकि न चलिबा,
धीरे धरिबा पाँव।
गरब न करिबा,
सहजै रहिबा,
भणत गोरष रांव।
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