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असुरमर्दिनी

 

लड़का कमर्शियल पायलेट का कोर्स ख़त्म करने वाला है। परिवार की टायरों की बड़ी एजेंसी है। बड़ी कोठी, नौकर-चाकर सब कुछ है। जोधपुर वाली रमा बुआ ने ज़ोर देते हुए कहा, “अपनी मृणाल बहुत सुखी रहेगी।” अपने भाई-भाभी की निःशब्द आँखों के भाव पढ़कर बुआ फिर बोली, “ज़्यादा मत सोचो, अच्छे रिश्ते आसानी से नहीं मिलते।”

“ऐसे कैसे जीजी, बड़ा घर है तो शादी-तिलक में ‌‌माँगें भी बड़ी ही होंगी। तुमसे तो घर की स्थिति छुपी नहीं है। जबसे मुझे बीमारी ने घेरा है मृणाल औरे संयम ही किसी तरह पढ़ाई के साथ-साथ घर की सारी ज़िम्मेदारी सम्भाल रहे हैं,” रमा का भाई राकेश रुँधे मन से बोला।

“राकेश! तू चिंता मत कर। वे साधारण घर की पढ़ी-लिखी लड़की चाहते हैं। लेन-देन का कोई चक्कर ही नहीं है, उनके बड़े लड़के के ब्याह में लड़की वालों के यहाँ से धेला भी नहीं आया था। जो तुमसे बन पड़े दे देना। छोटा सा परिवार है, ईन-मीन चार लोग, माँ, दो बेटे और बड़े बेटे की पत्नी।”

रमा की भाभी रोहिणी कुछ कहने को हुई मगर रुक गई, रमा के आश्वासनपूर्ण हाथों ने उसे मौन सांत्वना दी, मानो कह रही हो, “तू क्यों चिंता करती है; माँ जगदम्बे सब भला करेंगी।”

विधि का विधान था, मृणाल ने अर्थशास्त्र में एम.ए. की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की और तुरंत ही उसका विवाह सम्पन्न हुआ। मृणाल को सम्पन्न परिवार में ब्याहने में राकेश और रोहिणी ने कोई कोर-कसर ना छोड़ी। अपनी क्षमता से अधिक ही ख़र्च किया था, यहाँ तक कि उन्होंने गाँव की अपनी भूमि भी बेच दी थी। यूँ तो सब ठीक था मगर मृणाल के ससुराल वालों के धनिकोचित हाव-भाव और आचार-व्यवहार से मृणाल के पीहर वाले कुछ संकुचित और असहज महसूस करते थे।

दिन बीते, ऋतुएँ बदलीं, मृणाल के कपड़े और आभूषणों में सतत वृद्धि तो हुई मगर मृणाल कुछ बुझी-बुझी सी लगती। अनेक बार कारण पूछने पर भी “सब ठीक है” कह कर बात घुमा देती और संयम को सदा परिश्रम कर अव्वल आने को प्रोत्साहित करती।

मृणाल की माँ रोहिणी एक कर्मठ एवमं ख़ुद्दार महिला थी। वह अपने दोनोंं बच्चों को बचपन से ही समझाती कि अपनी निजी समस्याओं को दुनिया को बताने से कभी कोई लाभ नहीं होता, दुनिया सहायता तो करती नहीं, मगर उपहास का पात्र ज़रूर बना देती है। सबको अपनी लड़ाई स्वयं ही लड़नी पड़ती है। जो निरंतर प्रयास करते हैं वे अंतत: विजयी होते हैं। इसी जीवन-सिद्धांत के चलते रोहिणी ने अपनी आर्थिक विषमता के सम्बन्ध में कभी अपने सहोदरों या रिश्तेदारों को भी कभी नहीं बताई थी। उसने अपने बच्चों को सक्षम बनाने की अथक-चेष्टा में सब दुख और पीड़ा भुला दी थी।

शब्द अत्यंत प्रभावशाली होते हैं। शब्द व्यक्ति को बना सकते हैं और मिटा भी सकते हैं। अपनी समस्या को ‘किसी’ को न कहने की सुलभ सलाह देते हुए रोहिणी ने यह कभी न सोचा होगा कि उनकी अपनी संतान मृणाल उसे जीवन का मूल-मंत्र बना लेगी और अपने ‘किसी’ के दायरे में मृणाल माँ को भी रख, स्वदुःख वार्ता के सारे द्वार बंद कर लेगी।

मृणाल का ससुराल दिखावटी और दंभी था। बहुओं के सम्मान से इतर तिरस्कार को मनोरंजन का माध्यम माना जाता था। मृणाल को विवाह के प्रथम दो वर्षों में ही पता चल गया था की ससुराल की सारी जग-मग बनावटी और झूठी है। पूरा परिवार ऋषि चार्वाक के “यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः॥” के “ऋण लो मगर घी पियो” के सिद्धान्त का पक्षधर था। मृणाल के पति की पायलेट-ट्रेनिंग और उसके बड़े भाई की टायरों की एजेंसी सब झूठ था। व्यापार करने की कौशल-बुद्धि उनमें थी नहीं, नौकरी उनकी झूठी शान में दोयम दर्जे का काम था। मृणाल ने महिला-महाविद्यालय में प्रवक्ता की नौकरी कर ली थी।

समय बीता, संयम पढ़ाई समाप्त कर सिंगापुर चला गया। बैंक में सीनियर मैनेजर हो गया था। घर के दरस बदले। उसका विवाह सुरुचि से हो गया था जोकि स्वयं सिंगापुर के नामी बैंक में कार्यरत थी। विवाह के छह महिनों में ही उन्होंने सिंगापुर की मशहूर ऑचर्ड रोड पर अपना घर ख़रीद लिया था और रोहिणी-राकेश भी वहीं साथ रहने लगे थे।

आनंद आंतरिक अनुभूति है। आनंदित होने के लिए बाह्य वस्तुओं का आडम्बर नहीं चाहिये होता। रोहिणी के परिवार में प्रसन्नता अभावों के दिनों में भी कम न थी और आज सांसारिक सुख-सुविधाओं में भी अक्षुण्ण है। समता का भाव बिरले ही रख पाते हैं। रोहिणी, देवी माँ का धन्यवाद देते-देते न थकती थी। देवी माँ की कृपा से उसकी तपस्या रंग लाई। संयम उच्चपद पर पहुँचकर भी विनीत और आज्ञाकारी था। अभावों से सिंचित रिश्तों में अनूठी दृढ़ता होती है।

भारत यात्रा से पूर्व रोहिणी कभी स्वयं के लिए कुछ ना ख़रीदती थी। उसका पूरा ध्यान इस बात पर होता कि बेटी मृणाल और ननद रमा के लिए क्या-क्या ले जाए। रोहिणी का विश्वास था कि बहन-बेटियों की ख़ुशी से भाई-पिता का भाग्य बँधा होता है। सुरुचि भी रोहिणी के विचारों से अत्यधिक प्रभावित थी, रोहिणी मृणाल और रमा के लिए एक वस्तु ख़रीदती तो वह दो दिलवाती।

पूरे परिवार को मलाल था कि मृणाल के ससुरालवाले मृणाल को कभी सिंगापुर नहीं आने देते थे। सुरुचि अपने बैंक के काम से जब भी भारत जाती तो मृणाल से अवश्य मिल कर आती।

रोहिणी, राकेश और सुरुचि कुछ दिन छुट्टियाँ मनाने भारत गए हुए थे, संयम अकेला था अतः रात का खाना वह अपने एक मित्र के यहाँ से खाकर लौटा था। आते-आते 12:30 बज गए थे। सोने को लेटा ही था कि उसका फोन चिंघाड़ा . . . उनींदी आँखों से उठा और फोन सुना तो कुछ समय तक मूर्तिवत-अचल खड़ा रहा। उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। कहीं वह सपना तो नहीं देख रहा था। “मृणाल के पति चिराग का जयपुर से दिल्ली जाते समय कार दुर्घटना में निधन हो गया था।” होश आते ही बिना विलम्ब किए जयपुर के लिए रवाना हो गया। सारे रीति-रिवाज़ समाप्त करके चालीस दिनों बाद सुरुचि और माता-पिता के साथ सिंगापुर लौटा।

मृणाल की सास शुरू में मृणाल को पीहर भेजने में आनाकानी करती थी, भेजती भी तो किसी न किसी को साथ कर देती और कुछ घण्टों में वापस बुला लेती। बहुएँ उसके लिए नौकरानी की तरह थीं। नौकरानियाँ तो फिर एक दो दिन की छुट्टियाँ मार लेती हैं मगर मृणाल को वह सुख भी न था।

इस बार 40 दिनों की मातमपुरसी पर जब सुरुचि जयपुर गई थी तब सुरुचि अड़ गई और मृणाल को कुछ दिनों के लिए पिंजड़े से दूर सिंगापुर ले आई थी। यहाँ सुरुचि उसे एक पल के लिए भी अकेला न छोड़ती। दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई थी। चिराग के जाने के दुख के बावजूद सिंगापुर में ससुराल की घुटन से आज़ादी पाकर मृणाल पुनः कुछ मुस्कुराना सीख रही थी।

तूफ़ान से पहले का सन्नाटा बहुत गहन होता है। एक दिन बातों-बातों में संयम ने कहा, “दीदी! यहाँ फ़्लैट में रहने में असुविधा तो नहीं होती? आपको तो बड़े लॉन वाले बँगले में रहने की आदत हो गई होगी। अपनी माँ के सिद्धांत को तिलांजलि देकर वर्षों बाद मृणाल पहली बार खुलकर बोली, “दूर के ढोल सुहावने होते हैं, संयम। दिखावटी चमक-दमक में कुछ नहीं रखा। चिराग के घरवाले सपनों की झूठी दुनिया में जीते हैं। चिराग के पिता के स्वर्गवास से पहले उनके पास ठीक-ठाक धन-दौलत थी। मगर आज उनके नाकारा बेटों और दम्भी पत्नी में करोड़ों का क़र्ज़ा चढ़ा रखा है। पाई-पाई गिरवी है। मेरी शादी का जो ज़ेवर माँ-पिता ने गाँव की ज़मीन बेचकर दिया था–शादी के पहले साल के बाद मैंने उनको कभी नहीं देखा। मेरी हैसियत भी उस घर में एक बँधुआ मज़दूर से अधिक नहीं है। सारा दिन घर का या कॉलेज का काम और वेतन पहली तारीख़ को चिराग की माँ के हाथ में। स्कूटी के पेट्रोल के लिए भी मुझे गिड़गिड़ाना पड़ता है। अच्छा हुआ सुरुचि मुझे ज़बरदस्ती यहाँ ले आई अन्यथा चिराग से पहले तेरी यह अभागी बहन मर जाती।”

मृणाल बोले जा रही थी और पूरा परिवार हतप्रभ, सजल नेत्रों से मृणाल को एकटक देखता रहा। किसी को अंदाज़ा नहीं था कि मृणाल इतने बरसों से अंदर ही अंदर घुट रही थी, इतनी तड़प रही थी। सुरुचि उठी और मृणाल से लिपट गई।

मृणाल फिर बोली, “यहाँ आकर महसूस हुआ परिवार क्या होता है, सुख से रहना क्या होता है। कोल्हू के बैल-सी मैं अपनी पहचान, अपना वुजूद भूल चुकी थी। अगर यहाँ न आती तो उस दुश्चक्र से कभी न निकल पाती।

“तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा चिराग के जाने के 12-15 दिनों के बाद जब सारे रिश्तेदार छँटने लगे थे चिराग के बड़े भाई और माँ ने चिराग के इन्श्योरेंस कम्पनी से आए सारे पैसे मुझसे हस्ताक्षर करवाकर अपने नाम कर लिए। हद तो तब हुई जब उन्होंने मुझे उन काग़ज़ों पर हस्ताक्षर करने को कहा जिसमें लिखा था कि अब तक का सारा पारिवारिक क़र्ज़ चिराग ने लिया था अतः सारा क़र्ज़ चुकाने की ज़िम्मेदार एकमात्र मैं होऊँगी। यह पहली बार होगा कि स्थिति की गम्भीरता को समझते हुए मैंने उन्हें स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया। अब क्या था मेरे एक इंकार ने चिराग की माँ के तेवर ही बदल दिए। खाना-पीना, उठना-बैठना सब हराम कर दिया था। कॉलेज में ज़रा सी देर क्या हो जाती तो बुरे-बुरे ताने देती—एक खसम को खोकर 100-100 खसम कर लिए होंगे, करमजली ने, तभी घर लौटने का जी नहीं करता।” दहाड़ें मार कर ज़ोर से रोने लगी थी मृणाल . . .

संयम अवाक्‌ था, दीदी के ससुराल का क्या चित्र बना रखा था उसने और आज कितना इतर और विस्फोटक उद्घाटन हुआ है। एक लम्बे मौन के बाद संयम बोला, “दीदी। आप इतना सब सह रही थीं, कभी हमें बताया क्यों नहीं?”

मृणाल ने अपनी माँ की ओर देखा . . . मानो कह रही हो, ‘आपकी ही बेटी हूँ माँ। आपके सिद्धांतों को अक्षरशः जिया है मैंने।’

सुरुचि घर में सब से छोटी थी मगर अपने मन में एक बड़ा निर्णय कर चुकी थी—दीदी अब कभी उस नर्क में वापस नहीं जाएगी।

समय बीता मृणाल को सिंगापुर विश्वविद्याल में अर्थशास्त्र-प्रवक्ता के पद पर नियुक्ति मिल गई। वेतन भी वज़नी था। थोड़े समय में ही उसने काफ़ी पैसे जमा कर लिए थे। बहुत समझाने पर भी मृणाल पुनर्विवाह के लिए राज़ी न हुई।

जीवन ने गति पकड़ी, कई वर्षों बाद मृणाल की ससुराल से किसी रिश्तेदार ने फोन पर सूचित किया कि उसकी सास की तबियत अत्यंत गम्भीर है। सबके बार-बार मना करने पर भी चिराग के साथ बिताई कुछ मधुर-स्मृतियों के कारण वह एक विचित्र कर्तव्य-बोध से भर गई। तुरंत जयपुर के लिए रवाना हुई। वहाँ पूरे परिवार की दुर्दशा का ब्योरा पा सिहर गई। मकान और सारी सम्पति कुर्क हो चुकी थी। जेठ-जिठानी क़र्ज़ा न चुकाने के कारण कारावास में थे और सास वृद्धाश्रम में गम्भीर बीमारी से ग्रसित थी। सास का स्वास्थ्य कारणों से सिंगापुर जाना सम्भव नहीं था अतः बिना किसी संकोच के मृणाल ने अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और जयपुर मेंं छोटा-सा मकान किराए पर लेकर अपनी बीमार सास की सेवा में लग गई।

सुरुचि जब नवरात्रि पर जयपुर गई तो मृणाल की सास के स्वस्थ देखकर बोली, “दीदी आप अलग ही मिट्टी की बनी हो। इन जैसी दुष्टा के लिए सब छोड़ कर, सेवा में झोंक दिया। मैं होती तो . . .” आगे सुरुचि कुछ बोल पाती उससे पहले मृणाल ने उसके अधरों पर अपनी हथेली रख दी और बोली, “व्यक्ति कोई बुरा नहीं होता, उसके गुण-अवगुणों का असंतुलन ही उसे मानव य असुर की श्रेणी में ला देता है।”

संध्या का समय था। मंदिर से घण्टों के ध्वनि के साथ नवरात्र की प्रमुख देवी असुरमर्दनी की मँगल आरती प्रारंभ हुई थी। सास के असुर रूपी अवगुणों का अपने सेवा-कर्म से मर्दन करने वाली मृणाल, सुरुचि को साक्षात्‌ देवी असुरमर्दिनी प्रतीत हुई। मन ही मन प्रणाम करते हुए वह मृणाल की ओर दौड़ी और उसे गले से लगा लिया। सुरुचि अनुभव कर रही थी कि उसे दो हाथों वाली मृणाल ने नहीं अष्ठभुजाधारी असुरमर्दिनी ने ही अपने अंक में समेट लिया हो।

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