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अतीत के भँवर से जूझती स्त्री की कहानी

उपन्यास: कारागार
लेखिका: डॉ. आरती ‘लोकेश'
मूल्य: ₹ 230.00
पृष्ठ संख्या: 224
प्रकाशक: साहित्य पीडिया पब्लिशिंग नोएडा (भारत)
ISBN: 978-81-937022-1-5

हाल ही में ‘आप्रवासी हिंदी साहित्य सृजन सम्मान’ से अलंकृत डॉ. आरती ‘लोकेश’ का उपन्यास ‘कारागार’ महात्मा गाँधी संस्थान मौका मॉरीशस द्वारा चौथे संस्करण के पुरस्कार के लिए चुना गया, जिसके लिए उन्हें भारत व मॉरीशस सरकार के संयुक्त तत्वावधान में भारतीय उच्चायोग मॉरीशस की उपस्थिति व वक्तव्य के साथ ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ पर सम्मानित किया गया। उपन्यास ‘रोशनी का पहरा’ के बाद ‘कारागार’ लेखक डॉ. आरती ‘लोकेश’ का दूसरा उपन्यास है। पहले उपन्यास की तरह ही यह उपन्यास भी लेखक की कल्पनाशीलता और विविध विषयों पर अच्छी पकड़ के कारण प्रभावित करता है। 

कारागार एक स्त्री प्रधान उपन्यास है जिसमें अपने अतीत के भँवर से जूझ रही स्त्री की कहानी है, जो प्रेम से मुलाक़ात होने के बावजूद भी उसको नज़रअंदाज़ करने को बाध्य है। उपन्यास के प्राक्कथन में डॉ. आरती जी लिखती हैं कि “कष्ट से गुज़रे बिना कुछ उपलब्धि नहीं होती परन्तु कष्ट सहने की एक सीमा होती है। कभी सहन शक्ति की सीमाओं का यह अतिक्रमण उपलब्धियों के स्थान पर पराजय में परिवर्तित हो जाता है, हतोत्साहित कर देता है अथवा विजय के उल्लास को क्षीण कर देता है। कष्ट और पीड़ा जहाँ मनुष्य को मज़बूत बनाती है, वहीं अत्यधिक कष्ट और असह्य पीड़ा मनुष्य को तोड़ कर रख देती है। मानव में ऐसी क्षमता है कि वह अपने टूटे हुए टुकड़े बटोर कर एक नए जीवन का प्रारंभ कर सकता है।” 

कहानी की मुख्य पात्र चारू मृदुल सक्सेना के अतीत में कुछ ऐसा घटित हुआ है जिससे वह भविष्य के प्रति बहुत आशंकित है और विपुल के निःस्वार्थ प्रेम को अपनाने में हिचकिचा रही है। चारू की मनोस्थिति बयान करते हुए लेखिका लिखती है कि “चारू का अभेद्य दुर्ग सा कठोर व्यक्तित्व किसी को उसके पास फटकने की कोशिश को मीलों दूर पीछे पटक देता था। पास आने की ज़रूरत भी कुछ मनचले आवारा क़िस्म के लड़के करते थे जो चारू को अनाकर्षक मानते हुए अपने मनोरंजन के लिए उपलब्ध सामग्री समझने की उद्दंडता करते थे। पर चारू ऐसों को घाट-घाट का पानी पिला चुकी थी। इन सब घटनाओं की जानकारी के बाद विपुल भी सशंकित रहता था कि कभी उसके निःस्वार्थ प्रेम को अक्षम्य धृष्टता की सूची में ना शुमार कर लिया जाए।”

 कहानी का दूसरा मुख्य पात्र विपुल चारू को रूपरेखा से परे निर्मल व निश्छल प्रेम करता है और उसे निम्न स्तर की सामाजिक मानसिकता का कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। एक संवाद में विपुल चारू से कहता है कि “मेरी आँखों से देखो तुम में सुंदरता कूट-कूट कर भरी है। तुम एक सशक्त नारी हो। अपनी राह स्वयं चुनती हो। अपने निर्णय ख़ुद लेती हो। अपनी छोड़ औरों की डूबती नैया पार लगाने की सामर्थ्य रखती हो। बुद्धिशाली हो। प्रतिभावान हो। विचार शीला हो। तुम्हारे व्यक्तित्व पर नाज़ किया है मैंने।”

वैसे भी सबके लिए सुंदरता के मायने अलग-अलग होते हैं। इसके लिए लेखक लिखती हैं, “सुंदरता की सब की अपनी अलग परिभाषा होती है किसी को उसकी बूढ़ी अम्मा की झुर्रियों में भी अपार सौंदर्य के दर्शन होते हैं तो किसी को विश्व सुंदरी भी अपने कोख से जन्मे बच्चे के सामने फीकी लगती है। किसी को कश्मीर में भी स्वर्ग नहीं मिलता तो किसी को एक भिखारी के मुँह में निवाला देखकर भी साक्षात् नारायण के दर्शन हो जाते हैं। इसी प्रकार चारू के लिए भी सौंदर्य की अपनी ही भिन्न परिभाषा थी। या कि यूँ कहो कि सुंदरता की कोई परिभाषा वह जानती ही ना थी। उसके लिए प्यार ही सबसे सुंदर था तो उसे जहाँ से मिलता उसकी हो जाती।”

व्यक्ति की बाहरी सुंदरता के आगे उसके प्रतिभा का समाज में कोई मोल नहीं, इस को दर्शाते हुए विपुल के अपने दोस्तों से एक संवाद में वे लिखती हैं कि “क्या? तुम चारू से मिलने जा रहे हो? दिमाग़ तो ठिकाने पर है ना? तुम क्यों उस बदसूरत को इतना भाव दे रहे हो, विपुल? शक्ल देखी है उसकी, सूरत ना शक्ल, भाड़ में से निकल। तुम्हारे जोड़ का कोई और नहीं मिला तुम्हें? कहाँ तुम इतने हैंडसम और कहाँ वह मनहूस चारू। जाने कहाँ से आ गई है हमारे कॉलेज में। जब से आई है अच्छे-अच्छों को पीछे धकेल दिया है। जड़ें हिला कर रख दी हैं हमारी। हम सब ने भी रिसर्च पेपर तैयार किया पर हमारे शोध पत्र पर किसी ने विचार तक नहीं किया। बस सब व्याख्याताओं के दिमाग़ में चारू चढ़ गई है। तो बस, ना सोचा, ना समझा, भेज दिया उसे मसदर इंस्टिट्यूट आबू धाबी। कौन कहाँ जाने लायक़ है यह सोचना भी मुनासिब नहीं समझा। औक़ात तो देखो ज़रा, चाहे कोई उसकी शक्ल पर थूकना भी पसंद ना करे।”

अब ऐसी टिप्पणियाँ चारू को विचलित नहीं करतीं। चारू मज़बूत इरादों वाली तथा पर्यावरण व समाज को समर्पित लड़की है। वह बची हुई सब्ज़ियों, फलों के छिलकों तथा बीज से खाद बनाती है। सब्ज़ियाँ और फल धुले पानी से पौधों की सिंचाई करती है। पौधे उसे बेहद प्रिय हैं और उसे उसके शरीर का हिस्सा लगते हैं। एक संवाद में विपुल चारू से कहता है कि “तुमने एक बार कहा था कि गुलदस्ते से अधिक क्यारी में फूल अच्छे लगते हैं। उनके घर से उखाड़ कर अपने घर में लाना उन पर ज़ुल्म के समान है। हमें कोई अधिकार नहीं कि हम अपनी ख़ुशी के लिए उन्हें उनके परिवार जन से दूर कर दें।” उसकी पर्यावरण के प्रति जागरूकता को प्रदर्शित करता आलेख “ज़ीरो, सिफ़र और शून्य” बहुत प्रभावित करता है। 

विपुल का जीवन भी आसान नहीं रहा है। वह भी दुर्भाग्य का भोगी है। चारू और विपुल दोनों एक दूसरे की पीड़ा की अनुभूति करने में समर्थ हैं। विपुल के प्यार को अपनाना चारू के लिए इतना आसान नहीं है। एक जगह लेखक लिखती हैं कि “शरीर के घाव देर-सवेर भर जाते हैं। मन के घावों को भरना आसान नहीं होता। शरीर के कुछ घाव भी ऐसे होते हैं जो बार-बार मन के घावों को कुरेदने का काम करते रहते हैं। कुछ हादसे शरीर पर और कुछ हादसे आत्मा पर अपने अमिट चिह्न इस प्रकार छोड़ जाते हैं कि समय भी उनका दर्द नहीं मिटा पाता।”

अतीत में कई दंश झेल चुकी चारू दोस्ती, प्यार और विवाह से इतना कतराती है कि उस को इंगित करते हुए एक और दृश्य में विपुल और चारू के संवाद में डॉ. आरती लिखती हैं कि “विवाह! शादी की बात कहाँ से आ गई। मुझसे ऐसी बात कभी मत करना विपुल।” ऐसी बातों से वह अंदर तक कट-सी जाया करती थी। अपनी दोस्ती को अक्षुण्ण रखने के इरादे से वह अपने व्यतीत भूत को अपने वर्तमान पर हावी नहीं होने देना चाहती थी। उस तमिस्त्र अतीत का क्षुधित तमस कहीं उसकी आँखों में बसे उज्जवल भविष्य के नव पल्लवित स्वप्न को भी ग्रसना ना शुरू कर दे। यह दुःस्वप्न बहुधा उसे सालता रहता था।” 

उपन्यास में कई मार्मिक पहलू हैं। मोहिनी भाभी और अपनी सहेली की आपबीती के ज़रिए चारू, विपुल को समाज में औरतों की वास्तविक स्थिति से अवगत कराती है। एक जगह पर लेखिका चारू के माध्यम से कहती हैं कि “पुरुषों द्वारा समाज और स्त्री की सुरक्षा का बीड़ा उठाया जाना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है यदि हर पुरुष रक्षक है तो रक्षा किससे और क्यों”।

उपन्यास के अन्य पात्रों में दोस्त सौम्या, अतिरा, वाषर्वी, निक्षिप, अनिकेत, अश्विन, चारू की माँ सुषमा, पापा प्रताप, चाचा प्रमोद, चाची सुशीला, दादा-दादी और बहन मंजू, वन अनुसंधान केंद्र के महाप्रबंधक मिश्रा जी, शुभदा, अनुसूचित दलित जाति की दोस्त पूजा और उसके माता-पिता रसीली और शिबू, पहला प्यार मयंक, विपुल के माता-पिता, भैया, सीमा और आशा, जेलर गोपीनाथ और भोला सिंह, गिरोह का मुखिया गोविंद और उसका भाई अरविंद आदि हैं जिनका उपन्यास में विस्तृत और सजीव वर्णन किया गया है। 

पाठकों की सहूलियत के लिए उपन्यास नौ खंडों में विभाजित है। उपन्यास में चारू के बचपन से लेकर ‘सीनरी’ कॉलेज तक की यात्रा का वर्णन है। इस दौरान चारू एक के बाद एक कई दर्दनाक हादसों से गुज़री है। पिता की मृत्यु, माँ के प्यार को तरसना, छोटी बहन से प्यार के बदले ईर्ष्या पाना, शारीरिक रूप से प्रताड़ित होना और एक मिशन का हिस्सा बनना आदि कई घटनाओं का दिलचस्प व सजीव वर्णन किया है। ऐसा महसूस होता है कि घटनाएँ आँखों के समक्ष घटित हो रही हैं। कहानी प्रवाह पाठक को अपने साथ निर्बाध बहने को विवश करता है। रोचक संवाद, दृश्यों को बयाँ करते गीत और कविताएँ पाठक के जिज्ञासा बनाए रखते हैं। डॉ. आरती ‘लोकेश’ को पढ़ना हमेशा समृद्ध करता है, भाषा-ज्ञान और वैचारिक समृद्धि। आशा करती हूँ कि यह उपन्यास पाठकों को बहुत पसंद आएगा। डॉ. आरती जी को इस उपन्यास के लिए बधाई व शुभकामनाएँ। 

कौसर भुट्टो
दुबई, यूएई

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