अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

औरत के साहस की कथा

समीक्षित पुस्तक: मन्नू की वह एक रात (उपन्यास) 
लेखक: प्रदीप श्रीवास्तव
प्रकाशक: अनुभूति प्रकाशन, लखनऊ 
प्रकाशन वर्ष: 2013

इस उपन्यास को किस वर्ग में रखूँ, अभी मेरे समक्ष यह सवाल है क्योंकि इसे जहाँ भी रखने का प्रयास करती हूँ, नये पन्ने-नयी बात के साथ ये कूद के कहीं और चला जाता है। अद्भुत रचना! मानव का मन, बाहरी वातावरण और समाज की मान्यताएँ किस तरह अपने नग्न रूप में आ सकती हैं? किस तरह एक ही व्यक्ति अपने भीतर एक तिलिस्म लेकर जी सकता है। क्या है ज़रूरत और क्या है मजबूरी? सभी का जवाब देता है यह उपन्यास। आरम्भ करने से 23वें घंटे में उपन्यास का ख़त्म करना इस बात का गवाह है कि मन में अन्त की कितनी उत्सुकता थी। पहले तो मन किया की पहले अन्त ही पढ़ लूँ पर रस को ख़राब नहीं किया, और पूरा पढ़ा। 

‘एक रात’ के विजन में समाज के कई कटु सत्यों का प्रकाश में लाने के लिए प्रदीप श्रीवास्तव जी साधुवाद के पात्र हैं। स्त्री के व्यक्तित्व को एक नयी दृष्टि से देखने के कारण उन्होंने मन्नू को बहुरंगों से सजाया है। साधारण कहानी को बड़े ही असाधारण तरीक़े से प्रस्तुत किया है। किस प्रकार मनुष्य अपने चेतन-अवचेतन से चालित होता है, यह उपन्यास बड़ी ही रोचकता से बताता है। पाठकों को भी उलझन में डालने वाला उपन्यास सारे सवाल पाठकों के ऊपर ही छोड़ देता है कि मुख्य पात्र नायक है या खलनायक। 

मन व शरीर के संघर्ष, काम के आवेग और अंतर्द्वंद्वों में मन्नू एक पात्र होते हुए भी अपने भीतर कई और पात्र सँजोये हुए है। इस उपन्यास में मन्नू के मन की नग्न मनोदशा परत-दर-परत पाठकों के सामने खुलती है। कभी हम मन्नू को सहानुभूति व संवेदना से भर कर देखते हैं तो अगले ही कुछ समय में हम उसके प्रति घृणा व क्रोध से भर उठते हैं। 

उपन्यास की कहानी बड़ी ही सरल ही लगती है आरम्भ में। बड़े अरसे बाद दो बहनों का मिलना और अपना दुःख सुख बाँटना। पर जब मन्नू अपने जीवन के राज एक-एक करके उजागर करती है तो कहानी रोचकता की ओर मुड़ जाती है। मन्नू अपनी छोटी बहन बिब्बो से एक ही रात में ऐसा सब कह देती है जो बहन के लिए अकल्पनीय है। दोनों ही बहनें अपने बच्चों और परिवार से दुखी हैं। और छोटी बहन बिब्बो मन्नू के पास सुकून की तलाश में आ जाती है पर वह नहीं जानती यहाँ सुकून मिलने की बजाय जो शान्ति है वह भी छिन जायेगी। 

मन्नू अपनी कहानी सुनाते हुए बिब्बो से कई बातें कहती है जो बेचारी को सदमें में डाल देती है। 

“मैं बड़े सपने लेकर बैठी थी सुहाग की सेज पर। अपने देवता का इंतज़ार कर रही थी कि मेरा देवता आएगा। मैं उसकी अगवानी करूँगी। मेरा देवता मुझसे मीठी-मीठी बातें करेगा। मगर मेरा देवता भी औरों की ही भाँति सिर्फ़ मर्द ही निकला। वो मर्द जिसकी नज़र में औरत की अहमियत सिर्फ़ उसके शरीर के भोग तक ही है। उसके शरीर को रौंदने में ही उसकी मर्दानगी है . . .। कुछ देर बाद हाँफता पड़ा मेरा मर्द मुझसे पानी माँगता है। मैं किसी तरह अपने को सँभालती, कपड़े तन पर डालती उठी, चार क़दम की दूरी पर रखे जग से पानी लाने के लिए जब पलटी तो देखा मेरा विद्वान पति, मेरा पढ़ा लिखा अफ़सर पति बिस्तर पर ढूँढ़ रहा है, मेरे कुँवारे होने का निशान। एक बड़े बैंक के अधिकारी से मुझे ऐसी ओछी हरकत की क़तई उम्मीद नहीं थी।” साधारण दिखने वाली मन्नू का पति के संपर्क का पहला बड़ा दुखद अनुभव हुआ। वह बहन से कहती भी है कि उसने परिवार की ख़ुशी के लिए कभी किसी के आगे कुछ ग़लत बात नहीं बोली। उससे वह कभी सीधे मुँह बात न करता। पूरे-पूरे दिन घर भर का काम और रात में पति की वासना का शिकार, यही नियति बन गयी मन्नू की। यही नहीं मन्नू के देवता ने उसकी दो साल बाद ही पिटाई भी शुरू कर दी। मन्नू के माँ न बनने पर भी सभी के ताने मन्नू को ही सुनने पड़ते और इसी कारण वह एक डॉक्टर के संपर्क में आयी जो इलाज के बहाने उसे भोगना चाहता था। 

“पति के बाद अब पहली बार कोई ग़ैर मर्द मेरे स्त्री अंगों को देख रहा था। उन्हें छू रहा था। और वह पहला मौक़ा भी था जब मेरी आँखें फटकर रह गयी कि वह वाक़ई मेरा चेकअप कर रहा था या मेरे शरीर से खेल रहा था। उसका जाँच का तरीक़ा ऐसा था जैसे वह मुझे उत्तेजित कर मेरा उपभोग करने की कोशिश में हो।” और डॉक्टर के बाद वह बाबाओं के चंगुल में भी फँसी। जहाँ वह औरत अपने घर में किलकारियों के लिए तरसती, वहीं पति अब उसके अतिरिक्त औरत को भी भोगने लगा। 

मन्नू उसे (बिब्बो) अपने हॉस्टल की कहानी भी बताती है कि किस तरह उसने अपने ही कमरे में रहने वाली रूममेट लड़कियों को कामसुख प्राप्त करते हुए देखा “काकी का बेड था रूबिना भी उसी पर थी। दोनों के स्लीपिंग ड्रेस के बटन सामने से खुले थे और ट्राउज़र भी बदन पर न था। और दोनों गुथ्थम-गुत्था हो रहीं थीं।” 

मन्नू प्रथम बार अपने बहकने (मन का करने) की कहानी भी उसे सुनाती है कि पति के परस्त्री गमन और रूखाई ने उसे अपने पुत्रवत, अपनी ही प्रिय सहेली के बेटे चीनू के साथ सम्बन्ध बनाये। 

“फिर अचानक ही मैं टूट गई, फट पड़ी, मैंने जकड़ लिया उसे अपनी बाँहों में। यह तो उसके मन की बात हो गई थी। मैं विक्षिप्तता की आग में राख हो गई। उसका तपता तूफ़ानी लावा मेरे अंदर बरसों से जमती आ रही काई की मोटी परत को बहा ले गया। मैं ख़ुद को फूल सा हल्का महसूस करने लगी।” 

बड़ी ही नाटकीयता के साथ उपन्यास यहाँ से एक नये मोड़ की ओर घूम जाता है क्योंकि अब तक लाचार लगने वाला पात्र एक नये रूप में पाठकों के सामने आता है। पहली बार ग़लती से किया गया मिलन अब मन्नू का आनन्द देने वाला बन गया। वह वासना की आग को शांत करने में यह भी भूल गयी कि जिस लड़के के साथ वह यह सुख ले रही है वह सब सामान्य रहने पर उतनी ही उम्र के बच्चे की माँ होती। पर बच्चे की चाह और देह का राग उसे सब कुछ भुला देता है ‘एक पंथ दो काज’। वह गर्भवती भी हुई पर गर्भ फलीभूत न हो पाया। अब यहाँ पाठकों के हाथ में यह निर्णय है कि वह मन्नू का वरण सामाजिक दायरों के आधार पर करना चाहते हैं या एक मानवीय मन की परतों को खुलता देख संतुष्ट होते हैं। मन्नू को उसकी पुरानी मित्र भी बताती है कि “सेक्स सम्बन्ध जितना गहरा होगा, जितना खुला होगा, और संकोच रहित होगा भावनात्मक सम्बन्ध उतना ही ज़्यादा मज़बूत होगा। और जिन पति-पत्नी के बीच सेक्स सम्बन्ध ठंडे होंगे उनके बीच भावनात्मक रिश्ता या लगाव भी कम होगा।” 

पूरे उपन्यास में बिचारी छोटी बहन समझ ही नहीं पाती कि उसकी सगी बहन उससे ये क्या-क्या कह रही है। “एक दिन ज्वार के उतरने के बाद जब मैं इन्हीं में समाई गहरी साँसें लेकर अपनी उखड़ी हुई साँसों को सँभालने की कोशिश कर रही थी तो इन्होंने बड़ी बेदर्दी से स्तन उमेठ दिये और बोले ‘साली आज कल क्या हो गया है तुझे। एकदम पागल हो जाती हो।’ बिब्बो ये भी नहीं समझ पाती कि पति के साथ सब सही चलने पर भी उसकी बहन चीनू से दूर क्यों नहीं हो पायी। दूसरी बार, तीसरी बार, चौथी बार, बार-बार क्यों वह उससे सम्बन्ध बनाती रही। मन्नू ही उसे बताती है कि वह आगे होकर भी चीनू को अपने पास बुलाती। जब-जब चीनू ख़ुद आने की कहता और मन्नू मना करती तो भी कह देता “अगर तुम अपने बेटे के उम्र के लड़के के साथ मस्ती से संभोग कर सकती हो . . . अपने पति की आँखों में धूल झोंकर उसी के बिस्तर पर सारे कपड़े उतार कर घंटों सेक्स का नंगा नाच खेल सकती हो तो मेरे आने पर क्या परेशानी है? बात अपनी-अपनी पसंद की है . . . तुम सेक्स का जो मज़ा देती हो वो वही दे सकता है जो इसकी एक-एक बारीक़ी से वाक़िफ़ हो।” 

मन्नू की बातें छोटी बहन को अन्दर तक हिलाकर रख देती हैं क्योंकि वह तो सेक्स की हवस के बारे में पहली बार यह सब सुन रही थी। ये नये आवेग, नये-नये प्रयोग सब उसकी समझ से बाहर थे। पाठकों को गहरा धक्का तब अनुभव होता है जब मन्नू उसे (बिब्बो) को यह बताती है कि किस तरह काम में अंधी होकर वह अपने ही दत्तक पुत्र और पुत्रवधू को कामातुर अवस्था में देखती है।

“जब मैंने अंदर देखा तो जो कुछ दिखा उससे मैं एकदम गड़मड़ हो गई। सीडी प्लेयर चल रहा था, ये दोनों निर्वस्त्र थे। आपस में प्यार करते अजीब-अजीब सी हरकतें किये जा रहे, जैसे फ़िल्म में चली रहीं थीं। दोनों में कोई संकोच नहीं था . . . दोनों प्रचंड तूफ़ान से गुज़र रहे थे। मैं हतप्रभ सी देख रही थी।”

मन्नू की यह बातें एक बार पाठक को सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि कोई भी माँ ऐसा कैसे कर सकती है? और यदि कर भी रही है तो उसे किसी के सामने बताने की क्या ज़रूरत है? सबसे कड़वा सच यह है कि हमारी सभ्य दुनिया, जो ग़लत और सही से ज़्यादा उसकी ज़रूरत पर ध्यान देती है। मन्नू ख़ुद एक स्थान पर कहती है “परिणाम यह हुआ कि मैं वह औरत हूँ जिसे उसके मन का जीवन में कुछ मिला नहीं। उम्र के साथ मैं सारी बातें और भी गहराई से सोचने लगी।” जिसको आधार दिया उन सभी किताबों ने जो मन्नू पूरी ज़िन्दगी पढ़ती आयी थी फ़्रायड, हैवलाक एलिस, वात्स्यायन सभी उस पर हावी हो जाते। उन्हीं का प्रभाव था कि वह अपनी बहू का सौन्दर्य इस प्रकार देखती “मैं उसके काफ़ी उभरे नितंब, सुडौल तराशी हुई सी जाँघें, गहरा कटाव लिए कमर, भारी स्तन। ट्यूब लाइट की दुधिया रोशनी में वह बला की कामुक लग रही थी।” मन्नू का यह वर्णन इस बात को बताने यह समझाने के लिए काफ़ी है कि सौंदर्य को किस दृष्टि से देखती है और चीनू के मना करने पर वह अपमानित और क्रोधित भी होती है। 

उपन्यासकार पाठकों के धैर्य को यह लिखकर तो झंझोड़ देता है, “मगर अब मैं एक नई आदत का शिकार हो गई हूँ। रोज़ जब बहू-बेटे कमरे में जाते मैं तब तक झाँकती हूँ जब तक कि थक न जाती। खिड़की का सूराख़ भी बड़ा कर दिया है। मुझे ये भी होश न रहता पकड़े जाने पर जवाब क्या दूँगी।” बिब्बो और पाठकों के लिए इतना कठोर सत्य पचाना आसान काम नहीं। एक बहन जो अपनी बड़ी बहन को देवी तुल्य समझे, पाठ-पूजा और नेमधर्म वाली समझे वे ये सब बातें उसे बताये तो कोई भी मनुष्य जब सामाजिकता का दायरा अपने मनोनुकूल तरीक़े से लाँघता है तो यह कार्य किसी को भी रूचिकर नहीं लग सकता और यदि वह एक स्त्री है तो ‘सोने पर सुहागा’। 

जब अंत आते-आते मन्नू मन के सभी राज बहन के सामने रखती है तो वह दो बातों के लिए स्वयं को दोषी मानती है। “असली अनर्थ तो मैं इन दो बातों को मानती हूँ—पहली बेटे-बहू को संभोगरत स्थिति में बार-बार देखना और स्वयं उत्तेजित हो चीनू के साथ रात-रातभर संभोगरत होना सोचकर अपने हाथों से अपने स्त्री अंगों पर अत्याचार करना और . . .

“तुम्हारे पति बहुत अच्छे थे . . . मरहम पट्टी वह करवा आए थे। मैंने एक गिलास गरम दूध उन्हें पिलाया फिर बैठे-बैठे ही जीवन की बातें छिड़ गई। जीवन के हसीन पलों की भी बातें हुई और फिर हम दोनों बहक गए रातभर संभोगरत रहे। पहल मैंने ही की थी। उनकी आँखों में सेक्स साफ़-साफ़ देख रही थी। इसीलिए मैंने ज़रा सी हवा दी और वह बरस पड़े, टूट पड़े। उनका आवेग देखकर साफ़ था कि बहुत दिनों से अतृप्त और भुखाए हुए थे। पता नहीं मगर कहना पड़ रहा है कि तुम निश्चित तौर पर एक ठंडी औरत साबित हुई होती।”

मन्नू हमारे सामने मात्र एक पात्र नहीं है, वह कई पात्रों का समूह है। एक बेटी, एक पत्नी, एक मित्र, एक बहन, एक प्रेमिका, एक माँ और इन सभी से ऊपर एक मनुष्य जो अपने साथ एक जटिल मन और मस्तिष्क लेकर आता है, भावनाओं से भरा यह मन इससे जो अच्छा और बुरा करवाता है। वस्तुतः ये सभी वही घटनाएँ हैं, जो शायद पहले ही लिखी जा चुकी है। सामान्य मनुष्य भी उसी परमात्मा की रचना है जिस परमात्मा ने मन्नू और उसके जैसे अतृप्त मनों का निर्माण किया। मनुष्य में किसी भी प्रवृति का अतिरेक है तो इसके लिए ज़िम्मेदार कौन है? ईश्वर, माता-पिता या वातावरण। 

और यदि ज़िम्मेदारी किसी की नहीं तो समस्या स्वतः सुलझ जाती है। यदि ईश्वर ने किसी को दो रोटी में भरने वाला पेट दिया है और किसी को दस रोटी में भरने वाला, तो व्यक्ति दोषी नहीं है। बस, दस रोटी छुपकर खानी पड़ती है। पूरे जीवन तमाम उलझनों का सामना करने वाली और पुत्र के लिए ललचायी रहने वाली मन्नू अंत में अपने लिए स्वयं मृत्यु का वरण करती है। मैं नहीं जानती कि सही साबित होने के लिए मन्नू का मरण कितना आवश्यक था? अपनी बहन की नज़र में देखना उसके लिए कितना मुश्किल था? पर चाहती हूँ कि काश मन्नू को बचा लिया जाता। 

उपन्यास के अंत में एक सामाजिक रूढ़ि पर प्रहार करती मन्नू लिखती है “बिब्बो बेटा पाने की तमाम जद्दोजेहद के पीछे के तमाम कारणों, इच्छाओं के पीछे एक मुख्य कारण यह भी था कि अंतिम समय में मुखाग्नि कौन देगा। तो अब सारी चीज़ों के प्रति नज़रिया बदलने के बाद, मैं बड़ी होने के नाते तुम्हें यह आदेश देती हूँ और साथ ही यह आग्रह भी करती हूँ, प्रार्थना भी, यह भी कि मरने वाली की अंतिम इच्छा तो अवश्य पूरी की जाती है। हत्यारों की भी। कम से कम मैं हत्यारी तो नहीं हूँ। मेरी अंतिम इच्छा यही है कि तुम मुझे मुखाग्नि दोगी, न तुम्हारे पति और न ही मेरा बेटा।”

इस तरह मन्नू अपने जीवन का अंतिम निर्णय ले महाप्रस्थान पर चल देती है। स्त्री मन की गूढ़ताओं को उपन्यास बड़ी रोचकता से उजागर करता है। भाषा का संयोजन और उपर्युक्त शब्द चयन सारी जटिल स्थितियों को पाठकों के सामने सरल तरीक़े से प्रस्तुत करते हैं। यह उपन्यास भाषा में नहीं पर भावों में पाठक को दुविधा में डालता है। अब पढ़ने वाले सभी सुधीजन इस बात का निर्णय करें कि मन्नू सही थी या ग़लत? 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं