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बात ही कुछ ऐसी है


पूर्वप्रकाशित: नीहारिकाः जनवरी 1963
प्रेषक: अमिताभ वर्मा

अभी-अभी घड़ी ने दो बार टन्-टन् बजा कर मुझसे पूछा, “आख़िर कब तक इन्तज़ार करोगी?” मैं क्या जवाब दूँ इसे? जवाब तो वह देता है, जिसके सामने कोई राह होती है, आशा का धुँधला-सा भी प्रकाश होता है! मैं क्या दूँ जवाब? फिर भी, यह घड़ी हर आधे घंटे पर मुझे छेड़ती है—कभी सोचने से मना करती है, कभी सोफ़े से बिस्तर पर जाने का इशारा करती है, कभी व्यावहारिक बनने की सीख देती है, और कभी खीझ कर बुरा-भला सुना देती है। इस घड़ी को क्या मालूम नहीं मेरी मजबूरी? यह काल को मापती है, उसे अपने सीने पर अंकित करती है; और मनुष्य के जीवन का कोई भी अंश कालातीत नहीं होता, इसलिए इसे सब-कुछ मालूम है, यह सब-कुछ जानती है। फिर भी यह क्यों छेड़ती है मुझे? इसे इतनी सहानुभूति क्यों है मुझसे? . . . संस्कार . . . हाँ, संस्कार ही इसे भी मजबूर करता है मुझे रोकने के लिए, काल के हर क्षण के सदुपयोग का उपदेश देने के लिए। उफ़्, यह संस्कार मेरा पीछा नहीं छोड़ेगा, तब तक नहीं छोड़ेगा, जब तक मेरा अन्तिम संस्कार नहीं हो जाएगा!

आज की रात कितनी काली है! पेड़ों के पत्ते तक भयभीत हैं, उन्हें काठ मार गया है! हवा साँस रोके बैठी है। मेरे अन्तर की ही भाँति सारा वातावरण घुट-सा रहा है। फिर भी, लोग बेख़बर सोये हैं—सारा घर सोया है, सारा मुहल्ला सोया है, सारा शहर सोया है। सिर्फ़ कुछ अभागे जाग रहे हैं। हाँ, अभागे ही जाग रहे हैं। मजबूरी उन्हें जगा रही है। चौकीदार की भी मजबूरी है, और क्लब में खिलखिला रहे लोगों की भी। सब-के-सब पीड़ित हैं। कोई हृदय के अत्याचार से पीड़ित है, कोई मस्तिष्क के, और कोई शरीर के। फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि कोई अपनी पीड़ा पर आँसू बहा लेता है और कोई उसे छुपाने के लिए हँसने का ढोंग करता है। मैं रो रही हूँ, इसलिए पीड़ित हूँ, और विपिन हँस-मुस्करा रहा होगा, किसी के सीने से लगा नाच रहा होगा, या किसी के तन से अपनी तृष्णा मिटा रहा होगा, इसलिए वह पीड़ित नहीं है! नहीं, यह तुलना सही नहीं है। वह भी उतना ही पीड़ित है, जितनी मैं! मेरी पीड़ा को मेरे संस्कार ने जन्म दिया है और उसकी पीड़ा को मेरे व्यवहार ने, मुझमें आये परिवर्तन ने। पीड़ित दोनों हैं। पीड़ा को भूलने की कोशिश दोनों करते हैं। वह थोड़ी देर के लिए उसे भूल जाता है, मैं भूल नहीं पाती—बस, इतना-सा अन्तर है!

देखनेवाले कहेंगे—विपिन को मुझसे प्यार नहीं है; उसे उच्छृंखलता में, आवाराग़र्दी में, रस मिलता है। पर मैं जानती हूँ, यह सही नहीं है। विपिन को मुझसे बेहद प्यार है। आवाराग़र्दी में उसे कोई रस नहीं मिलता। बस, थोड़ी देर के लिए वह राहत पाता है उसमें। परेशान आदमी राहत की कामना भी न करे, यह कैसे सम्भव है? मैंने ही उसे परेशानी दी है और मुझे ही शिकायत? इससे बड़ी क्रूरता, स्वार्थपरता, और क्या होगी? फिर भी, मैं दुखी हूँ!

किसी ने ठीक ही कहा है कि सुख और दुख भौतिक उपादानों पर उतना निर्भर नहीं करते, जितना मनुष्य के अपने मन की अवस्था पर। हमारे जीवन की भौतिक परिस्थितियाँ तनिक भी नहीं बदली हैं, उनमें कोई व्यतिरेक नहीं आया है, फिर भी मेरा सारा हर्ष-आह्लाद मुझसे छिन गया है। सब-कुछ पहले की तरह होते हुए भी आज मैं अपने को अत्यन्त दरिद्र अनुभव कर रही हूँ, संताप की ज्वाला मुझे भस्म किये दे रही है। पर क्यों? यह सिर्फ़ मैं जानती हूँ। संसार का कोई दूसरा प्राणी इस रहस्य को नहीं जानता। तभी तो विपिन की परेशानी और भी गहन हो गयी है। परिणाम उसके सामने है, कारण अदृश्य! वह प्रायः मुझसे पूछता है कि यह अप्रत्याशित परिवर्तन मुझमें क्यों आया है, हरी-लहलहाती दाम्पत्य-बेल को मुरझाने पर मैं क्यों आमादा हूँ—उससे क्या कोई भूल हो गयी है?

बेचारा विपिन! आज भी उतना ही सरल है, जितना आठ साल पहले था। उसकी इस सरलता पर ही मैं मुग्ध थी। कॉलेज में कितने-सारे सुन्दर, स्वस्थ और प्रतिभाशाली युवक थे, पर मैं आकर्षित हुई विपिन की ओर, केवल विपिन की ओर। और आज तक विपिन के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति मेरे हृदय में प्रवेश नहीं पा सका है। विपिन ने भी अब तक यदि किसी लड़की को प्यार किया है, तो केवल मुझे। फिर, यह कैसी विडम्बना है! कितना संघर्ष किया था हमने अपने विवाह के लिए! कितने कष्ट उठाये थे हमने! उसके माँ-बाप कट्टरपंथी थे, जाति-पाँति की सीमा तोड़ना उनकी दृष्टि में अधर्म था! उधर, मेरे माँ-बाप लक्ष्मी के लाड़ले थे, निर्धन जामाता की वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे। पर दोनों ही पक्षों को मात खानी पड़ी। हमने हिम्मत से काम लिया। माँ-बाप के मत्थे दोष मढ़ कर अपनी अक्षमता को ढँकना हमें पसन्द न था। हमने सिविल मैरेज कर ली, और कुछ समय तक कुड़बुड़ाते रहने के बाद दोनों ही परिवारों ने, बेमन से ही सही, पुत्रवधू-दामाद को स्वीकार कर लिया। फिर, भाग्य ने भी हमारा साथ दिया। जिस वर्ष हमारा विवाह हुआ, उसी वर्ष विपिन आई. ए. एस. में चुन लिया गया और हमारी गृहस्थी की गाड़ी स्वर्गीय रथ की-सी सरलता से चल निकली। इस बीच हमारे दो बच्चे भी हुए—प्रवीण और आलोक। और, हमारे पारिवारिक नन्दन-कानन का कण-कण सुरभिमय हो उठा। कहीं कोई कालिमा नहीं, कहीं कोई शुष्कता नहीं। पर इन सबके बावजूद एक दिन अचानक हमारे सुखमय संसार पर वज्रपात हो गया!

मुझमें यह त्रासदायी परिवर्तन लगभग छः महीने पहले आया था। उन दिनों मैं बच्चों के साथ मायके में थी। मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया था और इसी सिलसिले में हमें वहाँ जाना पड़ा था। श्राद्ध-आदि हो जाने के बाद विपिन तो अपनी नौकरी की मजबूरियों के कारण वापस आ गया था, पर मैं कैसे लौटती? मैं अपने माँ-बाप की इकलौती थी और पिताजी के देहान्त के बाद माँ की जो अवस्था थी, उसे देखते हुए लौटना सम्भव नहीं था। सन्तान के नाम पर मैं ही तो थी एक। मैं वहीं रुक गयी और माँ की देख-रेख करने लगी। यों, पिताजी की मृत्यु का मुझे भी बहुत दुःख था, पर पत्नी और पुत्री के प्यार में ज़मीन-आसमान का नहीं, तो दस-बीस का फ़र्क तो होता ही है। मेरे सिर से अभय देनेवाला एक साया उठ गया था, जबकि उनकी पूरी दुनिया लुट गयी थी। ख़ैर, मैं उनके पास लगभग एक महीना रही और मैंने तथा बच्चों ने पिताजी की ओर से उनका ध्यान भरसक अपनी ओर खींचा। पर तभी एक दिन अचानक मेरी तबीयत परेशान हो गयी, मेरा अन्तर बुरी तरह हाहाकार कर उठा, एक दिन भी वहाँ ठहरना मेरे लिए असम्भव हो गया, और शान्ति की खोज में मैं विपिन के पास चली आयी।

पर अब शान्ति कहाँ मिलती मुझे? यदि शान्ति बाहर ही मिला करती, तो अब तक उसकी भी ख़रीद-फ़रोख़्त शुरू न हो गयी होती? मुझे शान्ति नहीं मिली। फलतः मेरे जीवन में आया परिवर्तन भी दूर न हो सका, वह अपनी जड़ें जमाता गया। अब, घर-गृहस्थी की ज़िम्मेदारियाँ तो मैं किसी तरह निभा लेती, पर विपिन का सामना होने पर बुरी तरह परेशान हो उठती। मैं उसके पास जाने से यथासम्भव बचती, घंटों चुपचाप बैठी सोचती रहती, अपनी समस्या का समाधान ढूँढ़ती रहती। पर समाधान क्या मिलता? लाख चक्कर लगाने के बाद मैं जहाँ-की-तहाँ पहुँच जाती। हाँ, इस चिन्तन से यह बात ज़रूर बार-बार उभर कर मेरे सामने आती कि विपिन के साथ अपने व्यवहार में मुझे विशेष सतर्कता बरतनी चाहिए; उसके साथ पूर्ववत् सहृदयता का व्यवहार करना चाहिए, उसे दुखी नहीं करना चाहिए। तदनुसार ही, मैं उसके साथ मुलायमियत से पेश आने का प्रयत्न करती, पर चंद घंटे बाद ही मैं फिर भड़क उठती, अपनी पुरानी जगह पर वापस आ जाती। काश, पति-पत्नी के सम्बन्धों में सेक्स का इतना महत्वपूर्ण स्थान न होता, प्यार के क्षणों को सेक्स की गोद में विश्राम न मिलता!

मुझे विपिन के साथ घूमने-फिरने में, बातचीत करने में, कोई आपत्ति नहीं थी। इसके विपरीत मुझे उसमें आनन्द मिलता था, उसकी सुख-सुविधाओं का ध्यान रखने में एक अनिर्वचनीय संतोष मिलता था, पर सेक्स? सेक्स से मुझे विरक्ति हो गयी थी। सेक्स को मैं पूरी तरह भूल जाना चाहती थी। पर यह कहाँ सम्भव था? वह सारी दुनिया का चक्कर लगा कर अन्ततः वहीं पहुँच जाता था। और, वह पहुँचता भी क्यों नहीं? उसके सामने तो कोई बाधा थी नहीं। आठ साल से अनवरत-निर्द्वन्द्व बही आ रही धारा को वह अकारण ही क्यों मोड़ देता? उस पर कोई पागलपन तो सवार हुआ नहीं था!

मुझमें आये परिवर्तन से विपिन का परेशान होना स्वाभाविक ही था। वह बार-बार मुझसे पूछता, मेरे साथ पहले से भी अधिक नम्रता का व्यवहार करता, अक्सर इधर-उधर घुमाने ले जाता, ढूँढ़-ढूँढ़ कर मनोरंजन की सामग्रियाँ जुटाता, पर अन्ततः उसके हाथ लगती निराशा। वह मायूस हो जाता, कभी-कभी चिढ़ भी उठता। लेकिन फिर जल्दी ही मेरे प्रति उसका स्नेह उसे निर्बल बना देता और वह मेरी ख़ुशी के लिए प्रयत्नशील हो जाता। और, जब मैं ख़ुश दिखाई देती, तब प्रेम-मयी बातों के बीच घेर कर वह मुझसे पूछता, “क्या बात है? तुम्हें क्या दुःख है? तुम इस तरह उदासीन क्यों हो उठी हो जीवन से? यदि मुझसे कोई भूल हो गयी हो, तो बताओ। तुम्हारे सिर की क़सम, मैं उसे सुधार लूँगा। तुम्हारी ख़ुशी से बढ़ कर मेरे लिए और कोई ख़ुशी नहीं है!”

मैं भी बड़े प्यार से उसे आश्वस्त करती—“मुझे तुम्हारे प्यार पर पूरा भरोसा है। तुमसे क्या भूल हो सकती है भला! तुम व्यर्थ चिन्ता मत करो। पिताजी की मृत्यु से यों ही कुछ उदासीन हो उठा है मन। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। तुम परेशान मत होओ!”

और, सरल-हृदय विपिन को मेरी बात का भरोसा हो जाता। सचमुच, छलने की क्षमता सबसे अधिक विश्वासपात्र में होती है। अपने प्रिय से ही धोखा! कितनी गर्हित बात है! लेकिन मेरे पास इसके सिवा कोई चारा नहीं था, आज भी नहीं है।

इसी तरह लगभग दो महीने बीते और तब एक रात हमारे परस्पर-सम्बन्धों ने एक नया मोड़ लिया। सेक्स के ही कारण हमारी जीवन-धारा ने एक नयी दिशा पकड़ी। उस रात मेरे हठ से विपिन कुछ खीझ-सा गया, बोला—“पिता सबके मरते हैं, पर उसके चलते कोई इस तरह विक्षिप्त नहीं हो जाता। माना कि अपने पिताजी से तुम्हें बड़ा स्नेह था, पर मेरे प्रति भी तो तुम्हारा कुछ कर्तव्य है।“

मुझे उसकी बात का तनिक भी बुरा नहीं लगा। मैं उसकी मनोदशा पूरी तरह भाँप रही थी। उसका कहना निर्विवाद रूप से सही था। फिर भी, मुझे कुछ जवाब तो देना ही था, सो, मैंने बड़ी शान्ति से, स्नेहपूर्वक, कहा—“मैं क्या अपना कर्तव्य नहीं कर रही हूँ तुम्हारे साथ?”

विपिन आवेश में था, बोला—“यही तो है कर्तव्य-परायणता! आख़िर, यह रोज़-रोज़ की टल्लेबाज़ी कब तब चलेगी?”

मेरा स्वर भर्रा गया, बोली—“विपू, बताओ, मैं क्या करूँ? मुझे सेक्स से नफ़रत हो गयी है! तुम समझते क्यों नहीं मेरी दशा?”

“नफ़रत . . . नफ़रत . . . आख़िर क्यों? सेक्स को ज्ञानी-ध्यानी लोग भले कोसते रहें, पर यह नफ़रत की चीज़ है नहीं। सेक्स न होता, तो उन ज्ञानी-ध्यानियों ने संसार का मुँह भी न देखा होता।!”

“ठीक कहते हो तुम, पर क्या आठ वर्ष कम होते हैं इसके लिए?”—मैंने उसे शान्त करना चाहा।

“आठ वर्ष?”—विपिन लगभग चीख उठा—“इसके लिए आठ जन्म भी कम हैं! . . . तुम्हारा मन भर गया हो सेक्स से, तो ठीक है, तुम योगिन बन जाओ; पर मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है। मुझे सेक्स की भूख है और ज़िन्दग़ी-भर रहेगी। तुम इसे नहीं मिटा सकतीं, तो मुझे कोई और उपाय ढूँढ़ना होगा। लेकिन बाद में मुझे दोष मत देना—न ही दूसरी लड़कियों के साथ देख कर तड़पना!”

पर उसकी धमकी का मुझ पर वह असर न हुआ, जिसकी उसने कल्पना की होगी। उल्टे, इस धमकी से मुझे थोड़ी शान्ति मिली। मैंने बड़ी संयत वाणी में उत्तर दिया—“ठीक है, वैसा ही करो। मैं कभी शिकायत नहीं करूँगी। तुम शरीर की भूख जिससे चाहो, मिटाओ; पर एक अनुरोध मानना मेरा—मेरे प्रति अपना स्नेह कम मत होने देना। तुम्हारा स्नेह ही मेरा एकमात्र प्राणाधार है।“

परन्तु उसके बाद भी लगभग एक महीने तक विपिन मुझे बराबर समझाता-बुझाता रहा। स्पष्ट है कि उस नयी राह पर जाना उसे पसन्द नहीं था—वह मेरे सिवा किसी अन्य लड़की के साथ कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं करना चाहता था। उसने आँखों में आँसू भर कर, भर्राये गले से, कई बार मुझसे अनुरोध किया—“मुझे ग़लत रास्ते पर जाने के लिए विवश मत करो, सुषमी! मुझ पर दया करो—मुझे कर्तव्य-भ्रष्ट मत होने दो!” और, एक दिन उसकी दीन अवस्था ने मुझे विचलित भी कर दिया। मैंने अपने मन पर पत्थर रख कर उसे छूट दे दी, पर वह पत्थर मेरे लिए बहुत भारी साबित हुआ—इतना भारी कि फिर कभी अपने मन पर दबाव डालने का मुझे साहस न हुआ। उधर, पत्थर के भार से दबी-बुझी औरत से विपिन को भी क्या सुख मिला होगा। तभी तो हार कर उसने नयी राह पर कदम बढ़ा दिया।

शुरू-शुरू में विपिन को दफ़्तर से घर लौटने में घंटे-दो-घंटे की देर हुई। फिर वह दफ़्तर से घर आकर क्लब जाने लगा। उसके बाद उसके साथ महिला-मित्र भी आने लगीं। उसके नाम लड़कियों के टेलीफ़ोनों की संख्या बढ़ी। कुछ समय बाद वह शराब के नशे में धुत् रात को ग्यारह-बारह बजे लौटने लगा। और, अब तो वह कभी सवेरे तीन बजे लौटता है, तो कभी चार बजे—किसी-किसी रात तो लौटता ही नहीं। पर विश्वास मानिए, मुझे इस बात से तनिक भी ईर्ष्या नहीं होती कि वह दूसरी लड़कियों के साथ रंगरेलियाँ मनाता है। मुझे चिन्ता होती है केवल तीन बातों की—पहली बात, उसका स्वास्थ्य अन्ततः उसका साथ छोड़ देगा; दूसरी बात, घर की आर्थिक अवस्था दिन-दिन बदतर होती जा रही है; और तीसरी बात, यदि घर से उसकी विमुखता बढ़ती गयी, तो मेरा और बच्चों का क्या भविष्य होगा! पर मैं क्या करूँ? उसे कैसे रोकूँ? रोकने का मुझे क्या अधिकार है? मैंने ही तो उसे इस राह पर बढ़ाया है। वह सुख की खोज में भटक रहा है और दुर्भाग्यवश आन्तरिक सुख अब भी उससे दूर है। मेरे लिए उसका उत्कट प्रेम उसे सुख से दूर रख रहा है—यह मैं भली-भाँति जानती हूँ। वह ऊपर से हँसता-खेलता है, नाचता-गाता है, पर अन्दर से हमेशा रोता रहता है। वह अब भी मेरी वापसी की बाट जोह रहा है।

लेकिन मैं कभी लौटूँगी भी? शायद नहीं! मैंने तरह-तरह से अपने मन को समझाने की चेष्टा की है, पर आशा की झलक कभी नहीं दिखाई पड़ी, कभी नहीं। हालाँकि विपिन की पीड़ा देख कर मेरा हृदय फटता रहता है और अपनों तथा बच्चों के भविष्य पर नज़र जाती है, तो आँखों-तले अँधेरा छा जाता है; फिर भी मैं कुछ कर नहीं पाती। मैं अपने वश में जो नहीं हूँ। मुझे अच्छी तरह मालूम है कि मेरी वापसी से कहीं एक पत्ता तक नहीं खड़केगा, मेरा कोई अपमान नहीं होगा, फिर भी मैं वापस नहीं लौट सकती। बात ही कुछ ऐसी है! मेरा मन नहीं मानता—जन्मजात संस्कार ने मेरे मन को बुरी तरह जकड़ रखा है। वह बार-बार मुझे आत्महत्या के लिए प्रेरित करता है, पर विपिन और बच्चों का मोह मुझसे त्यागा नहीं जाता। मेरे अभाव में उनकी क्या दशा होगी, यह सोच कर ही मैं काँप उठती हूँ। मैं मर नहीं पाती—ज़िन्दा भी नहीं हूँ! इसे ही क्या ज़िन्दग़ी कहते हैं?

काश, मैं पिताजी की मृत्यु का समाचार पाकर अपने मायके न जाती। गयी भी थी, तो मुझे विपिन के साथ लौट आना चाहिए था! तब मेरी यह दशा न होती। रहस्य रहस्य ही बना रहता। उस रहस्य को जान कर मेरा भी उपकार क्या हुआ, उल्टे मैं ज़िन्दा मर गयी। उसी दिन मुझे पता चला कि मेरे माँ-बाप मुझे अपने साथ क्यों नहीं रखते थे, शहर में अच्छे-अच्छे कॉलेजों के होते हुए भी मुझे क्यों बराबर कलकत्ते के एक होस्टल में रख कर पढ़ाया गया, छुट्टियों में घर लौटने पर माँ क्यों छाया की तरह मेरे साथ लगी रहती थीं, किसी भी सगे-सम्बन्धी से अकेले में बातचीत क्यों नहीं करने देती थीं! उफ़्, मेरे साथ कितना क्रूर परिहास किया था नियति ने! परन्तु उससे भी क्रूर परिहास उसने रहस्य का मुझ पर उद्घाटन करके किया। अज्ञान भी एक वरदान है, यह बात आज मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकती हूँ। वस्तुस्थिति के ज्ञान ने मेरा सारा सुख-चैन छीन लिया—मुझे कहीं का न रखा। इतना बड़ा सदमा और कोई बर्दाश्त कर सकता था, कह नहीं सकती!

उस दिन मैं पिताजी के काग़ज़ात छाँट कर निकाल रही थी, जब रहस्योद्घाटन हुआ। वह एक पत्र था—माँ का पत्र, पिताजी के नाम। काश, पिताजी ने उस पत्र को अपने जीवन-काल में ही नष्ट कर दिया होता! लेकिन तब मुझे अपने अपराध का दंड कैसे मिलता! अपराध? हाँ, अपराध! दूसरों की व्यक्तिगत चिट्ठियाँ चोरी-चोरी पढ़ने का मुझे होस्टल में ही चस्का लग गया था। उसी बुरी लत के कारण मैं माँ-बाप के बीच की व्यक्तिगत चिट्ठियों को पढ़ने का भी लोभ संवरण नहीं कर सकी। पिताजी के काग़ज़ात में माँ की लिखी कई चिट्ठियाँ थीं। उन बुरे दिनों में भी मैंने उन चिट्ठियों को पढ़ा और आश्चर्य, मुझे उनमें रस मिला। पर वह सारा रस ज़हर बन गया, जब मैंने 24 वर्ष पुराने उस पत्र को पढ़ा। उन दिनों पिताजी बम्बई गये हुए थे और माँ ने गोरखपुर से उन्हें वह पत्र लिखा था। यों तो पत्र काफ़ी लम्बा था, पर उसके जिस अंश ने मुझे आकाश से धरती पर ला पटका, वह इस प्रकार थाः

“इस बार भगवान् ने हमारी सुन ली। त्रिवेणी माता ने हमारा सन्तान का अभाव दूर कर दिया। कुम्भ-मेले में जाने से तुम्हें इतनी चिढ़ थी; फिर भी मैं गयी और इस बार सन्तानवती होकर लौटी। ईश्वर ने हमारी मनोव्यथा से पसीज कर हमें एक पुत्री दी है। लड़की लगभग चार साल की है, बड़ी सुन्दर और चन्चल है। अपना नाम विपुला बताती है। बेचारी अकेली भटक रही थी भीड़ में—मुझे मिल गयी। मैंने इधर-उधर इसके माँ-बाप की खोज की, पर सचमुच वे कहीं मिल न जाएँ, इस ख़याल से मैंने पुलिस में रिपोर्ट नहीं की और उसी दिन गोरखपुर लौट आयी। इसे तुम पाप कहोगे, लेकिन मुझे अब इसकी परवाह नहीं है। मैं किसी भी तरह इसे छोड़ नहीं सकती। चालीस के बाद अब अपनी सन्तान की क्या आशा हो सकती है! अब तो यही मेरी सन्तान है। मैं नहीं चाहती कि लड़की को कभी असलियत का पता चले, इसलिए अच्छा होगा कि हम गोरखपुर सदा के लिए छोड़ दें। यहाँ रहने से किसी-न-किसी से इसे यह बात मालूम हो ही जाएगी। सभी पुराने नौकरों को भी हम धीरे-धीरे जवाब दे देंगे। अपने नाते-रिश्तेदारों से भी हमेशा सावधान रहना होगा—बच्ची को उनकी छाया से भी दूर रखना होगा। तुम बुरा मत मानना मेरी करनी का। यह मुझे आख़िरी भीख दो—आगे कुछ नहीं माँगूँगी। अपने प्रयत्नों से मैं माँ बनी हूँ, इसमें बाधा मत डालना! मुझे इससे अलग नहीं करोगे न?”

यह कितना बड़ा आघात था मेरे मर्म पर! भला कौन अन्दाज़ लगा सकता है इसका? पर दरअसल, यह उतना बड़ा आघात नहीं था मेरे लिए। असली आघात दूसरा था। विपिन की भी एक चार-वर्षीया बहन, जिसका नाम विपुला था, उसी वर्ष कुम्भ के मेले में लापता हुई थी!

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