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सिद्धान्त का प्रश्न

 

(कादम्बिनीः दिसम्बर 1964 में प्रकाशित)
प्रेषक: अमिताभ वर्मा

मिस्टर शर्मा बातचीत बड़ी आत्मीयता से कर रहे थे, बीच-बीच में हँस-मुस्करा भी रहे थे, पर उनके अन्दर जैसे एक आँधी-सी चल रही थी। वे जल्दी-से-जल्दी मुक्ति पाना चाहते थे डॉ. अग्रवाल से। पर डॉ. अग्रवाल पर न जाने कैसा नशा चढ़ा हुआ था कि उनकी बात ख़त्म होने पर ही नहीं आती थी—एक-के-बाद-एक नये-नये प्रसंग उठाये चले जा रहे थे, मानो अपने अन्तिम क्षण में वसीयत लिखवा रहे हों। आख़िर, मि. शर्मा का धैर्य जवाब दे गया। अपनी कलाई-घड़ी पर एक दृष्टि डाल, वे अचानक उठ खड़े हुए, घबड़ाए हुए स्वर में बोले, “उफ़्, सवा ग्यारह बज गये! ग्यारह बजे बॉस ने बुला रखा था।“ और, डॉ. अग्रवाल के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना ही वे कमरे से बाहर हो गये।

पर बाहर आकर वे डाइरेक्टर के कमरे में नहीं गये—उस ओर बढ़े तक नहीं, जिधर डाइरेक्टर का कमरा था। वे मुड़ गये विपरीत दिशा में और दो कमरे छोड़ कर तीसरे कमरे में जा घुसे, जहाँ मि. कौल बैठते थे। मि. कौल ने बड़े तपाक से उनका स्वागत किया, पूछा, “कहो डियर, क्या रंग-ढंग हैं दुनिया के?”

मि. शर्मा यों तो थे सीनियर रिसर्च अफ़सर, पर पूरे ‘विश्वानन्द रिसर्च सेण्टर’ में ‘नारद’ के नाम से प्रसिद्ध थे। रिसर्च का काम वे दिन-भर में मुश्किल से एक-डेढ़ घंटा करते होंगे—उनका बाक़ी समय गप्पें लड़ाने और समाचार एकत्र अथवा प्रचारित करने में बीतता था। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की गम्भीर गुत्थियों से लेकर चपरासियों की सम्भावित पदोन्नति तक की सारी ख़बरें उनकी ज़ुबान पर रहती थीं।

अब, मि. कौल ने जो यह सवाल किया, तो मि. शर्मा का चेहरा अचानक बरसाती आकाश बन गया; दो पल ऊमस की स्थिति रही और तब फूहाफूही होने लगी, सामने की कुर्सी पर बैठते हुए बोले—“क्या बताऊँ, यार! इस सेण्टर के रवैये से तो मेरा जी खट्टा होने लगा है।“

मि. कौल समझ गये, कोई गहरी बात है, कौतूहलवश कुर्सी-सहित मेज़ पर झुक आये, पूछा, “क्यों-क्यों? कोई नयी बात हुई क्या?”

फूहाफूही में थोड़ी तेज़ी आयी। मि. शर्मा के मुँह से शब्द झरने लगे, “वैसे कहना तो नहीं चाहिए हमें। एक ऐसी संस्था में काम कर रहे हैं हम, जिसे बहुत ही महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा गया है; विश्वप्रेमी विश्वानन्दजी के सम्पूर्ण साहित्य के शोध का भार है हम पर; पर न कहो, तो भी नहीं चलता। स्वयं विश्वानन्दजी ने कहा था कि अत्याचार को बर्दाश्त करना अत्याचार करने से कम निन्दनीय नहीं है . . .”

मि. कौल बीच में ही बोल पड़े, “वह तो है ही, लेकिन बात क्या हुई?”

मि. शर्मा ने सकुचाते-सकुचाते कहा, “बात वैसे कुछ भी नहीं है। बड़ी छोटी-सी बात है। लेकिन प्रश्न सिद्धान्त का है; सेण्टर में घुसे पक्षपातपूर्ण व्यवहार और अनाचार का है; हम सब सीनियर रिसर्च अफ़सरों के सम्मान का है।“

समस्त सीनियर रिसर्च अफ़सरों के सम्मान का प्रश्न। मि. कौल की सारी इन्द्रियाँ ‘सावधान’ की स्थिति में आ गयीं।

तभी, अप्रत्याशित रूप से, मि. शर्मा ने प्रश्न कर दिया, “भला बताओ तो, कितनी विजिटर्स चेयर हैं तुम्हारे कमरे में?”

“तीन, और कितनी? जितनी सबके कमरे में हैं।“ बोलते-बोलते मि. कौल ने एहतियातन अपने सामने पड़ी कुर्सियों को एक बार गिन लिया।

“बिल्कुल ठीक! हम सब सीनियर रिसर्च अफ़सर तीन ही विजिटर्स चेयर के एंटाइटिल्ड हैं!” मि. शर्मा की आवाज़ अचानक फुसफुसाहट में बदल गयी, “लेकिन वह जो अग्रवाल आया है, नया मुल्ला, जानते हो, उसे कितनी विजिटर्स चेयर दी गयी हैं? चार! यों, बात बहुत छोटी है; तीन-चार से कोई फ़र्क नहीं पड़ता; लेकिन सवाल यह है कि ऐडमिनिस्ट्रेटिव अफ़सर का दोस्त होने से ही क्या किसी को ख़ास ट्रीटमेंट मिलना चाहिए? ऐडमिनिस्ट्रेटिव अफ़सर की, आख़िर, मंशा क्या है इसके पीछे? ज़ाहिर है, वह हम पुराने लोगों को लेट-डाउन करना चाहता है। और, अगर इस बात को छोड़ दो, तो भी ऐडमिनिस्ट्रेटिव अफ़सर का यह रवैया किसी भी तरह सही नहीं ठहराया जा सकता। जिन विश्वानन्दजी ने ज़िन्दगी-भर सादा जीवन - उच्च विचार और अपरिग्रह का उपदेश दिया, उन्हीं के नाम पर चलनेवाले कार्यालय में तड़क-भड़क और संचय-वृत्ति को प्रोत्साहन? भला कैसे बर्दाश्त की जा सकती है यह बात?”

बात मि. कौल की समझ में आ गयी थी, यह उनके ललाट की सिकुड़नों से स्पष्ट था। मि. शर्मा के चुप होते ही वे बोल उठे, “ठीक कहते हो तुम। सवाल कुर्सी का नहीं, सिद्धान्त का है, प्रवृत्ति का है। इसका फ़ैसला होना ही चाहिए। चुपचाप बर्दाश्त कर लेना न केवल हमारी पराजय होगी, बल्कि इससे अत्याचारों का रास्ता खुल जाएगा।“

मि. शर्मा की बाँछें खिल गयीं, बोले, “भई, यह तो कॉमन कॉज़ है हमारा, बल्कि कॉज़ नहीं, ग्रिवान्स कहो। इसलिए बाक़ी तीनों सीनियर रिसर्च अफ़सरों से भी परामर्श कर लेना उचित होगा।“

“चलो, मैं तैयार हूँ।“ मिस्टर कौल ने अपनी कुर्सी छोड़ते हुए कहा, “अभी-अभी विश्वानन्दजी की एक पंक्ति मैंने पढ़ी। उन्होंने साफ़-साफ़ कहा है, ‘मनुष्य की गरिमा की रक्षा संसार की समस्याओं में सबसे बड़ी है और इस ओर सबसे पहले ध्यान दिया जाना चाहिए’।“

दो मिनट बाद मि. कौल और मि. शर्मा मि. श्रीवास्तव के कमरे में थे। मि. कौल ने उन्हें स्थिति की गम्भीरता समझायी, कहा, “एक तो, यार, तुम्हें मालूम है, यह अग्रवाल का बच्चा बैकडोर से आया है; अपनी योग्यता के बल पर नहीं, ऐडमिनिस्ट्रेटिव अफ़सर की सिफ़ारिश से; और अब इसे हमसे ऊपर बिठाने की कोशिश की जा रही है। हम तो पाँच-पाँच, छः-छः साल से यहाँ भाड़ झोंक रहे हैं, और इस कल के लौंडे की तरह-तरह से शान बढ़ायी जा रही है। भला कहो तो, पीएच. डी. करने से और दो किताबें लिख लेने से ही कोई महान् हो जाता है? इसलिए भाई, मैं तो समझता हूँ कि हमें पूरी ताक़त से उसे कुचल देना चाहिए। बात सिर्फ़ एक कुर्सी की नहीं है, कुर्सियों से किसी की शान नहीं बढ़ती . . .”

पर मि. श्रीवास्तव ने उन्हें बीच में ही रोक दिया, “नहीं जनाब, आप भूलते हैं! आज की दुनिया में मेज़-कुर्सियों और सोफ़ा-सेटों से ही किसी का बड़प्पन आँका जाता है। आख़िर, हममें, डाइरेक्टर में और जूनियर रिसर्च अफ़सरों में अन्तर किस चीज़ का है? मेज़-कुर्सियों, सोफ़ा-सेटों और कमरों की छोटाई-बड़ाई का ही तो। जबकि डाइरेक्टर का कमरा बीस फ़ुट लम्बा और पन्द्रह फ़ुट चौड़ा है, हमारा पन्द्रह फ़ुट बाइ बारह फ़ुट का है और जे-आर-ओज़ को इसकी भी आधी-आधी जगह मिली है। मेज़ों का भी यही हाल है। डाइरेक्टर की मेज़ आठ फ़ुट लम्बी और छः फ़ुट चौड़ी है और हमारी छः फ़ुट बाइ चार फ़ुट। जे-आर-ओज़ की और भी छोटी है। फिर, डाइरेक्टर के कमरे में कुर्सियों के अलावा सोफ़ा-सेट भी है, जब कि हमें कुल चार-चार और जे-आर-ओज़ को तीन-तीन कुर्सियाँ दी गयी हैं। और, बाहरवाले इन मेज़-कुर्सियों और कमरों के आकार से ही किसी की पद-प्रतिष्ठा का अनुमान लगाते हैं, हमारे पास फ़ौजवालों की तरह पदसूचक कोई बिल्ला थोड़े ही होता है। इसलिए छोटा एकदम मत समझो इस सवाल को। सिर्फ़ एक कुर्सी के चलते ‘चीफ़ सीनियर रिसर्च अफ़सर’ का नया पद बन जा सकता है। क्यों, मैं झूठ कहता हूँ?”

मि. शर्मा के शब्दों में बौद्धिक प्रखरता थी—बात-की-बात में मि. शर्मा और मि. कौल के दिमाग़ों में एक-एक नयी खिड़की खुल गयी। उन्होंने मुग्धभाव से सहमति में सिर हिलाये, और तब मि. शर्मा ने मि. कौल को देखते हुए कहा, “सचमुच, श्रीवास्तव ग़लत नहीं कह रहा। हमने इस ओर तो ध्यान ही नहीं दिया।“

“हाँ भाई, बात तो पते की कहता है श्रीवास्तव।“ मि. कौल ने मि. शर्मा को लक्ष्य कर कहा, “फिर चला जाए, अपने बाक़ी दो साथियों को भी ले लिया जाए। चलो, उठो।“

“लेकिन यार। अभी तो मैं प्रेस-कॉपी तैयार कर रहा हूँ। आधे घंटे में प्रेस का आदमी आएगा। इसलिए तुम्हीं दोनों बात कर लो उनसे, फिर जैसा तय करोगे, वैसा करूँगा। मैं कोई अलग थोड़े ही हूँ तुमसे।“

मि. कौल उखड़ गये, “क्या बात करते हो तुम भी, श्रीवास्तव! यह कोई ऐसा-वैसा सवाल है? ख़ुद विश्वानन्दजी ने कहा है कि प्राण रहते अपना आत्मसम्मान नहीं जाने देना चाहिए। यह काम तो होता ही रहेगा। चलो, उठो-उठो।”

और, मि. श्रीवास्तव उठने के लिए मजबूर हो गये।

वहाँ से उठ कर तीनों मि. बत्रा के कमरे में गये और फिर पाँच मिनट बाद ही मि. बत्रा का कमरा भी ख़ाली हो गया।

अब वे सबसे सीनियर और वयोवृद्ध सीनियर रिसर्च अफ़सर डॉ. रस्तोगी के पास पहुँचे। डॉ. रस्तोगी बड़े सुलझे हुए और शान्त प्रकृति के जीव थे। डाइरेक्टर पर उनकी धाक भी ज़बर्दस्त थी। उन्हें साथ लिये बिना अपने आन्दोलन में सफलता पा सकना सीनियर रिसर्च अफ़सरों के लिए सम्भव नहीं था। अतः उन्होंने बड़े हौले-हौले, दलीलें दे-देकर, डॉ रस्तोगी को अपना केस समझाया और ऐडमिनिस्ट्रेटिव अफ़सर का ऐसा रूप उनके सामने पेश किया कि आवेश से उनकी मुट्ठियाँ बँध गयीं। ऐडमिनिस्ट्रेटिव अफ़सर को वे पहले ही अच्छा आदमी नहीं समझते थे, उसने उनके बेटे की जूनियर रिसर्च अफ़सर के पद पर नियुक्ति की राह में बड़ी बाधाएँ खड़ी की थीं। सो, उन्होंने उनकी बातों पर अक्षरशः विश्वास कर लिया और बड़े धीर-गम्भीर शब्दों में सम्पूर्ण वार्तालाप का समापन किया, “मैं तो, भाई, विश्वानन्दजी का एक मूक भक्त हूँ। उनके शब्द ही मेरे लिए वेदवाक्य हैं। ईर्ष्या, परिग्रह, मोह-माया, इन सबसे मैं यथासम्भव बचने की कोशिश करता हूँ। जीवन के अन्तिम दिनों में विश्वानन्दजी के अनमोल वचनों को प्रचारित करने का जो पुण्य कर्म मेरे हाथ लग गया, बस, यही मेरे जीवन की अनमोल निधि है। . . . अब, आपकी बातों को विश्वानन्द-वाणी की वेदिका पर रखता हूँ, तो मेरा अन्तर्यामी कहता है कि मुझे आपका साथ देना चाहिए। कंस और हिटलर की निरंकुशता की ही श्रेणी में सिद्ध होती है ए. ओ. की मनमानी, और विश्वानन्दजी ने कहा था कि निरंकुशता का मूलोच्छेद करना सौ वर्ष की हरि-साधना के बराबर है। इसलिए चलिए, डाइरेक्टर साहब के पास मैं चलता हूँ आपके साथ!” और, वे अपनी कुर्सी छोड़ कर उठ खड़े हुए। आगे-आगे वे और पीछे-पीछे चारों सज्जन! क़ाफ़िला चला डाइरेक्टर के कमरे की ओर।   

डाइरेक्टर डॉ. बाटलीवाला ने डॉ. रस्तोगी के मुँह से जो वस्तुस्थिति की व्याख्या सुनी, तो गम्भीर चिन्ता में पड़ गये। यों, अगर और किसी ने उनके सामने कुर्सी-मेज़ का सवाल उठाया होता, तो वे, निश्चय ही, बड़े ज़ोर से ’गेट-आउट’ चिल्लाते; पर चार सीनियर रिसर्च अफ़सरों की उपस्थिति में डॉ. रस्तोगी-द्वारा प्रस्तुत किये गये विवरण ने उन्हें अपनी प्रशासनिक योग्यता के ही बारे में आशंकित कर दिया।

“यह तो बहुत बुरी बात है!” उन्होंने मात्र इतना कहा और बिजली की घंटी दबायी। अगले क्षण चपरासी आ खड़ा हुआ, तो अफ़सरी अन्दाज़ में बोले, “ज़रा ए. ओ. साहब को बुलाओ।“

चपरासी चला गया। डॉ. रस्तोगी भी उठ खड़े हुए, बोले, “अच्छा, हम चलें, नहीं तो ए. ओ. समझेगा, हम उसकी शिकायत करते हैं।“

“ऑल राइट!” डॉ. बाटलीवाला ने कहा, और पाँचों जने सिर झुका कर कमरे से निकल गये।

इसके कोई दो-तीन मिनट बाद ऐडमिनिस्ट्रेटिव अफ़सर मि. गुप्त ने आकर “गुड नून” कहा, तो डॉ. बाटलीवाला जैसे सोये से जागे, ज़रा-सा सिर हिला कर बड़े गम्भीर स्वर में बोले, “बैठिए।“

मि. गुप्त ने “थैंक्यू” कहा और सामने की एक कुर्सी पर बैठ गये। कोई एक मिनट कमरे में पूरी शान्ति रही और तब डॉ. बाटलीवाला ने पूछा, “वेल गुप्ता, एस-आर-ओज़ कितनी चेयर्स के एंटाइटिल्ड हैं?”

“चार, सर। एक अपनी, तीन विज़िटर्स!” मि. गुप्त ने सहमते-सहमते जवाब दिया।

“देन ह्वाई सो?” डॉ. बाटलीवाला अचानक चिल्ला पड़े, “उस न्यूकमर को क्यों दी हैं पाँच? आई नो, ही इज़ योर फ्रेंड, बट . . . ऑफिस के रूल्ज़ रूल्ज़ हैं। यह फ़ेवरेटिज़्म क्या चला रखी है तुमने? डू यू नो, इसका क्या असर पड़ेगा दूसरे एस-आर-ओज़ पर?”

मि. गुप्त के होश गुम, हकलाते हुए बोले, “लेकिन सर, उन्हें पाँच नहीं, चार ही दी हैं।“

“आर यू श्योर ऑफ़ इट?” डॉ. बाटलीवाला ने धमकाते हुए कहा।

“यस, सर!”

“ह्वाट यस सर।“ डॉ बाटलीवाला फिर गरजे, “डोंट ट्राई टू मिसगाइड मी। मैं जानता हूँ, पाँच कुर्सियाँ हैं वहाँ। जाओ, जाकर देखो और तब बात करो। आफ़्टर ऑल, दिस् इज़ ए क्वेश्चन ऑफ प्रिन्सिपुल। जाओ, जाँच करो।“

और मि. गुप्त मुँह लटकाये डाइरेक्टर के कमरे से निकल गये। वहाँ से वे सीधे डॉ. अग्रवाल के कमरे में पहुँचे।

डॉ. अग्रवाल ने प्रसन्नमुख “आओ, भाई!” कहते हुए उनका स्वागत किया, पर वे कोई जवाब न देकर डॉ. अग्रवाल की मेज़ के इर्द-गिर्द पड़ी चारों विज़िटर्स चेयरों को घूरते रहे। डॉ. अग्रवाल को कुछ अजीब-सी लगी उनकी यह हरकत, बोले, “इस तरह कुर्सियों को क्या घूर रहे हो, भाई?”

अब जाकर मि. गुप्त का मौन टूटा, बोले, “यह पाँचवी कुर्सी कहाँ से आ गयी तुम्हारे कमरे में?”

“क्या पता? सबेरे से ही पड़ी है। तुम्हें ज़रूरत हो, तो कहो, भिजवा दूँ,“ डॉ. अग्रवाल ने मज़ाक के लहजे में कहा।

“नहीं यार, ज़रूरत कुछ नहीं है। लेकिन आफ़त ढा दी है इसने—लोगों का कहना है कि तुम मेरे दोस्त हो, इसीलिए मैंने पक्षपात किया है तुम्हारे साथ,“ मि. गुप्त ने बुझे हुए स्वर में कहा।

“तो ले जाओ, दे मारो उन्हीं के सिर पर, जिन्हें सिरदर्द हो रहा है। इसमें परेशानी की क्या बात है?”

“अरे यार, बात डाइरेक्टर तक पहुँच गयी है। इसे सिद्धान्त का प्रश्न बना दिया गया है। . . . अजीब हाल है इस दफ़्तर का। इतने महान् आदमी के नाम पर चलनेवाले दफ़्तर में कैसे-कैसे कमीने आ गये हैं। और-तो-और, कुर्सियों की मूवमेंट पर भी नज़र रखूँ अब!” और, अपना कपाल ठोक कर मि. गुप्त कमरे से बाहर हो गये।

कोई आधा घंटा तक दर्जनों लोगों से पूछताछ करने और सिर खपाने के बाद मि. गुप्त को रहस्य की कुंजी मिल गयी और वे जल्दी-जल्दी क़दम उठाते डॉ. बाटलीवाला के कमरे में पहुँचे; पहुँचते ही सोत्साह बोले, “जाँच कर ली, सर। डॉ. अग्रवाल के नाम चार ही कुर्सियाँ इशू हुई हैं!”

“लेकिन वहाँ कुर्सियाँ तो पाँच हैं,“ डॉ. बाटलीवाला ने खीझ कर कहा।

“यस सर! कुर्सियाँ पाँच हैं। . . . “

“तो वही तो मैं पूछता हूँ, क्यों हैं पाँच? कैसे हैं पाँच?”

“सर, बात यह है कि आज से उनका चपरासी पन्द्रह दिन की छुट्टी पर गया है और उसके बदले में उन्हें कोई आदमी नहीं दिया गया है—आज पाँच चपरासी छुट्टी पर हैं, इसलिए। सो, चपरासी की ही कुर्सी उनके कमरे में पड़ी है—उसे किसी ने निकाला नहीं!”

“ओ, आई सी,“ बोल कर डॉ. बाटलीवाला चिन्ता में पड़ गये। 

तभी डॉ. अग्रवाल वहाँ पहुँचे अपनी बग़ल में एक कुर्सी टाँगे, जिसकी एक बाँह उखड़ी हुई थी और केन बीच से टूट चुकी थी।

डॉ. बाटलीवाला चौंक पड़े, “यह क्या, अग्रवाल! यह चेयर क्यों ला रहे हो यहाँ?”

“यह वही कुर्सी है, सर!” मि. गुप्त ने जवाब दिया।

“लेकिन . . . लेकिन इसे यहाँ लाने की क्या ज़रूरत थी। आँ?” डॉ. बाटलीवाला ने सवाल किया।

इस बार जवाब मि. गुप्त ने नहीं, डॉ. अग्रवाल ने दिया, और बड़ी दृढ़ता से दिया, बोले, “यह कुर्सी नहीं है, सर। यह आपका सिद्धान्त का प्रश्न है - ए क्वेश्चन आफ प्रिन्सिपुल।” और कुर्सी को वहीं छोड़ वे आगे बढ़ आये; डॉ. बाटलीवाला के सामने एक कागज़ रख, आवेश से लगभग काँपते हुए बोले, “और यह मेरा सिद्धान्त का प्रश्न है—रेज़िग्नेशन! इतनी गन्दी जगह मैं काम नहीं कर सकता।”
 

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