धर्मपु़त्र
कथा साहित्य | कहानी स्व. विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’15 Nov 2024 (अंक: 265, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
(नीहारिकाः मार्च 1963)
प्रेषक: अमिताभ वर्मा
भोला और सुहागी, दोनों ही नाम अब निरर्थक हो गये थे। न तो भोला का भोलेपन से कोई सम्बन्ध रह गया था और न सुहागी का सुहाग अथवा सौभाग्य से। बचपन में भोला में भोलापन अवश्य था, पर होश सम्हालने के बाद उसने उसे बेवुक़ूफ़ों की चीज़ मानकर तिलांजलि दे दी थी। इसी तरह उसकी माँ सुहागी के पास भी पहले तो सुहाग और सौभाग्य, दोनों ही चीज़ें थीं। पर अब अठारह साल पुरानी सुखद घड़ियों की याद भी सिवा दुःख के भला और क्या दे सकती थी? वे दिन और थे जब पंडित हियाराम यजमानों के घर से गठरियों में बाँध-बाँधकर लक्ष्मी बटोर लाते थे। अब तो स्वयं सुहागी ही दुर्भाग्य द्वारा झाड़ू से बुहार कर एक ओर कर दी गयी थी।
सौभाग्य और दुर्भाग्य, इनकी अजीब आँख-मिचौली देखी थी सुहागी ने। उन्तालीस वर्ष पूर्व मात्र चौदह वर्ष की अवस्था में, जब वह ब्याहकर पंडित हियाराम के घर आयी थी, तब उसे चारों ओर चूहे ही चूहे दिखाई पड़ते थे, अनाज नहीं। चौदह-पन्द्रह व्यक्तियों का परिवार और छोटा सा गाँव। पुरोहिताई से मिलता ही कितना? वह तो पास-पड़ोस के चार-पाँच गाँवों में भी अपने कुछ यजमान थे, अन्यथा खींच-खाँचकर भी पेट भरना मुश्किल हो जाता! घर का यह हाल देखकर सुहागी का मन बुरी तरह कलपता, पर उपाय ही क्या था? चार-पाँच साल इसी तरह बीते और इस बीच पंडित हियाराम के माता-पिता बारी-बारी से परलोक सिधार गये। यों सिर से माँ-बाप का साया उठना दुर्भाग्य की ही बात है, पर उनका जाना सुहागी के लिए सौभाग्य का कारण बना। उनके प्रस्थान करते ही पंडित हियाराम और उनके तीनों बड़े भाइयों में ठन गयी। हर एक ने अपने दुर्भाग्य के लिए बाक़ी तीनों को दोषी ठहराया और अन्त में बात घर-द्वार के बँटवारे पर जाकर ख़त्म हुई। इन सब बातों ने पंडित हियाराम के सुकुमार मन में अपने भाइयों के लिए नफ़रत पैदा कर दी और वह अपने हिस्से का मकान तथा काठ-कबाड़ तीन सौ रुपये में बेचकर पास के शहर चले गये। वहाँ उन्होंने ग़रीबों और मज़दूरों के एक मुहल्ले में किराये पर एक कमरा लिया और फिर काफ़ी सोच-विचार के बाद उसके बाहर ’राज ज्योतिषी’ का बोर्ड लटका दिया। निर्धनता से मुक्ति पाने के लिए गाँठ के धन से भी हाथ धोने और कष्टों को दूर भगाने के लिए दूसरे कई कष्टों को स्वीकार करने का रिवाज़ तो बहुत पुराना है ही! पंडित हियाराम का धंधा चल निकला। जन्मपत्री बनवाने, भाग्यफल जानने और पूजापाठ कराने वालों ने पंडित हियाराम के सारे दुःख दूर कर दिये। छह साल के अन्दर ही वह मकान भी पंडित हियाराम का हो गया, जिसके एक कमरे में वह किरायेदार के रूप में आये थे।
लेकिन एक अभाव, एक पीड़ा, अब भी सता रही थी पंडित हियाराम और सुहागी को। उसके कारण उनका समस्त सुख स्वादहीन बना हुआ था। इस अभाव को दूर करने के लिए पंडित हियाराम ने जड़ी-बूटी, जादू-टोना, जंतर-मंतर, सबका सहारा लिया, पर व्यर्थ। उनसे हृदय की रिक्तता पूरी न हो सकी। अन्त में वह हार कर बैठ गये। पर सुहागी कैसे हारती इतनी जल्दी? उसके लिए तो यह जीवन-मरण का प्रश्न था। आख़िर एक नवयुवक बैरागी ने अपना चमत्कार दिखाया और पंडित हियाराम की पंडिताई को मात देकर सुहागी ने वह त्रासदायक अभाव पूरा कर लिया। पैंतीस वर्ष की अवस्था में उसने अपनी पहली और अन्तिम सन्तान को जन्म दिया। अब सुहागी को अपने जीवन से कोई शिकायत न थी। वह अपने सौभाग्य पर फूली न समाती।
जीवन की लता में सौभाग्य के फूल के साथ-साथ दुर्भाग्य के काँटे भी होते हैं। फूल की सुगन्ध चाहे काँटों से बेख़बर कर दे, पर फूल के मुरझाते ही काँटों का अस्तित्व बुरी तरह चुभने लगता है। परम सौभाग्य की प्राप्ति के तीन वर्ष बाद ही पंडित हियाराम ने सुहागी से सदा के लिए विदा ले ली। विदा लेते समय उन्होंने अवरुद्ध कंठ से सुहागी से कहा था, “भोला के रहते तुम पर कोई आँच न आएगी। उसे बड़े जतन से रखना।”
पंडित हियाराम की और भविष्यवाणियाँ चाहे सही उतरी हों, पर यह भविष्यवाणी सच सिद्ध नहीं हुई। भोला को सुहागी ने बड़े प्यार से पाला-पोसा, बड़ा किया, और अब वह इक्कीस साल का ख़ासा जवान हो गया था। फिर भी वह बुरी तरह जल रही थी। ख़ुद भोला उसे सबसे अधिक जला रहा था—प्रताड़ना की आँच पल-पल तेज़ करता जा रहा था।
आठ-नौ साल की अवस्था तक भोला में कोई ऐब न था। उस समय तक कोई भी व्यक्ति उसे देखकर यही कहता कि सुहागी के दिन बड़े आनन्द से कट जाएँगे। बेटा भी सही राह पर था और पंडित हियाराम अपने पीछे काफ़ी-कुछ छोड़ भी गये थे। अकेले मकान के कुछ कमरों के किराये से ही चालीस-पैंतालीस रुपये की आमदनी हो जाती थी। लेकिन तभी, जब भोला चौथी कक्षा में पढ़ रहा था, उसकी मित्रता कुछ ऐसे लड़कों से हुई, जो ’खेलोगे-कूदोगे होओगे नवाब’ का सिद्धान्त मानते थे। भोला अक्सर स्कूल से ग़ायब रहकर उन लड़कों के साथ गिल्ली-डंडा, गोली और पतंग के खेल खेलने लगा। आगे चलकर गोली का स्थान ताँबे के पैसों ने ले लिया। फिर ताश के ज़रिए पैसे जीतने-हारने में भोला को और अधिक आनन्द आने लगा। सुहागी के पास शिकायत पहुँचती तो वह उसे समझाती-बुझाती, धीमे-धीमे डाँटती-फटकारती भी, पर उसी क्षण से भोला अनशन आरम्भ कर देता और वह उसकी ख़ुशामद में लग जाती, अपनी पराजय स्वीकार कर लेती। इस तरह भोला अपनी विजयदुन्दुभी बजाता, पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर जुआ, शराब, मार-पीट, लड़कियों से छेड़छाड़ और ऐसे ही अन्य दुष्कार्यों में पारंगत होता गया। धीरे-धीरे लोग उससे भय खाने लगे और वह अपने मुहल्ले के गुण्डों में से एक बन गया।
इधर भोला की इस क्षेत्र में प्रगति होती रही और उधर सुहागी की बेहाली बढ़ती गयी। बेटा अनपढ़-आवारा तो हुआ ही, उसके लिए आर्थिक बोझ भी बन गया। अब वह किरायेदारों से किराया वसूल करके अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ ख़र्च कर लेता। सुहागी टोकती तो जवाब में मिलते झिड़की और घर छोड़ कर चले जाने की धमकी। विधवा माँ अपने अन्तिम सहारे, बेटे का वियोग भला कैसे सहन करती? बेटे ने पहले जमा-पूँजी में हाथ लगाया, फिर गहनों की बारी आयी, और अन्त में मकान पर क़र्ज़ की मात्रा भी बढ़ने लगी। फिर भी ख़र्च पूरा करता मुश्किल होता। बेटे का शाही ख़र्च सम्हालना कोई मामूली बात थोड़े ही थी! कालान्तर में उसे अपने बेटे से पिटाई का भी अवसर मिलने लगा। माँ को पीट-पाटकर भोला रुपये-पैसे छीनता और फिर शान के साथ अपनी मित्र-मण्डली में जा बैठता।
सुहागी बहुत सोचती पर कोई उपाय न मिलता। बहुत तड़फड़ाती पर किनारा न सूझता। उसके आगे दूर-दूर तक तक विस्तृत था अन्धकार, घोर अन्धकार, जिसे भेदने के लिए सौभाग्य की चाँदनी आवश्यक थी। पर वह चाँदनी उसे मिलती कहाँ? हाँ, एक सितारे का धुँधला प्रकाश उसकी सहायता के लिए ज़रूर आया।
बलराम एक धुँधला सितारा ही तो था! जब वह छोटा था तभी उसके माँ-बाप चल बसे थे। अपने मामा-मामी की ठोकरों में उसने जीवन-निर्वाह की कठिनता का आभास पाया था। जवानी में सहनशीलता कम होती है, किसी की ठोकर बरदाश्त नहीं कर सकती। अतः बलराम अपने मामा-मामी को छोड़कर एक दिन चुपचाप शहर चला आया। यहाँ उसके सुपुष्ट शरीर ने उसकी सहायता की। एक कारख़ाने के मैनेजर ने उसे चपरासी की नौकरी दे दी। निवास की समस्या भी जल्दी ही हल हो गयी। सुहागी के मकान में उसे एक कमरा किराये पर मिल गया। अब उसके दिन बड़े मज़े में कटने लगे। साथियों के साथ हँस-खेल कर वह दिन बिता देता और रात बीत जाती मधुर निद्रा की गोद में। पर कभी-कभी उसका जीवन अशान्त हो उठता। भोला का अपनी माँ को मारना-पीटना उसे तनिक भी अच्छा न लगता। उसे बड़ा क्रोध आता भोला पर, लेकिन मन मसोस कर रह जाता। पास-पड़ोस के लोगों से उसे माँ-बेटे की सारी कहानी मालूम हुई थी। साथ ही यह चेतावनी भी मिली थी कि भोला से कभी मत उलझना। वह गुण्डा है, मारपीट और छुरेबाज़ी उसका खेल है। इसीलिए पड़ोसी बहुत चाहने पर भी सुहागी को भोला के हाथ से बचाने नहीं जाते थे।
पर उस दिन बलराम से न रहा गया। भोला सुहागी को पीट रहा था और वह बुरी तरह चीख-चिल्ला रही थी। सुहागी की व्यथाभरी चीख से उसका दमित पौरुष जाग उठा और वह आँधी की तरह माँ-बेटे के पास जा पहुँचा। भोला भौचक, मानो उसे काठ मार गया हो! उसके हाथ जहाँ के तहाँ रुक गये और सिर इस तरह झुक गया जैसे किसी की जेब में हाथ डालते ही कांस्टेबिल ने कलाई पकड़ ली हो। बलराम के व्यक्तित्व में, पता नहीं, भोला ने ऐसा क्या देखा कि बेबस हो गया। दो पल तक सिवाय सुहागी के कराहने की ध्वनि के, वहाँ पूर्ण शान्ति रही। तब बलराम का गम्भीर स्वर सुनाई पड़ा, “ज़रा मेरे साथ आओ।” भोला एक पालतू कुत्ते की भाँति उसके पीछे-पीछे चलने लगा। अपने कमरे में पहुँचकर बलराम ने खाट की ओर इशारा करते हुए भोला से कहा, “बैठो।” भोला ने यन्त्रवत् आदेश का पालन किया। फिर बलराम भी उसकी बग़ल में बैठ गया और सूनी नज़रों से दीवार पर रेंग रही एक छिपकली को देखने लगा। कुछेक क्षण इसी तरह बीते तब बलराम ने आर्द्र स्वर में कहा, “क्यों भाई, मुझे एक भीख दे सकोगे?”
भोला ने बलराम की ओर दृष्टि उठायी। वह स्वयं डबडबाये नेत्रों से उसकी ओर देख रहा था। उन आँखों पर नज़र पड़ते ही भोला की आँखें झुक गयीं। मुँह से कोई शब्द न निकला। बलराम ने उसकी एक हथेली अपनी हथेलियों में ले ली, फिर कहा, “तुम्हें शायद मालूम हो, मेरे माँ बाप नहीं हैं। जब मैं बहुत छोटा था, तभी मेरे सिर से उनका साया उठ गया था। माँ-बाप का प्यार कैसा होता है, यह मुझे नहीं मालूम, जबकि तुम माँ के प्यार से ऊब से गये हो। अब माँ का प्यार मुझे स्वयं ही ढूँढ़ना पड़ेगा, ईश्वर तो देने से रहा! क्या तुम अपनी माँ को मुझे अपनी माँ बनाने दोगे?”
भोला लाज से और भी गड़ गया।
“बोलो, क्या तुम वह सुख प्राप्त करने में मेरी सहायता नहीं करोगे, जो भगवान् तक न दे सका? क्या तुम मुझे अपना भाई नहीं बनाओगे? मुझे क्या एक छोटा भाई नहीं दोगे?”
बलराम के इन शब्दों ने भोला पर एक अजीब असर डाला। उसका कठोर हृदय धूप लगी बर्फ़ की तरह पिघल उठा और आँखें छलछला आयीं।
बलराम ने उसकी मनोदशा ताड़ कर कहा, “तो अपना भाई बनाते हो न मुझे?”
भोला ने चुपचाप सहमति में सिर हिला दिया।
“वाह, मेरे राजा भैया!” कहते हुए बलराम ने भोला को आलिंगन में भर लिया, “कौन कहता है, मेरा भोला बुरा आदमी है? दुष्ट लोग बुराई सिखाते हैं, फिर कहते हैं कि भोला बुरा है। भोला बुरा नहीं है, बुरा नहीं बनेगा, नहीं बन सकता।” वह आवेश में कुछ देर तक बड़बड़ाता रहा। फिर जब थोड़ा शान्त हुआ, तब बोला, “अच्छा भाई, अब यह बताओ कि माँ से तुम्हें क्या शिकायत है?”
“शिकायत क्या होगी? कुछ नहीं।”
“नहीं, कुछ तो है! नहीं तो, तुम मार-पीट क्यों करते?”
“वह मुझे पैसे नहीं देती,” भोला ने मन की बात उगल दी।
“तो तुम्हें पैसे चाहिएँ? ठीक है, तुम्हें पैसे मिलने का इंतज़ाम हो जाएगा। लेकिन एक बात मेरी भी मानो। तुमने जब मुझे बड़ा भाई बनाया है तब मेरी इतनी सी बात तुम्हें माननी पड़ेगी। मैं चाहता हूँ कि तुम एक योग्य आदमी बनो। सयाने हो गये हो, नौकरी-चाकरी करो, फिर शादी करो, और सुखी रहो। इधर-उधर घूमते रहने से यह सब नहीं हो सकेगा। अपने खाने-कपड़े का इन्तज़ाम तुम्हें ख़ुद ही करना पड़ेगा, दोस्त कुछ भी नहीं करेंगे। ये सब सुख के साथी हैं। मैं सोचता हूँ कि अपने कारख़ाने में तुम्हें नौकरी दिला दूँ। वहाँ तुम्हें पैसे भी मिल जाएँगे और काम भी सीख जाओगे।”
बात भोला की समझ में आ गयी। उसने कहा, “ठीक है, मुझे नौकरी दिला दो।”
यों, भोला जैसे बदनाम आदमी को भी नौकरी मिल गयी। मैनेजर की ख़ुशामद करके बलराम ने उसे ‘हेल्पर’ का काम दिला दिया। अब भोला ख़ुश था। उसे ख़र्च के लिए पर्याप्त पैसे मिल रहे थे—सो भी अपनी कमाई के। अब उसे किसी का मुँह नहीं ताकना पड़ता था। वह दिन भर कारख़ाने में काम करता और शाम अपनी मित्र मण्डली में बिता देता। पर अब उसका आनन्द पहले जैसा उन्मुक्त नहीं था। उसे बलराम का ध्यान रखना पड़ता था। जो बातें बलराम को पसन्द नहीं थीं, उन्हें करते समय वह बीच में पर्दा डाल देता था। बलराम के साथ पर्दे की बात यों शायद अनुचित प्रतीत हो, पर उसका भी महत्त्व था। इस पर्दे ने ही तो उसकी आँख में शर्म उतारी थी! यही तो उसके भले बनने की राह में पहली कड़ी थी!
सुहागी की आँखें इस जादुई परिवर्तन से चौंधिया गयी थीं। इस परिवर्तन की उसने कभी कल्पना तक न की थी, पर जो कुछ सामने आया वह तो सत्य ही था। उसे कैसे झुठलाया जा सकता था? उसे लगा, ‘बलराम देवदूत है। ईश्वर ने मेरी दशा पर दया करके उसे मेरे उद्धार के लिए भेजा है।’ वह बार-बार बलराम की बलैयाँ लेती। प्रतिदान के रूप में उस पर स्नेह निछावर करती। अब बलराम उसके लिए ‘अपना’ हो गया था। हर बात में वह उसकी राय लेती। जिस बात को भोला के द्वारा न माने जाने की आशंका होती, उसे बलराम के ही द्वारा कहलाती। अब उसे इस बात का भरोसा हो गया था कि दिन पलट गये हैं और जल्दी ही उसे पतोहू तथा पोते-पोतियों का भी सुख प्राप्त होगा। इसी आशा में उसने पैसे जोड़ने शुरू कर दिए।
इधर बलराम भी सन्तुष्ट था। उसकी ख़ुशी के मुख्य दो कारण थे—एक तो यह कि उसके चलते एक आदमी की ज़िन्दग़ी बन गयी थी, और दूसरा यह कि सुहागी के स्नेहांचल में उसे मातृसुख की अनुभूति होती थी। अब वह घण्टों सुहागी से बातें किया करता। अपने खाने-पीने का प्रबन्ध भी उसने सुहागी को ही सौंप दिया था। जब सामने बैठ कर सुहागी उसे खाना खिलाती, तब उसे बरबस अपनी मामी की याद आ जाती, जिसने कभी भी दो-चार अपशब्दों के बिना उसके सामने थाली नहीं पटकी थी। उसका हृदय भर आता। वह रह-रह कर अपनी कल्पित माँ के चेहरे से सुहागी के चेहरे की तुलना करता, और आशा के अनुरूप, उसे दोनों में पूर्ण समानता दिखाई पड़ती। भोला से भी अब उसे कोई ख़ास शिकायत नहीं रह गयी थी। उसकी जो दो-चार बातें अब भी खलती थीं, उन्हें वह यह सोच कर बरदाश्त कर लेता था कि शादी हो जाने पर अपने आप ख़त्म हो जाएँगी।
इस तरह परिस्थिति बहुत कुछ बदल गयी थी। हाहाकार तथा निराशा का स्थान सन्तोष तथा आशा ने ले लिया था। पर एक बात अब भी सुहागी को खलती थी। भोला से जिस व्यवहार की वह आशा करती थी, वह उसे नहीं मिलता था। यह सही है कि अब भोला उसे मारता-पीटता नहीं था, अपशब्द भी नहीं कहता था; पर इतना ही तो काफ़ी नहीं था! वह उसका बेटा था और उसमें अपनी माँ के प्रति प्रेम होना चाहिए था। पर कहाँ था उसमें यह सब? वह अपनी माँ की परवाह कहाँ करता था? उलटे वह तो उसकी उपेक्षा करता था। घर और माँ से उसका नाता इतना ही था, जैसा एक यात्री का होटल और उसके मैनेजर से। एक बार सुहागी बीमार पड़ी तो सारी सेवा-सुश्रूषा बलराम ने ही की, भोला ने नहीं। जब उसकी माँ 103 डिग्री बुख़ार में पड़ी कराहती रहती थी, वह रात के दस बजे तक अपनी मित्र-मंडली में जमा रहता था। ‘अब कैसी तबीयत है’—इसके सिवा उसने सुहागी से कभी कुछ नहीं पूछा। सिर दबाने और दवा पानी पिलाने की तो बात ही क्या! वह सारा काम बलराम ने ही किया। कारख़ाने के कुछ घंटों के अलावा उसने दिन-रात का सारा समय सुहागी के ही पास बिताया। उसकी यह सेवा देखकर एक दिन भावोद्रेक में सुहागी ने कहा, “मेरी कोख से भोला नहीं, तू जन्मा था, बलराम! तू ही मेरा बेटा है।”
भोला के व्यवहार से सुहागी को जो पीड़ा होती थी, उसे बलराम भली-भाँति समझता था। स्वयं उसे भी भोला की यह उदासीनता खलती थी। उसने कई बार भोला को समझाने की चेष्टा की, पर कुत्ते की पूँछ टेढ़ी ही रही। समझाने के बाद एक-दो दिन तो वह माँ से तनिक स्नेहपूर्ण व्यवहार करता लेकिन फिर अपनी पुरानी राह पकड़ लेता। पता नहीं, उसे अपनी माँ से ऐसी क्या चिढ़ हो गयी थी।
लेकिन सुहागी को भोला से कोई चिढ़ न थी। भोला अपनी तनख़्वाह से एक भी पैसा माँ को नहीं देता था, उल्टे उसी से इधर-उधर के बहाने बना कर किराये के रुपयों से लेता रहता था। फिर भी सुहागी को उससे घृणा न थी। वह चाहती थी कि किसी भी तरह भोला ठीक रास्ते पर आ जाए। जो थोड़ी-सी कमी उसमें रह गयी है, वह पूरी हो जाए और वह एक अच्छा-भला गृहस्थ बन जाए। उस रात जब बारह बजे तक भोला घर न लौटा, तब सुहागी बलराम के पास पहुँची और उसे सोते से जगाकर बोली, “अब कैसी तबीयत है, बेटा?”
“ठीक है, माँ। बस, बुख़ार पूरी तरह नहीं उतरा है। बदन टूट रहा है। लेकिन तुम चिन्ता मत करो। सवेरे तक सब ठीक हो जाएगा,” भर्रायी आवाज़ में बलराम ने जवाब दिया।
“ओह, तुम अब भी बीमार हो? मैं क्या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता!”
“क्यों, क्या हुआ?”
“देखो न, अभागा अब तक नहीं आया! आधी रात बीत गयी। मुझे तो डर लगता है, कहीं मारपीट न हुई हो, अस्पताल में न पड़ा हो। अब किसे भेजूँ ढूँढ़ने?” सुहागी ने आँचल से आँखें पोंछ लीं।
“अब तक नहीं लौटा?” उठ कर बैठते हुए बलराम ने कहा, “पता नहीं, नालायक़ क्या करता रहता है इतनी रात तक! तुम परेशान मत होओ। मैं देखता हूँ जाकर, ढूँढ़ लाता हूँ। तुम निश्चिन्त रहो।” बलराम उठ कर कपड़े पहनने लगा।
“तुम जाओगे, बेटा? तबीयत ख़राब है! वह अभागा जो न कराये, थोड़ा है। जल्दी पता लगा कर लौटना। जब तक लौटोगे नहीं, मुझे शान्ति नहीं मिलेगी।”
रात एक बजे शराब के नशे में धुत्त भोला को रिक्शे में डालकर बलराम घर लौटा था। फिर भी सुहागी ने घृणा से भर कर उसे घर से बाहर नहीं फिंकवाया। उसे नीबू चुसाया, उसकी उल्टियाँ साफ़ कीं, और थपकियाँ दे कर सुला दिया। उसी रात उसने यह भी निश्चय कर लिया था कि अब बात टालने से काम नहीं चलेगा, जल्दी-से-जल्दी भोला की शादी करा देनी होगी। तभी यह रास्ते पर आएगा।
अगले दिन से ही उसने भोला के विवाह के लिए भाग-दौड़ शुरू कर दी थी, लेकिन कोई लड़की वाला तैयार नहीं था। कोई भी भोला को अपनी लड़की नहीं देना चाहता था। कुछ ने अवश्य बलराम के साथ शादी की बात आगे बढ़ाने में तत्परता दिखायी, पर इससे सुहागी की समस्या तो हल नहीं हुई। उसने लाख समझाया कि बलराम के माँ-बाप नहीं हैं, घर-द्वार नहीं है, और अपने मन से ही यह भी कह दिया कि अभी बलराम का शादी करने का विचार नहीं है, फिर भी भोला को लड़की देने के लिए कोई राज़ी नहीं हुआ। अन्त में सुहागी को फ़ैसला करना पड़ा कि भोला की शादी इस शहर की किसी लड़की से नहीं, कहीं बाहर की लड़की से करनी होगी। उसने अपने नाते-रिश्तेदारों को लड़की ढूँढ़ने के लिए लिखवा दिया।
तभी एक नया गुल खिला। भोला को नौकरी करते हुए लगभग एक साल हो आया था। इस बीच, उसके स्वभाव में एक अजीब-सी तेज़ी आ गयी थी। एक दिन उसके इंजीनियर ने उसे उसकी ग़लती के लिए डाँटा, तो उससे बरदाश्त न हुआ। वह उससे उलझ पड़ा, और तू-तू-मैं-मैं के बाद नौबत हाथापाई तक की आ गयी। फलस्वरूप उसे नौकरी से हटा दिया गया। बलराम ने लाख माफ़ी माँगी, पर उसकी न सुनी गयी। उलटे उसे मैनेजर ने बुरी तरह डाँटा और उसे भी नौकरी से निकाल देने की धमकी दी। विवश बलराम चुप हो गया। पर बात वहीं ख़त्म नहीं हुई। एक दिन रास्ते में भोला ने उस इंजीनियर की अच्छी तरह पिटाई कर दी। परिणामतः भोला पर मुक़द्दमा चलाया गया और बलराम अपने मैनेजर की नज़रों में गिर गया। अब उसे तनख़्वाह के रुपये ऐसे लगते, जैसे भीख में मिले हों। वह बहुत दुःखी रहने लगा।
दूसरी ओर भोला फिर अपने पुराने रास्ते पर जा रहा था। बलराम ने उसे दूसरी जगह काम दिलाने के लिए बहुत हाथ-पाँव मारे, अन्त में एक जगह बात भी पक्की कर दी, पर भोला राज़ी न हुआ। उसने कहा, “नहीं भैया, यह नौकरी-चाकरी आदमियों का नहीं, जानवरों का काम है। मुझसे नहीं होगी नौकरी। मैं किसी साले का रोब नहीं सह सकता।”
“लेकिन इस तरह कैसे चलेगी ज़िन्दग़ी?” बलराम ने समझाना चाहा।
भोला ने जवाब दिया, “ऊपरवाला सब ठीक कर देगा। जिसने पेट दिया है, वही उसे भरेगा भी। मैं क्यों करूँ चिन्ता?”
ज़ाहिर था कि अब भोला को बलराम की उतनी चिन्ता नहीं रह गयी थी। थोड़ा लिहाज़ वह ज़रूर करता था, परन्तु बलराम उस पर शासन करे, यह उसे स्वीकार न था। आख़िर बलराम होता कौन था उस पर शासन करनेवाला? उसके दोस्त तक उसे ‘बन्दर’ और बलराम को ’मदारी’ कह कर मज़ाक़ उड़ाया करते थे। ‘यह अपमान क्यों सहूँ मैं? अपनी आज़ादी क्यों सौंपूँ उसके हाथ? क्या मैं उसका ग़ुलाम हूँ? ऐसे मुँह-बोले भाई बहुत मिलते हैं दुनिया में,’ भोला सोचता, फिर भी बलराम के सामने जाने क्यों सहम जाता, झेंप जाता।
भोला का यह बदलता रुख़ बलराम भी ताड़ रहा था। इसीलिए अब वह भोला से अधिक बात नहीं करता था, यथा-सम्भव आदेश-निदेश देने से भी बचता था। जब सुहागी बहुत तंग हो जाती थी, तभी वह भोला से कहता-सुनता था। कभी-कभी तो उसे सुहागी पर भी खीझ होती थी कि क्यों वह बालू से तेल निकालने पर तुली है? भोला समझाने-बुझाने से नहीं, ठोकर लगने से अपनेआप चेतेगा। उसके साथ कठोरता की नीति काम में लाई जानी चाहिए। उसने सुहागी को कई बार समझाया भी, “तुम उसकी चिन्ता छोड़ दो, माँ। वह सुधारने से नहीं, अपने-आप सुधरेगा। जितना उससे उलझोगी, उतना ही वह बिगड़ेगा। एक बेटा नालायक़ ही सही, दूसरा बेटा तो ठीक है तुम्हारा! तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं होने दूँगा मैं। ज़िन्दग़ी-भर सिर-आँखों रखूँगा।” सुहानी यह सब सुन लेती लेकिन जल्दी ही उसका अन्तर अकुलाने लगता और उसकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकलती।
जैसी कि आाशंका थी, चन्द ही दिनों में भोला पूरी तरह अपनी पुरानी राह पर आ गया। अब फिर वह पैसे के लिए माँ से लड़ने-झगड़ने लगा और सुहागी रो-धोकर उसकी माँगें पूरी करने लगी। अब इतनी बात ज़रूर थी कि भोला अपनी माँ से तभी झगड़ता था, जब बलराम ड्यूटी पर गया होता। उसके सामने लड़ने-झगड़ने का उसे साहस नहीं होता था।
उस दिन न जाने भोला को ऐसी कौन सी ज़रूरत आ पड़ी कि उसने बलराम की उपस्थिति की भी परवाह न की और सुहागी से झगड़ा शुरू कर दिया। बलराम अपने कमरे में पड़ा-पड़ा उसकी सारी झड़प सुनता रहा, पर बोला कुछ नहीं। निराशा ने उसे इस तरह घेर रखा था कि वह अपने-आपको एकदम निर्जीव सा अनुभव कर रहा था। झगड़ा बढ़ता ही गया। भोला की गालियों की बौछार बढ़ती गयी और फिर मार-पीट तथा सुहागी के चीखने-चिल्लाने की आवाज़ें भी आने लगीं। अब बलराम से न रहा गया। वह ग़ुस्से से काँपता उस कमरे में पहुँचा, जहाँ भोला घूसे-लात से सुहागी की मरम्मत कर रहा था। इस दृश्य ने बलराम को और पागल कर दिया। उसने आव देखा न ताव, भोला से उलझ पड़ा और घूसे-थप्पड़ जमा दिए। यह बात भोला से बरदाश्त न हुई। उसने पास पड़ी लोहे की एक मोटी छड़ उठा ली और बलराम के सिर पर जमा दी। ख़ून से लथपथ बलराम धराशायी हो गया। उसकी चेतना लुप्त हो गयी।
बलराम इस तरह गिरा तो भोला के पाँवों से धरती खिसक गयी। सुहागी ने उसे कोसना शुरू किया, “अरे मुँह जले, यह क्या किया तूने! अब फाँसी लगेगी तुझे! मरे बिना तुझे शान्ति नहीं मिलेगी क्या? तो मर क्यों नहीं जाता? जा, मर जा! दूर हो मेरी आँखों के सामने से! हे भगवान्! अब क्या होगा? अरे निगोड़े, भागता क्यों नहीं यहाँ से? जा न, क्या पुलिस के ही हाथ पड़ेगा?”
भोला को राह सूझ गयी। वह घर से निकल भागा।
भोला के भागते ही पास-पड़ोस के कई लोग वहाँ जमा हो गये। शोर-गुल मच गया। कोई पुलिस को टेलीफोन करने के लिए कहने लगा, तो कोई अस्पताल ले जाने के लिए गाड़ी लाने को। लेकिन आदेश ही दे रहे थे सब, अपनी जगह से खिसक कोई नहीं रहा था। उधर सुहागी अनवरत आँसू बहाये जा रही थी, साथ-साथ बोल भी रही थी, “इस अभागे ने मुझे कहीं का नहीं रखा। जन्मते मर जाता, तो सन्तोष कर लेती। भगवान् मुझे मौत भी तो नहीं देता।”
तभी भीड़ में से किसी ने एक पुलिस कांस्टेबिल को आते देखा और वह चिल्ला पड़ा, “आ गये, सिपाही आ गये।”
‘सिपाही’ शब्द सुनते ही सुहागी के हाथ के तोते उड़ गये। उसने तुरन्त अपनी धारा बदल दी, “लेकिन वह बेचारा भी क्या करता? बड़ा धर्मपुत्र कहता था अपने को . . . मैं तुम्हारा बेटा हूँ, माँ! लेकिन इतना पीटा मुझे? हाय-हाय, कमर तोड़ दी मेरी! क़र्ज़ लिया था, सच है, पर अभी कहाँ से दे देती? रुपये क्या मुँह से उगल देती? हाय-हाय, मेरी तो जान ही निकाल दी इस कलमुँहे ने। अच्छा हुआ, मारा उसने। मारता नहीं, तो क्या करता? मेरे बेटे की देह में भी ख़ून है, पानी नहीं! मर गया . . . अच्छा हुआ!”
सुहागी के अन्तिम कुछ वाक्य फिर से होश में आ रहे बलराम के कानों में पड़े और वह फिर अचेत हो गया। कांस्टेबल कमरे में पहुँच गया था।
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