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बांग्ला नाट्य साहित्य एवं रंगमंच का इतिहास

पुस्तकः बांग्ला नाट्य साहित्य एवं रंगमंच का इतिहास
संशोधकः रानू मुखर्जी
प्रकाशकः नमन प्रकाशन, ४२३/१, अन्सारी रोड, 
दरियागंज, नई दिल्ली ११०००२
मो ९३५०५५१५१५
मूल्य: रु. ७९५/-

अपने प्रांत की गौरव पूर्ण नाट्यकला की विरासत को खोजकर हिन्दी साहित्य में सुरक्षित करने का प्रयास डॉ. रानू मुखर्जी ने “बांग्ला नाट्य साहित्य एवं रंगमंच का इतिहास” के शोध कार्य को पूरी साहित्यिक सज्जता के साथ किया है। लेखिका की साहित्य क्षेत्र में बहुत सारी उपलब्धियाँ हैं और हिन्दी, बंगला, ओडीया, अँग्रेज़ी, गुजराती भाषा की जानकारी है, इसलिए भाषा-सेतु सरल रूप से बना पाई हैं। नाटक में उनकी रुचि बचपन से ही है, यह बात भूमिका में लिखी गई है। परिवार में नाट्य माहौल है, उनके पिताजी अभिनय क्षेत्र में काफ़ी सक्रिय रहे हैं और नाटक में उन्होंने यादगार किरदार भी निभाए हैं। 

प्रस्तुत शोध में बंगला नाटक की उत्पति और विकास को “जात्रा साहित्य” और आदिपर्व से लेकर विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के समय तक दर्शाया है और रंगमंच की शुरूआत का समयकाल (१७९५) से दर्शाया है। उसके बाद मंचियता के अलग-अलग माध्यमों, सिद्धांतों और बदलते स्वरूप, समय के अनुरूप लिखने का प्रयास किया है। यह एक महत्वपूर्ण शोध इसलिए भी है कि १७वीं, १८वीं और १९वीं सदी के समाज और उल्लेखनीय घटनाओं को लेकर १९७८ तक के नाट्य साहित्य की उपलब्धियों के बारे में इस शोध में जानकारी पाई जाती है। बंगाल की “लोकनाट्य कला” और “यात्रा” की अवधारणा भी स्पष्ट होती है। वैसे भी बंगाल प्रांत भारत वर्ष में वैविध्य के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है। आज़ादी से पहले और बाद में भी बंगाली प्रजा की भूमिका विशेष नज़र आई है। नाटक के माध्यम से जनता तक पहुँचने का मनोरंजक रास्ता वैसे तो ब्रिटिश भारत की देन है, पर सामाजिक जाग्रति को कला के माध्यम से प्रभावशाली बनाकर रखने का उद्देश्य बंगाल के रंगमंच प्रेमियों ने ज़िम्मेदारी के साथ निभाया है। 

प्रस्तुत ग्रंथ में विविध समय की नाट्य उपलब्धियाँ अलग-अलग समय खंड के साथ दर्शायी गई हैं। लेखिका ने २६२ पन्नों के अंदर दो भाग में अपना शोध प्रस्तुत किया है। जिसमें पहले विभाग में अनुवादयुग, आदिपर्व, मध्ययुग के समय के नाट्य साहित्य, और सामाजिक परिस्थितियों का विवरण है। अंत में रवीन्द्रनाथ ठाकुर और उनके समसामयिक नाट्य सर्जकों के सर्जन के बारे में महत्वपूर्ण बातों का ज़िक्र है। और दूसरे विभाग में रंगमंच के विकास को समय अनुरूप बताने का और उनसे जुड़ी कथाओं को बताने का प्रयास रहा है। 

नाटक, प्रहसन, गीतिनाट्य, नाट्यगीत के माध्यम से विविध विचारधाराओं को धर्म, पुराण, इतिहास, समाजिक परिस्थितियों का संदर्भ लेकर वैचारिक रूप से व्यक्त किया है। वैसे भी धर्म को आधार बनाकर विचार चेतना को फैलाना ज़्यादा अनुकूल है। ‘जात्रा’ का उद्भव धार्मिक भावना से ही होता है। जात्रा में पहले तो मंडलियों में देव-देवियों की लीला, और ज़्यादातर राधा-कृष्ण की कथा को आधार बनाकर लोक अभिनय होता था। मध्ययुग में चैतन्य देव ने कृष्णलीला का अभिनय किया उसका लोगों ने धार्मिक भावनाओं के साथ आनंद उठाया। और जयदेव का गीत गोविन्द, चडू चंडीदास का श्री कृष्ण लीला नाट्यगीत को “जात्रा” ही माना गया था। समय के साथ “जात्रा” के विषय और चरित्रों में विविध परिवर्तन पाया गया। १७९५ में रूसी रंगकर्मी गेरोमिस स्तेपोनोविच लिएबेदेफ कलकता आए और डोमतला में नाटक का मंचन कराया और उस नाटक में बंगाली कलाकारों ने अभिनय किया था। शोधकर्ता स्पष्ट करते हैं कि ”अँग्रेज़ों के नाटक अभिनय को देखकर १९वीं सदी के नवयुवकों के दल सर्वप्रथम नाट्यमंच में अभिनय के लिए प्रवृत हुए थे। बांग्ला का प्रथम उपन्यास ’आलालेर घरेर दुलार’ प्रकाशित होने के चार वर्ष पूर्व प्रथम मौलिक बांग्ला नाटक ताराचरण शिकदार रचित “भद्रार्जुन” प्रकाशित किया। इसके बाद दीनबन्धु के समय तक जितने बांग्ला नाटकों की रचना हुई, उनमें कुछ शेक्सपीयर का अनुवाद हैं तथा कुछेक बांग्ला रचनाएँ हैं। उस समय के नाट्य साहित्य में मुख्य स्वर ‘समाज संस्कार’और ‘स्वदेश चेतना’ ही रहा इस विषय से जुड़े अनेक नाटक जैसे “जमींदार दर्पण”, “नीलदर्पण” उनका श्रेष्ठ उदाहरण हैं। 

दीनबन्धु मित्रा, माईकेल मधुसुदन दत्त, गिरीशचन्द्र घोष, रवीन्द्रनाथ ठाकुर का नाम समसामयिक होते हुए भी सभी के नाट्य आदर्श स्वतंत्र पाये जाते हैं। रवीन्द्रनाथ के प्रति प्यार और सम्मान स्वाभाविक है इसलिए शोधकर्ता ने बड़े गौरव से उनके बारे में लिखा है कि “रवीन्द्रनाथ रचित बांग्ला नाट्य साहित्य इतना अभिनव, इतना समृद्ध, इतना विचित्र है कि इसे मध्ययुग से भिन्न करने का विचार ही नहीं किया जा सकता है और आधुनिक युग में ऐसे कोई सशक्त नाटककार का आविर्भाव हुआ जिसे युग प्रवर्तक या युग स्रष्टा कहा जा सके।”

बांग्ला नाट्य साहित्य के प्रथम युग में अँग्रेज़ी तथा संस्कृत नाटक दोनों का समान रूप से बांग्ला में अनुवाद पाया जाता है। अनुवाद के माध्यम से ही बांग्ला नाटक का अभ्युदय हुआ ऐसा कहा जा सकता है। १९वीं शताब्दी में सबसे प्रसिद्ध अनुवादक रहे हरचन्द्र घोष, रामनारायण तर्क रत्न, और कालीप्रसन्न सिंह का उल्लेख है। हरचन्द्र घोष का पहला नाटक “भानुमति चित्त विलास” (१८५२) में, जो शेक्सपीयर का नाटक ‘मर्चन्ट ऑफ़ वेनिस’ का भावानुवाद है। उस दौर में संस्कृत नाटक भी पाए जाते हैं। ज्योतीन्द्रनाथ ठाकुर का संस्कृत भाषा पर प्रभुत्व असीम था। संस्कृत से बांग्ला तथा अँग्रेज़ी से बांग्ला नाट्य में भरपूर अनुवाद पाये जाते हैं। 

१८५३ से लेकर १८७४ का समय बांग्ला नाटक का आदिपर्व है। सामाजिक दोषों के प्रति लोगों को जाग्रत करने का यह समय था। उस समय में पौराणिक विषय को लेकर बहुत सारा नाट्य सर्जन हुआ। रामायण, महाभारत और अन्य पुराणों से अनेक चरित्र और घटना आधारित नाटक पाए जाते हैं। जिन में राम, कृष्ण, सीता, द्रौपदी, सुभद्रा, कंस, शर्मिष्ठा आदि पात्रों पर ज़्यादा नाटक रचे गए। मधुसूदन दत्त का “मेघनाद वध” पौराणिक नाटक का श्रेष्ठ उदाहरण है। और गिरीशचन्द्र घोष के साहित्य में बंग प्रदेश की संस्कृति, जीवन प्रणाली को केन्द्रीय रखने का उद्देश्य दिखता है। दीनबन्धु का नाम और स्थान भी नाट्य साहित्य में अग्रिम रहा। वह बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के समकालीन रहे जिनके बारे में बंकिम कहते हैं “बांग्ला समाज के प्रति दीनबन्धु की दूरदर्शिता को देखकर आश्चर्य होता है। सभी प्रणाली की सभी ख़बर को रखनेवाला ऐसा दूसरा बंगाली लेखक मैंने नहीं देखा। १८६० में लिखा गया “नीलदर्पण” नाटक बांग्ला साहित्य का सर्वश्रेष्ठ उल्लेखनीय और स्मरणीय ग्रन्थ रहा है। 

नाटक के विकास के साथ साथ ऑपेरा या गीताभिनय भी मध्य युग की देन है। जिनमें मनमोहन बसु का श्रेष्ठ योगदान माना गया है। १८७०/८० का समय वैसे भी देशभक्ति, स्त्री पुरुष समानता, सामाजिक उत्थान का समय रहा। जनता को विविध आंदोलनों से गुज़रना पड़ा। इतिहास भी शूरवीरता और वीर-रस भरे पात्रों, घटनाओं को आधार बनाकर नाटक लिखना आवश्यक हुआ। २०वीं सदी को ऐतिहासिक नाटकों का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। गिरीशचन्द्र, क्षीरोदप्रसाद, तथा द्विजेन्द्रलाल जैसे नाट्यकारों ने प्रसिद्ध ऐतिहासिक नाटक दिए। 

ठाकुर परिवार के नाट्य प्रेम और उत्साह से सभी परिचित हैं। रवीन्द्रनाथ के नाटकों का प्रमुख गुण इसकी अतुलनीय भाषा है। “विसर्जन”, “मालिनी” आदि काव्य छन्दों में लिखे जाने पर भी अतुलनीय नाटक हैं। शान्तिनिकेतन में खेले गए जिन नाटकों में स्वयं रवीन्द्रनाथ ने अभिनय किया था उनमें “शारदोत्त्स”, “प्रायश्चित”, ”राजा”, ”अचलायतन”, “फाल्गुन”, ”डाकघर” आदि उल्लेखनीय हैं। 

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात बांग्ला नाटक की कथावस्तु, शिल्प-रीति में जो आमूल परिवर्तन आया उसमें नव नाट्य आन्दोलन का बहुत बड़ा हाथ है। 

शोधकर्ता ने बांग्ला रंगमंच के बारे में आरंभ में कहा की “उत्कृष्टा कला यस्मिन तत बांग्ला” बंगाल कलाओं का प्रदेश है। “यात्रा” शब्द को “थियेटर” का मूल शब्द माना गया है। इतिहास और पौराणिक आख्यानों के विषयों को लेकर जो नाट्य अभिनय, विशेषकर देवी-देवताओं के मेलों महोत्सवों के अवसर पर अभिनीत होते थे, उन्हें ‘यात्रा’ के नाम से अभिहित किया गया। रामनवमी यात्रा, दोल यात्रा, चन्दन यात्रा, दूर्गापूजा आदि के अवसर पर आज भी शोभायात्रा के साथ-साथ लोकनाट्य का प्रचलन है। 

यात्रा के रंगमंच को ”मुक्तांगन रंगमंच” कहा जाता था। १९वीं सदी के प्रथमार्द्ध तक कोलकत्ता शहर में आधुनिक रंगमंच तथा थियेटर का जन्म हुआ। वैसे बांग्ला रंगमंच का दौ सो साल से भी लंबा इतिहास रहा है। १७९५ में रूसी रंगकर्मी लिएबेफ ने दो अँग्रेज़ी नाटकों का बांग्ला में अनुवाद किया “छ्द्मवेश” तथा “प्रेमी श्रेष्ठ चिकित्सक” जो बांग्ला मंच मे २७ नवम्बर १७९५ को छ्द्मवेश खेला गया इसके पश्चात भवभूति के “उत्तररामचरित्‌” का मंचन प्रमथकुमार ठाकुर के ‘हिन्दु थियेटर’ में होता है। १८५४ को जोडासांको के प्यारी मोहन बसु के घर में “जूलियस सीजर” अभिनीत किया गया। १८५७ में रामजय बसाक के घर के सामने मंच बनाकर “कुलीनकुलसर्वस्व” नाटक का मंचन हुआ था। धनी बंगाली कालीप्रसन्न सिंह अपने घर में ही रंगमंच की प्रतिष्ठा करते थे। उसी समय बांग्ला नाटकों के मंचन के लिए स्थायी रंगशाला बनाने की ज़रूरत हुई और १८५८ में बेलगाछिया नाट्य शाला की प्रतिष्ठा हुई। इसी मंच पर अभिनय के लिए मधुसूदन दत्त के “शर्मिष्ठा” जैसे महान नाटक का मंचन ३ सितम्बर १८५९ को हुआ। उनके परामर्श से ही उनके नाटक “शर्मिष्ठा “ में स्त्री पात्र की भूमिका एक स्त्री ने निभाई। गिरीश चन्द्र घोष, अर्द्धेन्दु मुस्ताफि आदि विख्यात अभिनेताओं के प्रयास से ७ दिसम्बर १८७२ को नेशनल थियेटर की स्थापना की गई। दीनबन्धु मित्र के “नील दर्पण“ के मंचीयकरण से थियेटर का शुभारंभ हुआ। १८६५ में जोडासांको के विख्यात ठाकुर बाड़ी में जोडासांको नाट्य शाला की स्थापना हुई। जो धनिकों के घर में “सखेर नाट्यशाला” से थोड़ी भिन्न रही। इसमें जात्रा की रीतियों को बदलकर इसे विलायती थियेटर में ढालकर अभिनय करने की कोशिश की गई। बहु विवाह पर रामनारायण “नवनाटक” की रचना की, यह १८६६ में प्रकाशित हुआ। इस नाटक के लिए रामनारायण को चाँदी की थाली में २०० रु. पुरस्कार दिया गया जो उस समय में बहुत बड़ा पुरस्कार मान सकते हैं। इस मंच पर पेड़ों की टहनियों को काटकर जंगल का वातावरण बनाया गया था। 

सखेर नाट्यशाला में अभिनय के द्वारा नवशिक्षित बंगालियों का नाट्य बोध, रुचि-बोध का जन्म हुआ था। इन सबके बावजूद सखेर नाट्य शाला की कुछ कमियाँ भी थीं। धनवान लोगों के घर में सभी का प्रवेशाधिकार नहीं था। अतः मुक्त मन से सभी मनोरंजन कर सकें, ऐसे रंगालय की ओर झुकाव बढ़ा। नेशनल थियेटर के बाद बेंगाल थियेटर से बिनोदीनी नाम की अभिनेत्री का प्रवेश हुआ और जिनको यादगार अभिनय के लिए “साईनोरा”, ”फ़्लावर ऑफ़ द नेटिव थियेटर” जैसी उपाधियों से सम्मानित किया गया। १८८० में शरत्तचन्द्र घोष की म्रुत्यु के बाद इस थियेटर के कर्णधार बिहारीलाल बने और उनकी मृत्यु के पश्चात थियेटर बंद हो गया। तब तक एमारेल्ड, स्टार, क्लासिक, मिनार्वा जैसे थियेटरों ने पाँव जमा लिए थे। स्टार थियेटर से जुड़ी कुछ  मनोरंजक बातें शोधकर्ता ने इस पुस्तक में लिखी हैं। इस थियेटर के सर्वे-सर्वा गिरीशचन्द्र घोष ही थे और उनके लिखे “चैतन्य लीला” ने भक्ति की भाव-धारा बहा दी थी। इस नाटक में निमाई की भूमिका में बिनोदिनी तथा नीताई की भूमिका में वनविहारिणी ने नृत्य, गीत, तथा अभिनय के माध्यम से धूम मचा दी थी। विडन स्ट्रीट के स्टार थिएटर में श्री रामकृष्ण परमहंस गिरीश के तीन नाटक मंचन देखने गए थे और बिनोदीनी को आशीर्वाद दिया था। उसके साथ सीटी थियेटर, मिनार्वा, क्लासिक, अरोरा, कोहिनूर जैसे थियेटर के उद्भव, विकास और सफलता–असफलता की बातें बताई हैं। (१८५० से १९५०) में अर्द्धेन्दु मुस्ताफि और बांग्ला थियेटर का नाम एक दूसरे से जुड़ गया। शोधकर्ता ने रवीन्द्रनाथ थियेटर को तीन भागों में विभक्त किया है। नाट्य रचना का आरम्भ से प्रथम २१ वर्ष तक (१८८१ से १९०१) कोलकता के प्रथम पर्व के दो भाग (१) जोडासांको बाड़ी घर का थियेटर पर्व (२) संगीत समाज का थियेटर पर्व (३) तत्पश्चात १९०१ से १९१५ तक दूसरा शान्तिनिकेतन पर्व। रवीन्द्रनाथ ने स्वयं की रचना को अभिनय के माध्यम से “वाल्मिकी प्रतिभा” गीतिनाट्य को प्रस्त्तुत किया था। इसमें वाल्मिकी की भूमिका में रवीन्द्रनाथ एवम्‌ सरस्वती की भूमिका में  उनकी भाँजी प्रतिभादेवी ने अभिनय किया था। गीतिनाट्य के गीतों के संगीतकार तथा परिचालक वे स्वयं ही थे। ठाकुर बाड़ी के पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियों ने भी अभिनय करना आरंभ कर दिया। 

शिशिरकुमार भादुड़ी बांग्ला थियेटर से जुड़ा महत्वपूर्ण नाम है। रवीन्द्रनाथ ने उनको “नटराज” उपाधि से संबोधित किया था। शिशिरकुमार ने सर्व प्रथम दो दृश्यों के मध्य सुनियंत्रित सुर का प्रयोग करके अभिनय के रस को घनीभूत करने के लिए यंत्र संगीत की सहायता ली थी। रवीन्द्रनाथ ने उनके नाटकों में गीतों का संयोजन करने का अधिकार शिशिरकुमार को दिया था। 

रंगमहल थियेटर की १९३१ में स्थापना हुई। “श्री विष्णुप्रिया”, “चरित्रहीन” नाटक यादगार बने रहे। “आदर्श हिन्दु होटेल”, ”आलिबाबा”, ”अमरकंटक”, ”अश्लील” जैसे नाटक को प्रसिद्धि देने वाला यह मंच बांग्ला थियेटर के इतिहास में अविस्मरणीय है। विश्वरूपा थियेटर “साहेब बिबि गुलाम”, “सुवर्णलता” नाटक के लिए याद रहेगा। १९७० में रंगना थिएटर का उद्भव हुआ। जो अनेक प्रतिकूल समय को झेलते हुए आज भी मौजूद है। बंगाल के कुछ मंच भी महान हस्तियों के नाम से वर्तमान में स्थित हैं जैसे दीनबंधु मंच, नजरूल मंच, नजरूल सदन, रवीन्द्र भवन, शरतमंच, शरतसदन, सत्यजीत मंच आदि। 

इस पुस्तक में प्रसिद्ध नाटक, प्रसिद्ध थियेटर, प्रसिद्ध नाट्य व्यक्तित्व की बातें पाई जाती हैं। पाँचवें और अंतिम प्रकरण में कुल तैंतीस विख्यात नाट्य व्यक्तिव्यों का ज़िक्र है जिनमें मनोमोहन बसु, अहिन्दु चौधरी, शम्भुमित्र, तूप्ति मित्र, उत्तम कुमार, उत्पल दत्त, बिनोदिनी, मनोज मित्र, बादल सरकार आदि का परिचय मिलता है। 

इस पुस्तक में दो सौ साल से भी अधिक समय का नाटक का विकास और पतन की कथा का ब्यौरा है। बंगाली रंगमंच भारत देश और बंगाल प्रांत की आंतरिक समस्या और मनोरंजन दोनों को अभिव्यक्त करने का प्रमुख माध्यम बन गया था। सांप्रत स्थिति का सारा चित्र रंगमंच से ज़्यादा पाया जाता था। सत्यजित रे ने नव यथार्थवादी विचार धारा से फ़िल्मों को नई दिशा दिखाकर अपनी प्रतिभा का परिचय पूरे विश्व को दिया। आज स्थिति बदल गई है, समूह माध्यम के मंच बदल गए फिर भी बंगाली दर्शकों से हम उम्मीद करते हैं कि वह नूतन प्रयोगों के बीच अपनी परंपरा को बनाए रखें। आज भले हम टीवी, ओटीटी पर वही कहानियों को नये तरीक़े से देखते हैं पर उसमें बंगाल की मूल संस्कृति पाना संभव नहीं जो प्रसिद्ध बंगाली साहित्य के माध्यम से पाई जाती थी। शोधकर्ता से भी हम निवेदन करते हैं कि बदलते समय का भाषाकर्म, मंचन, गीत संगीत का समसामयिक अवलोकन भी विस्तार से बताएँ और शोध पुस्तक को सचित्र बनाकर पुस्तक की नूतनता बढ़ाएँ। इतिहास की खोज वैसे भी चुनौतीपूर्ण है। पूरा एक अध्याय बन पाये इतने तो सिर्फ़ पौराणिक चरित्र हैं। गुजराती साहित्य में बुद्धदेव बसु का पौराणिक नाटक “तपस्वी और तरंगिणी” का गुजराती अनुवाद श्री भोलाभाई पटेल द्वारा प्राप्त होता है। जो गुजराती साहित्य में चर्चित रहा है। इस शोध में बुद्धदेव बसु का उल्लेख क्यूँ नहीं हुआ यह प्रश्न सहज रूप से उठता है। 

इस ग्रन्थ में महत्वपूर्ण सामग्री का संचय दिया है। वैसे इतिहास का शोध तथ्यों पर आधारित होता है पर यहाँ शोधकर्ता का अपना दृष्टिकोण भी शामिल है। इसलिए इतिहास सिर्फ़ माहिती और चयन न बनकर नूतन मूल्यांकन बन जाता है। मध्यकाल शोधकर्ता को ज़्यादा आकर्षित करता है जब कि आधुनिक बोध की अभिव्यक्ति में थोड़ा संयत स्वर पाया जाता है। समकालीन समाज के मार्गदर्शन के लिए भी इतिहास का गुण दोष दोनों दिखाना अनिवार्य हो जाता है। यहाँ पर शोधकर्ता का प्रांतीय भाव, विशेष रूप से नजर आता है इसलिए यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल हो जाता है कि उनको परंपरा प्रिय है या नाटक में नूतन आविष्कर की स्वीकृति? शोध की भाषा कोमल और परिमार्जित है। शोधकर्ता अपने विचार और प्रस्तुति में स्पष्ट है। कहीं कहीं पर समय और विषय को स्पष्ट करने के लिए पुनरूक्ति योग्य न लगने पर भी अनिवार्य हुई है। पुस्तक का उद्देश्य नाटक और रंगमंच की उत्पत्ति और विकास को दर्शाना है जो यहाँ बिलकुल सिद्ध होता है। यह पुस्तक अध्ययन के लिए, भविष्य के शोधकर्ताओं के लिए और नाट्यप्रेमी वाचक वर्ग के लिए सहयोगी सिद्ध हो सकती है। 

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