बोहनी
कथा साहित्य | कहानी मिर्ज़ा हफ़ीज़7 Sep 2016
बिट्टू ने ऑटो निकाला और सड़क पर आकर सवारी का इंतेज़ार करने लगा। आज ढंग की बोहनी हो जाये; वह मन ही मन भगवान से मनाने लगा। किसी अच्छी माल से बोहनी हो जाये तो आज का दिन टनाटन गुज़रे–वह सोचने लगा।
“यह नहीं, यह नहीं . . . बूढ़ा है, किच-किच करेगा, बोहनी बिगाड़ देगा,” एक बूढ़े को सड़क की दूसरी ओर से आते देख वह बड़बड़ाया और अपने ऑटो को पीछे रिवर्स में डालकर पीछे ले गया। धीरे-धीरे वह बूढ़ा सड़क पार कर अपनी राह चला गया। तभी उसी तरफ़ से दो लड़कियाँ आती दिखाई दीं। तुरंत ऑटो को आगे ले जा कर बोला, “बैठिये मेडम . . . कहाँ जाना है . . .?” लेकिन वे कतरा कर आगे निकल गईं।
“धत् . . . बोहनी ही ख़राब हो गई,” कहकर उसने ज़मीन पर थूक दिया।
इंजन बंद कर वह सवारी का इंतेज़ार करने लगा।
“चल पावरहाऊस चौक चल,” सुनकर वह चौंका। पलटकर देखा, ट्रैफ़िक पुलिस का सिपाही उसके ऑटो में आ बैठा था।
“हो गई बोहनी . . .” उसने कड़वा सा मुँह बनाया।
“चल जल्दी कर ड्यूटी के लिये देर हो रही है,” सिपाही ने कहा।
“बोहनी नहीं हुई है साहब,” बिट्टू बोला।
“कोई बात नहीं रास्ते में सवारी बैठा लेना। बोहनी हो जायेगी।”
“नहीं साहब! बोहनी करनी पड़ेगी।”
“अबे चल! नख़रे मत दिखा।”
मजबूरी में उसे जाना पड़ा। इस धन्धे में ट्रैफ़िक वालों को नाराज़ नहीं कर सकते। पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर नहीं लिया जा सकता।
चौक पर पहुँचकर सिपाही ने ऑटो रुकवा दिया। ”चलो अभी कोई नहीं पहुँचा है। मैं टाइम पर पहुँच गया।” सोचते हुए उसने चैन की साँस ली।
“साहब बोहनी . . .” बिट्टू ने टोका।
“अबे मेरी बोहनी तो नहीं हुई है।”
“मैं नहीं जानता साहब! बोहनी तो करना पड़ेगी,” बिट्टू अड़ गया।
“पेपर दिखा . . .” सिपाही ने नहले पे दहला मारा।
“क्या बोल रहे साहब? मैंं तो आपको लेकर आया हूँ . . .”
“चल चल टाइम ख़राब मत कर, पेपर निकाल। आर सी, लाईसेन्स, इन्श्योरेन्स। चल जल्दी कर। और अपने ऑटो को किनारे लगा।”
“अरे नहीं देना तो मत दो न साहब . . .!”
“किनारे . . . किनारे लगा। चल टाइम ख़राब मत कर।”
“अच्छा रहने दो साहब। मत दो। जाने दो।”
“अबे कैसे जाने दूँ . . .? मेरी बोहनी कर,” सिपाही बोला।
“जाने दो न साहब। ग़लती हो गई, माफ़ कर दो,” अब बिट्टू रक्षात्मक रणनीति अपना ली।
“अच्छा चल दो सौ रुपये निकाल,” सिपाही मुद्दे पे आ गया।
“बोहनी नहीं हुई है साहब। कहाँ से दूँ,” बिट्टू गिड़गिड़ाया।
“चल सौ रुपये निकाल। जल्दी कर और लोग आ गये तो बुरा फँसेगा।”
“कहाँ से दूँ साहब। . . . नहीं है।”
“जेब दिखा . . .?”
“बीस रुपये रखे थे . . . चाय पानी के लिये।”
“ला दे। देख सौ में से अस्सी बचे? तेरा भाड़ा अस्सी रुपये दे रहा हूँ। तू भी क्या याद रखेगा किसी दिलदार से पाला पड़ा था,” सिपाही ने समझाते हुए कहा, “देख तेरी भी बोहनी हो गई मेरी भी बोहनी हो गई। जा ऐश कर।”
दोनों की बोहनी हो गई।
दोनों अपने अपने काम पर लग गये।
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