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जगत जानता है

एक गाँव में एक था जगतराम; लोग उसे जगत नाम से ही बुलाते। उम्र साठ-पैंसठ के आस-पास। वह लोगों की तरफ़ से उदासीन था, लोग उसकी तरफ़ से। गाँव के छोटे बच्चों को भी उसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी; क्योंकि उसमें कोई मज़ेदार बात भी नहीं थी। बस वह गाँव का एक अनुपयोगी बूढ़ा ही था। लेकिन जैसे कि अक़्सर होता है, एक उदासीन और निरुद्देश्य बुज़ुर्ग के अतीत में एक चमकदार काल-खण्ड जुड़ा होता है। जगतराम के अतीत के साथ भी एक चमकदार अध्याय जुड़ा हुआ था; जिसके बारे में सिर्फ़ पुराने लोग ही जानते थे। 

यह बात उन दिनों की थी, जब मोबाइल, इन्टरनेट की कल्पना भी न थी। टीवी भी एक दुर्लभ वस्तु ही थी। समय के इस काल खण्ड में जगत गाँव के एक सूचना विशेषज्ञ दर्जा रखता था। गाँव और आस-पास की कोई घटना उसकी पैनी नज़रों से छिपी नहीं रह सकती थी। और घटना का वर्णन करने में ऐसी महारत थी मानो तीनों काल भूत वर्तमान और भविष्य से वह अवगत है। जब वह किसी घटना का वर्णन करता तो घटना का करण, घटना का स्वरूप और घटना के परिणाम तक पर धाराप्रवाह बोलता चला जाता। गाँव की बैठक बाज़ी के हर अड्डे, चाय की हर दुकान और पान के हर ठेले पर जगत का हमेशा इन्तेज़ार रहता। जब भी लोग जगत को अपने बीच पाते तो हमेशा उतावले हो जाते कि आज कौन सी नई ख़बर सुनने को मिलेगी। अगर कोई ख़बर दूसरे स्रोत से पता चलती तो गाँव वाले उस ख़बर की प्रमाणिकता के लिये जगत का रास्ता देखते। 

जब लोग आपस में एक दूसरे से पूछते, “जाने का होय है कालि . . .?” 

तो दूसरा यही कहता, “जगत ल आन दे उही बताहि . . .” या यों कहता, “जगत सही सही बताही। जगत जानथे।”

एक बार गाँव में बलवा हो गया। गाँव वाले दो गुटों में बँट गये। आपस में ख़ूब मारा-मारी हुई। और इस बलवे में एक जान भी चली गई। जिसका इल्ज़ाम गाँव के गौठिया के पुत्र पर था। और इस घटना में पुलिस को गवाह की ज़रूरत थी; सो स्वाभाविक रूप से जगत को ही गवाह बनना था। जगतराम को पूरा आत्मविश्वास था कि उसकी गवाही पर ही गुनहगारों को सज़ा होगी। कौन है जो उनकी गवाही पर यक़ीन न करे। लेकिन यह आत्मविश्वास गवाही के बाद वकील की जिरह के साथ ही टूटने लगा। 

विपक्ष का वकील पुराना घुटा हुआ क्रिमनल-लॉयर था। उसने अपने लम्बे कैरियर में ऐसे गवाह देखे हुए थे। जब जगत ने बयान शुरू किया तो वकील ने सबसे पहले तो उसे टोकना चालू किया। जब जगत धाराप्रवाह बोलने लगता तो वकील तुरन्त एतराज़ उठाता कि गवाह मुद्दे से भटक रहा है; और बात सही भी थी, वह अपनी ही शैली में बोलता चला जाता। अदालत को उसकी दास्तानगोई की प्रतिभा से क्या लेना-देना? अदालत को तो कम से कम समय में सीधे सपाट शब्दों में सिर्फ़ गवाह ने जो देखा वही जानना था। सो न्यायधीश महोदय तुरन्त वकील के एतराज़ पर सहमति जताते हुए जगत को सिर्फ़ मुद्दे की बात करने का आदेश देते। इससे उसकी लय टूट जाती। धीरे-धीरे वह परेशान होने लगा . . . और यह सब इतनी बार दुहराया गया कि जगत अपना आत्मविश्वास ही खो बैठा। उसे अब समझ ही नहीं आ रहा था कि उसे कहना क्या है। और जब विपक्षी वकील ने उससे जिरह शुरू की तो उसके बयान की ऐसी धज्जियाँ उड़ाईं कि जगत को ख़ुद अपने सच होने पर सन्देह होने लगा। 

आख़िर वकील ने उसे बड़बोला और झूठा साबित कर ही दिया। उसके बयान की इतनी खिल्ली उड़ाई गयी कि वह पानी-पानी हो गया। 

उस दिन जगत ने क़सम खा ली कि-वह अब कभी कोई गवाही नहीं देगा, कोई बयान नहीं देगा और जब तक बहुत ज़रूरी न हो बिल्कुल नहीं बोलेगा। इस तरह गाँव का एक न्यूज़ चैनल ख़ामोश हो गया। अब वह बिल्कुल ख़ामोश रहता, और किसी के कुछ पूछने पर कह देता–“मैं नई जानव।”

धीरे-धीरे वह अकेला होता चला गया। समय के साथ उसकी ख्याति खोती चली गई और धीरे-धीरे गाँव ने उसके सांस्कृतिक योगदान को भुला दिया। 

त्योहार का मौसम था। धान की कटाई भी शुरू हो चुकी थी। अच्छी फ़सल हुई थी। सबके चेहरों पर रौनक़ थी। अच्छे दिनों की आशा हर तरफ़ नज़र आ रही थी। उमंग और उत्साह का माहौल था। गाँव के कलाकार हर वर्ष होने वाली रामलीला की तय्यारी में लगे थे। गाँव के आमोद-भवन में रिहर्सल चल रही थी। वही उमंग और उत्साह यहाँ भी नज़र आ रहा था। गाँव ने सर्वसम्मति से कलाकारों के अनुरोध को स्वीकार कर शहर से जाने-माने निर्देशक को निर्देशन के लिये बुलाया था। 

तो गाँव के आमोद-भवन में रामलीला की रिहर्सल चल रही थी। अतिथि निर्देशक निर्देशन में व्यस्त थे। दोपहर का समय था। आमोद-भवन की खिड़कियों से झाँक कर लोग रिहर्सल देख रहे थे। 

खिड़की पर जमा लोगों में उन बच्चों की तदाद ज़्यादा थी जो सुबह की पाली में स्कूल जाकर आ चुके थे, और इधर-उधर निठल्ले घूम रहे थे। हाँ! इस भीड़ में कुछ बड़े भी थे, और बुज़ुर्ग भी जिन्हें दोपहर के भोजन के बाद ऊँघने के सिवाय कोई काम न था। इन बुज़ुर्गों में जगत राम भी मौजूद थे। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था जब तक रावण बने कलाकार ने पैर पटक और हाथ लहराकर यह संवाद नहीं कहा, “मैं लंकापति रावण . . ., मेरा यश जगत जानता है।”

अचानक बाहर से दहाड़ती हुई एक आवाज़ ने सब को स्तब्ध कर दिया, “मैं काय नई जानव रे . . .!!” सब ने देखा अब तक खिड़की पर शांत खड़े जगत ने चीखना शुरू कर दिया, “मैं काय नई जानव रे . . ., मैं काय नई जानव सारे हो, मैं काकरो जस फस ल नई जानव रे . . . “

रामलीला के कलाकार घबरा गए। 
“ए बबाल का होगे . . .?” वे आपस में पूछने लगे। 

बाहर खिड़की पर जमा भीड़ ने उसे सँभाला। सभी हैरान थे। एक अपेक्षाकृत शांत रहने वाला बूढ़ा अचानक इतना रौद्र कैसे हो गया? वह चीखता रहा, “मैं कुच्छो नई जानव रे लबरा मन हो . . . मोर नाव नई लेओ रे, मैं नई जानव . . .।”

लोगों ने समझा-मनाकर उसे वहाँ से हटा दिया। वह बकता-झकता वहाँ से चला गया; और इस तरह वह मामला टल गया। इसके बाद निर्देशक सहब ने खिड़की और दरवाज़े बन्द करवा दिये कि, फिर कोई बखेड़ा न खड़ा हो। इसके बाद रामलीला की रिहर्सल बन्द कमरे में होती रही। 

फिर रामलीला भी शुरू हुई। अयोध्या कांड, वनवास और भरत-मिलाप आदि का दर्शकों ने ख़ूब रस लिया; फिर रावण का भी आगमन हुआ। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था कि जैसे ही रावण ने पैर पटक कर हाथ को उठाकर लहराते हुए घोषणा की, “मैं लंकापति रावण . . . मेरा यश जगत जानता है . . .” बस जैसे भूचाल आ गया। जगत राम ने आसमान सिर पर ही उठा लिया। वह चीखता चिल्लाता मंच पर जा चढ़ा।”मैं कहे रहेंव मैं काला नई जानव! घड़ी घड़ी मोर नाम लेथस . . . ” और इसके बाद वह लाठी ले कर रावण के पीछे दौड़ पड़ा। अब मंच पर अलग ही दृष्य था। बड़ी-बड़ी मूछों वाला लहीम-शहीम रावण आगे-आगे और चीखता-चिल्लता बूढ़ा जगत पीछे-पीछे। बड़ी मुश्किल से जगत को पकड़ कर समझाया जाने लगा कि ये तोर नांव नई लेथे . . . ये रावण आय . . . ये अपन डायलाग बोलत हे . . .। लेकिन उसे समझना नहीं था, वह नहीं समझा। वह चिल्लाता रहा ‘मैं नई पतियांव रावन फ़ावन ल। मैं काकरो से डर्रांव नई। मोर नांम ल बदनाम करत हो तुह मन . . . मेहा बोले रेहंव मैं काकरो जस फ़स ल जानव नहीं . . . ’

आख़िर उस दिन रामलीला का कार्यक्रम आगे नहीं बढ़ सका। और उस दिन का बाक़ी कार्यक्रम दूसरे दिन के लिये स्थगित करना पड़ा। लेकिन इस वाक़ये के बाद से गाँव के बच्चों और निठल्ले लोगों को एक मुफ़्त का मनोरन्जन मिल गया। अब जहाँ जगत जाता कोई न कोई सामने आकर रावण के अन्दाज़ में डायलाग मारता–“मेरा यश जगत जानता है . . . ” और फिर जगत राम गालियाँ बकता लाठी लेकर पीछे दौड़ता, सब हँसते हुए भागते और छिप जाते। फिर कोई कहीं से निकल कर कहता–“मेरा यश जगत जानता है . . . ।” फिर उसने पत्थर फेंक कर मारना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे वह पूरी तरह विक्षिप्त हो गया। अब वह गलियों में भटकता फिरता और बच्चे उसके पीछे-पीछे। वे चिल्लते, “मेरा यश जगत जानता है . . . ” और वह पत्थर फेंक कर मारता। फिर बच्चों ने भी उसके पत्थर के जवाब में पत्थर मारना शुरू कर दिया। अब वह अक़्सर लहू-लुहान मिलता। बच्चों के माँ-बाप बच्चों को रोकते लेकिन बच्चे चोरी-छिपे उसे सताने से बाज़ नहीं आते। 

एक दिन पास के गाँव के एक किसान ने सूचना दी कि जगत उसके खेत की मेड़ के पास लहूलुहान हालत में पड़ा है। जब तक गाँव वाले वहाँ पहुँचते वह मर चुका था। 

अगले साल रामलीला की तैयारी के लिये गाँव में बैठक हुई। किसी ने एक प्रस्ताव रखा जिसे सर्वसम्मति से मान लिया गया कि गाँव की रामलीला में वह संवाद नहीं रहेगा, “मेरा यश जगत जानता है . . . ।” 

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