बूढ़ी दादी
कथा साहित्य | कहानी अखिलेश मिश्रा11 May 2014
“मैं तो दूध, घी को कभी अपने मुँह के पास भी नहीं लाती! नाम के लिए यह मेरे पास रहता है। यदि किसी को शंका हो, तो मालिकाना अपने पास रख ले,” बूढ़ी दादी ने अपनी बहुओं से कहा।
“मैं मालकिन होती तो खुद भी खाती और अपने बहुओं को भी खिलाती। ऐसा क्या मालिकाना कि जीभ तरसती रहे और हांथ देने में लगे रहें,” मझिली ने व्यंग्य के साथ कहा।
“खबरदार! ...........आगे कुछ कहा तो! जीभ तरसे मेरे दुश्मन की! मेरी तो कभी इच्छा ही नहीं होती है।”
“आपकी इच्छा नहीं होती पर हम लोगों की इच्छा तो होती है कि दूध, दही और घी की सुगंध कभी-कभी नाक में चली जाए।”
“मेरे जीते जी तुम्हारी नाक सुगंध को तरसती ही रहेगी।”
यह कहकर बूढ़ी दादी आँगन से उठकर अपने कमरे में चली गईं। वह गुस्से के साथ जब चलती हैं, तब उनके हाथ और पैर के चाँदी के बंहुटे खनखनाने लगते हैं।
दूध, घी का मालिकाना बूढ़ी दादी के ही पास है। वह बड़े जतन से इसका बटवारा किया करती हैं।
बटवारे में सबसे पहले घर के बच्चे, फिर पुरुष और अंत में स्त्रियों का नंबर आता है। बूढ़ी दादी का ऐसा मानना है कि घर की लक्ष्मी का यह कर्तव्य है कि वह पहले घर के सब सदस्यों को खिलाए और फिर अंत में खुद खाए।
उन्होंने अपने जीवन में सिर्फ त्याग किया है और यही वह अपने बहुओं से उम्मीद करती हैं। उनके त्याग का ही परिणाम है कि आज गेंदलाल के पास चालीस एकड़ ज़मीन है। जब बूढ़ी दादी अपने ससुराल आई थी, उस समय गेंदलाल के पास सिर्फ दस एकड़ ज़मीन थी। यह उन्हें अपने पिता से हिस्सा बटवारा में मिली थी। गेंदलाल के चार बच्चे हुए अतः उन्होंने भविष्य को ध्यान में रखकर जहाँ भी मौका मिला, ज़मीन को खरीदा। वह बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे पर बुद्धिमानी में किसी एम. ए. पास से कम नहीं हैं। चार बच्चों को खाने के लिए अन्न की ज़रूरत पड़ेगी, इसीलिए ज़मीन को खरीद लिया।
बूढ़ी दादी ने एक-एक पैसे को जोड़ा है, तभी गेंदलाल ज़मीन खरीद पाए हैं। उन्होंने कभी अपने लिए पैसे, गहने और कपड़े कि माँग नहीं की। गेंदलाल जो खरीद देते थे, वही पहन लेती थी। गहना तो वह मायके से ही लाई थी.......गले में बँधी सोने की अध्धियाँ, हांथ और पैर के चांदी के बंहुटे, एक्कीस तोले चाँदी की करधनी और अन्य बहुत से गहने। गेंदलाल से उन्होंने न तो कभी कोई माँग की और न ही गेंदलाल ने अपने से खरीदने कि कोई पहल की।
बच्चे बड़े हुए तो घर में बहुएँ आईं। पुराने ख़यालातों के होने के कारण बूढ़ी दादी का प्यार जताने का तरीका थोड़ा अलग है। उनके मन में लड़कों व पुरुषों के प्रति ज़्यादा सहानुभूति है क्योंकि वह बाहर खेत में मेहनत का काम करते हैं। बाहर के काम को वह ज़्यादा तबज्जो देती हैं। इनमें भी जिसे वह ज़्यादा प्यार करती हैं, उसे थोड़ा ज़्यादा दूध और घी दे दिया करती हैं। बात भी सही ही है, इंसान सबको बराबर प्यार कर नहीं सकता इसीलिए प्यार जताने में भी कमी-ज़्यादा कि भावना किसी न किसी रूप में दिख ही जाती है।
“सारी कमाई मेरे नाखून की है। एक-एक पैसा जोड़कर संपत्ति बनाई है।” जब उन्हें आदर सम्मान की कुछ कमी महसूस होती तब वह अक्सर अपने बहुओं से कहती।
इंसान को जो चीज़ आराम से मिल जाती है, वह उसकी कीमत नहीं समझता है। इसीलिए कहा भी जाता है कि बाप की कमाई घूरे के बराबर होती है। बहुओं को गेंदलाल और बूढ़ी दादी द्वारा ज़मीन खरीदने के लिए की गई अटूट मेहनत और त्याग का अहसास नहीं है।
दान देने में भी बूढ़ी दादी का कोई जवाब नहीं है। पूरा गाँव छाछ लेने के लिए बूढ़ी दादी के पास ही आता है। वह जब से ससुराल आईं थी, कुछ गाय व भैंस दूध देती ही रहती हैं। उनकी सास उन्हें लक्ष्मी कहती थीं। उनके हाथ से बनाए घी में बड़े-बड़े दाने पड़ते हैं और सुगंध ऐसी होती है कि घी बनाते समय सारे गाँव को पता चल जाता है कि गेंदलाल के यहाँ घी बन रहा है। गाँव के किसी भी घर में भगवान को चढ़ने वाली पूड़ीयाँ बूढ़ी दादी के द्वारा बनाए हुए घी से ही बनाई जाती थीं और आज भी बनाई जाती हैं।
गाँव की ही नकनहीबा दादी के नातिन की शादी है। उसको हवन में चढ़ाने के लिए शुद्ध घी चाहिए। उसे पता है कि शुद्ध घी मालकिन के हाथ से ही बन सकता है।
“मालकिन! नातिन की शादी में द्वार-पूजा में हवन के लिए शुद्ध घी चाहिए।”
“शुद्ध घी घर में नहीं है। पूरा गाँव मुझसे ही छाछ, घी इत्यादि माँगता है, जैसे और किसी के यहाँ छाछ घी वगैरह है ही नहीं?”
यह बड़बड़ाते हुए बूढ़ी दादी घर के अंदर गईं और आधा किलो घी लाकर, नकनहीबा दादी के हाथ में रख दिया। नकनहीबा को पता है कि मालकिन से कुछ माँगने पर वह न मिले, ऐसा कभी हो ही नहीं सकता है।
उसे अपनी बेटी की शादी का दिन याद था, जब उसके घर में अरहर की दाल नहीं थी। शादी ब्याह में अरहर की दाल न बने, तो यह गरीबी की निशानी हुआ करती है। नकनहीबा दादी अंदर ही अंदर बहुत परेशान थी। कहीं से यह बात बूढ़ी दादी को पता चली तो उन्होंने पचास किलो अरहर की दाल नकनहीबा के घर भिजवा दिया। उसको यह भी कह दिया कि इसे लौटाने की आवश्यकता नहीं है। वैसे नकनहीबा की इतनी हैसियत भी नहीं थी कि वह कभी इसको लौटा पाती।
नकनहीबा दादी और बूढ़ी दादी एक ही दिन अपने-अपने ससुराल आईं थी। उनमें इस बात को लेकर एक अलग जुड़ाव है। इंसान कहीं न कहीं, किसी न किसी बात के साथ सबसे जुड़ा रहता है। वैसे जिनसे कोई संबंध नहीं रहता है, उनके साथ भी बूढ़ी दादी स्नेहवत व्यवहार किया करती हैं। बहुओं से उनकी नहीं बन पाती है क्योंकि बहुएँ उनके स्वभाव को ठीक से समझ नहीं पाई हैं। समस्या दोनों ही तरफ से है। बूढ़ी दादी भी अपने को समय के साथ बदल नहीं पायीं हैं। बहुएँ उनसे अपने माँ के प्यार की उम्मीद करती हैं और बूढ़ी दादी हृदय से तो साफ़ हैं पर मुँह से कठोर।
बूढ़ी दादी के चिड़चिड़े स्वभाव से उनके लड़के भी नाराज़ हो जाते हैं। कभी-कभी अपने ही बच्चों से उन्हें कठोर व्यवहार झेलना पड़ता है। मनुष्य का स्वभाव नहीं बदलता है। लगातार संघर्ष करते-करते वह तनाव की वज़ह से कुछ चिड़चिड़ा हो जाता है। जो इंसान सबकी ज़िम्मेदारी अपने सिर में लेता है, वह ज़्यादा तनाव महसूस करता है। अक्सर देखा गया है कि जिसका मन और हृदय साफ़ होता है, उसकी वाणी में कुछ असंयम आ ही जाता है। अपने बेटों और बहुओं की कड़ी बात उन्हें बहुत पीड़ा देती है। उनका सारा जीवन इन्हीं की भलाई के लिए समर्पित है। अपने जीवन की इस संध्या बेला तक वह काम में ही लगी रहती हैं।
उनके जीवन के आखिरी कुछ महीने कष्ट में बीत रहे हैं। सभी बहुएँ यथोचित सेवा करती हैं। सभी बहुएँ उम्र के साथ उनके त्याग को कुछ-कुछ समझने लगी हैं।
बूढ़ी दादी की इच्छा थी कि उनके प्राण, गेंदलाल के सामने ही छूटे और हुआ भी ऐसे ही। एक दिन बूढ़ी दादी ऐसे सोईं कि उठी ही नहीं! भारत की नारियाँ अपने पति के सामने प्राण छोड़ना, अपना सौभाग्य समझती हैं।
बूढ़ी दादी के जाने के बाद, घर का मालिकाना बड़ी बहू के हांथ में आ गया है। वह भी अपनी सास की तरह कर्तव्य का निर्वहन करने लगी हैं। अब उनकी देवरानियों को दूध घी की मात्रा ज़्यादा मिलने लगी है। पर गाँव के दूसरे लोगों को मिलनेवाली मात्रा में बहुत ज़्यादा कटौती हो गई है। नकनहीबा दादी ने तो अब घर आना ही छोड़ दिया है। घर आने से उसे मालकिन की याद आती है और उसको पता है कि छाछ, घी अब नहीं मिलेगा।
“मालकिन के जाने के बाद, अब किसी से कुछ माँगने की इच्छा ही नहीं होती है,” नकनहीबा ने गेंदलाल से कहा।
“उसका खजाना कभी खाली नहीं रहता था। बड़बड़ाते हुए किलोभर छाछ दे देती थी।”
“मालिक! भगवान हमको भी मालकिन के साथ ही उठा लेता तो अच्छा रहता। साथ में आए थे, साथ ही चले जाते,” यह कहते हुए नकनहीबा की आँखें गीली हो गईं।
“जीवन मरण तो भगवान के हाथ है,” गेंदलाल ने कुछ सोचते हुए दुखी मन से कहा।
बूढ़ी दादी अपने चिड़चिड़े स्वभाव के बावजूद बहुत लोकप्रिय थीं। गाँव में शादी ब्याह में उनके आने के लिए अलग से निवेदन किया जाता था। उनके जाने के बाद गाँव खाली हो गया है।
गेंदलाल भी अब बहुत अकेला महसूस करते हैं। उन्होंने दूध, घी का सेवन बंद कर दिया है।
बूढ़ी दादी की पुण्यतिथि से एक दिन पहले गेंदलाल को अचानक घी खाने की इच्छा हुई। यह शायद बूढ़ी दादी की याद के कारण हुआ है क्योंकि उन्हें पुण्यतिथि का ध्यान नहीं था।
“बड़की, आज दानेवाला घी देना,“ गेंदलाल ने कहा।
“जी!”
बड़की ने एक कटोरी भरकर घी दिया।
गेंदलाल को घी में दाने नजर नहीं आ रहे हैं। घी कुछ पतला है। गेंदलाल को अचानक महसूस हुआ कि बुढ़िया को मरे हुए एक साल हो गया है।
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