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शराब

पति की मृत्यु बड़की बइया के लिए एक बहुत बड़ा आघात था, पर उन्होंने अपने दो जवान बेटों को देखकर इस सदमें से किसी तरह खुद को उबार लिया। बेटे भी बड़े आज्ञाकारी और बिना किसी दुर्गुन के हैं। बड़े का नाम दुकौड़ी और छोटे का नाम पप्पू है। दोनों भाइयों का प्रेम पूरे इलाक़े के लिए एक उदाहरण की तरह है। लोग इन्हें हीरा-मोती जैसे रत्न की संज्ञा देते हैं।

“बड़ी भाग्यशाली है, बड़की भौजी!” सेमरा वाली काकी अक्सर सबसे कहती हैं।

सेमरा वाली...गाँव की सबसे बुजुर्ग महिला! बच्चे, जवान, बूढ़े सब उन्हें सेमरा वाली काकी ही कहते हैं। बड़की बइया रिश्ते में उनकी भौजाई लगती हैं।

दोनों बेटों की शादी बड़की बइया के पति ने अपने ज़िंदा रहते ही कर दी थी। दोनों की पत्नियाँ, बड़की बइया की खूब सेवा करती हैं। वैसे बड़की बइया का स्वभाव और स्वास्थ्य ऐसे हैं कि वह किसी से सेवा चाहती ही नहीं हैं, बल्कि उल्टा वह स्वयं सबका बहुत ख्याल रखती हैं।

 यह परिवार एक कस्बे से सुदूरवर्ती गाँव में रहता है। घर के चारों तरफ सुंदर खेत और हरे-भरे पेड़-पौधे हैं। गाँव के सभी परिवार एक घर की तरह रहते हैं। लोगों में एक दूसरे के प्रति अथाह प्रेम और समर्पण की भावना है। सब एक दूसरे की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। यदि किसी के घर में कढ़ी बनती है तो वह कम से कम पाँच-छह घर तक अपनी पहुँच बना ही लेती है। गुड़ के लड्डू जब सारे घरों में पहुँचते हैं तो पता लग जाता है कि किसी के घर में बच्चा हुआ है। अक्सर लोग एक–दूसरे के घर में खाना खाते रहते हैं, बिना बुलाए। यह गाँव बहुत बड़ा नहीं है और घर भी कुछ दूरी-दूरी में बने हुए हैं। गाँव के अंदर ही कई टोले हैं। बभनान टोला सबसे बड़ा है।

दुकौड़ी देखने में बहुत सुंदर और मिलनसार व्यक्तित्व के हैं। लंबा छरहरा शरीर, सुंदर बड़ी-बड़ी आँखे, श्यामल रंग, ऊँची चढ़ी मूँछे, किसी राजा-महाराजा से कम नहीं लगते। खेल कूद में उनकी बड़ी रुचि है। फुटबाल, बॉलीबाल, गढ़ागेंद, गिप्पी, गुल्लीडंडा में दुकौड़ी मास्टर हैं। बॉलीबाल में उनकी चली हुई चाल को कोई नहीं उठा पाता है। फुटबाल में उनका निशाना गोल पोस्ट के अंदर ही लगता है। मेड़उरे के लोग उन्हें पेले कहते हैं। गढ़ागेंद में उनकी मारी हुई गेंद यदि किसी को लग गई तो वह इंसान बर्रा जाता है मानो उसे किसी बर्रइया ने काट दिया हो। गुल्लीडंडा में वह सबको पदाते हैं। वह हैं तो बड़े मिलनसार स्वभाव के पर पदाने में वह किसी को नहीं छोड़ते। वह अपना दाम हर हालत में लेते हैं।

जवान हो जाने के बावजूद खेलकूद में दुकौड़ी की रुचि अभी भी बच्चों जैसी ही है। वह खेल के प्रति नियमित हैं।

पढ़ने लिखने में वह बचपन से ही होशियार नहीं थे पर शारीरिक फुर्ती की वज़ह से उनको पुलिस में नौकरी मिल गई है। पप्पू शांत और थोड़ा सुस्त है। वह पढ़ने में दुकौड़ी से भी कमज़ोर है अतः वह घर में ही रहकर खेती बारी का देखता है। वैसे भी घर में एक भाई का रहना ज़रूरी है।

दुकौड़ी को नौकरी जॉइन करने के लिए दूसरे शहर जाना है। वह कई दिनों पहले से रोना चालू कर दिए हैं। घर से निकलते समय वह ऐसे रो रहे हैं, जैसे कोई लड़की ससुराल के लिए पहली बार बिदा होते समय रोती है। वह कभी पप्पू को गले लगाते हैं तो कभी अम्माँ के पैर में लोट जाते हैं। वह सभी गाँव वालों से लिपट-लिपटकर रो रहे हैं। वह रोते-रोते गिर पड़ते हैं। किसी तरह से समझा-बुझाकर उनको बस में बैठाया गया है। वह बस की खिड़की से पीछे मुड़-मुड़कर तब तक देख रहे हैं जब तक कि उनके गाँव-घर वाले उन्हें दिख रहे हैं। अभी भी उनका रोना बंद नहीं हो रहा है । उनके बगल में बैठे एक बच्चे ने, जो बचपन से अपने माँ बाप से अलग हॉस्टल में रहता है, जब उनको समझाया व ढाढ़स बधाया तब वह चुप हुए हैं। यद्यपि उन्होंने अपनी कनखी के नीचे से उस बच्चे को देखकर, उसे मन ही मन दुष्ट और पैदाइसी निष्ठुर कहा है। उन्होंने मुँह से धीरे से कुछ बुदबुदाया भी है, जो कि संभवतः गाली है, पर किसी को कुछ सुनाई नहीं दिया है।

बच्चे के मन में दुकौड़ी के प्रति असीम करुणा है। उसे अपना वह समय याद आ रहा है, जब वह मात्र सात साल की उम्र में माँ-बाप से दूर रहने के लिए हॉस्टल जा रहा था।

नौकरी में जाने के बाद उन्हें घर की बहुत याद आती है। दफ्तर में बिताए समय के अलावा बाकी समय वह गुमसुम लेटे हुए अपने कमरे में व्यतीत करते हैं। दिन और रात में कई बार उनका रोना धोना चलता रहता है। वह पप्पू को नियमित पत्र लिखते हैं। ऐसा ही एक पत्र निम्न है।

मेरे पायरे पप्पू

खूब आगो बढ़ो!

मैं यहाँ ठीक हूँ और भागवन से तुम सब लोगों की भालाई के लिए परारथना करता हूँ। आश करता हूँ कि तुम साब लोग खूश होगे। मैं दिनरात तुम लोगो को ऐसे ही याद करता हूँ जैसे भकत भगावान को याद करता है। पप्पू तुम मेरे भाई नहीं बल्कि मेरा दाहिना हांथ हो। तुम्हारे वगैर मैं लूला हो जाऊँगा।

तुम चिन्त मत करना। जब तक मैं हूँ तुम्हें चिन्त की जरूरत भी नहीं है। माँ का ख़याल रखना। उसकी सेवा करना। कलायुग में माँ बाप कि सेवा भगावान की सेवा के बराबर है।

मैं तो यह सौभाग्य प्रापत नहीं कर सकता पर तुम भायाग्यशाली हो। गाँव घर के लोगों का ख़याल रखना। सबको मेरा प्रणाम कहना।

मेरी तरफ से माँ का तुम पैर छू लेना।

तुम्हारा भाई
दुकौड़े

यह पत्र पढ़कर पूरा गाँव मजा लेता है। सबको उनके पत्र का इंतजार रहता है मगर पूरे गाँव के लोग दुकौड़ी कि भावनाओं की तहेदिल से इज्जत भी करते हैं। आज के युग में ऐसा भाईप्रेम बहुत कम दिखता है। उनकी भाषा में पकड़ बचपन से ही कुछ कम है, लेकिन प्रेम के लिए भाषा नहीं बल्कि भावना चाहिए।

दुकौड़ी जितने सरल स्वभाव के हैं, उतने ही स्वाभिमानी और गुस्सैल भी हैं। अपने से बड़े अधिकारियों से उनकी नहीं पट पाती है। उनका विभाग ऐसा है कि वहाँ बोलने में भाषा में कुछ अशुद्धियाँ हो ही जाती हैं पर दुकौड़ी इस वर्ताव को स्वीकार नहीं कर पाते हैं। उनके साथ वाले जब उन्हें समझाते हैं तब वह कह पड़ते हैं,

“अरे!......अफसर हैं तो अपने लिए हैं। मुझे क्या दे देते हैं? कम से कम प्यार से बात कर सकते हैं पर वह भी नहीं करते हैं, जैसे मैं पशु हूँ। मैं नौकरी छोड़ सकता हूँ पर स्वाभिमान नहीं!”

किसी तरह समय बीत रहा है। दुकौड़ी साथ में काम करने वाले और इधर-उधर के कुछ अन्य लोगों से मिलना-जुलना चालू कर दिए हैं। उन्होंने कुछ मित्र भी बना लिए हैं। इन्हीं मित्रों के साथ अब वह खेलकूद की गतिविधियाँ चालू करना चाहते हैं। अपनी मित्रमंडली के नेता दुकौड़ी ही हैं।

इधर दुकौड़ी के घर गाँव के लोग उनको बहुत याद करते हैं। उनके बिना गाँव सूना हो गया है। खेलकूद और अन्य गतिविधियाँ बंद सी हो गईं हैं। उनके दोस्त यार अब समय व्यतीत करने के लिए या तो शहर घूमने जाते हैं, या घुमना की पान की दुकान में गप्पें हाँकते हैं।

दुकौड़ी कि अपने वरिष्ठों से अक्सर कहासुनी हो जाती है। एक दिन बात कुछ ज्यादा बिगड़ जाने से उनको अनुशासनहीनता के लिए बर्खास्त कर दिया गया। वह मन ही मन बहुत खुश हैं कि उन्हें घर जाने का मौका मिल रहा है और वह अब आराम से कुछ महीने गाँव में रहेंगे। उन्हें लग रहा है कि हो सकता है पूरी जिंदगी अब वह गाँव में ही रहें। वह बहुत खुश होकर गाँव लौट रहे हैं, मानो कोई युद्ध जीतकर आ रहे हों!

“अरे दुकौड़ी!...... अचानक बिना कोई खबर के आ गए?”

“क्यों...नहीं आ सकता क्या?” दुकौड़ी ठहाका लगाकर माँ से बोले।

“नहीं!.......मेरा मतलब यह नहीं है, .....मैं तो यह पूंछ रही थी कि सब कुशल तो है।”

“सब कुशल ही है, ....अफसर ने बदतमीजी की तो उसका शर्ट का कालर पकड़ लिया था पर तुम यह मत सोच लेना कि उसने भी ऐसा ही किया होगा। अभी कोई माई का लाल पैदा नहीं हुआ है जो तुम्हारे लाल से दादागीरी करे और फिर जिंदा बच जाए।”

“अरे!... यह तुमने क्या कर दिया बेटा?”

“क्यों?...क्या गलत कर दिया?.......हा!.........हा!...........हा!”

“ऐसा व्यवहार बड़े अफसरों से नहीं किया जाता।”

“तो क्या गाली खाता...घर में खाने के लिए अन्न नहीं बचा है क्या?” दुकौड़ी दुःखी होकर बोले।

“मेरा मतलब यह नहीं है। मैं तो यह कहना चाहती हूँ कि नौकरी में थोड़ा झुककर चलना पड़ता है, अपने से बड़े अधिकारियों की इज्जत करनी पड़ती है, झुकना पड़ता है।”

“झुकता तो हूँ हीं.....इज्जत भी करता हूँ पर लात नहीं खाऊँगा!”

“लात खाने को मैं बोलूँगी भी नहीं!”

“फिर मुझे दोष क्यों दे रही हो?”

“मैं दोष नहीं दे रही हूँ, बल्कि तुम्हें समझा रही हूँ। बाँकी तुम अब खुद समझदार हो!”

यह कहकर बड़की बइया चुप हो गईं। वह समझ रही हैं कि दुकौड़ी अभी थका हुआ है और उसे आराम की जरूरत है। समझाइस का उसके ऊपर अभी कोई असर नहीं पड़ने वाला। दुकौड़ी भी वहाँ से चले गए। वह पप्पू का इंतजार करने लगे। आखिर कई महीनों से भाई को उन्होंने देखा जो नहीं है।

पप्पू को देखते ही दुकौड़ी उछल पड़े हैं। पप्पू!...........पप्पू!.... कहकर वह उसकी तरफ भाग रहे हैं। वह भी भागकर भाई के गले से जा मिला है।

गले मिलते समय वह एक दूसरे को नाम से संबोधित कर रहे हैं .......पप्पू!........भैया.!...पप्पू.!...मेरे भाई! ...........भैया....!

मिलन के बाद दुकौड़ी ने अपनी शौर्यगाथा पप्पू को बताई लेकिन वह विशेष खुश नहीं हुआ। पप्पू को पता है कि घर चलाने के लिए पैसे की जरूरत पड़ती है।

पैसा!.....जीवन का कड़वा सत्य और जरूरत!.........सिर्फ भावनाओं से पेट नहीं भरता।

प्रेम की नीव जब वास्तविकता के धरातल पर पड़ी हो, तभी उस पर सच्चे लगाव की ऊँची दीवार बन सकती है।

दुकौड़ी गाँव में घूम-घूमकर सबसे बड़े प्यार से मिल रहे हैं। बड़े बुजुर्गों का पैर छूते हैं और छोटों से गले मिलते हैं। एक दूसरे का हालचाल जानने समझने के बाद, वह घूम-फिरकर अपनी विजयगाथा पर आ जाते हैं। पर गाँव के लोग उनकी इस गाथा को खुले मन से स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। बड़े बुजुर्ग और साथी उनकी हाँ में हाँ मिला तो देते हैं, लेकिन चेहरे के भाव से समझा जा सकता है कि वह दुकौड़ी से सहमत नहीं हैं। लोगों की इस प्रतिक्रिया से दुकौड़ी मन ही मन कुछ खिन्न हो रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि गाँव के लोग अब कुछ बदल से गए हैं।

इधर गाँव के बड़े बुजुर्ग अच्छे से जानते हैं कि आज कितने पढ़े लिखे लड़के सड़क में बेरोजगार घूम रहे हैं और किसी को नौकरी की दूर तक संभावनाएँ भी नजर नहीं आ रही है। दुकौड़ी भाग्यशाली हैं कि उनको बढ़िया नौकरी मिल गई पर वह इसकी कीमत नहीं जानते।

“बचपना कर रहे हैं, दुकौड़ी!” छकौड़ी काकू ने फ़ोकाली काकू से कहा।

“और क्या ......बचपना ही तो है,” फ़ोकाली काकू ने बीड़ी सुलगाते हुए मुँह सिकोड़कर बोले।
“आजकल के लड़कों में धीरज नाम की चीज ही नहीं है,” छकौड़ी काकू जम्हाई लेते हुए बोले।

दुकौड़ी किसी भी बात के तह तक नहीं पहुँच पाते क्योंकि वह हृदय से सोचते हैं, दिमाग से नहीं! दिमागी तौर पर उनको बहुत होशियार नहीं कहा जा सकता। गाँव घर के लोग भी ऐसा ही समझते हैं।

बड़की बइया ने गाँव घर के बड़े बुजुर्गों से निवेदन किया है कि वह दुकौड़ी को समझाएँ।

कुछ महीने गाँव में रहने के बाद, आखिर सबके समझाने के कारण दुकौड़ी ने अदालत में अपनी बर्खास्तगी के ख़िलाफ़ केस किया। वह भी महसूस करने लगे हैं कि नौकरी में बँधी-बँधाई तनख्वाह मिल जाती थी और उसी से कुछ पैसा वह घर भी भेज देते थे।

खेती से दो वक़्त की रोटी के अलावा कुछ नहीं मिलता। यह बात दुकौड़ी समझने लगे हैं।
यही बात उन्हें परोक्ष, अपरोक्ष रूप से अपने भाई और माँ से भी सुनने को मिल जाती है। दुकौड़ी बातों में छुपी भावनाएँ समझ जाते हैं, लेकिन कुछ देर के बाद। उनके घर में रहने के दौरान, माँ इतनी सोच विचार करते पहले कभी नहीं दिखी थी।

“आखिर माँ इतनी चिंतित क्यों नजर आती है?” दुकौड़ी ने अपने आप से पूंछा।

उत्तर भी उन्हें अपने आप से ही मिल गया।

दुकौड़ी कुछ संघर्ष के बाद केस जीत गए। उन्हें नई जगह पदस्थापना मिली है। बड़की बइया ने आज खुश होकर भजन सिन्धी के दुकान से मगज के लड्डू खरीदकर पूरे गाँव में बाँटे हैं।

इस बार घर से निकलते वक्त वह फफक-फफक कर रोए नहीं हैं पर आँसू जरूर निकले हैं। आँसू की बूँदे बड़ी-बड़ी हैं। सच्ची भावनाएँ छुप नहीं पाती हैं और बाहर किसी न किसी रूप से दिख ही जाती हैं।

दुकौड़ी बहुत मिलनसार और साफ़ हृदय के हैं, इसी वजह से वह कई बार गलत लोगों कि संगति में भी पड़ जाते हैं। बचपन में दद्दा ने कई बार उनको ऐसी संगत से बचाया था। पर अब दद्दा जिंदा नहीं हैं, उनकी मृत्यु कई साल पहले हो चुकी है। उनकी साँस अचानक टूट गई थी।

दुकौड़ी परिवार को गाँव में ही रखे हुए हैं अतः नौकरी वाली जगह में अकेले ही रहते हैं। वह रोज अपने दोस्तों के साथ क्वार्टर के कमरे में महफ़िल जमाते हैं। उनके एक दोस्त का नाम राजू है और वह कभी-कभी पी भी लेता है। वह चाहता है कि उसके अन्य दोस्त भी उसकी ही तरह भोलेबाबा के भक्त बन जाएँ। मित्रता समता चाहती है।

“दुकौड़ी तू भी जिंदगी का कुछ मजा ले ले!” राजू ने एक दिन कहा।

“मैं तो ऐसे ही मजा ले रहा हूँ।”

“तेरे जीवन में सब सूखा ही सूखा है। तू सिर्फ पैसे बचाने में ही लगा हुआ है।”

“अपने परिवार के लिए पैसे बचाने में क्या बुराई है?”

“अरे पैसे बचा पर कुछ अपने लिए भी तो खर्च कर! ले एक पैक पी ले...फिर देख कितना आनंद आता है।”

“यार मैं शराब नहीं पीऊँगा।”

“क्यों?”

“मैं इसे अच्छी चीज नहीं मानता हूँ।”

“मतलब हम लोग अच्छे नहीं है...ठीक है यार! आज से मैं तेरे पास नहीं आऊँगा....मैं अच्छा आदमी नहीं जो ठहरा!”

“यार! मैं तुझे तो कुछ नहीं कह रहा हूँ।”

“यार! तुझे मेरे ऊपर भरोसा नहीं है।”

“तू यदि मेरे बारे में ऐसे ही सोचता है...तो दे मैं पूरी बोतल ही पी लेता हूँ। तब तो तुझे मेरे ऊपर भरोसा होगा कि मैं तेरा सच्चा दोस्त हूँ,” यह कहकर दुकौड़ी ने आँख मूँदकर आधी बोतल घट-घटाकर पी ली।

यह दुकौड़ी के लिए एक नई जिंदगी की शुरूआत थी। इसके बाद वह पीछे मुड़कर फिर कभी नहीं देखे। आगे ही आगे बढ़ते गए ...तेज गति से!

बहुत जल्द दुकौड़ी बड़े पियक्कड़ बन गए। इतनी तेज प्रगति इससे पहले वह किसी अन्य क्षेत्र में नहीं किए थे। पीने-पिलाने के इस खेल में उनको हरा पाना लगभग असंभव है। दस पैक के बाद वह पैक की संख्या गिनना चालू करते हैं। इस क्षेत्र में, (पीने के क्षेत्र में) अपने साथियों के बीच वह एक नामी गिरामी हस्ती के रूप में पहचाने जाने लगे हैं।

उनका शरीर अब कुछ थुलथुला होने लगा है। उनकी मूँछ भी अब अपना होश खो देती है और वह बार-बार नीचे झुक आती है। शराब उनके अंग-अंग से झलकती, छलकती और नाचती है।

समय इंसान के लिए अलग-अलग परिस्थितियाँ और चुनौतियाँ देता है। भगवान शायद दुकौड़ी को सुधरने का मौका देना चाहते हैं अतः उनकी पुरानी लिखित माँग पर उनका तबादला उनके ग्रहनगर कर दिया गया। तबादले की बात सुनकर खुशी मनाना, वह अपना हक समझते हैं।

पीने के बाद वह बहुत भावुक हो गए और अम्माँ!......अम्माँ!.........कहकर रोने लगे। आँसुओं से उनकी आँख सूज गई हैं और उन्हें सर्दी भी हो गई है। उनकी दोनों नाक बंद हो जाने के कारण वह सो नहीं पाए। सारी रात करवट बदलते-बदलते और हरे रे!.......हरे रे!...हे भगवान!.........कहते-कहते ही गुजर गई।

सुबह उठकर उन्होंने मुँह-हाथ धोया और ड्यूटी में चले गए। वह जल्दी से जल्दी चार्ज छोड़ना चाहते हैं। उनकी इच्छा है कि अपने गाँव पहुँचकर ही पूजा स्नान किया जाए।

उन्होंने सोचा है कि पप्पू आकर उनका सारा सामान ले जाएगा। वैसे भी उनके पास सामान ही कितना है।

मगर अचानक उन्हें ध्यान आया कि पूरा घर दारू की बोतलों से भरा पड़ा है।

“सामान लेने मैं ही आऊँगा वरना पप्पू को सब पता चल जाएगा,” वह अपने आप से ही बुदबुदाए।

फ़ार्मैलिटि पूरी करने के बाद दुकौड़ी ने चार्ज छोड़ दिया और रिलीज होकर गाँव के लिए बस पकड़ लिए। वह खुश हैं और संतुष्ट भी। संतुष्टि की भावना ने उन्हें पीने के लिए प्रेरित किया और उन्होंने पी भी लिया है। लेकिन उन्होंने निश्चय किया है कि वह घर में कुछ कम बातें करेंगे, जिससे उन्हें कोई पकड़ न पाए।

रास्ते भर दच्चा खाने के बाद दुकौड़ी अपने नजदीकी बस स्टैंड पहुँचे। दच्चा खाने की वजह से उनका नशा कुछ उतर रहा था अतः यहाँ उन्होंने फिर से बची हुई एक बोतल को संतरे के जूस की तरह पी लिया।

बस स्टैंड से घर पहुँचते-पहुँचते दुकौड़ी भावनाओं से लबलबा गए। यह भावनाएँ अब ऊफान लेती नदी की तरह चारों तरफ बहना चाहती हैं। वह जल्दी से जल्दी, अपनी माँ और भाई से मिलना चाहते हैं। उनकी आँखों से प्रेम के आँसू छलकने के लिए लालायित हैं।

दुकौड़ी का प्रेम!...निःस्वार्थ प्रेम!.........आज के युग में भी निःस्वार्थ प्रेम!

कभी-कभी एक क्षण भी युग के समान लगता है।

घर पहुँचने पर उन्होंने एक लोटे में पानी मंगाया। सबने सोचा कि वह बहुत प्यासे हैं। लेकिन इस पानी से वह अपनी माँ का चरण धोए और फिर उसे पी लिया। बड़की बइया को यह व्यवहार थोड़ा अटपटा जरूर लग रहा है मगर दुकौड़ी के भावुक स्वभाव की वजह से उन्हें किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं हुआ।

“पप्पू!...तुम भी माँ का चरणम्रत पियो!”

“भैया.!...आप पी लें, मैं नहीं पीऊँगा।”

“क्यों?.....नालायक!” दुकौड़ी कुछ गुस्से से बोले।

“माँ दिन भर इधर उधर घूमती रहती हैं और वह चप्पल भी नहीं पहनती।”

“मूरख!...चरनाम्रत भावनाओं से जुड़ा होता है। यदि तुम ऐसा सोचोगे...तो कभी किसी को गुरु नहीं मान पाओगे। और माँ तो ईश्वर का साक्षात रूप है।”

“भैया! आज आपको हो क्या गया है?”

“मुझे कुछ नहीं हुआ है! बदल तो तू गया है....मूरख कहीं का!....चल पी चरनाम्रत!”

पप्पू ने आँख मूँदकर किसी तरह एक घूँट चरनाम्रत पिया।

“और पी!..........मूरख!.........पी जल्दी!”

“मुझसे नहीं पिया जाता।” पप्पू ने यह कहकर चरनाम्रत को दूर रख दिया।

दुकौड़ी ने पप्पू को कुछ अपशब्द कहे और फिर वहीं माँ के पैर में सो गए। उनके मुँह से एक खास प्रकार की दुर्गंध आ रही है।

बड़की बइया पुत्र प्रेम में इतना भावविभोर है कि उसे दुकौड़ी के मुँह से आती दुर्गंध का कुछ भान ही नहीं हो रहा है।

माँ के लिए पुत्र हमेशा छोटा बच्चा ही रहता है।

लेकिन पप्पू सब समझ गया है। उसका दोस्त पउआ ठाकुर जब ठर्रा चढ़ा लेता है, तब उसके मुँह से भी ऐसी ही दुर्गंध आती है। उसने अपनी मन की शंका को, माँ को बता दिया। बड़की बइया सिर पकड़कर वहीं बैठ गईं और भाग्य को कोसने लगी।

“इससे अच्छा था कि उसकी नौकरी ही नहीं लगती। भले ही घर में नमक रोटी खाता पर आँखों के सामने तो रहता, यह आदत तो नहीं पड़ती।”

पप्पू ने दुकौड़ी को नींद से उठाया और नहाने के लिए कुएँ पर ले गया। दुकौड़ी ऐसे लग रहे हैं, मानो कई वरसों से न तो वह नहाए हैं और न कपड़े बदले हैं।

शाम को घर-घर जाकर दुकौड़ी सबके ऊपर रुतबा जमा रहे हैं कि उन्होंने अपने संबंधों की वजह से खुद का तबादला करा लिया है। अब वह एक प्रभावशाली सरकारी कर्मचारी हैं और उनकी पहुँच बहुत ऊपर तक है।

गाँव के लोग उनकी बातों को तबज्जो नहीं दे रहे हैं, सब दुकौड़ी को बचपन से जानते और समझते हैं।

बड़की बइया अंदर ही अंदर खतम हो रही है। उसने हिम्मत करके दुकौड़ी से पूछा, ”तुम आजकल शराब पीने लगे हो क्या?”

“नहीं!......बिल्कुल नहीं!”

“मेरी कसम खाकर बोलो कि तुम नहीं पीते हो?”

दुकौड़ी हड़बड़ा गए हैं। वह माँ की झूठी कसम नहीं खा सकते हैं। पर वह जानते हैं कि माँ को जब उनके पीने की बात पता चलेगी तो वह बहुत दुःखी होंगी। इसी कारण उन्होंने माँ कि झूठी कसम खा ली।

“तुम मेरी झूंठी कसम नहीं खाओगे। अब मैं निश्चिंत हो गई हूँ।”

दुकौड़ी, यह सुनकर अकेले में जाकर अम्माँ....अम्माँ.......कहकर खूब रोए हैं। आज पहली बार उन्हें माँ की झूंठी कसम खानी पड़ी है।

ऐसा नहीं है कि दुकौड़ी शराब छोड़ने की कोशिश नहीं करते हैं मगर शराब ने उन्हें अपना गुलाम बना लिया है। वह बहुत ग्लानि और आत्महीनता की दशा से गुजर रहे हैं।

“हे भगवान! मैं इस दलदल में कैसे फँस गया हूँ? आज मुझे माँ की झूंठी कसम खानी पड़ रही है।”

उन्हें इस दशा से उनकी पत्नी ही निकाल सकती थी पर वह मानसिक रूप से ज्यादा होशियार नहीं है।

दुकौड़ी इस वजह से भी कुछ व्यथित रहते हैं। वह अपने वैवाहिक जीवन से असंतुष्ट हैं और बड़े अकेलेपन के दौर से गुजर रहे हैं।

“आज से बोतल को हांथ नहीं लगाऊँगा.!...मगर फिर शरीर का दर्द कैसे जाएगा.?...आज पी लेता हूँ, कल से छोड़ दूंगा.!...पक्का.!...खुद से वादा करता हूँ कि कल से नहीं पीऊँगा.!....अम्माँ की कसम खाता हूँ कि कल से शराब बंद.!......पक्का!..........फिर से अम्माँ की कसम खा लिया और यदि कल से शराब बंद नहीं किया तो एक और झूंठी कसम!.........हे भगवान!.......मुझसे सब कुछ करवा लो, मगर माँ की झूंठी कसम मत खिलवाओ!...हे शंकर! अपने भक्त की रक्षा करो!.....मैं भ्रमित और कमजोर महसूस कर रहा हूँ!”

ऐसी उथल-पुथल अकसर दुकौड़ी के अंदर चलती रहती है। वह अपने आप से ही युद्ध करते रहते हैं।

युद्ध!.......शराब से लड़ने का युद्ध!.......दुकौड़ी का युद्ध!...अन्तर्मन का युद्ध!.........

दुकौड़ी रोज कुछ न कुछ नौटंकी, पीने की हालत में घर में करते रहते हैं। पप्पू के अंदर गुस्सा भरता जा रहा है। भाई की यह दशा उससे देखी नहीं जाती है। वह अपने सामने बड़े भाई का मज़ाक नहीं सुन सकता है, जो दूसरे लोग अक्सर उड़ाने लगे हैं।

“यदि मैं पीना चालू कर देता हूँ, तो भैया पीना छोड़ देंगे।” पप्पू ने यह सोचा और विश्वास से खुश हो गया।

एक दिन दुकौड़ी के सामने ही पप्पू ने बोतल खोल के रख लिया।

“यह क्या है, पप्पू?”

“शराब!”

“शराब!......क्यों?”

“पीने के लिए........और किसलिए?”

दुकौड़ी ने एक थप्पड़ पप्पू को मारा और फिर उसे गले से लगा लिया।

“तुम इसके चक्कर में मत पड़ो! यह तुम्हारा जीवन बरबाद कर देगा।”

“आप क्यों पीते हैं?”

“मैं इसकी लत में फँस गया हूँ और बहुत चाहकर भी नहीं निकल पा रहा हूँ।”

“चाहने से इंसान कुछ भी कर सकता है।”

“यह कहना आसान है पर कर पाना बहुत कठिन! पूरे घर की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर है अतः तुम इससे दूर रहो।”

यह कहकर दुकौड़ी फफक-फफककर रोने लगे। उनके रोने की आवाज सुनकर पूरा गाँव इकठ्ठा हो गया। कुछ दुःखी हैं तो कुछ इसे नौटंकी समझ कर मजा ले रहे हैं।

पप्पू का गुस्सा गुब्बारे की तरह फूल रहा है। उसके समझ में कुछ विशेष नहीं आ रहा है। लगातार दारू के बारे में ही सोचते रहने से, दारू की सुगंध उसे भी अच्छी लगने लगी है। पउआ ठाकुर उसका पुराना दोस्त है अतः इस सुगंध से उसका पुराना परिचय है।

इंसान जिस चीज के बारे में मनन करता है, वही ऊर्जा उसको अपनी तरफ खींचती है।
कुछ ही महीनों में उसकी पीने की लत पड़ गई और वह भी दुकौड़ी की तरह चौबीसों घंटे टुन्न पड़ा रहता है। उसने खुद को पूरे क्षेत्र का सबसे बड़ा गुंडा घोसित कर दिया। यद्यपि वह स्वभावतः बहुत शांत और शर्मीला है। वह भूत से इतना डरता है कि रात को अकेले उठकर बाहर लघुशंका करने नहीं जा सकता।

दोनों भाई कभी-कभी एक साथ पीते हैं और बहुत भावुक होकर जीवन भर एक संयुक्त परिवार में रहने की कसम खाते हैं। उनकी हरकत देखकर बड़की बइया भगवान से जल्दी मृत्यु की इच्छा करती है। पर भगवान ने शायद उन्हें लंबी उम्र दिया है और वह एक बार दी हुई चीज को वापस नहीं करते हैं।

इसी बीच दुकौड़ी का फिर से तबादला हो गया। वह खुश हैं कि अब वह अम्माँ से दूर रहेंगे और कह देंगे कि शराब पीना छोड़ दिए हैं। अम्माँ रोज-रोज की पीड़ा से बच जाएँगी।
“अब तो दुकौड़ी चौबीसों घंटे पीता ही रहेगा। वहाँ तो उसे रोकने वाला कोई नहीं रहेगा।” अम्माँ ने दोनों हांथ सिर पर रखकर सोचा।

घर की हालत दिन-प्रतिदिन खराब होने लगी। पूरा पैसा शराब के खर्चे में ही निकल जाता है। बच्चों की फीस कई महीनों से नहीं जमा की गई। स्कूल से चिट्ठियाँ आना अब नियमित बात हो गई है। बड़की बइया का ज्यादातर समय रोने में ही व्यतीत होता है। भगवान की लीला को वह समझने कि कोशिश करती हैं पर समझ नहीं पा रही हैं। गुस्से में वह कभी-कभी भगवान को कोसने लगती हैं। इसके अलावा वह कुछ कर भी नहीं सकती क्योंकि वह असहाय हैं।

दुकौड़ी कभी-कभार फोन से बात कर लेते हैं। वह हर बार अम्माँ के बारे में जरूर पूछते हैं और दिलासा देते रहते हैं कि उन्होंने शराब पीना बंद कर दिया है।

घर के लिए पैसा वह अब बहुत कम ही भेज पाते हैं। उनका पूरा पैसा पीने में ही खर्च हो जाता है। वह अपने बेरोजगार दोस्तों को मुफ्त में शराब पिलाते हैं। वह विचार और कर्म दोनों से समाजवादी हैं, सिर्फ खेल में अपना बचा हुआ दाम लेने के अलावा!

कुछ महीनों के पश्चात एक दिन पुलिस की गाड़ी में कुछ लोग बड़की बइया के घर आए। वह लोग शांत और दुःखी लग रहे हैं।

बड़की बइया ने उन्हें बैठने के लिए कुर्सियां लगा दी पर वह नहीं बैठे। वह कुछ बोल भी नहीं रहे हैं।

बड़की ने अंदर पप्पू को आवाज दिया। वह कुछ घबरा गई हैं।

पप्पू के बाहर आने पर उन लोगों ने दुकौड़ी के शव को गाड़ी से बाहर निकालकर जमीन पर रख दिया।

“कल रात दुकौड़ी खाना खाकर सो गए थे और फिर वह नहीं उठे। वह अपनी माँ और भाई को बहुत याद कर रहे थे। वह अपनी पत्नी और बच्चों को भी याद कर रहे थे। वह रो-रोकर सबसे माफी माँगने के लिए कह रहे थे। वह अपने किसी दोस्त राजू को बहुत कोस रहे थे, जिसकी वजह से उनकी पीने की आदत पड़ी थी।” उन लोगों में से किसी एक ने कहा।

पप्पू नशे में है और उसने इसी हालत में राजू को गालियाँ देना चालू कर दिया।

“उसी साले ने मेरे भाई को पीने की आदत डलवाई। मार दिया मेरे भाई को साले ने! ऐसे दोस्त से दुश्मन भले!”

वह फफक-फफककर रोने लगा। उसका नशा भाई की मृत्यु के शोक के आगे कमजोर पड़ गया। बचपन से लेकर आज तक की सारी बातें पिक्चर के रील की तरह उसकी आँखों के सामने आने लगी हैं।

बड़की बइया बेहोश हो गई।

थोड़ी ही देर में पूरा गाँव इकट्ठा हो गया। सब लोग रो रहे हैं। दुकौड़ी की लाश को घर से शमसान घाट तक ले जाया गया। सभी ने उनकी अर्थी को कंधा दिया। अपनी चिता पर दुकौड़ी ऐसे लेटे हैं, मानो आज वह पूरी तरह से मुक्त हो गए हों। वह पिछले कई वर्षों से शराब की लत से संघर्ष कर रहे थे और थक चुके थे। उनका चेहरा देखकर ऐसा लग रहा है, मानो वह कहना चाह रहे हों कि, ”यारो माफ करना! शराब ने मुझे आप लोगों से जुदा कर दिया। मैं सच में इतना जल्दी मरना नहीं चाहता था।”

समय बड़ा निर्दयी है और वह अपनी रफ्तार से चलता ही रहता है। लेकिन कुछ परिस्थितियों से पार पाने के लिए समय का चलना बहुत जरूरी भी होता है।

कुछ वर्षों के बाद बड़की बइया के घर की सारी जमीन बिक गई। बच्चे पढ़ाई लिखाई छोडकर काम में लग गए हैं। पप्पू अपने दोस्त पउआ ठाकुर के साथ नशे में धुत होकर टुन्न पड़ा रहता है। वह बीच-बीच में राजू को कोसता रहता है।

बड़की बइया ने बिस्तर पकड़ लिया है। वह हर समय कुछ बुदबुदाती रहती है। ध्यान से सुनने पर पता चलता है कि वह शराब और उसे बनानेवालों को कोस रही हैं।

कभी-कभी वह सेमरा वाली काकी को भी याद करती हैं और कहती हैं, ”देखो ननद!.......पता नहीं किसकी नजर लग गई मेरे भाग्य पर!”

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