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चाक

 

सुमित्रा ने घड़ी पर नज़र डाली। शाम के 5:30 बजा रही थी। चलो, समय से घर पहुँच गयी, बच्चे आते ही होंगे। जल्दी से चाय चढ़ा दूँ। पानी चढ़ा वह पकौड़ों के लिए बेसन घोलने लगी। 

सुबह के निकले हैं। न क़ायदे से खाना न पीना, यह भी कोई ज़िन्दगी है। भला क्या ज़रूरत है इतना खटने की? तीन लोगों की गृहस्थी में ख़र्च ही कितना है, पर पता नहीं सुबह होते ही भागते हैं दोनों। और शाम तक थक कर चूर . . .! पर मेरी सुनते कहाँ हैं। 

अपनी छोटी-सी दुनिया में तीनों बहुत ख़ुश थे। 

पिता के जाने के बाद, आशीष माँ का बहुत ध्यान रखने लगा था। वह जानता था पापा के बाद माँ का समय कितनी मुश्किल से कटता होगा। अकेले में अक्सर याद करता, कितना व्यस्त रखते थे माँ को दिनभर। और जब से रिटायर हुए, यह हाल था, कि माँ ज़रा-सी देर को भी ओझल हो जातीं, तो घर भर में आवाज़ देते फिरते, “अरे कहाँ हो भाई,”और मैं हँसकर माँ से कहता, “जाओ, खोज रहे हैं तुम्हें।” 

“हद करते यह भी, जैसे-जैसे उम्र बढ़ रही है, बच्चा होते जा रहे हैं। आ रही हूँ,” कहते तेज़ क़दमों से माँ बढ़ जातीं। “अरे बग़िया में थी। लौकी की बेल पर, कितनी ढेर सारी बतिया-बतिया लौकियाँ लगीं हैं, बस वही देख रही थी।” 

“इतनी देर से ढूँढ़ रहा हूँ तुम्हें।” 

“आप भी बिल्कुल बच्चे बन जाते हैं। कहाँ जाऊँगी। रहूँगी तो आस पास ही न।” 

“हाँ तो ठीक है, बस बताकर जाया करो, ताकि मुझे पता रहे कहाँ हो। खोजना न पड़े तुम्हें।” 

“अच्छा भाई, आगे से बताकर जाऊँगी, ठीक है। बच्चों से गए गुज़रे हो।” 

और वह कुछ झुककर, कुछ आशिक़ाना अंदाज़ में मुस्कुरा कर कहते, “हूँ जैसा तुमने कर डाला,” और दोनों हँस पड़ते। पापा बच्चन जी के फ़ैन थे। उन्हें निशा निमंत्रण, मधुशाला पूरी तरह रटी हुई थी। और उनसे सुन सुनकर, माँ को भी पूरी की पूरी, रट गईं थी। 

दोनों अपनी दुनिया में मस्त रहते। हर शनिवार रात देर तक देव आनंद के पुराने गीत या मेहँदी हसन की ग़ज़लें सुनते। 

पापा अपने पसंदीदा शेरों को साथ-साथ गाते, और एक ही बात कहते, “यार यह शायर हमारे मन की बात कैसे जान जाते है। हू-ब-हू लफ़्ज़ ब लफ़्ज़ कह देते हैं। कमाल है। देखो कितना ख़ूबसूरत शेर है। 

“मैं तसव्वुर भी जुदाई का भला कैसे करूँ
मैंने क़िस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे। 
प्यार का बनके निगहबान तुझे चाहूँगा, 
मैं तो मरकर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा।” 

यह उनकी पसंदीदा ग़ज़ल थी। “मेरे ही शब्द हैं, उधार के हुए तो क्या,” वे मुस्कुराकर कहते। 

माँ इस बात से कितनी पुलकित होती थीं, मैं जानता था। बहुत प्यार करते थे माँ को। जन्मदिन हो या एनिवर्सरी, हफ़्ते भर पहले से तैयारियों में जुट जाते। माँ से छिपाकर, मेरे साथ कुछ प्लान कर रहे होते, तो उनके कमरे में आते ही दूसरे काम में जुट जाते। और मज़े की बात यह है कि सारे इंतज़ाम वह अंत तक छिपा भी ले जाते, और फिर ईव पर, रात को ठीक 12 बजे, माँ को सरप्राइज़ देते। 

एक बार मुझे शक हुआ, कि माँ को कुछ भनक लग गई थी, पर फिर भी वह अनजान बनी रहीं। पापा का मज़ा किरकिरा जो नहीं करना चाहती। दोनों जैसे एक दूसरे के लिए ही बने थे। ख़ूब लड़ाइयाँ भी होतीं दोनों में। हफ़्ते-हफ़्ते बातचीत बंद रहती। पर फिर भी रहते दोनों एक ही कमरे में। साथ में बैठकर चाय भी पीते। पर बातचीत नहीं होती। छिप-छिपकर कनखियों से देखते एक दूसरे को। जब एक देख रहा होता तो दूसरा जानबूझकर दूसरी ओर देखता रहता। बिल्कुल बच्चों जैसी हरकतें। और मेरी आफ़त होती। दोनों मुझ ही पकड़ते। 

“जाओ कह दो अपनी माँ से मेरा डिनर बाहर है।” 

“जाओ कह दो अपने पापा से खाना बन गया है, पहले बताना चाहिए था।” 

कुछ ढूँढ़ रहे होते तो झुँझलाकर कहते, “कह दो उनसे मेरी चीज़ें न छुआ करें, सफ़ाई के नाम पर सारा सामान तितर बितर कर देती है।” 

“हाँ हाँ मुझे भी शौक़ नहीं, बहुत काम हैं मेरे पास, सारा घर फैलाकर रख छोड़ा है, कह दो अपना सामान ख़ुद ही जगह पर रखा करें, जिससे ‘वक़्त’ पर मिल जाए।” और मैं शटल कॉक की तरह इधर से उधर उछाला जाता। 

पापा माँ के जीवन की धुरी थे। और फिर सर्जरी के उस मनहूस निर्णय ने उन्हें हमसे छीन लिया। अच्छे ख़ासे हँसते हुए गए थे, “बस हफ्ते-भर में लौट आऊँगा।” हाँ लौटे थे वे। शीशे की ‘शव-पेटिका’ में। बर्फ़ से ठंडे। माँ ने जब रात-भर के इंतज़ार के बाद डॉक्टर ने आकर उन्हें वह मनहूस ख़बर दी थी, तब पता नहीं कैसे ज़ब्त किया होगा माँ ने ख़ुद को। वह रोई नहीं थीं। वह तब भी नहीं रोईं थीं, जब मौसी को ख़बर हुई और वह दहाड़ मारकर रोईं थीं, “दीदी जीजाजी नहीं रहे।” माँ ने केवल पीठ सहलायी थी उनकी। फिर अपना फोन उठाया और लोगों को ख़बर करनी शुरू कर दी थी। “वे नहीं रहे।” हर तरफ़ रोना धोना मच गया था। जहाँ-जहाँ ख़बर पहुँची, मातम छा गया। लोगों के आँसू रुक नहीं रहे थे। माँ तब भी नहीं रोईं थीं। 

हाँ जब मैं दूसरे दिन पहुँचा था पापा को मोर्चरी से निकलवा वापस एम्बुलेंस में घर ले जाने के लिये, तब पहली बार मेरी छाती से लग, वह बाँध फट पड़ा था। तब एक बच्चे-सी, मुझसे लिपटकर, हिलक-हिलककर रोयी थीं माँ। नहीं भूल सकता वह पल, जो किसी तेज़ नोक से गुद गया है भीतर, जिसकी पीड़ा आज तक महसूस करता हूँ। क्योंकि माँ को रोता देख, रोक लिये थे मैंने अपने आँसू। 

पापा के जाने के बाद माँ बहुत अकेली हो गईं थीं। बुझ गई थीं। जो चेहरा हमेशा ख़ुशी से दमकता रहता था, पापा के प्यार से दिपदिपाता रहता था, एकदम बुझ गया था, मानो उसका सारा रस, सारा तेज, सोख लिया हो नियति ने। तभी मैंने तय कर लिया था, माँ को कभी अकेला नहीं छोड़ूँगा। 

जब वह मेरे विवाह के लिए चिंतित रहने लगीं तो एक आशंका मन में पैठ गई, अगर मेरी संगिनी मुझ जैसी न हुई तो कैसे सँभाल पाऊँगा मैं माँ को। मैं उन्हें किसी हाल में दुखी नहीं देख सकता था। इसलिए मैंने निर्णय माँ पर छोड़ दिया। 

“माँ तुमसे बेहतर मुझे कोई नहीं जानता। इसलिए मेरे लिए उपयुक्त साथी तुम ही चुनोगी। मुझे पता है, तुमसे बेहतर चॉइस मैं भी नहीं कर सकता।” और निशा को चुनकर माँ ने, हम सब का जीवन सँवार दिया था। 

मैं और निशा दोनों सुबह निकल जाते और शाम को घर लौटते। माँ दिन-भर अकेली रहतीं। कभी-कभी समय निकालकर हालचाल पूछ लेता, पर वह प्रैक्टिकल नहीं था। उनका व्यस्त रहना ज़रूरी था। हमने उन्हें सलाह दी, “माँ दिनभर घर में अकेले बोर हो जाती होगी, ज़रा निकला करो। इस बिल्डिंग में ही तुम्हारी उम्र की बहुत सारी महिलाएँ हैं, उनसे मिलो, थोड़ा समय कटेगा, थोड़ा माहौल बदलेगा। नए चेहरे देखोगी, नए लोगों से मिलोगी, अच्छा लगेगा। तुम तो शुरू से ही कितनी उद्यमी, कितनी महत्वाकांक्षी थीं, कितनी टैलेंटेड थीं। अपनी प्रतिभा को उड़ान दो। बहुत कुछ करना चाहती थीं, जो पापा की वजह से नहीं कर पायीं, अब मौक़ा मिला है, अपनी तरह से अपना जीवन जियो।” 

माँ को सलाह पसंद आई। उनके अंदर अब भी वह ज़िंदादिल स्त्री मौजूद थी। कुछ संकोच के बाद उन्हें मज़ा आने लगा। वे एक विमेंस क्लब से जुड़ गईं, जहाँ ज़िम्मेदारियों से मुक्त, उन्हीं की हम उम्र महिलाएँ, अपने लिए जीती थीं। कभी पिकनिक, कभी किटी, तो कभी समाज सेवा। कभी व्यंजनों के स्टाल लगाना और सारी आमद चैरिटी में दे देना। महल्ले के लोगों से पुराने कपड़े इकट्ठा कर, अनाथाश्रम और वृद्धाश्रमों में जाकर बाँटना। माँ को यह जीवन रास आ गया और हम उनकी तरफ़ से निश्चिंत हो गए। हम लोगों के निकल जाने के बाद माँ भी अपनी गतिविधियों में व्यस्त हो जातीं। पर जहाँ भी होतीं, हमारे पहुँचने से पहले घर पहुँच जातीं। 
आज जब पहुँचे, तो दरवाज़े के बाहर ही प्याज़ के पकौड़ों की ख़ुश्बू ने स्वागत किया। 

“माँ क्या परफ़ेक्ट टाइमिंग है तुम्हारी। रोज़ इधर हमारी एंट्री होती है और उधर तुम्हारी चाय तैयार, और आज तो गरमा गर्म पकौड़ों की ख़ुश्बू, अहा . . . हा, बाहर तक आ रही है।” 

“तुम लोगों की टाइमिंग भी तो परफ़ेक्ट है, ठीक 6 बजकर 10 मिनट पर तुम लोग हाज़िर हो जाते हो। बस उसी हिसाब से चाय चढ़ा देती हूँ।” और तीनों खिलखिला कर हँस पड़े। 

“माँ तुम चाय निकालो, बस मुँह हाथ धोकर अभी आया, बहुत भूख लग रही है।” 

चाय पीते पीते ऑफ़िस की बातें होती रहीं। 

“और बताओ माँ, तुम्हारी समाज सेवा कैसी चल रही है,” मैंने पूछा। 

“बढ़िया बेटा, अगले इतवार एक चैरिटी प्रोग्राम है, उसमें हम लोग स्टॉल लगा रहे हैं। मैं सोच रही हूँ चाट का स्टॉल कैसा रहेगा?” 

“अरे माँ कमाल का आइडिया है, फिर तो सारी भीड़ तुम्हारे ही स्टॉल पर रहेगी। तुम्हारे हाथ की चाट के आगे सब फ़ेल हैं। अच्छा माँ थोड़ा ऑफ़िस का काम निबटा लूँ, कल प्रेजेंटेशन देनी है।” 

“चलिये माँ, खाने की तैयारी कर लेते हैं,” निशा बोली। 

“क्यों बेटा तुम नहीं थकीं?” 

“अरे मिलकर कर लेंगे माँ, काम जल्दी निबट जाएगा, फिर तो खाकर सोना ही है।” 

“बेटा सारा खाना तैयार है बस रोटियाँ बननी हैं वह जब खाने बैठेंगे तो गर्म-गर्म बन जायेंगी। जाओ तुम भी थोड़ी देर आराम कर लो।” 

“पक्का माँ?” 

“हाँ बेटा, पक्का,” कहकर उसने निशु का माथा चूम लिया। 

सुमित्रा अपनी छोटी सी दुनिया में बहुत ख़ुश थी। ख़्याल रखनेवाला बेटा, बेटी जैसी बहू। आशीष उसका बहुत ख़्याल रखता था, छोटी से छोटी बात उससे पूछकर करता। निशा भी उसकी हाँ में हाँ मिलाती। उसने बेटे के विवाह के बाद, कई घर बिखरते देखे थे, पर वह ख़ुश थी कि उसके बेटा और बहू उसका कितना ख़्याल रखते हैं। कभी-कभी सोचती आशीष ने मज़बूती से न सँभाला होता तो टूटकर बिखर गई होती मैं। पति की तस्वीर से अक्सर बतियाती, “कभी सोचा न था, तुम्हारे जाने के बाद मैं जी भी पाऊँगी। पर देखो, उसने न केवल मुझे सँभाला, बल्कि जीने के लिए प्रेरित कर, जीजीविषा जगाई मेरे भीतर, और क्या माँगूँ ईश्वर से।” 

रात का भोजन हो चुका था। तीनों लिविंग रूम में बैठे बतिया रहे थे। तभी आशीष बोला, “माँ सोच रहा हूँ, इस बार दीवाली पर घर पेंट करवा लें। कैसा रहेगा, पिछले चार सालों से यही रंग देख मन ऊब गया है।” 

“बहुत ही नेक ख़्याल है बेटा, साथ ही पर्दे भी बदलवा लेंगे, वह भी तो पेंट के साथ मैच करते हुए होने चाहिएँ।” 

“एब्सल्यूट्ली . . .! बताओ माँ कौनसा रंग ठीक रहेगा?” 

“हल्का क्रीम कैसा रहेगा? निशा तुम बताओ तुम्हें कौन-सा रंग पसंद है।” 

“जो आपको पसंद हो माँ।” 

“अरे यह क्या बात हुई, तुम भी बताओ।” 

“मैं सोच रही थी बेडरूम में हल्का मौव, बहुत सुंदर लगेगा, वैसे भी वहाँ कम रोशनी हो तो सही रहता है। मुझे यह रंग बहुत पसंद है।” 

“क्या निशा, हर कमरे में अलग-अलग रंग, बहुत चीप लगता है। पूरा घर एक रंग में हो तो क्लासिक लुक आती है। मेरे हिसाब से तो क्रीम ही सही रहेगा।” 

“अरे यह क्या बात हुई, उसका मन है मौव का तो वही लगेगा। वह भी बहुत प्यारा रंग है बेटा, अच्छा लगेगा।” 

“नहीं माँ मैंने सोच लिया, क्रीम ही लगेगा। अब इसमें कोई डिस्कशन नहीं होगा।” 

सुमित्रा को आशीष का यूँ निशा की बात को ख़ारिज करना अच्छा नहीं लगा। निशा भी कुछ उदास लगी थी उसे। 

उस रात जब वह सोने जा रही थी, तभी आशीष के कमरे से कुछ ऊँची आवाज़ें सुनाई दीं। वह उनके कमरे की तरफ़ बढ़ी ही थी, कि कुछ सुनकर ठिठक गई। दोनों में किसी बात को लेकर बहस हो रही थी। 

“हर बात में माँ की ही सलाह लेते हो, जैसे मेरी पसंद ना पसंद तो तुम्हारे लिए कोई मायने ही नहीं रखती।” 

“यह क्या कह रही हो निशा, माँ बड़ी हैं, उनकी राय लेंगे तो उन्हें अच्छा लगेगा।” 

“वह ठीक है आशीष पर मेरी भी तो कुछ इच्छाएँ हैं। कभी मेरी चॉइस भी पूछ लिया करो। हर बात में तुम वही करते हो जो माँ चाहती है। माँ यह चाहती है, ऐसा करो, माँ को बुरा लगेगा यह न करो, कभी ऐसी बात भूले से भी न हो, जिससे माँ का दिल दुखे। और तुम जानते हो, मैं भरसक इस बात की कोशिश करती हूँ, की मुझसे कभी ऐसी कोई बात न हो, जिससे माँ को कोई ठेस पहुँचे, या उनका दिल दुखे। जानते हो न? पर तुम्हें मेरा कभी ख़्याल नहीं आता, कि आज निशा के मन का कर लें। क्या मेरा मन नहीं रख सकते कभी? मेरी पसंद न पसंद कोई मायने नहीं रखती तुम्हारे लिए।” 

“निशु यह क्या हो गया है तुम्हें, ऐसा कब-से सोचने लगीं। मैं तो समझता था, कि हमारी सोच हमेशा एक रहेगी, ख़ास तौर पर माँ को लेकर।” 

“आशीष कभी-कभी बहुत गौण महसूस करती हूँ।” 

“निशु तुम्हारा दिल दुखाने की मेरी मंशा बिलकुल नहीं है, यह तुम भी जानती हो। पर हम माँ को छोटी-छोटी ख़ुशियाँ तो दे सकते हैं न। माँ के लिए तुमने ऐसा कैसे सोच लिया? जान छिड़कतीं हैं वह तुम पर।” 

“आई एम सॉरी आशीष, आई एम रियली सॉरी। मुझे ऐसे नहीं सोचना चाहिए था।” 

सुमित्रा वहाँ से चुपचाप चली आई। रात-भर वह बिस्तर पर पड़ी सोचती रही। ठीक ही तो कह रही थी निशु। यह बात मेरे दिमाग़ में क्यों नहीं आयी? मैं तो अपना जीवन अपने हिसाब से जी चुकी। अपनी मर्ज़ी से अपनी गृहस्थी चलायी। छोटा-बड़ा हर निर्णय अपने मन से लिया। यह उसकी गृहस्थी है, और वही मन मारकर रहे? उसके भी बहुत से अरमान होंगे। बच्चे मेरी हर ख़ुशी का ख़्याल रखते हैं और मैं उनके बीच कलह की वजह बन गई। कैसे इतनी ख़ुदग़र्ज़ हो गई मैं? चाक बनकर जिस घड़े को ढाला, उसी में धचक लगा दी। नहीं यह सही नहीं हो रहा। निशा के मन में अगर यह ख़्याल आया है, तो इसमें ग़लती मेरी है। मुझे कुछ सोचना होगा। 

अगले दिन छुट्टी थी। सब साथ बैठे नाश्ता कर रहे थे। तभी सुमित्रा बोली, “बच्चों बहुत दिनों से एक बात सोच रही थी। यह तो मानते हो कि मेरी उम्र हो गई है। और यह भी जानते हो कि मुझे घूमने का, कितना शौक़ था, पर तुम्हारे पापा घूमने के मामले में उतने ही आलसी थे। न ख़ुद घूमे न कभी मुझे घूमने दिया। जहाँ जाओगी साथ चलेंगे। वे तो हाथ छुड़ाकर, अकेले ही चल दिये। अब सोच रही हूँ कि अपना शौक़ पूरा कर लूँ। अभी हाथ पैर चल रहे हैं। समय आ गया है, अपनी यह इच्छा भी पूरी कर लूँ। बहुत सँभाल ली अपनी गृहस्थी, अब मुझे इस जंजाल से मुक्त करो। निशु अब तुम सँभालो बेटा, अपनी गृहस्थी, और मेरे इस बिगड़ैल बेटे को। कब तक माँ का पल्लू थामे रहेगा। मेरा भी फ़्रेंड सर्कल है। हम लोग थोड़ा घूम फिर लें, अपने शौक़ पूरे कर लें, क्यों? तुम दोनों को कोई एतराज़ तो नहीं।” 

“नहीं माँ यह तो बहुत अच्छी बात है। पर यूँ ऐसे अचानक, पहले कभी कोई ज़िक्र नहीं किया?” आशीष हकलाया। 

“लो कर लो बात। अरे भाई, प्रोग्राम तो ऐसे अचानक ही बनते हैं। बस मन में आ गया।

“अब तुम्हारा दिमाग़ बदले, उसके पहले अपनी तैयारी कर लूँ।” सुमित्रा बोल रही थी, और दोनों कनखियों से एक दूसरे को देख रहे थे। मन में एक ही प्रश्न, “कहीं माँ ने कल रात की बातें सुन तो नहीं लीं?” 

पर सुमित्रा की सुकून भरी मुस्कुराहट और हौसला देख, दोनों आश्वस्त हो गए। 

सुमित्रा ख़ुश थी, उसने अपने मिट्टी के घड़े को टूटने से बचा लिया था। 

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