इक्षा
काव्य साहित्य | कविता सरस दरबारी14 Apr 2014
इक्षा हूँ मैं -
एक सपना -
एक मृगतृष्णा -
एक सीमाहीन विस्तार -
विभिन्न रंग ...रूप ....आकार...!
उगती हूँ.... अंत:स की गहराईयों में -
खोजती हूँ उजाले -
उम्मीदों के -
संभावनाओं के -
विस्थापना का डर घेरे रहता है
आशंकाएँ सुगबुगाती हैं भीतर ...
लेकिन आस फिर भी जीता रखती है मुझे ...
जानती हूँ ...
अभी और तपना है ...
निखरना है ...
कसौटी पर खरा उतरना है
सिद्ध करना है स्वयं को
ताकि न्यायसंगत हो सके मेरा वजूद
अकाल मृत्यु का डर मुझे नहीं
जब तक मनुष्य रहेगा -
कुछ पाने की होड़ रहेगी -
सपने देखने की कूवत रहेगी -
एक मरणासन की आखरी उम्मीद बनकर भी
जीवित रहूँगी मैं ....!
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