कोर्ट मैरिज
कथा साहित्य | कहानी डॉ. लखनलाल पाल1 Mar 2025 (अंक: 272, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
फावड़े की ज़रूरत ने रावरानी चाची को बिन्नी के घर तक पहुँचा दिया। मारे गर्मी के चाची पसीने से तर थी।
“चाची क्या काम पड़ गया फावड़े से?” बिन्नी ने चाची को फावड़ा पकड़ाते हुए पूछा।
“का बताएँ बहू, हमारे ये टस से मस नहीं होते हैं, माटी खोदनी है, हमीं खोद है।”
“चाची तुम बहुत काम करती हो। यहाँ के आदमियों के तो रंग-ढंग ही अलग हैं।”
“एक लोटा पानी तो पिला दे बहू,” चाची ने ऐसे प्रदर्शित किया जैसे पानी न मिला तो अभी गश खाकर गिर जाएगी।
पानी पीकर चाची ने धोती के छोर से मुँह पोंछा और वही बैठकर बोली, “बहू तू भाग्यशाली है, तुझे ज़्यादा कुछ नहीं करना पड़ता, तेरा जेठ सब काम कर देता है,”चाची संजीदगी से बोली।
“हाँ चाची, मैं काम की दुखी नहियां।”
“जेठ जू को खाना खिलाने में दिक्कत होती होगी? मेरा कहने का मतलब पर्दा . . .”
“नहीं चाची, अब तो मैं उनसें मुँह खोल के बोलने लगी।”
चाची के चेहरे पर चमक उभर आई। उसे लगा कि मछली काँटा निगल रही है। उसने हल्के से डोर खींची, “तो क्या हो गया, ऐसे मर्यादा करोगे तो कैसे काम चलेगा।” चाची ने अंदाज़ लगाया कि मछली केंचुआ समेत काँटा निगल चुकी है। काँटे से छूटे इससे पहले ही वह मीठे स्वर में बोली, “लेटने-बैठने में दिक्कत होती होगी?”
बिन्नी को झटके महसूस हो रहे थे पर वह मैदान छोड़ने को तैयार नहीं थी। वह हिली तक न। मछली काँटे से बाहर आई, “जमाना खराब है चाची, इसी से खटिया नीयरे-नीयरे बिछा लेत।”
चाची को अपनी फ़तह होती दिखने लगी। उसे विश्वास था कि मछली इस झटके में बाहर आ जाएगी। वह मन-ही-मन मुस्कराई, “ठीक कही बहू, चलावा ऐसे ही चलता है। जब पेट है तो भोजन की जरूरत होती है कि नहीं?”
पेट और भोजन वाली बात पर बिन्नी तड़क गई। वह मन-ही-मन कसमसाई, ‘यह तो नंगा करने पर तूल गई।’ चाची के मंतव्य को वह समझ तो पहले ही गई थी। इसलिए वह भी उसी बहाव में बहती चली गई।
लक्षणा में चल रहे संग्राम को चाची काफ़ी हद तक अभिधा की तरफ़ खींच लाई थी। बिन्नी भी शुद्ध अभिधा की ओर बढ़ी।
उसने चाची को प्यार से सहलाते हुए कहा, “चाची तुम तो मेरे लिए देवी हो, तुमने कभी बुरा नहीं माना। उस दिन मैंने तुम्हारे और रमसीं कक्का के बाबत बात कही थी।” बिन्नी ने साँस खींची, “क्या करूँ चाची, गाँव भर की बइरें मेरे कान में पटाखा से फोरत। अभी चार दिन पहलूं बताओ तो कि दोनों को एक खटिया से उठाओ। मैंने बिसवास नहीं करो।”
“का कहत री!” चाची के हाथ से डोर छूटकर दूर जा गिरी। उसकी आँखों के सामने तिलूला फूट पड़े। बिन्नी ने एक ही अस्त्र से चाची का क़िला ढहा दिया। गिरते हुए क़िले को बचाने की ख़ातिर वह महिलाओं को गरियाने लगी। चाची फावड़ा लेकर वहाँ से लइयां-पइयां भागी।
बिन्नी के चेहरे पर विजयी मुस्कान खेल गई। क्या करूँ अपने को बचाने के लिए ये करना पड़ता है। मैं भी क्या करती उनसे मेरा कब लगाव हो गया मुझे भी पता नहीं चला।
भगवान ने मेरा बिगाड़ दिया तो मैं क्या करती? एक लड़का होने के बाद पति कैंसर से चल बसे। बेटे को लेकर मैं कहाँ जाती। इसी का मुँह देखकर रह गई। पति की पाँच बीघा ज़मीन मेरे नाम आ गई। लोगों ने तो कई बार कहा कि तू कहीं बैठ जा। लोगों के अपने स्वारथ थे। मेरी पाँच बीघा ज़मीन पर उनकी नज़र थी। मैं कहीं अंत चली जाती तो ज़मीन ये हड़प लेते। बेटा और ज़मीन पति की निशानी है, इसको मुझे ही सँभालना था। मैंने इसे सँभाला।
मायके में मेरा कौन था? नाम के लिए चाचा चाची थे। ज़बर्दस्ती का पालन-पोषण हुआ था मेरा। मैं उनके सिर का भार बन गई थी। सारा घर का काम करती और खाने को हमेशा बचा-खुचा खाना मिलता। वो तो मेरे पास कुछ बीघा ज़मीन थी उसी से उन्होंने मेरे हाथ पीले करके गंगा नहा ली।
कहते हैं पिताजी माँ को ख़रीद लाए थे। मेरे जन्म के एक साल बाद माँ किसी दूसरे पुरुष को लेकर भाग गई। पिताजी इस सदमे को सहन न कर पाए और कुछ महीने बाद वे इस संसार से चल बसे। मैं अकेली रह गई। समाज के दबाव में चाचा मुझे पालने के लिए राज़ी हो गए थे। घर का सारा काम मैं ही करती। चाची बात-बात पर मुझे डाँटती और मारती। अगर मैं महल्ले में किसी को बताती तो चाचा भी मुझे पीट देते।
काम बिगड़ने पर चाची ताना मारती कि अपनी माँ की तरह यह भी किसी को लेकर भाग जाएगी। मैंने तो भोग लिया पर मैं नहीं चाहती कि बेटा इन स्थितियों से गुज़रे। यही सब सोचकर मैंने अपना घर न छोड़ा।
जीवन में मुझे कभी किसी का प्यार न मिला। ब्याह के बाद पति का प्यार पाकर मैं फूली न समा रही थी। पर भगवान को वह भी मंज़ूर न हुआ। जीवन में चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा घिर गया। फिर भी मैं संकटों से जूझती रही।
जेठ जी मेरा बराबर साथ देते रहे। मेरे बेटे को उन्होंने पिता जैसा प्यार दिया। उन्होंने मुझे न तो कभी ताना मारा और न ही कोई ऐसी बात कही कि मुझे बुरी लगती।
जेठ जी नेठम अकेले थे। हम दोनों को एक दूसरे की ज़रूरत थी। शुरू में मैंने उनसे पर्दा किया पर एक घर में रहकर यह सम्भव न हो पाया। पर्दा धीरे-धीरे कम होता गया। अगर कोई काम पड़ता तो मैं उनसे मुँह खोलकर बात कर लेती। अब हम एक दूसरे के सुख-दुख के भागीदार थे।
नवजात अतीत की याद में बिन्नी ने एक गहरी साँस खींची। मोटर साइकिल से गिरकर जेठ जी के पैर में फ़्रैक्चर हो गया था। पैर में प्लास्टर चढ़ने के बाद उनकी स्थिति और भी ख़राब हो गई। मैंने उनकी दिन-रात सेवा की। सेवा करते समय पुरुष गंध मुझे बरबस अपनी ओर खींचती। मैं जितना भागने की कोशिश करती वह गंध उतनी ही मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रही थी। मेरे लिए अब वे दुनिया के सबसे सुंदर पुरुष थे। धीरे-धीरे हमारे बीच की सारी दीवारें ढहती चली गईं।
रोज़-रोज़ पानी में हगने से एक दिन उतरा पड़ता है। ऐसे कामों को छिपाया नहीं जा सकता। मुहल्ला में खुसर-पुसर शुरू हो गई। मैंने कोई तवज्जोह नहीं दी। लोग-बाग सीधे तो नहीं कहते थे लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से उनका वही मतलब होता था।
रावरानी चाची को ज़्यादा काँटे उठ रहे थे। मेरा तो बिगड़ गया था तो मैंने बना लिया। लेकिन चाची तो अपना बना बनाया बिगाड़े बैठी है। उसे लगता था कि मेरा कोई नहीं जानता है। अरे, जो सेर भर अन्न खाता है वह सब कुछ जानता है। उस दिन सही-सही कह दिया सो चाची को मिर्ची लग गई। ख़ूब लग जाए। पहला अपना देख ले फिर दूसरे का कहे।
वैसे मेरा तो परिवार बन गया है। कोई अच्छा कहे या बुरा अब मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ना है। सबको एक-दूसरे का सहारा चाहिए होता है। सहारे से ही ज़िन्दगी कटती है। ये तो मन की बात है जिसे जो रुचता है वो करता है। मुझे जो रुचा वो मैंने किया। मैं तो यह मानती हूँ—‘ऊधौ मन माने की बात।’
रावरानी चाची अपमान को बरदाश्त नहीं कर पा रही थी। वह पूरे मूड में थी कि किसी तरह सबके सामने इसकी ठसक उतारी जाए। वह मौक़े की तलाश में थी।
वह मौक़ा जल्दी आ गया। बिरादरी में एक लड़की की शादी होनी थी। रावरानी चाची ने उनसे स्पष्ट कह दिया था कि बिन्नी को ब्याह में बुलाओगे तो मैं शादी में शामिल न होऊँगी। बात पुरुषों तक पहुँच गई। समाधान खोजा जाने लगा। पहले तो लोगों ने रावरानी को समझाया कि जैसा चलता है चलने दो लेकिन वह मानने को तैयार न हुई। लोगों ने मिल बैठकर इस समस्या को सुलझाने का मन बना लिया।
शादी वाले घर में बिरादरी के लोग इकट्ठे हुए। बिन्नी और उसके जेठ लालमन को बुलाया गया। पहले तो शादी कैसे करनी है, कितनी बारात आएगी उसका स्वागत कैसे किया जाएगा इस पर लड़की वाले को बिरादरी के मुड्ड आदमी ने राय-मशविरा दिया। लोगों ने उसके राय-मशविरा को अहमियत दी।
सामने बैठे आदमी ने उस मुड्ड आदमी को इशारा किया। वह उसका इशारा समझ गया। पहले उसने खंखारा और फिर मुख्य मुद्दे पर आकर लालमन की ओर मुख करके बोला, “लालमन, तुम्हारी बहुत अफ़वाह उड़ रही है, बताओ क्या करें?” उसने आगे बात बढ़ाई, “अगर बात बिरादरी में फैल गई तो शादी-ब्याह में रोक दिया जाएगा।”
इस अचानक हमले से लालमन का चेहरा उतर गया। वह क्या जवाब दे, उसे समझ में नहीं आ रहा था। वह तो लाज के कारण धरती में गड़ा जा रहा था।
“किस अफ़वाह की बात कर रहे हैं आप?” बिन्नी ने मोर्चा सँभाला। वह भली-भाँति जानती थी कि उसकी अकेली अफ़वाह नहीं है। और भी बहुतों की है।
बिन्नी के बीच में आ जाने से लोग स्तब्ध रह गए। बात तो लालमन से की जा रही है, औरत होकर यह बीच में क्यों टपक पड़ी। अपनी सफ़ाई यही देगी क्या? पुरुष खुन्नस खाने लगे।
वहाँ आपस में लोगों के बीच कानाफूसी शुरू हो गई।
“बहू, तुम्हारे और लालमन के सम्बन्ध रुचिकर नहीं कहे जा सकते हैं। लहुरी जेठ के सम्बन्ध नैतिक नहीं है।” मुख्य आदमी बोला।
“बाकी लोगों के सम्बन्ध जायज है क्या?” बिन्नी तमतमाई।
“किनकी बात कर रही है बहू?”
“जिसने ये अदालत लगवाई है, उसी की बात कर रही हूँ,” बिन्नी ग़ुस्से से भभक रही थी।
“मेरे बारे में क्या जानती है तू? ऐं! बता दे आज सबके सामने,” रावरानी चाची बीच में कूदी।
रावरानी पहले से ही सारी गोटियाँ फ़िट करके आई थी। उसने उन औरतों से भी बात कर ली थी जिन्होंने उसके और रमसीं के बारे में बिन्नी को बताया था। इसी से वह कड़ाम-कड़ाम बोल रही थी।
बिन्नी ने रावरानी और रमसीं कक्का वाली बात सबके सामने रख दी। लोगों ने पूछा कि तुझे कैसे पता? बिन्नी ने उन औरतों के नाम गिनाए जिन्होंने उसे ये सब बताया था। वे औरतें भरी अदालत में मुकर गईं। बिन्नी ने सबूत दिए कि नल पर पानी भरते समय उसे उन औरतों ने बताया था। वे औरतें नहियां पर नहियां बांचे जा रही थी। बिन्नी को फँसाकर वे औरतें अलग हो गईं।
बिन्नी का मुँह उतर गया।
अब चाची बिन्नी पर हावी हो गई, “नक्टी को अपना छिपाने के लिए दूसरों पर कीचड़ उछालते शरम नहीं आती है।”
बिन्नी को आशा नहीं थी कि ये औरतें भरे दरबार में ऐसे पलट जाएँगी। इतने लोगों के बीच अब वह क्या कहे? चाची अकेली होती तो वह ढंग से समझा देती। सच्चाई को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता है। उसकी सचाई सबके सामने आ गई थी। बिन्नी की आँखों से भर-भर आँसू गिरने लगे। अपमान से तिलमिलाई बिन्नी वहाँ ज़्यादा देर न ठहर सकी। अपमान का घूँट पिए वह घर लौट आई।
अपमान उसके जीवन का स्थायित्व बन गया था। पर इस तरह का मान-मर्दन उसने कभी नहीं सहा था। इस अपमान से वह टूटने लगी।
बिन्नी खड़ी न रह सकी और चारपाई पर निढाल-सी होकर गिर गई। वह अपने आपको कोसने लगी, “हे मताई! जब तुझे ये सब करना था तो मुझे जन्म ही क्यों दिया। जन्म दे ही दिया था तो गला क्यों न घोंट दिया।”
बेइज़्ज़ती की आग में झुलसता हुआ लालमन भी घर लौट आया। क्योंकि बात पटल पर आ चुकी है। अब तो जीवन का निर्वाह मुश्किल है। वह मन-ही-मन एक निर्णय पर पहुँच चुका था। उसने आहिस्ते से बिन्नी का हाथ पकड़ा और उसकी आँखों में आँखें डालकर बोला, “हम कोर्ट मैरिज करेंगे।”
बिन्नी की नज़रें लालमन के चेहरे पर अटक गईं। वह निराशा भरे स्वर में बोली, “समाज स्वीकार न करेगा।”
“समाज की छोड़, कोर्ट की बात कर। कोर्ट से बड़ा कोई नहीं है।”
“फिर भी रहना तो समाज में ही है,” बिन्नी को भविष्य की चिन्ता सताने लगी।
“ऐसे कब तक जिएँगे? बेटा कहाँ जाएगा, तू कहाँ जाएगी और मैं कहाँ जाऊँगा?” वह बिन्नी की पीठ थपथपाकर बोला, “हम तीनों एक साथ ज़हर खाकर जान दे देंगे तो भी समाज पर रत्ती भर असर न पड़ेगा। उल्टा कहेंगे बुरे काम का परिणाम बुरा होना ही था। इसलिए क्यों न कोर्ट में जाकर बुरे को अच्छा बना लें।”
“सिर पर लदे पाप-दोष का क्या करेंगे?” बिन्नी के मन में ग्लानि का भाव अब भी तैर रहा था।
बिन्नी को ग्लानि से मुक्त कराता हुआ लालमन मुस्कराया, “पाप-दोष के लिए माँ गंगा जी तो बह रही हैं। नहा आएँगे उसी में।”
बिन्नी लालमन को प्यार से देखे जा रही थी।
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