एक शोधार्थी का आत्मकथन
संस्मरण | स्मृति लेख डॉ. लखनलाल पाल15 May 2025 (अंक: 277, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
पीएच.डी. एक ऐसा काम है जिसकी शुरूआत आसान होती है पर उसे पूरा कर लेना युद्ध जीतने से कम आनंददायक नहीं है। इसे करना किसी के लिए आसान नहीं है। बहुत झंझटें है इसमें। झंझटें हैं या बना दी गई हैं। शिक्षा झंझट तो नहीं होती है। शिक्षा तो मानवीय ज्ञान के उत्तरोत्तर विकास की सीढ़ी है जितनी सीढ़ियाँ चढ़ोगे उतनी ऊँचाइयाँ प्राप्त कर लोगे।
बहुत झमेले खड़े होते हैं। कितना कुछ नहीं सहना पड़ता है शोधार्थी को। तब कहीं एक डिग्री प्राप्त होती है। शोध निदेशक के अलग नख़रे। यह डिग्री होती ही ऐसी कि शोधार्थी को बिना रुलाए पूर्ण नहीं होती है। मैं छोटे क़स्बों वाली जद्दोजेहद बता रहा हूँ। शहरों में क्या होता है यह मैं न बता पाऊँगा। चूँकि मैंने छोटे क़स्बे के कॉलेज से इसे हासिल किया है। इस दुर्लभ डिग्री को मैंने इसी हालत में प्राप्त किया है। मिल जाने के बाद बड़ी प्यारी लग रही है।
सन् 2005 में मुझे बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झांसी से “जनपद जालौन का सारस्वत योगदान” वाला टापिक मिल गया था। इस टॉपिक का चुनाव मेरा अपना कम, मेरे शोध निदेशक आदरणीय डॉ. रामस्वरूप खरे साहब का ज़्यादा था। उनके विचार में एकदम नया टॉपिक होना चाहिए जिस पर अभी तक शोध न हुआ हो। जनपद जालौन के साहित्यकारों पर शोध उस समय तक नहीं हुआ था। मेरा विचार था कि मैं या तो छायावादी कवियों पर शोध कार्य करूँ या मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों पर। मेरे गुरु जी बोले कि इन पर बहुत शोध हो चुका है। तुम इसी विषय पर कीजिए जो मैं कह रहा हूँ। मैंने हामी भर ली। गुरुजी बोले, सिनोपसिस हम बना देंगे, तुम कल आ जाना। उसको टाइप करवा देंगे तो कुछ पैसे ले आना। उन्होंने तीन हज़ार रुपए लाने को कहा।
गाँव से उरई आए हुए तीन साल पूरे न हुए थे। प्राइवेट कॉलेज में अध्यापन कार्य करने लगा था जहाँ पर बहुत कम मासिक वेतन मिलता था। इसके अतिरिक्त कुछ ट्यूशन पढ़ा लेता था।
ज़िला जालौन (उ. प्र.) में ख़ासकर उरई में साहित्य अप्रत्यक्ष रूप से दो भागों में बँटा हुआ था। आज की स्थिति क्या है मैं नहीं बता सकता हूँ। उस समय एक कायस्थ ग्रुप था और एक ब्राह्मण ग्रुप। ये दोनों ग्रुप बुद्धिजीवियों के ग्रुप थे। दोनों तरफ़ से ख़ूब साहित्य लिखा जा रहा था और भर-भरकर काव्य गोष्ठियाँ होती थीं। अन्य लोग जो बीच के थे, वे दोनों ग्रुपों में बराबर के भागीदार थे। दोनों ग्रुपों के कचरे की सारी ज़िम्मेदारी इनके निरीह कानों पर ही थी। एक दूसरे की आलोचना इन्हीं के कारण सम्भव थी।
इन्हीं अन्यों में से एक मैं भी था। इसलिए मैं इन दोनों को कुछ-कुछ समझने लगा था। लेकिन मेरा दिमाग़ तब चकरा जाता था जब ये दोनों ग्रुप के लोग किसी एक कार्यक्रम में इकट्ठे होते। आपस में इतने आत्मीय हो जाते कि लगता ही नहीं था कि सामने वाले ने जैसा चारकोल मेरे सामने उस दिन इन पर लगाया था ये वही हैं या कोई और। मैं मूड पटककर रह जाता। धन्य है रे साहित्यकारो! ऐसी जगमिलाई अगर पुतिन और जैलेंस्की में हो जाए तो युद्ध बुरा नहीं है।
दोनों ग्रुप के मुखिया लोग अधिकतर डिग्री कॉलेजों के प्रोफेसर/प्रिंसिपल थे। दूसरे नंबर के प्राध्यापक, अध्यापक, बाबू और व्यवसायी थे। हम जैसे कुछ लिद्दण लोग भी थे जो बेरोज़गारी के मारे कहीं शिफ़्ट होने के लिए हाथ-पैर मार रहे थे। रोज़ी-रोटी चलाने के लिए प्राइवेट कॉलेजों में अपना अर्जित ज्ञान इस आशा में उड़ेल रहे थे कि अगले साल कुछ बढ़ा हुआ वेतन मिलेगा। फिर भी आशाएँ अधूरी रह जाती थी।
मैं शोध कार्य में जुट गया। फ़ील्ड का काम ज़्यादा था। क्योंकि सारे साहित्यकारों पर लिखना था। उनके पास जाना, उनके बारे में जानकारी जुटाना कि उन्होंने क्या लिखा है, इनके लिखने का कारण क्या था, बचपन की कोई एक घटना ऐसी हो जो शोधग्रंथ में दी जा सके, जिससे शोध अधिक प्रामाणिक बन जाए आदि . . . आदि।
आज की भाषा में मैं इसे इंटरव्यू कहूँ तो आप सबके सामने मेरा सम्मान बढ़ सकता है पर झूठी शान में जीना मुझे अच्छा नहीं लगता है। एक तो मेरा साधारण-सा पहनावा ऊपर से बोली-बानी ठेठ गाँव की। साफ़-सुथरा रहा जाए यही बहुत था। सजने-सँवरने में ज़्यादा विश्वास नहीं था। आल्हा की ये पंक्तियाँ—“सजे सजायन खें को साजे, जिनको साज दिए भगवान!” (सजे सँवरे व्यक्ति को कौन सजा सकता है, उसे तो स्वयं भगवान ने सुंदर बनाकर भेजा है) जिसे गाँव वाले अक्सर इसी संदर्भ में गुनगुना लेते थे। मैंने भी इन पंक्तियों की नक़ल मारकर जीवन में उतार ली थी।
देहातीपन और शोध का इससे कहीं साम्य नहीं बैठता था। ऊपर से ग़रीबी को कितनी भी दबाकर रखो, कहीं न कहीं से दिख ही जाती थी। कुछ लोग मेरी ऐसी हालत देख सुनकर ही भगा देते थे कि जाओ, अभी टाइम नहीं है, फिर आना। जबकि वे अपने मित्रों के साथ गप्पबाज़ी कर रहे होते थे।
मैंने साहित्यकारों के लिए एक फ़ॉर्म तैयार कर लिया था। उसको टाइप करवाकर साठ-सत्तर के लगभग फोटो कॉपी निकलवा ली थी। फ़ॉर्म में क्रम इस प्रकार था: साहित्यकार का नाम, माता-पिता का नाम, शादी हुई है तो पत्नी बच्चों के नाम आदि। बचपन की कोई ऐसी घटना जो अभी तक याद हो। प्रकाशित कृतियाँ, अप्रकाशित कृतियाँ। सम्मान, पुरस्कार आदि। सबसे नीचे मेरे द्वारा विश्लेषण। अधिकतर साहित्यकार विश्लेषण शब्द पढ़कर भड़क जाते थे। मैं इतना बड़ा साहित्यकार हूँ, तू मेरा विश्लेषण करेगा? मेरा संक्षिप्त जवाब होता था कि मैं रचना के बारे में लिखूँगा कि यह रचना किस स्तर की है। वे हँस पड़ते थे कि ये हमारा स्तर बताएगा।
इस दरमियान बड़े खट्टे-मीठे अनुभव रहे। ज़िले की अन्य तहसीलों के साहित्यकारों से मिलने रविवार को सुबह तड़के निकल जाता था। कुछ सामग्री उपलब्ध करवा देते थे, तो कुछ टरका देते थे।
कुछ लोग बहुत उदार और दयालु थे। मैं शोध छात्र हूँ और उसी संदर्भ में उनके पास आया हूँ यह जानकर वे कहते कि पहले खाना खाओ, फिर बात करेंगे फिर सामग्री भी उपलब्ध करवा देंगे। इस मामले में मैं बहुत संकोची था। मैं किसी के यहाँ खाना खाने से बस भर बचता हूँ। लेकिन उनका हठ और स्नेह ऐसा था कि मैं खाना खा लेता था। मैं इस वाक़ये को लिख रहा हूँ तो वह दृश्य आँखों के सामने आ गया है। गुरु तुल्य साहित्यकार महोदय मेरे साथ बैठकर खाना खा रहे हैं। आज मैं कृतज्ञ हूँ उनका।
कुछ लोग अपनी कविताएँ बहुत सुनाते थे। इतनी कि नींद आने लगती थी। नींद को कंट्रोल करना पड़ता था। कविता सुनते समय ऐसी हरकत अशोभनीय मानी जाती है।
कुछ कवियों को रचना सुनाने की बड़ी बीमारी होती है। सुनने वाला मिल जाए तो अफ़रा देते हैं। मेरे जैसा तर्क करने वाला हो तो कहने ही क्या है! मैं बोल देता कि ये पंक्तियाँ ठीक हैं। तीसरी, चौथी पंक्ति में ये दोष दिख रहा है। ऐसी बातें करता तो मामला लंबा खिंच जाता था। मतलब पूरी डायरी की कविताएँ सुननी पड़ती थीं। तर्क करने की ये मेरी भी बीमारी थी। जब बीमार, बीमार मिलते हैं तो दुख-सुख का रोना तो चलेगा ही। इसमें दो राय नहीं है।
आगे से मैंने सोच लिया था कि मुझे अपनी बीमारी ठीक करनी है। नहीं तो काम हो नहीं पाएगा। केवल रविवार का समय मिलता है। और यह समय एक कवि के लिए समर्पित करना ठीक नहीं है।
एक रविवार को दूसरी तहसील के साहित्यकारों के पास जाने का प्लान बनाया। एक वरिष्ठ साहित्यकार का पता पूछते-पूछते उनके घर तक पहुँच गया। घर अच्छा बना हुआ था। मैंने डोरबेल बजाई। गेट घर की महिला ने खोला। मैंने अपना परिचय शोध छात्र के रूप में दिया। और बताया कि इस संदर्भ में मैं उनसे मिलना चाहता हूँ। वे महिला अंदर गई। थोड़ी देर बाद वे मुझे उनके कमरे तक छोड़ गईं। आगे लिखूँ या न लिखूँ संकोच हो रहा है। मेरे लिए नहीं उनके लिए। लिखे ही दे रहा हूँ।
वे पलंग पर लेटे हुए थे। शायद तबियत उतनी ठीक नहीं थी जितनी होनी चाहिए। वहाँ बिछी हुई बोरी पर बैठने के लिए मुझे कहा। मैं पहले तो थोड़ा सकुचा फिर बैठ गया। मैंने अपनी सारी स्थिति बताई और एक फ़ॉर्म मैंने उनकी ओर बढ़ा दिया। उन्होंने फ़ॉर्म एक तरफ़ रख दिया और एक काग़ज़ पर लिखी कविता मुझे पकड़ा दी। वे बोले—“इस कविता को पढ़कर बताओ कि इसमें कौन सा अलंकार है।”
मैंने कविता को ध्यान से पढ़ा। उस समय मैं शोध के साथ नेट की तैयारी भी कर रहा था। तो मेरे पढ़ने का स्तर ठीक ही था। उस कविता में मैंने वे अलंकार तो गिनाए ही गिनाए जिनका प्रयोग उन्होंने अपनी रचना में किया था। मैंने वे अलंकार भी गिना दिए (परिभाषा सहित तथा उस रचना की पंक्ति के साथ) जिनकी उन्होंने कल्पना न की थी। उस रचना में इन अलंकारों का प्रयोग हुआ था। वह रचना गज ग्राह संघर्ष के आख्यान पर आधारित थी।
मेरा जवाब सुनकर वे उठकर बैठ गए और नारा सा लगाते हुए बोले—“तू पीएच.डी. कर लेगा।” उन्होंने कुर्सी की तरफ़ इशारा करके कहा कि उस पर बैठो। भीतर आवाज़ देकर चाय के लिए बोल दिया। उन्होंने अपनी डायरी मेरे सामने रखते हुए कहा कि जो-जो रचनाएँ चाहिएँ वे तू इसमें से लिख ले।
पुस्तक रूप में रचनाएँ यहाँ कम लोगों के पास थीं। डायरियों में कविताएँ लिखी रहती थीं। उसीसे वे काव्य गोष्ठी एवं मंचों से कविता सुना दिया करते थे।
मैंने इस दरमियान ये देखा है कि आप साहित्यकार कैसे भी हों लेकिन घमंड सबका बराबर का होता है। सामने भले ही कहें कि अरे कहाँ कुछ लिख पाते हैं। बस काग़ज़ काले कर देते हैं। इस कहन को कोई अभिधा में लेता है तो निरा मूर्ख माना जाएगा। इस कहन की पहुँच सीधे व्यंजना में होती है। उसका मतलब होता है कि अभी आपने देखा ही क्या है? ये तो कुछ नहीं है, साहित्य भरा पड़ा है। काव्य गोष्ठियों में डंका बजता है। जब मैं मंच से रचना पढ़ता हूँ तो लोग तालियों से माहौल गुंजा देते हैं। हल्के में मत लेना।
यही स्थिति मैंने उनकी भी देखी है जो अभी कविता सीख रहे थे। सीखे हुए लोग भी कम नहीं थे। जितना उन्होंने शुरूआत में लिख लिया था उसी को दोहराते रहते थे। वे उससे आगे बढ़े ही नहीं। दो-तीन रचनाओं के सहारे पूरी ज़िन्दगी निकाल देते हैं। कुछ साइलेंट साहित्यकारों को भी देखा है जो लिखते बहुत है पर गाते नहीं है। कुछ दिनों बाद उनका साहित्य सामने आता है तो उन्हें ख़ूब यश मिलता है।
उरई तहसील तो मेरी अपनी तहसील है। कॉलेज के बाद साइकिल उठाई और साहित्यकारों से मिलने पहुँच जाता। कुछ साहित्यकार फ़ॉर्म ले लेते और दो दिन बाद आने को बोल देते। दो दिन बाद गया तो फिर अगली तारीख़ दे देते। उस समय शायद यह फ़िल्म रिलीज़ नहीं हुई थी जिसका संवाद था—तारीख़ पर तारीख़, तारीख़ पर तारीख़ . . . ख़ैर फ़िल्मी चीज़ों को छोड़ो, आप तो इसे पढ़िए। मैंने विनम्र स्वर में कहा कि सर काफ़ी दिन हो गए आपने अपनी रचना तथा बायोडाटा दिया नहीं है। मेरी पीएच.डी. नहीं हो पाएगी।
वे महाशय ग़ुस्से में बोले, “मेरे लिए कर रहे हो क्या पीएच.डी.!” मुझे भी ग़ुस्सा आ गया। मैंने उसी टोन में बोल दिया, “आप मेरा फ़ॉर्म वापस कर दीजिए। आप पर नहीं लिखूँगा तो मेरी पीएच.डी. रुक नहीं जाएगी।”
उन्होंने फ़ॉर्म लाकर ज़मीन पर फेंक दिया। मैंने फ़ॉर्म उठाया और लौट आया।
दूसरे दिन जब मैं अपने गाइड महोदय जी के यहाँ अपनी प्रगति रिपोर्ट दिखाने गया तो वहाँ का माहौल ही अलग था। गुरुजी मुझ पर भड़क गए। उन महाशय ने मेरी शिकायत कर दी थी कि आपका शोध छात्र बहुत बदतमीज़ है। न तो उसे बोलने की तहज़ीब है और न सम्मान देने की अक़्ल। वह पैर तक नहीं छूता है।
मैंने अपनी बात रखी पर गुरुजी ने एक न सुनी। उन्होंने यही कहा कि वे सरस्वती पुत्र हैं, पैर छूने में कुछ नहीं जाता है। पैर छूना तो हमारी संस्कृति का हिस्सा है। कल फ़ॉर्म लेकर उनके पास जाना वे सामग्री उपलब्ध करवा देंगे।
ग़ुस्सा बहुत आया कि शोध छोड़-छाड़ दूँ पर मन मार लिया। दूसरे दिन उनके पास पहुँच गया।
मैंने उनके पैर छुए और फ़ॉर्म पकड़ा दिया। लेकिन मैंने उनसे ढंग से बात न की। मुँह लटकाए बैठा रहा। वे अपना बायोडाटा फ़ॉर्म पर लिखते रहे। बायोडाटा पूर्ण हो जाने पर उन्होंने फ़ॉर्म वापस लौटा दिया और अपना एक प्रकाशित कविता संग्रह मुझे दे दिया। मैं वापस लौट आया।
ग़रीबी और मजबूरी आदमी को उम्र से अधिक चालाक बना देती है। वह आदमी गुरुजी के ग्रुप का था। मुझे महसूस हो चुका था कि गुरुजी अपने ग्रुप के हर सदस्य की बात को ‘ब्रह्म वाक्य’ मानते हैं। उनके झूठ के आगे मेरे सत्य की कोई औक़ात नहीं थी। यहाँ कुछ होने वाला नहीं है। इसलिए मैंने अपोजिट ग्रुप की ओर रुख़ किया। यहाँ पर देखा तो वे साँपनाथ थे तो ये नागनाथ निकले।
जिस किसी के पास जाता वही पूछता कि किसके अंडर में पीएच.डी. कर रहे हो? मैं सम्मान के साथ अपने गाइड महोदय जी (गुरुजी) का नाम बताता तो वे चट से पूछते कि कितने रुपए ऐंठ लिए तुमसे? मैं कहता कि नहीं, उन्होंने कुछ नहीं लिया है। वे व्यंग्य से हँसते, “बिना कुछ लिए दिए वे पीएच.डी. पर बात ही नहीं करते हैं।” मैं पुनः दोहराता कि कुछ नहीं दिया है मैंने, तो बड़ा ताज्जुब करते। उनके मुख से निकलता, “ऐसा हो ही नहीं सकता।” न जाने कितनों के नाम बताते कि इन-इनके इतने पैसे लिए तब साइन किए।
कुछ लोग ऐसे भी मिले जो कहते थे कि एम.ए. में हमारा एक पेपर डिजर्टेशन का था। लिखा हमने था, लेकिन साइन कराने ले गए तो बिना पैसे लिए उन्होंने साइन न किए थे। यह सुनकर मैं पसीना फेंक देता। पैसा देने की हालत में मैं नहीं था।
ये बातें मैं गुरुजी को बता देता। वे मुझसे पूछते कि मैंने तुमसे कुछ लिया है? जब मैंने पैसे दिए ही नहीं तो झूठ कैसे बोलूँ। मैंने कहा, “न गुरुजी, आपने तो कभी पैसों की बात ही नहीं की। मैंने तो उन लोगों का विरोध किया है जो ऐसा कह रहे थे।”
दशहरा की छुट्टियों में काफ़ी समय मिल गया था। मैं उरई तहसील के साहित्यकारों वाला अध्याय जल्दी पूर्ण कर सकता हूँ। यही सोचकर सुबह दस बजे के लगभग मैं अपने घर से निकल पड़ा। मैंने एक स्वनामधन्य साहित्यकार का दरवाज़ा खटखटा दिया। दरवाज़ा उन्होंने ही खोला था। मेरा परिचय पूछने के बाद वे बोले कि मेरे साहित्य पर तू क्या शोध कर पाएगा? मैंने इतना लिखा है कि उसे पढ़ने में तुझे दो जनम लग जाएँगे। मैंने भी उसी अंदाज़ में कह दिया कि इस जनम भर का साहित्य दे दो, मैं पढ़कर वापस कर दूँगा।
भाई ये क्या बात हुई। वे तो बहुत ज़्यादा बिगड़ गए। उन्होंने क्या कहा था, यहाँ लिखना ठीक नहीं समझता हूँ। मैंने मन बना लिया था कि शोध में इनका नाम नहीं दूँगा।
वैसे मेरी सिनआपसिस में किसी साहित्यकार का स्पेशल नाम तो था नहीं। जनपद के साहित्यकारों पर लिखना था। मैं छोड़ देता, छोड़ भी रहा था लेकिन हमारे गाइड महोदय जी को हर एक नाम चाहिए था। वे हर साहित्यकार के बारे में पूछते कि फ़लाँ का हो गया . . .। फ़लाँ का हो गया। झूठ बोलना मुझे नहीं आता था।
एक दिन मैंने गुरुजी के अपोजिट ग्रुप के लीडर के पास जाने का फ़ैसला किया। वे डिग्री कॉलेज के प्राचार्य थे।
मैंने साइकिल उठाई और चल दिया उनसे मिलने। वहाँ पहुँच कर मैंने इधर-उधर देखा। फिर हिम्मत जुटाकर दरवाज़ा खटखटा दिया। उनके नौकर ने दरवाज़ा खोला। मैंने उसे अपने आने का मंतव्य बताया और उससे निवेदन भी किया कि सर से बता दीजिए कि मैं उनसे मिलना चाहता हूँ। मैंने उनके बारे में इतना सुना था कि वे बहुत सादगी से रहते हैं और खुलकर बात करते हैं।
नौकर ने अंदर जाकर उन्हें बता दिया। वे बाहर निकल आए। मैंने पैर छूकर नमस्ते की और बताया कि मैं पीएच.डी. कर रहा हूँ।
वे बोले, “क्या नाम है तुम्हारा?”
“जी, मेरा नाम लखनलाल है।” मेरी मार्कशीट में यही नाम लिखा है।
यह सुनकर वे कुछ चिंतित से दिखे। फिर बोले, “आगे।”
मैंने कहा, “पाल, लखनलाल पाल।”
वे ठहाका मारकर हँस पड़े और अपनी पत्नी को संबोधित करते हुए बोले, “. . . इधर तो देखो, ये गड़रिया पीएच.डी. कर रहा है।” उनकी पत्नी बाहर निकल आई थी। चेहरे पर उसी मुस्कान के साथ बोले कि हे पाल! हमारे गाँव के पाल तो भेड़ें चराते हैं। तुम तो पीएच.डी. करने लगे।
उन्होंने आगे पूछा कि आप किसके अंडर में पीएच.डी. कर रहे हो? मैंने नाम बताया तो फिर हँसे और बोले, “वह आदमी तुम्हें कंगाल कर देगा। न जाने कितनों को लूट लिया है, तुम्हें भी लूट लेगा।” वे रुके नहीं थे, बोले जा रहे थे, “मुझे पता चल गया था कि कोई लड़का उसके अंडर में पीएच.डी. करने लगा है। पर ये मालूम नहीं था कि तुम ही हो।”
ग़ुस्से और अपमान से मैं तिलमिला गया था। मैं उस समय क्या कर सकता था? ज़्यादा से ज़्यादा उन्हें दो-चार बातें सुनाकर अपना क्रोध शांत कर लेता। इसके बाद का क्या? मेरे सामने कोई विकल्प भी तो नहीं था।
जब आप संघर्ष कर रहे हों तो ऐसे वाक़ये ज़िन्दगी में आते रहते हैं। हम क्या कर सकते हैं। उस समय यह आम बात थी। शिक्षित लोगों की दृष्टि में मैं सिर्फ़ एक जाति हूँ तो क्या कहा जा सकता है! दूसरी बात क़स्बे में रहने की जद्दोजेहद, साथ में परिवार के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी ये सब सुनने को, सहन करने को बाध्य कर रहे थे।
इस पर मैंने बहुत मनन किया। अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि जाति तो नहीं ही जाएगी क्यों न इसका उपयोग कर लिया जाए।
मैंने अपनी जाति को अपनी ताक़त बना लिया। मेरे लिए यह संबोधन अब से मेरी ढाल थी। मैंने इस वाक़ए को गुरुजी को बताया। इसके साथ ही जहाँ भी जाता इस प्रसंग को ज़रूर सुनाता। क्रोध में नहीं, मौज में और पूरी मस्ती के साथ, रस ले-लेकर। पूरे क़स्बे में चर्चा हो गई। गुरुजी काव्य गोष्ठियों में या अन्य कहीं जाते तो लोग-बाग मेरी बातें गुरुजी को बताते। गुरुजी भी कॉलर ऊँचा करने वाले अंदाज़ में कहते कि भाई लड़का अपने दम पर पीएच.डी. कर रहा है तो हमें साइन करने में क्या दिक़्क़त है? वो थीसिस लिखकर लाएगा तो हम उसमें दस्तख़त कर देंगे।
ज़िले के अन्य साहित्यकार अब मुझसे नरमी से पेश आने लगे थे। डर रहे थे कि ज़रा सा उल्टा-सीधा बोल गए तो पता नहीं ये लड़का कहाँ तक लंगूर फिरा देगा। मैंने अपने लिए सोफ़्टज़ोन तैयार कर लिया था।
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टिप्पणियाँ
लखनलाल पाल 2025/05/15 03:21 PM
किसान गिरजा शंकर कुशवाहा कुशराज जी झांसी, बहुत बढ़िया प्रतिक्रिया है ये आपकी। ये तो है कि इन राहों से शोधार्थी को गुजरना पड़ता है। समय इन बातों को अपडेट जरूर कर देता है लेकिन उसके मूल में रहता यही सब है। बहुत-बहुत धन्यवाद कुशराज जी
लखनलाल पाल 2025/05/15 03:18 PM
प्रोफेसर विजय महादेव गाडे सर,मुझे इस बात की खुशी है कि आपके गुरूजी(शोध निदेशक जी) इस ग्रुप की शोभा बढ़ा रहे हैं। आपको देखकर, पढ़कर उन्हें फख्र होता होगा कि उन्हें आप जैसा उत्तम छात्र मिला है। (गुरूजी के लिए शिष्य हमेशा छात्र ही रहता है, भले ही कितने बड़े पद पर क्यों न पहुंच गया हो)आप उनके काम को भी आगे ले जा रहे हैं, उन्हीं की परंपरा में। इस तरह की पीढ़ी तभी तैयार होती है जब हम अपना आदर्श सबके सामने रखते हैं। आपका यह आदर्श प्रशंसनीय है। निश्चित तौर पर आगे की पीढ़ी इसे ससम्मान याद रखेगी। मेरे इस आत्मकथन के बहाने आपके बारे में, गुरूजी के बारे में जानकारी मिली। अच्छा लगा। रचना पढ़ने के लिए और उस पर अपने अनुभव शेयर करने के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद सर।
डा.रामशंकर भारती 2025/05/15 01:14 PM
*आत्मकथा के व्यथाई उच्छवास* *साहित्य कुञ्ज* में प्रकाशित वरिष्ठ कथाकार डॉ० लखनलाल पाल की आत्मकथा का अंश.*एक शोधार्थी का आत्मकथन* पढ़ा। भाई लखनलाल पाल ने इस लेख में आत्मकथा लेखन की मूल आत्मा को सुरक्षित रखते हुए पीएचडी शोधार्थी बनने के दौरान हुए अपने खट्टी-मीठे अनुभवों को बिना लाग लपेट के लिखा है। अपनी आत्मकथा के इस अंश में उन्होंने प्रमुखता से तीन-चार बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित किया है। मेरी समझ में पहला बिंदु है कि पीएचडी करना न तब आसान था न अब आसान है। इस उपाधि लेने के लिए अध्ययन व शोध कार्य के अलावा तमाम पापड़ बेलने पड़ते हैं। शोध निदेशकों के नखरे, विद्वानों की अहमन्यताएँ आदि अनेक ऐसे प्रसंग हैं जिन्हें न चाहते हुए भी शोधार्थी को स्वीकार करना पड़ता है। दूसरा उन्होंने साहित्यकारों व कवियों की गुटबाजी, आपस में एक दूसरे की टांग खिचाई, आदि का बखूबी खुलासा किया है। तीसरा सरस्वती पुत्रों के दोहरे चरित्र, उनकी संकीर्ण मानसिकताएँ और थोथे दंभों की भी उन्होंने जमकर बखिया उधेड़ी है। उन्होंने जाति को लेकर साहित्य-समाज की सोच को भी बखूबी उजागर किया है। वास्तव में लखनलाल पाल ने अपनी आत्मकथा के इस अंश में अपने भोगे हुए यथार्थ को बड़ी ईमानदारी से लिखा है। बहुत दुःख होता है जब किसी प्रतिभावान व्यक्ति को उसी साहित्यिक बिरादरी के लोग महत्वहीन और अपदस्थ करने में अपना गौरव समझते हैं। आत्मकथा के इस अंश में सरस्वती पुत्रों के दोहरे चरित्र, उनकी जातिगत संकीर्णताएँ, अहमन्यताएँ, विद्रूपताओं, विडंबनाओं आदि का खुलासा लखन लाल पाल ने अपने ही अंदाज में किया है। संभवतः क्रांतिकारी कवि और समाज सुधारक संत कबीर ने कहा था- "जाति ना पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान .... मुझे लगता है कबीर की इस उक्ति को हमारा जातिपूजक समाज कभी भी स्वीकार नहीं कर सकता। सामाजिक समरसतावाली कबीर की इस उक्ति को उलट कर यों पढ़ना चाहिए ... 'जाति ही पूछो साधु की 'धरा रहन दो ज्ञान' जिस समाज में जाति के आधार पर मनुष्य की हैसियत निर्धारित की जाती हो वहाँ पिछड़े पाल समाज का पशुपालक जाति का व्यक्ति पीएचडी का शोधार्थी कैसे और क्यों बन सकता है ? जैसी विकृत मानसिकताएँ साहित्य के पुजारियों कीं हों, तो फिर शेष समाज की मनोदशा का अंदाजा लगाना बहुत सरल है। सामाजिक समरसता का जयघोष करनेवाले संगठन, व्यक्तियों व विद्वत् समाज से अपने शोध के दौरान लखन लाल पाल ने संभवतः यही उम्मीद की होगी कि उनकी गुणवत्ता व योग्यता के आधार पर उन्हें समुचित सहयोग व सद्भाव समाज से अवश्य मिलेगा, किंतु इसके बदले कुछ अपवादों को छोड़कर वे हर जगह छले गए, प्रकारांतर से अपमानित भी हुए। जबकि पाल जाति स्पर्शीय समाज का अंग मानी जाती है। सीधेसादे समाज के रूप में गड़रिया समाज की मान्यता सर्वविदितहै। यदि शोधार्थी अछूत समाज से होता तब उसकी क्या स्थिति होती, इसकी कल्पना मात्र से दिल बैठ जाता है। हमारी सामाजिक संरचना बड़ी विचित्र है। हमारे देश की इस सामाजिक संरचना में अनेक पेंच हैं। कहने- सुनने को आदर्श की अनेक बातें हैं। लेकिन यथार्थ के कठोर धरातल पर तो चारों तरफ दहकते रेगिस्तान हैं। वीभत्स अँधेरे छितराए हुए हैं। वहाँ समाजिक बराबरी की बातें आकाश कुसुम है... हलांकि अब समय की माँग के चलते अपने हितलाभ को देखते हुए कुछ बदलाव जरूर हुआ है। सामाजिक परिस्थितियाँ भी बदलीं हैं। मगर लेखक के शोधवर्ष 2005 से लेकर 2025 के इन दो दशकों में सामाजिक समरसता का मंत्र कितना असर कर पा रहा है, समाज की सोच कितनी बदली है, यह आज भी शोध का विषय है। मसिधर्म के संवाहक होने का दावा करने वाले स्वघोषित महाकवियों, राष्ट्रीय कवियों, अंतरराष्ट्रीय कवियों एवं साहित्यकारों के असहज कार्यव्यवहार को डॉक्टर लखनलाल पाल ने अपनी संस्मरणात्मक आत्मकथा में बहुत ही सहज होकर लिखा है। गोया कुछ हुआ ही न हो। मेरा सौभाग्य है भाई लखनलाल पाल के शोध निदेशक डॉ० रामस्वरूप खरे मेरे भी शिक्षागुरु रहे हैं। उनके पावन सान्निध्य में मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। उनकी पुण्य स्मृतियों को सादर प्रणम करता हूँ। अपनी साहित्यिक यात्रा के दौरान मई 2019 में भाई लखनलाल पाल से मेरी पहले भेंट उरई में उनके आवास पर हुई थी। इसके पूर्व उनसे फोन पर यदाकदा बातचीत हो जाती थी। तभी उन्होंने अपने शोधग्रंथ *जनपद जालौन का सारस्वत योगदान* मुझे दिखाया जिसमें मेरा भी साहित्यिक उल्लेख था। इसके पूर्व मुझे यह जानकारी नहीं थी। *एक शोधार्थी का आत्मकथन* के बहाने डॉ० लखनलाल पाल ने पीएचडी करने के दौरान आईं विसंगतियों और नाइंसाफियों से अपनी जद्दोजहद का चिट्ठा खोलकर हमारे सामने रख दिया है। यह उनकी आत्मकथा का अंश भले ही हो लेकिन मैं इसे उनकी पीएचडी का दस्तावेजी सारांश और इंतखाब मानता हूँ। उनकी आत्मकथा के दूसरे अंश की प्रतीक्षा रहेगी। *साहित्य कुञ्ज* के संपादक मण्डल को एक अच्छी आत्मकथा प्रकाशित करने के लिए अनेक साधुवाद। डॉ० रामशंकर भारती 15 मई 2025
प्रोफ़ेसर डॉ विजय महादेव गाडे 2025/05/14 10:25 PM
लखन लाल पाल जी आप ने अपनी रचना से हमें भी अतीत में झांकने के लिए विवश किया. पीएच-डी की भूख हर शोधार्थियों को बेचैन कर देती है. हमारे लिए भूख शब्द शोध का विकल्प है. भू अर्थात धरती और ख अर्थात आकाश इनके बीच जो आता है वह शोध की विषयवस्तु है. आपने टेबल वर्क कम ग्राउंड वर्क अधिक किया है जब की हमने टेबल वर्क ही किया है. मेरे शोध निदेशक मेरे प्रोफेसर आदरणीय प्राचार्य डॉ राजेन्द्र शाह सर हैं जो इस समुह की शोभा बढ़ा रहे हैं. उन्होंने मेरी सदैव हौसला अफजाई की और मुझे मदद देने में कोई कोताही नहीं बरती. न कभी पैसों की बात कही और न कोई मांग की. शोध समाप्ति तक उन्होंने मेरी सहायता की और मुझे डॉक्टर विजय महादेव गाडे बना दिया. मेरी तरह आप भी भाग्यशाली हैं कि हमारे निदेशक महोदय बेदाग साबित हुए हैं. आज हम शोध निदेशक हैं और ४ छात्रोंने हमारे गाइडेंस में पीएच - डी प्राप्त की है लेकिन भूलकर भी हमनें कोई अनुचित गोरखधंधा किया इसका संपूर्ण श्रेय आदरणीय गुरुदेव जी को ही है. निस्संदेह एक बात सही है कि आप ने इस दौरान काफी संघर्ष किया है इसके लिए आप के जज्बे को सलाम करते हैं. आज शोध में समीक्षा कम और आलोचना ही अधिक दिखाई देती है और कापी पेस्ट के मुआमले ही नजर आते हैं जिससे पूरा शोध क्षेत्र प्रभावित है. शोधकर्ता खुद को तिसमारखां समझते हैं और अनुशासन हीन शोध सामने आ रहे हैं. तथाकथित रचनाकारों का मुझे अधिक अनुभव नहीं मिला क्योंकि मैंने गोपालदास नीरज जी पर शोध कार्य किया है और नीरज जी ने कभी पत्र तो कभी फोन के माध्यम से सहायता की जिसके पीछे मेरे शोध निदेशक का ही सहकार्य था. आप की रचना के कारण एक अलग विषय पर लिखने का मौका मिला इसलिए आप को धन्यवाद. आपने जिस इमानदारी से इस अनछूए विषय पर लिखा वह तारीफ के काबिल है. हमें अगले हिस्से की प्रतीक्षा रहेगी. इकबाल की एक पंक्ति उधार लेकर उसमें बदल करते हुए विराम लेता हूं मैं खुद हूं अपने नुक्ताचीनों में सादर ????
किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज' 2025/05/14 09:45 PM
हिन्दी और बुंदेली के प्रतिष्ठित किसान कथाकार डॉ० लखनलाल पाल की आत्मकथा के अंश 'एक शोधार्थी का आत्मकथन' में भारतीय शोधार्थी के संघर्ष की कथा बड़ी बेबाकी से कही गई है। शोध-जीवन के दौरान कॉलेजों-विश्वविद्यालयों, अकादमिक जगत, साहित्य जगत के साथ ही समाज में शोधार्थी के साथ कभी जाति, कभी भाषा, कभी व्यवसाय और कभी वेशभूषा के आधार होने वाले अपमानों और सम्मानों को दिखाया गया है। इस आत्मकथ में शोधार्थी के आर्थिक और बौद्धिक शोषण को उदारहण सहित प्रस्तुत किया गया है। छोटे-बड़े यानि टूटपुँजया-मठाधीश साहित्यकारों के घमण्ड की प्रवृत्ति पर तंज कसा गया है। शोध के दौरान शोधार्थी को साहस और ईमानदारी से काम करना चाहिए, यही लखनलाल पाल जी का इस आत्मकथ्य के माध्यम से आज के शोधार्थियों और भविष्य के शोधार्थियों को संदेश है। आदरणीय पालसाब को अनोखी आत्मकथा हेतु भौत-भौत बधाई ! ©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा 'कुशराज' (युवा आलोचक) 14/5/2025, झाँसी, अखंड बुंदेलखंड
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लखनलाल पाल 2025/05/22 09:09 PM
डॉ रामशंकर भारती जी की विस्तृत समीक्षा पढ़कर अच्छा लगा। उन्होंने तो कोना-कोना छान मारा है। आत्मकथा में प्रत्यक्ष,अप्रत्यक्ष रूप से जोरदार ढंग से उठाए गए सामाजिक व साहित्यिक पहलुओं पर आपका विश्लेषण पढ़ने योग्य है। किसी भी बिंदु को आपने ओझल नहीं होने दिया है। थीसिस में आपका नाम आना संयोग कहूं या कुछ और।चूंकि आप जनपद जालौन के साहित्यकार हैं तो मेरी पी-एच०डी० में आपका आना जरूरी था। आप जिला जालौन से झांसी आ गए थे। मेरी खुद की सीमा उस समय जालौन तक ही थी। डॉ नासिर अली नदीम जी एक पत्रिका 'सबकी खैर खबर' जालौन से निकालते थे। उसी में आपका परिचय व रचनाएं प्राप्त हो गई थी। स्वाभाविक है आपका नाम उस थीसिस में आना ही आना था। जबकि इससे पहले मैं आपको नहीं पहचानता था। मेरे शोध में इस पत्रिका का काफी योगदान रहा है। भारती जी इतनी बढ़िया समीक्षा के लिए आपका बहुत-बहुत आभार????