साहित्य का निर्भीक साधक: डॉ. रामशंकर द्विवेदी जी
संस्मरण | स्मृति लेख डॉ. लखनलाल पाल1 Nov 2025 (अंक: 287, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
इस समय साहित्य के क्षेत्र में उरई को जाना जाता है तो डाॅ. रामशंकर द्विवेदी जी के नाम से जाना जाता है। वे आलोचक, निबंधकार के साथ साथ अनुवादक भी है। बांग्ला भाषा में उनका बहुत काम है। वे निरंतर साहित्य साधना में लीन रहते हैं। इसमें वे कभी हीला-हवाला नहीं करते।
अट्ठासी वर्ष की उम्र पार करने के बाद भी उनका लेखन आज भी बदस्तूर जारी है। ऐसा क़लम का परिश्रमी साहित्यकार मैंने नहीं देखा है।
सभी क़स्बों, शहरों की तरह उरई में भी बहुतायत में साहित्यकार हैं। यहाँ अधिकांश साहित्यकार कविता ही लिखते हैं। वे कवि गोष्ठी एवं मंचों पर अपनी ठीक-ठाक उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
सन् 2008 से मेरा उनसे परिचय हुआ था। जानता तो मैं और पहले से था पर उठना-बैठना इसी वर्ष से हुआ था। स्थानीय साहित्यकारों के बीच उनकी छवि ज़्यादा अच्छी नहीं है। लोग उन्हें स्वभाव से रूखा कहते हैं। हो सकता है कि द्विवेदी जी इस बात को न जानते होंगे। मैं जानता हूँ। जानने का मेरा अपना कारण है।
द्विवेदी जी और मेरी अक्सर शाम को बैठक होती थी। मेरा घर द्विवेदी जी के घर से लगभग दो किलोमीटर दूर है। मेरा घर क़स्बे से थोड़ा बाहर है। द्विवेदी जी का घूमना भी हो जाता था और मेरे साथ उनकी साहित्य चर्चा भी होती। उन्होंने आज क्या लिखा है इस पर वे चर्चा करते थे। शुरूआत में उनका मेरे घर आना मेरे लिए संकोच का कारण बनता था। क्योंकि मेरा घर ऐसा नहीं था कि इतने बड़े साहित्यकार को अपने यहाँ बैठा सकूँ। दो कमरे बने थे और शेष प्लाट को जानवरों से बचाने के लिए बाड़ से घेर दिया था। वह मेरा संघर्ष का समय था। वे आते थे तो मैं उनके लिए आँगन में चारपाई डाल देता, उसमें वे बैठ जाते। दूसरी चारपाई मैं अपने लिए डाल लेता था। लेकिन आज तक उन्होंने मुझे हीनता का अनुभव नहीं होने दिया। जिस जगह बैठा दो, गुरुजी वहीं बैठ जाते।
मैं उन्हें आदर से गुरुजी कहता हूँ। घूमते हुए जब वे मेरे घर की तरफ़ आ रहे होते तो मुहल्ले के लोग मुझे बताने आ जाते कि तुम्हारे गुरुजी आ रहे हैं। मैं तुरन्त सतर्क हो जाता। कपड़े-वपडे़ पहनकर उनका इंतज़ार करने लगता। घर में मैं चाहे जैसा रहूँ पर उनके सामने अप-टू-डेट रहने का प्रयास करता। क्योंकि गुरुजी हमेशा साफ़-सुथरे कपड़े (धोती कुर्ता) पहनते हैं। उनकी आँखों पर चश्मा होता। धोती कुर्ता में वे बहुत आकर्षक लगते हैं।
गुरुजी बैठने के बाद मेरा हालचाल लेते। मैं हमेशा की तरह कहता—ठीक हूँ गुरु जी। इसके बाद वे स्थानीय साहित्यकारों से शुरू होकर मुख्यधारा के साहित्य पर चर्चा करते। साहित्यकारों के साथ उनके साहित्य की क्या विशेषता है वह बताते। वे बांग्ला साहित्यकारों की ख़ूब बात करते। मैंने महसूस किया है कि गुरुजी बांग्ला साहित्यकारों को श्रेष्ठ साहित्यकार मानते हैं। उन्होंने कई बार कहा भी कि बांग्ला साहित्य में उच्च कोटि की रचनाएँ लिखी गई हैं।
चर्चा के बीच मैं उनकी बात काट देता तो वे नाराज़ हो जाते थे। कुछ देर इसी पर बोलते रहते, “लखन, ऐसा है तुम एक-दो जगह छप गए हो सो उछल रहे हो। असली साहित्य क्या है, तुम नहीं जानते हो।”
मैं चुप हो जाता। उस समय न मैं सफ़ाई देता और न अपना बचाव करता। किसी पत्रिका में उनकी कोई रचना प्रकाशित हो जाती तो वे तुरंत बताते। पत्रिका का पता पूछने पर वे ग़ुस्सा हो जाते थे। कहने लगते कि तुम हमारी सेंग मत करो। मैं इस पत्रिका में न जाने कब से छप रहा हूँ। गुरुजी इतने ईमानदार हैं कि जो कहना होता है वह मुँह पर ही कह देते हैं। केवल मेरे ही नहीं, वे स्थानीय साहित्यकारों की भी वास्तविकता बता देते। वास्तविकता गरिष्ठ होती है इसलिए यह कम ही हज़म हो पाती है। वे कहते थे कि पाल (लखन) यहाँ के लोग पत्रिकाएँ नहीं पढ़ते हैं, इसीलिए ये साहित्य में कुछ नहीं जानते। बस वही पुराने ज़माने की पद्धति पर रचनाएँ लिखते हैं और उसी में वाहवाही बटोरते रहते हैं। तुम पत्रिकाएँ मँगाते हो और पढ़ते हो इसीलिए तुम्हें वर्तमान साहित्य की जानकारी है।
गुरुजी साफ़-सुथरे स्वभाव के हैं। वे न किसी से दबते हैं और न ही किसी की झूठी प्रशंसा करते हैं। मुँह पर आलोचना कर देते हैं। इसीलिए स्थानीय साहित्यकार इनसे दूरी बनाए रहते हैं। द्विवेदी जी साहित्यकार के साथ एक पत्रकार भी रहे हैं। पत्रकारिता में वैसी ही निडरता दिखाई देती है जैसा उनका व्यक्तित्व है। उरई ज़िला जालौन (उत्तर प्रदेश) से निकलने वाले दैनिक पत्र ‘लोकसारथी’ में वे ‘दस्तक’ नाम से काॅलम लिखते थे। इस काॅलम में उनका असली नाम न छपकर छद्म नाम ‘अंजली कुमार’ छपता था। यह काॅलम आए दिन लड़ाई-झगड़े के कारण बहुत प्रसिद्ध हो गया था। द्विवेदी जी इस काॅलम में अधिकारियों की कारगुज़ारियों को जनता के सामने लाते थे। माफ़िया और गुंडों की करतूतें दस्तक काॅलम में उजागर होती थी। लोकसारथी के दफ़्तर में ये गुंडे हंगामा खड़ा कर देते। वहाँ वे संपादक श्री के.पी. सिंह जी से उलझ पड़ते। के.पी. सिंह जीनियस संपादक हैं, ऐसे लोगों से निपटना उन्हें अच्छे से आता है। लोग अंजली कुमार को ढूँढ़ते, पर वह बंदा मिलता ही नहीं था। संपादक पर बहुत अधिक दबाव बनाया गया तो उन्होंने जालौन ज़िले से सटे हमीरपुर ज़िले के एक आई.ए.एस. अफ़सर को इंगित कर दिया कि वही छद्म नाम से लिखते हैं। हमें विज्ञापन मिलता है तो हम उनको दस्तक काॅलम में छापते हैं। गुंडे, माफ़िया और अधिकारी यहाँ कमज़ोर पड़ जाते थे।
साहस, धैर्य और वाक्चातुर्य आदि गुणों के कारण के.पी. सिंह जी का उरई (जालौन) में बहुत मान है। यहाँ के लोग उन्हें दिल से चाहते हैं।
दस्तक काॅलम के सारे लेख सन् 1996 ई. में राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली से पुस्तक रूप में प्रकाशित हुए। इन लेखों के सम्बन्ध में प्रसिद्ध साहित्यकार धनंजय वर्मा ने समावर्तन पत्रिका के दिसंबर 2015 के अंक में लिखा हैं, “दस्तक की शुरूआत ही होती है—‘हस्तक्षेप करते शब्द’ से जिसमें लेखक की पहली चिंता ही ‘रचना कर्म की प्रासंगिकता’ है। क्या इसे महज़ पत्रकारी कहकर नज़रअंदाज़ किया जा सकता है? यह दस्तक है ही—“साहित्य की, संस्कृति की, कला की, संगीत की। इससे माहौल बनता है। संस्कृति की परंपरा बनती है। मिथकों और प्रतीकों में जान आती है। एक विरासत जनमती है जिसे एक पीढ़ी दूसरे के हाथों सौंपती जाती है।”
‘दस्तक’ पुस्तक में उनका एक नारी विषयक लेख है—‘आधी दुनिया’ जो विभिन्न शीर्षकों से नारी के प्रति उनके अपने दृष्टिकोण को सामने रखता है—“महिला भी सच्ची मित्र हो सकती है। उसे भी मित्र बनाने का अधिकार है। वह भी स्वस्थ सम्बन्ध ‘मेनटेन’ कर सकती है। हमारा दक़ियानूसी मन इस बात को स्वीकार/ग्रहण या सुनने को तैयार नहीं है। उससे या तो हम अत्यंत शुचिता का नाता बना पाए हैं या फिर परंपरागत रिश्तों में उसके बारे में सोचते हैं। उसका अपना कोई सुख-दुख हो सकता है, उसका निजी जीवन हो सकता है उसकी भी पुरुष के समान बराबर की हिस्सेदारी है, उसकी भी अलग एक पहचान है, पुरुष की तरह उसके लिए भी खिड़कियाँ/द्वार खुले हुए हैं।”
वे लेखन कार्य में निरंतर व्यस्त रहते हैं। इसी का परिणाम है कि अब तक उनकी 55 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
उनके साहित्य अवदान पर हैदराबाद की ओर से भारतीय लेखन और पत्रकारिता के लिए उन्हें सन् 1998 में सम्मानित किया। सन् 2000 में द्विवेदी जी को नई दिल्ली के द्विवागीश पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बांग्ला हिंदी अनुवाद के लिए उन्हें 2004 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हो चुका है।
उनकी साहित्य सेवा से प्रभावित होकर समावर्तन पत्रिका दिसम्बर 2015 ने उन पर विशेषांक निकाला था। देश के वरिष्ठ कवि, समीक्षक अशोक बाजपेई जी का ‘जनसत्ता’ 26 जुलाई 2015 ‘कभी-कभार’ में प्रकाशित लेख को इसमें साभार प्रकाशित किया है। उसमें अशोक बाजपेई जी लिखते हैं—“किसी हिन्दीतर भाषा से हिन्दी में अनुवाद करने वाला उनके पाए का दूसरा लेखक नहीं है।”
द्विवेदी जी ने सन् 1964 में हस्तलिखित पत्रिका ‘साहित्य सरोज’ का संपादन किया है। यह पत्रिका इतनी सुरुचिपूर्ण व आकर्षक है कि उसको देखते बनता है। रचनाकारों की रचनाओं के साथ चित्रांकन उसकी विशेषता है। रचना के चयन में द्विवेदी जी सतर्क दिखते हैं। इस पत्रिका के दो अंक ही निकल पाए हैं।
दस्तक से द्विवेदी जी के तेवर समझ में आ जाते हैं। वे जो हैं, वही उनके लेखन में है। वे कहीं कोई मुलम्मा नहीं चढ़ाते हैं। यही कारण है कि लोगों को सच्चाई हज़म नहीं हो पाती। उन्हें मालूम हो गया था कि द्विवेदी जी मेरे यहाँ साहित्य की चर्चा करते हैं। जब मैं कभी उन्हें मिल जाता तो वे द्विवेदी जी को लेकर शुरू हो जाते। आप समझ सकते हैं कि वे उनके बारे में क्या-क्या बोले होंगे! मेरे सामने वे इसीलिए उनकी बुराई करते थे कि मैं उनकी बातें गुरुजी तक पहुँचा दूँगा। जबकि मैं ऐसा करता ही नहीं था। मेरा हमेशा ये मानना रहा है कि इधर की बात उधर नहीं करनी चाहिए। और मैं करता भी नहीं था।
स्थानीय साहित्यकारों को उनसे एक शिकायत हमेशा रही है। वे कहते हैं कि द्विवेदी जी इतने बड़े साहित्यकार हैं, लेकिन उरई वालों को आगे नहीं बढ़ाते हैं। ये बात उनके कानों तक पहुँच चुकी थी।
वे कहते, कि पाल ये बताओ, “मैं इन्हें हाथ पकड़कर लिखवाऊँ क्या? मैंने कई साहित्यकारों को पत्रिकाएँ पढ़ने को दीं। वे पत्रिकाएँ पढ़ते ही नहीं है तो आगे कैसे बढ़ पाएँगे।”
कई बार लोग उनके घर पहुँचकर अपनी रचनाएँ दिखाते कि हमारी रचना ठीक है या नहीं। द्विवेदी जी एक नज़र डालकर उसे वापस कर देते और कहते कि आपकी रचना में कोई दम नहीं है। वह बेचारा अपना सा मुँह लेकर वापस लौट आता। रास्ते भर उन्हें भला बुरा कहकर अपने मन को तसल्ली दे लेता था।
मैं कभी-कभी पूछ लेता था कि गुरुजी आप ऐसा क्यों करते हो? वे कहते कि लखन इन लोगों को पढ़ना कुछ है नहीं, अगर मैं निम्न स्तर की रचना की तारीफ़ कर दूँगा तो वे ऐसी ही रचनाएँ लिखेंगे। दूसरी बात ये कि रोज़ कोई न कोई मेरे पास आकर मुझे डिस्टर्ब करेगा। मेरे काम में बाधा आएगी। वे अक्सर कहते हैं कि साहित्य एक साधना है। और यह साधना एकांत में ही सम्भव है।
आज भी वे सुबह दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर, योगा और ध्यान करने के बाद लिखने बैठ जाते हैं। मैंने अभी दीपावली (2025) को उनसे मुलाक़ात की थी तो बता रहे थे कि लखन मैंने जब से लिखना शुरू किया है तब से कोई दिन ऐसा नहीं गया है जिसमें मैंने पढ़ा न हो और लिखा न हो। अब इसे साधना नहीं कहा जाएगा तो किसे कहा जाएगा!
मैंने महसूस किया है कि साहित्य के प्रति वे सच्चे और ईमानदार हैं। द्विवेदी जी सही अर्थों में समीक्षक हैं। रचना जिस स्तर की होती है, उसकी वे वैसी ही समीक्षा करते हैं। मुँह देखा व्यवहार उनके चरित्र में नहीं है। समीक्षाएँ साहित्य को खाद-पानी देती हैं, जिससे साहित्य फलता-फूलता है।
लोगों के सामने वे उनकी हक़ीक़त कह देते हैं। लोग बुरा मान जाते हैं। द्विवेदी जी पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। उनकी इस साफ़गोई से अधिकतर साहित्यकार दूर ही रहते हैं।
वे मुझसे भी कहते थे कि तुम्हारा लेखन अभी उस स्तर का नहीं है जिस स्तर का होना चाहिए। हंस, कथादेश, समकालीन भारतीय साहित्य आदि पत्रिकाओं में छप जाने से तुम परिपक्व साहित्यकार नहीं हो गए हो। तुम इतने में ही ऊले-ऊले घूम रहे हो। मैं कहता हूँ तुम्हें ज़्यादा से ज़्यादा पढ़ना चाहिए। अच्छे साहित्य को ख़ूब पढ़ो।
जब कभी मैं हंस तथा उसके संपादक आदरणीय राजेंद्र यादव जी के बारे में बात करता तो वे कहते, “राजेंद्र यादव जी को इसका श्रेय जाता है कि उन्होंने नए लेखकों को हंस जैसा साहित्यिक मंच उपलब्ध कराया।” और जब मैं हंस तथा राजेंद्र यादव जी की प्रशंसा ज़्यादा कर देता तो वह खीझ जाते, “लखन! तुम हंस को गीता और राजेन्द्र यादव को कृष्ण मानते हो। मानते रहो, तुम्हारी सोच यहीं तक सीमित रह जाएगी। उससे आगे तुम निकल ही नहीं पाओगे।”
वे बांग्ला साहित्य को श्रेष्ठ मानकर कहते कि बंगाल के अधिकांश साहित्यकार पहले पाँच वर्ष बाल साहित्य लिखते हैं। पूरी तरह हाथ मंज जाने पर ही वे अपनी रचना छपने भेजते हैं। यही कारण है कि बंगाल में अच्छा साहित्य निकलता है। हिंदी लेखकों में उतावली बहुत है। उनमें धैर्य की बहुत बड़ी कमी है। हिंदी का लेखक जल्दी से जल्दी छपना चाहता है और जल्दी ही प्रसिद्धि चाहता है। इसी से वे अधकचरा रह जाते हैं।
अनुवाद के क्षेत्र में द्विवेदी जी पहली पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं। उनके द्वारा बांग्ला के बाइस साहित्यकारों की हिन्दी में अनूदित पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इस सबका श्रेय वे इन लोगों को देते हैं।
द्विवेदी जी अनुवादक क्यों बने, इसकी शुरूआत कैसे हुई, इसका वे ज़िक्र करते हुए कहते हैं, “मुझे एक अनुवादक बनाने, मेरे अनुवादों को छापने और लगातार मुझसे अनुवादों की माँग करने में जिन संपादकों का महत्त्वपूर्ण योगदान है, उनमें है ‘दस्तावेज’ के संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, समकालीन भारतीय साहित्य के संपादक क्रमशः गिरधर राठी, अरुण प्रकाश, बृजेंद्र त्रिपाठी, प्रभाकर श्रोत्रिय तथा रंजीत शाह हैं। इनमें गिरधर राठी और अरुण प्रकाश ने मुझे लगातार छापा।” (समावर्तन दिसम्बर 2015, पृष्ठ 70)
द्विवेदी जी ने हिन्दी कविताओं का बांग्ला में अनुवाद किया है। ‘उजड़ी उम्मीद की प्रार्थना’ में कोरोना केन्द्रित कविताएँ हैं। इसमें द्विवेदी जी की 20 कविताएँ सम्मिलित की गई हैं। इस पुस्तक में प्रमुख भारतीय भाषाओं में अनुवादों का संग्रह है। इसके संपादक वंशी माहेश्वरी जी हैं।
अनुवाद के अतिरिक्त उनका मौलिक लेखन भी पर्याप्त है। पर उनकी ख्याति अनुवादक के रूप में ही है। इस सम्बन्ध में वे समावर्तन के ‘मेरा लेखकीय सफ़र’ में लिखते हैं, “बांग्ला-हिंदी के अनुवादक के रूप में लोग मुझे जानते हैं लेकिन 1964 से लेकर आज तक मैंने संस्मरण, भ्रमण वृत्तांत, समीक्षाएँ या जो स्वतंत्र शोध पूर्ण लंबे लेख लिखे हैं, मेरा जो मौलिक लेखन है, वह मेरे अनुवाद कार्य के घटाटोप में दब गया है।”
द्विवेदी जी से जब भी सामान्य बातचीत होती है तो वे साहित्य की ही बात करते हैं। पूर्ववर्ती साहित्यकारों पर वे खुलकर बोलते हैं। उन्होंने बुंदेलखंड के प्रसिद्ध साहित्यकार कृष्णानंद जी के बारे में एक दिन बताया कि वे बहुत पढ़ाकू थे। उन्होंने सर वॉल्टर स्कॉट, लियो टालस्टाय, शरद चंद्र चटर्जी तथा मोपांसा आदि साहित्यकारों को पढ़ा था। उनके पास एक पुस्तकालय था। वे किसी को पुस्तकें छूने न देते थे। अपनी रचनाओं को भी वे किसी को नहीं देते थे। इतना पढ़ने के बाद भी वे पचा न सके। मतलब वे लिख नहीं सके। अगर लिखते तो उन लेखकों का सीधा प्रभाव उनकी रचनाओं पर पड़ता। वे मैथिली शरण गुप्त तथा ऐतिहासिक उपन्यासकार वृंदावन लाल वर्मा को सही तरीक़े का साहित्यकार नहीं मानते थे। कृष्णानंद जी यहाँ तक कहते थे कि प्रेमचंद को उपन्यास सम्राट क्यों कहा जाता है, मुझे समझ नहीं आता!
द्विवेदी जी इसकी समीक्षा करते हुए कहते कि कृष्णानंद जी में नकारात्मक सोच ज़्यादा थी। मैथिली शरण गुप्त जी की ‘भारत-भारती’ रचना का महत्त्व इतना था कि क्रांतिकारी उनकी प्रति को अपनी जेब में रखते थे। वृंदावन लाल वर्मा के ऐतिहासिक उपन्यास अपना महत्त्व रखते हैं। प्रेमचंद ने ग्रामीण जीवन का जैसा चित्रण किया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
कृष्णानंद जी से संबंधित एक दिलचस्प घटना मुझे द्विवेदी जी ने बताई थी। ओरछा नरेश वीर सिंह जू देव द्वितीय ने पुस्तकालय की देख-रेख के लिए कृष्णानंद जी को नियुक्त कर दिया था। इसके लिए राजा साहब ने उन्हें 2800 बीघा ज़मीन दे दी थी। ओरछा नरेश चाहते थे कि साहित्यकार को रुपयों के कारण दिक़्क़त न उठानी पड़े।
उन्होंने राजा साहब द्वारा दी गई ज़मीन पर कोई ध्यान नहीं दिया।
एक दिन कृष्णानंद जी रात के अँधेरे में पुस्तकालय की सारी पुस्तकें ट्रक में भरवा कर उरई ले आए। अँधेरे में दो बंडल वहीं गिर गए थे। ओरछा नरेश ने सुबह उन दो बंडलों को देखा और लोगों से पूछा कि ये बंडल यहाँ क्यों पड़े हुए हैं? लोगों ने कहा, “आपको पता नहीं है राजा साहब! कृष्णानंद जी सारी पुस्तकें ट्रक में भरकर ले गए हैं।” ओरछा नरेश वीर सिंह जू देव द्वितीय ने कहा कि ये दो बंडल भी उन्हीं के पास भिजवा दो।
गुरुजी उरई में तीन लोगों को साहित्यकार मानते हैं—सुरेन्द्र नायक जी, डाॅ. सत्यवान जी और मुझे। सुरेन्द्र नायक जी कहानियाँ और उपन्यास के साथ समीक्षक हैं। इसके अतिरिक्त उनका हर विधा में हस्तक्षेप है। उनकी कहानियाँ देश की स्तरीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। उन्होंने लगभग दस-बारह उपन्यास लिखे हैं। उनमें से सात उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। आजकल उनका साहित्य से मोहभंग हो गया है।
डॉ. सत्यवान जी कवि, संपादक और विचारक हैं। वे ‘सृजन समीक्षा’ पत्रिका का संपादन करते हैं। यह साहित्य की स्तरीय पत्रिका है। इस पत्रिका में गुरुजी के लेख छपते रहते हैं। गुरुजी सत्यवान जी को लेख दे देते हैं पर पत्रिका लेट लतीफ़ हो जाती है तो उनकी आलोचना भी करते हैं। कहते, “ये आदमी स्थिर माइंड का नहीं है, पता नहीं पत्रिका निकलेगी या नहीं।”
हम तीनों लोग आपस में ये बातें साझा कर लेते थे। जब मैं सत्यवान जी को यह बात बताता तो सत्यवान जी हँसने लगते। क्योंकि हम लोग जानते थे कि गुरुजी कुछ भी कह देते हैं। हमने कभी उनका बुरा नहीं माना है। हमेशा हम लोग उनका सम्मान करते रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि गुरुजी सामने नहीं कहते थे, सामने भी कह देते हैं। अगर हममें से कोई सामने नहीं है और बात आ गई तो भी कह देते हैं।
बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झांसी द्वारा राष्ट्रीय संगोष्ठी हिंदी का आयोजन दिनांक 29 व 30 मार्च 2016 को हुआ। इसके संयोजक डॉ, सत्यवान जी थे। उरई से डाॅ. रामशंकर द्विवेदी जी, श्री सुरेन्द्र नायक जी, मैं स्वयं तथा अन्य साहित्यकार विचारकों को आमंत्रित किया गया था। इस आयोजन में सभी की गरिमामयी उपस्थिति रही। पहले दिन शोधार्थियों ने अपने-अपने शोध पत्र पढ़े। बुंदेली से संबंधित अन्य कार्यक्रम हुए।
यह आयोजन राष्ट्रीय स्तर का था। इसलिए देश के नामी-गिरामी साहित्यकार वहाँ मंचासीन थे। मुख्य रूप से डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी (अध्यक्ष: साहित्य अकादमी दिल्ली), सुरेन्द्र दुबे (कुलपति बुंदेलखंड विश्वविद्यालय झांसी), मैत्रेयी पुष्पा, विजय बहादुर सिंह, दिनेश कुशवाह, विवेक मिश्र आदि।
इस कार्यक्रम का बीज वक्तव्य डॉ. रामशंकर द्विवेदी जी ने दिया था। इसके बाद साहित्य पर चर्चा परिचर्चा होती रही। वहाँ साहित्य पर गंभीर और चिंतनपूर्ण व्याख्यान सुनने को मिले। डॉ. सत्यवान ने वरिष्ठ साहित्यकार विजय बहादुर सिंह जी को ‘स्वागत भेंट’ मुझसे दिलवाई।
इस आयोजन से जुड़े कार्यक्रम तथा शोधालेख की पुस्तक “बुंदेलखंड में साहित्यिक परंपरा” प्रकाशित हुई। इस पुस्तक का संपादन डॉ. सत्यवान ने किया था। इसमें मेरा भी शोधालेख था। पुस्तक दिल्ली से प्रकाशित हुई थी। उसको डाक द्वारा भेजा जा रहा था। सत्यवान जी दो प्रतियाँ स्वयं ले आए थे और एक प्रति मुझे दे दी थी।
शाम को द्विवेदी जी घूमते हुए मेरे घर आए। घूमना उनका डेली का रूटीन था। जब उनका मन होता था वे मेरे यहाँ आ जाते थे। दो चार दिन नहीं आते थे तो मैं उनसे आने का निवेदन कर लेता। बहुत जल्दी में नहीं होते तो वे मेरा निवेदन स्वीकार कर लेते थे।
उनके आने पर मुझे प्रसन्नता हुई। मैंने उनका यथोचित सत्कार किया। मेरा हालचाल पूछने के बाद वे बोले, “पाल बताओ क्या चल रहा है?” मैंने डॉ. सत्यवान द्वारा दी गई पुस्तक उनकी ओर बढ़ा दी और बातों ही बातों में पुस्तक तथा संपादक की प्रशंसा की।
प्रशंसा सुनकर द्विवेदी जी भड़क गए, “इसमें ऐसा क्या है जो तुम क़सीदे काढ़ रहे हो! क़सीदे तो तुम इसलिए काढ़ रहे हो कि उसने तुम्हारा लेख छाप दिया है। तुम उसमें छप गए हो सो ख़ूब उसकी भाटगिरी करो। तुम उसकी तारीफ़ करो, वह तुम्हें छापता रहेगा। हो गया साहित्य का भला।” द्विवेदी जी रुके नहीं, वे बोलते गए, “ऐसे ही उसने तुम्हारे द्वारा विजय बहादुर सिंह को ‘स्वागत भेंट’ दिलवा दी। मुझे सत्यवान की ये बात समझ नहीं आई कि वहाँ तुमसे श्रेष्ठ साहित्यकार बैठे हुए थे, विजय बहादुर सिंह जी को ‘स्वागत भेंट’ तुमसे ही क्यों दिलवाई गई।”
ऐसे समय में मैं अक्सर चुप रहता हूँ। यहाँ सफ़ाई देने का कोई औचित्य नहीं बनता है। क्योंकि उनके स्वभाव को मैं जानता हूँ कि वे ऐसे ही हैं।
डॉ. द्विवेदी जी जैसा व्यक्तित्व हमारे साहित्यिक जीवन के प्रेरणास्रोत हैं। कठोरता में छिपी संवेदना और ईमानदारी का दुर्लभ मेल हैं द्विवेदी जी।
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