दादी
कथा साहित्य | कहानी उमेश चरपे15 Jul 2025 (अंक: 281, द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)
दिसम्बर का महीना था। शाम का समय था। सूर्यास्त हो चुका था। कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। घर में लोगों की भीड़ लगी हुई थी। रह-रहकर ज़ोर-ज़ोर से रोने आवाज़ आ रही थी। बरामदे में महल्ले और पड़ोस वाले और कुछ मेहमान मुँह लटकाये बैठे थे। कुछ आपस में खुसर-पुसर कर रहे थे। मुझे देखते ही कुछ लोग आपस में खुसर-पुसर करने लगे। किसी ने कहा, “अरे! सुखदेव आ गया . . .” उन्हीं में से किसी ने पूछा, “क्या आ ही रहे हो?” मैंने उसकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। सामने वाले कमरे में दादी के आसपास कुछ महिलाएँ सिसक-सिसककर रो रहीं थी। दादी के सिर के पास ताऊ जी बैठे थे। सारा वातावरण उदासी में डूबा हुआ था। मैं भी अपने आँसू रोक नहीं पाया। मुझे देखते ही माँ बोली, “आ बेटा आ . . .! देख तो ज़रा! दादी अब नहीं रही। तुझे बहुत याद करती थीं मेरा सुक्कू कब आयेगा . . .? मेरा सुक्कू कब आयेंगा . . .?” सबको रुआँसा देखकर मेरे आँखों से किसी पहाड़ी झरने की तरह आँसू गिरने लगे। पास में ही बैठी पड़ोस की मुँह बोली बुआ ने मेरे दोनों गालों पर हाथ घुमाया और साड़ी के पल्लू से मेरे आँसू पोंछते हुए बोली, “मत रो सुक्कू . . . मत रो . . .।”
मैं वहाँ से जैसे-तैसे उठा और बरामदे की ओर चला गया। बरामदे में कुछ लोग आपस में बातें कर रहे थे। उनकी बातों से लग रहा था किसी को भी उम्मीद नहीं थी कि दादी इतनी जल्दी हमारे बीच से चली जायेगी। बैठे हुए लोगों की बातों से पता चला कि कुछ दिनों से दादी छोटी-छोटी चीज़ें भूलने लगी थीं और खाना-पीना भी छोड़-सा दिया था। ऐसा एक बार पहले भी हो चुका था लेकिन तब दादी धीरे-धीरे ठीक हो गई थीं। माँ ने एक बार फोन पर बातों ही बातों में बताया तो था कि “दादी कुछ दिनों से चेहरे भूलने लगी है सुक्कू! उसे अपना भी होश नहीं रहता।” मैंने ही माँ की बात को अनसुना-सा कर दिया था। जिन बातों से मुझे दुःख हो वैसी बातें माँ कभी बताया नहीं करती थीं। माँ जानती थी कि मैं दादी से बहुत प्यार करता हूँ परीक्षा छोड़कर घर चला आऊँगा। उस समय तीसरे सेमेस्टर की परीक्षा चल रही थी इसलिए शायद मुझे ऊपरी तौर बताया कि दादी बीमार है। मैं जब भी हॉस्टल से घर आता था दादी के चेहरे पर अजीब सी ख़ुशी छलकने लगती थी, “अरे मेरा सुक्कू . . .।” कहते हुए सीने से लिपटा लेती थीं और गालों पर दो तीन किस्सी दिया करती थीं। ख़ूब दुलार करते हुए पूछती, “सुक्कू, शहर से मेरे लिए पान लाया?” और मैं एक मीठा पान दादी को देता था। उस दिन मेरी जेब में रखा मीठा पान वैसा ही क़ागज में लिपटा पड़ा रहा। दादी को पान खाने का शौक़ था। सुबह शाम एक पान तो चाहिए ही चाहिए।
माँ कहती थीं, “दादी अब पहले वाली दादी नहीं रहीं रे . . .! उसे अपना ही होश नहीं रहता। जब तक होश रहा नाक पर मक्खी तक बैठने नहीं दी। अब कुछ दोनों से इतनी मक्खियाँ बैठती हैं कि पूछो ही मत . . .? उड़ाने का होश नहीं रहता। कई बार तो अपने ही बेटे से पूछ बैठती ‘कौन है रे तू . . .?’ बेटे के लिए माँ का इस तरह सवाल किसी सदमे की तरह था। बेटे को मालूम था कि अम्मा पर अब बुढ़ापा हावी हो चुका है? दोनों बेटों को इस लायक़ बना दिया कि अच्छे से खा-पी सकें और समाज में मान सम्मान मिल सके।”
दादी के दो बेटे थे। दो बहुएँ थी। बड़ी बहू (ताई जी) थोड़ी टेढ़ी दिमाग़ की थीं। हर बात को उल्टा बोलती थी। छोटी बहू ने दादी के सेवा की यानी की माँ ने। दादी मुझे बहुत प्यार करती थीं और बड़े प्यार से सुक्कू बुलाती थीं। दादी जब सुक्कू बोलती थी उसका बोलना स्निग्धता से भर देता था। बाक़ी और भी लोग सुक्कू बोलते थे लेकिन उतना अच्छा नहीं लगता। बड़ी बहू (ताई जी) कहती थी, “बुढ़िया ने पैसे गाढ़ रखें होंगे? हमें तो कुच्छों नहीं दिया। छोटी को दिये होंगे? हम तो दुश्मन हैं।” उस दिन ताई जी को दादी की बड़ी याद आ रही थी। ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़ें आ रही थीं वह ताई जी की आवाज़ थी। चलो, जीते जी न सही, कम से कम मरने के बाद तो दादी को याद किया। ताई जी को दादी फूटी आँख नहीं भाती थी। किसी न किसी बात पर हमेशा खिच-खिच . . . मची रहती थी। दुनिया में अक्सर ऐसा ही होता आया है हम अपने भीतर के दबे प्रेम को निकालने में कितना समय लगा देते हैं। जाने के बाद उनकी क़ीमत का पता चलता है। ताई जी ने रोते हुए कहा, “कौन मुझे डाँटेगा अम्मा! तुम थी तो घर में रौनक़ थी। कहाँ चली गई अम्मा . . .?” पड़ोस की दो तीन महिलाएँ समझा रही थीं। “रोने से क्या होता है? जाने वाले लौटकर आया नहीं करते हैं। अम्मा ने इतनी लम्बी ज़िन्दगी जी ली और क्या . . .?”
बरामदे में बैठे कुछ बुज़ुर्ग लोग बीड़ी पी रहे थे। बरामदे में बैठे किसी आदमी ने ग़ुस्सा दिखाते हुए कहा। इतना ज़रूरी है बीड़ी पीना ज़रा-सा सब्र नहीं रख सकते। बुज़ुर्ग आदमी ज़रा सा झेंप गये। ग़ुस्सा भी आया लेकिन अंदर ही दबा लिया।
माँ बात करते-करते रोने लगती थीं। माँ ने दादी की बहुत सेवा की। लेकिन जब कभी दादी माँ को भला-बुरा कहती थी मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। दादी पर बहुत ग़ुस्सा आता था। माँ को दादी के ग़ुस्से की आदत-सी पड़ चुकी थी। दादी कभी-कभी माँ के ख़ानदान पर उल्टा-पुल्टा बोलती थीं उस समय मुझे बहुत ग़ुस्सा आता था। दादी की बातें सीधे-सीधे दिल में तीर-सी लगती थीं। ताई जी भी कुछ-कुछ इसी मिज़ाज की थीं लेकिन दादी, ताई जी से कुछ मामलों में अलग थीं। दादी बोलती और थोड़ी ही देर में भूल जाती थी। दादी सबके बारे में सोचती थीं। महल्ले में जब महिलाएँ मेहनत मजूरी करने जातीं, दादी उनके बच्चों की देखभाल करती थीं। महल्ले पड़ोस में सभी लोग दादी को प्रेम और सम्मान करते थे। गाँव में ज़्यादातर लोग दादी को अम्मा कहकर बुलाते थे। कुछ लोग बताते हैं, जवानी में दादी बड़ी कर्मठ थीं। दादा के साथ कभी-कभी जंगल जाया करती थी और तैरना भी जानती थीं।
दादी की एक बेटी थी। रजनी नाम था। रात में पैदा हुई थी इसलिए उसका नाम रजनी रख दिया। दादी रजनी बुआ से बहुत प्यार करती थीं। रजनी बुआ दोनों भाइयों से बड़ी थीं। बड़े घर में ब्याह हुआ। फूफा जी कोयले की खदान में काम करते थे। अच्छा-ख़ासा पैसा था। दादी ने कुछ गहने रजनी बुआ को दिए थे। उसी दिन से ताई जी दादी से नाराज़ हो गयीं। ताई जी का कहना था, “सेवा चाकरी हम करें और सोना-चाँदी बेटी पर लुटाये . . .।” ताऊ जी ने भी समझाया लेकिन ताई जी सुनने-समझने को तैयार नहीं थीं। घर के हिस्से बँटवारे की माँग कर बैठीं। ताऊ जी ने कहना था, “अम्मा जब तक ज़िंदा है घर के दो हिस्से नहीं होंगे। अम्मा, के ख़ून पसीने से घर बना है।” ताऊजी ने एक बार बताया था कि जब वे छोटे थे दादी के साथ गोबर कंडे बिनकर लाया करते थे। दादा जी गाँव के पटेल के यहाँ नौकर थे। पापा जब पाँच बरस के थे तभी दादा जी दुनिया छोड़कर चले गये। ताऊजी की उम्र तब दस साल रही होगी और रजनी बुआ तेरह बरस की। दादी ने तीनों बच्चों को कभी किसी चीज़ की कमी नहीं होने दी।
बुआ के आते ही रोने की आवाज़ें ज़ोर से आने लगी। रजनी बुआ सिसक सिसककर रोने लगी, “अम्मा मुझे छोड़कर कहाँ चली गयी . . .? एक बार तो मुझसे बात की होती . . . अभी उम्र की क्या थी?” दो महिलाएँ बुआ को समझा रही थीं। “मत रो रजनी . . . इतनी अच्छी मौत किसे नसीब होती हैं?” बुआ थोड़ी देर बाद शांत हो गई। उदास-सा चेहरा लेकर एक कोने में बैठी रहीं। माँ, घर में दादी की विदाई की तैयारियों में व्यस्त थी। जब भी कोई दादी के बारे में बात करता, माँ रो पड़ती।
सुबह हो चुकी थी। गाँव के लोग इकट्ठे हो चुके थे। श्मशान ले जाने की तैयारी पूरी हो चुकी थी। पापा और ताऊ जी मुरझाए से बैठे थे। आने-जाने वाले काँधे पर हाथ रखते और हाथ जोड़कर सांत्वना दिए जाते थे। दादी को नहलाया-धुलाया गया। दुलहन की तरह शृंगार किया। सभी लोग राम नाम सत्य है . . . बोलते हुए श्मशान की ओर चल पड़े।
♦ ♦ ♦
दादी को मरे तेरह दिन हो चुके थे। गाँव के लोग तेरहवीं का खाना खाकर जा चुके थे। घर पर गिने-चुने मेहमान थे। घर के लोग और मेहमान दिनभर की भागम-भाग से थक चुके थे। कुछ मेहमान बीच वाले कमरे में सो रहे थे। माँ, ताईजी, बुआ बरामदे अंगीठी के पास बैठे थे। बाहर ठंडी हवा बह रही थी। ताई जी से रहा नहीं गया उसने रजनी बुआ से पूछा, “अम्मा की एक नथ कुच्छ दिन से दिखाई नहीं दे रही है?”
रजनी बुआ कुछ नहीं बोली ताई जी की बातों को अनदेखा कर दिया। ताईजी कुछ देर बुआ के चेहरे को देखती रहीं।
“क्यों सुक्कू, तुमने भी देखी थी न दादी के पास?” मैं सकपकाया सा ताई जी को देखता रहा।
“बोलेगा भी . . .! साँप सूँघ गया है।”
मैंने हूँ-हाँ किया बस। मैं कुछ नहीं बोला फिर भी ताई जी ने मान लिया कि मैंने भी नथ देखी है। मैंने पूछा, “कैसी नथ?”
ताई जी तेज़ आवाज़ में बोलीं, “अरे! वही जो नाक में पहनी जाती है। शहर में पढ़ने गया है या बैल चराने?”
मैंने दिमाग़ पर ज़ोर दिया। थोड़ी देर सोचता रहा। मुझे याद आया दादी की संदूक में एक छोटा सा लोहे का संदूक था जिसमें एक बार ऐसा कुछ देखा तो था, जैसा ताई जी ने बताया। लेकिन कभी दादी को पहनते नहीं देखा। मैं चुप ही बैठा रहा। बुआ ताई जी के स्वभाव को जानती थी। चुपचाप बातों को अनदेखा करती रही। ताई जी को ग़ुस्सा आया उन्होंने कहा, “दीदी, कहीं तुम्हारे पास तो नहीं . . .?”
रजनी बुआ ने कहा, “हाँ, मेरी माँ की नथ है . . . उसने मुझे दी है।”
“सही है! सेवा हम करें, मेवा तुम खाओ।”
रजनी बुआ का ग़ुस्सा देखकर माहौल थोड़ा रूखा-सा हो गया। ताऊ जी ने चिढ़ते हुए कहा, “उमा, तुम्हें ज़रा भी सब्र नहीं, कौन-सी बात कहाँ कहनी चाहिए . . .?”
“मुझे चुप करने से कुच्छों नहीं होगा, मैं तो बिना बोले नहीं रहूँगी। एक घड़ी को खाना भले ही नहीं खाऊँ लेकिन बिना बोले नहीं रहूँगी . . .”
रजनी बुआ ग़ुस्से में तमतमाई-सी बैठी रही। माँ ने रजनी बुआ को समझाया। रजनी बुआ रुआँसी-सी हो गई। उसी समय अपने घर जाने की तैयारी करने लगी। फूफा जी दादी को देखने तक नहीं आये। पापा, फूफा जी को जानते थे। कुछ साल पहले खेत को लेकर कहा-सुनी हुई, उसी दिन से फूफा जी ने दादी से नाराज़ थे। ग़ुस्से में कहा था, “बुढ़िया मरेगी तब भी नहीं आऊँगा।” फूफा जी नहीं आये। पाप को भी ग़ुस्सा आया कि फूफा जी नहीं आये। लेकिन बहन के कारण चुप थे। किस घर में लड़ाई नहीं होती, छोटी-मोटी बातों के लिए क्या नाराज़ होना? दादी ने बुआ को ज़मीन देने से मना कर दिया था। दोनों बेटों के नाम ज़मीन लिखवा दी थी। दादी ने कहा था, “दो बेटों को ही अपनी ज़मीन दूँगी। बेटी को जितना देना था दे दिया। बड़े घर में ब्याह करवा दिया इससे बढ़कर और क्या चाहिए?” बुआ भी कुछ दिनों तक नाराज़ रही। बुआ को अम्मा की ममता खींच लाई। बुआ के दो बेटे हैं। दोनों भी अपनी नानी को देखने नहीं आये। माहौल थोड़ा सा रूखा-सा हो गया। सभी लोग सोने चले गये। माँ, बुआ का हाथ पकड़कर कमरे में ले गयी। कमरों से आवाज़ें आ थीं। मैं चुपचाप खटिया पर लेटे-लेटे सोचता रहा, बचपन की यादें कौँधने लगी। फिर अचानक स्मृति में दादी की खिलखिलाती हँस तैरने लगी। मेरे नाराज़ होने पर सुक्कू सुक्कू . . . कहकर बुलाना याद आने लगा। कई दिनों तक दादी सपने में आती रही।
मैं वापस कॉलेज चला गया। चौथे सेमेस्टर की परीक्षाएँ शुरू होने वाली थीं। माँ ने एक दिन फोन करके बताया कि बेटा, “घर के तीन बँटवारे~ हो चुके हैं। तुम्हारी बुआ मानने को तैयार नहीं है कहती है, “मेरी माँ का हक़ तो लेकर ही रहूँगी।”
उस दिन घर को बाँधने वाली ‘दादी नाम की धुरी का न होना’ के मायने पता चले।
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