दरकते पहाड़ और विकास लाचार
आलेख | सामाजिक आलेख प्रो. वीना ठाकुर1 Sep 2025 (अंक: 283, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
हिमाचल प्रदेश भारत का एक पर्वतीय राज्य है जो अपनी नैसर्गिक सुंदरता, शांत वातावरण और विश्व पर्यटन के प्रसिद्ध है। लेकिन इन पहाड़ों के पीछे एक सच्चाई यह भी है कि अब यह पर्यटन क्षेत्र लगातार भूस्खलनों की चपेट में आता जा रहा है। हर साल बरसात के मौसम में यहाँ सड़कों का टूटना, पहाड़ों का खिसकना, मकानों का गिरना और लोगों की जानों का जाना—आम होता जा रहा है। हिमाचल प्रदेश में भूस्खलन अब केवल एक प्राकृतिक आपदा नहीं रह गई है, बल्कि यह राज्य की सतत विकास यात्रा के सामने एक बड़ी बाधा के रूप में उभर कर सामने आई है और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चिंता का विषय बन गई है।
हिमाचल प्रदेश राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, 2020 में राज्य में 16 प्रमुख भूस्खलन घटनाएँ दर्ज की गई थीं, जो 2022 में बढ़कर 117 हो गईं। यह वृद्धि राज्य की अस्थिर होती भौगोलिक स्थिति की गंभीरता को दर्शाती है। वर्तमान में हिमाचल में 17,000 से अधिक स्थानों को भूस्खलन के लिए संवेदनशील माना गया है, जिनमें 600 से अधिक ऐसे क्षेत्र हैं जो किसी न किसी प्रकार की बस्तियों, सड़क मार्गों या अन्य बुनियादी ढाँचों के निकट स्थित हैं।
दूसरी ओर कुछ विशेषज्ञों ने कहा कि हिमालय अब फिसलती गली बन चुका है। मानसून में बादल फटने, फ़्लैश फ़्लड और भूस्खलन की घटनाओं के लगातार बढ़ने का मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन और अस्थिर विकासशील गतिविधियाँ हैं। विशेषज्ञों ने फ़ोरलेन हाईवे का विस्तार रोकने, जलविद्युत परियोजनाओं के लिए पहाड़ों एवम् वनों की कटाई, पर्यटन के नाम पर अंधाधुंध निर्माण को स्थगित करने समेत कई सतत विकल्प अपनाने की अपील की है।
प्रदेश में लगातार हो रहे भूस्खलन के पीछे कई कारण हैं और इनमें से अधिकांश सीधे मानव गतिविधियों से जुड़े हैं। सबसे प्रमुख कारण है पहाड़ियों में अत्यधिक और अवैज्ञानिक तरीक़े से निर्माण कार्य। चाहे वह सड़क निर्माण हो, हाइड्रो प्रोजेक्ट्स हों या सुरंगें—हर जगह पहाड़ों को इस तरह से काटा गया है कि उनकी प्राकृतिक स्थिरता नष्ट हो चुकी है। इन पहाड़ियों की चट्टानें वैसे भी युवा और अस्थिर हैं, और जब उनमें निरंतर बदलाव किए जाते हैं, तो वे और अधिक संवेदनशील हो जाती हैं। मानसून के दौरान जब अत्यधिक बारिश होती है, तो पानी मिट्टी में समा जाता है और ढलानों को कमज़ोर बना देता है, जिससे ज़रा सी हलचल भी बड़े पैमाने पर भूस्खलन को जन्म दे देती है।
इसके अतिरिक्त दूसरा बड़ा कारण है नदियों की जगहों का अतिक्रमण और शहरीकरण का बढ़ता दबाव। आज शिमला, मनाली, धर्मशाला जैसे पर्वतीय शहरों में जनसंख्या घनत्व तेज़ी से बढ़ रहा है। लोगों ने पहाड़ियों की ढलानों पर घर बना लिए हैं, नालियों की व्यवस्था नहीं है, और सीवेज सिस्टम भी अक्सर अव्यवस्थित होता है। बारिश के समय जब पानी ढलानों से बहता है, तो वह मिट्टी को बहाकर ले जाता है और संरचनात्मक अस्थिरता को और बढ़ा देता है। पेड़ों की वैध, अवैध अंधाधुंध कटाई भी समस्या को और जटिल बना देती है। वनों की अनुपस्थिति में मिट्टी को बाँधने वाली जड़ें नहीं होतीं, जिससे ज़मीन की पकड़ कमज़ोर हो जाती है और भूस्खलन का ख़तरा कई गुना बढ़ जाता है।
जलवायु परिवर्तन भी इस समस्या का एक बड़ा कारण बनता जा रहा है। बर्फ़बारी में गिरावट, बारिश के स्वरूप में बदलाव और ग्लेशियरों के पिघलने से पूरे हिमालयी क्षेत्र में जल चक्र असंतुलित हो गया है। यह बदलाव भूस्खलन और अन्य आपदाओं को तेज़ कर रहा है। वैज्ञानिक मानते हैं कि यदि जलवायु परिवर्तन की यही गति बनी रहीतो हिमाचल और अन्य पहाड़ी राज्यों के लिए निकट भविष्य में और बड़ी त्रासदियाँ इंतज़ार कर रही हैं।
आज हिमाचल प्रदेश की भौगोलिक संरचना, तेज़ी से हो रहा नगरीकरण, अवैज्ञानिक निर्माण, और जलवायु परिवर्तन के सम्मिलित प्रभाव से भूस्खलन अब एक स्थायी चुनौती बन चुका है। यह केवल सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं, बल्कि समाज के हर वर्ग की सामूहिक ज़िम्मेदारी है कि प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग हो, पर्यावरणीय संतुलन बना रहे और विकास कार्यों को वैज्ञानिक ढंग से अंजाम दिया जाए। एक जागरूक नागरिक समाज, सतर्क प्रशासन और विज्ञान आधारित नीतिनिर्माण से ही हिमाचल प्रदेश को इस संकट से उबारा जा सकता है।
गम्भीरता से देखा जाए तो भूस्खलन के कारण हुए नुक़्सान केवल भौतिक नहीं होते, यह मानवीय त्रासदी में भी बदल जाता है। कई बार पर्यटक भूस्खलन की चपेट में आकर मारे जाते हैं, कई परिवारों को अपने घर छोड़ने पड़ते हैं, सड़कें बंद हो जाती हैं, अस्पतालों और स्कूलों तक पहुँच मुश्किल हो जाती है। द टाइम्स ऑफ़ इंडिया अख़बार में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ इस साल राज्य में भारी वर्षा के चलते दो राष्ट्रीय राजमार्ग बंद हो गए, जिससे 313 सड़कें निष्क्रिय हुईं और अनुमानित नुक़्सान ₹2,144 करोड़ का माना जा रहा है। मंडी ज़िले में 175 सड़कें, कुल्लू में 64, साथ ही 348 पॉवर ट्रांसफ़ॉर्मर और 119 जलापूर्ति योजनाएँ प्रभावित हुईं। 20 जून से अब तक 136 मौतें हुई हैं और 37 लोग लापता हैं, इसके अलावा 74 फ़्लैश फ़्लड, 34 क्लाउडबर्स्ट और 63 बड़े भूस्खलन रिपोर्ट किए गए हैं।
राज्य के पर्यटन उद्योग पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। भूस्खलन के कारण सड़क मार्गों के बंद हो जाने से पर्यटक न तो पहुँच पाते हैं और न ही सुरक्षित लौट पाते हैं। कई बार होटल ख़ाली रहते हैं और स्थानीय व्यवसाय ठप हो जाते हैं।
इन घटनाओं के आलोक में सरकार और स्थानीय प्रशासन ने कुछ क़दम उठाने शुरू किए हैं। राज्य में सतत् विकास की दिशा में पर्यावरणीय मंज़ूरी की प्रक्रिया को सख़्त किया जा रहा है, ताकि निर्माण कार्यों के पहले वैज्ञानिक आकलन हो सके। लेकिन फिर भी इन प्रयासों की गति अपेक्षाकृत धीमी है और स्थानीय लोग अभी भी डर और असुरक्षा में जी रहे हैं।
इसीलिए विशेषज्ञ इस बात पर बल दे रहे हैं कि हम पारिस्थितिकीय संतुलन को बनाए रखें, अवैध निर्माण पर रोक लगाएँ, वनों की रक्षा करें और वैज्ञानिक भू-अध्ययन के आधार पर नीतियाँ बनाएँ। भूस्खलन संभावित क्षेत्रों की मैपिंग कर वहाँ चेतावनी प्रणाली विकसित की जाए। स्थानीय समुदायों को जागरूक किया जाए और उन्हें आपदा प्रबँधन योजनाओं का हिस्सा बनाया जाए। कई बार स्थानीय लोग प्राकृतिक संकेतों को पहले समझ लेते हैं, और यदि उनकी चेतावनियों को गंभीरता से लिया जाएए तो कई जानें बचाई जा सकती हैं।
ऐसे में आज जलवायु परिवर्तन और अस्थायी निर्माण पर अंकुश लगाने के लिए नीति सुधार भी ज़रूरी है—जैसे नए फ़ोरलेन निर्माणों पर रोक, पर्यावरण-संतुलन के साथ निर्णय लेना और सीमा-संवेदनशील इलाक़ों में विकास को नियंत्रित करना। सार्वजनिक चेतना बढ़ाने हेतु मौसम पूर्वानुमान और स्थानीय आपदा चेतावनी प्रणाली स्थापित होनी चाहिए।
इसके साथ ही साथ अब नागरिक स्तर पर लेने वाले कुछ साधारण लेकिन प्रभावशाली क़दम भी हैं—नदी किनारे या ढलान आधारित संवेदनशील इलाक़ों में निर्माण से बचें, भारी बारिश या ध्वनि संकेतों पर सतर्क रहें, स्थानीय प्रशासन, मौसम विभाग व आपदा प्रबंधन को समय रहते सूचित करें, और चेतावनी मिलने पर सुरक्षित स्थान पर चले जाएँ इमरजेंसी में रेडियो और मोबाइल अलर्ट्स का इस्तेमाल करें।
कुल मिलाकर, हिमाचल प्रदेश में भूस्खलन की समस्या प्राकृतिक संवेदनशीलता और मानव निर्मित असंतुलन का परिणाम है। यदि समय रहते सावधानी, नीति सुधार और सामूहिक प्रयास नहीं हुए तो पहाड़ों के साथ साथ हमारे जीवन व विकास को लगातार क्षति पहुँचती रहेगी। अब समय है शान्ति और संरक्षण का, संतुलित विकास और संतुष्टि का ताकि इस ख़ूबसूरत प्रदेश को आपदाओं से भविष्य में बचाया जा सके और आने वाले समय को एक सुंदर प्रदेश सौंपा जा सके।
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