देव स्नान और पवित्र को पवित्रता का परिधान देना: हरसिंगार पर प्रेम लिखूं
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा सुहास भटनागर1 Mar 2023 (अंक: 224, प्रथम, 2023 में प्रकाशित)
समीक्षित पुस्तक: ‘हरसिंगार पर प्रेम लिखूं’
लेखक: डॉ. संगीता शर्मा
प्रकाशक: सृजनलोक प्रकाशन - नई दिल्ली
प्रथम संस्करण: 2022
मूल्य : 199 रुपए
पृष्ठ संख्या: 120 पेज
अमेज़ान पर उपलब्ध है। ख़रीदने के लिए क्लिक करें
लोकार्पण के बाद पुस्तक की समीक्षा कुछ वैसी ही है जैसे परिणाम आने के बाद मार्कशीट की प्रतीक्षा। लीजिये समीक्षा की प्रतीक्षा को भी मैं समाप्त करता हूँ।
प्रत्येक लेखक को सोचना चाहिए कि लेखन आरम्भ कैसे हुआ। सर्वप्रथम काव्य का माध्यम श्रुति ही रहा था, गीता और इलिऐड इसका उदाहरण हैं। इसमें एक उपदेशकर्ता और एक श्रोता था, काव्य तब तात्कालिक/आशु (Extempore) भी रहा होगा। फिर आवश्यकता हुई, उस संवाद को जन-जन तक पहुँचाने की, संवाद की सीमितता और सन्दर्भ की आवश्यकता ही लेखन का उद्गम है।
‘हरसिंगार पर प्रेम लिखूं’ काव्य संग्रह का शीर्षक मुझे, अमृता प्रीतम जी की आत्म कथा ‘रसीदी टिकट’ की याद दिलाता है, एक छोटे से फूल पर प्रेम लिखना, वैसे ही है जैसे चावल के दाने पर कोई नाम लिखा होना। काव्य लेखन भी एक कलाकारी ही है। इस शीर्षक के लिए भी संगीता जी बधाई की पात्र हैं। अब मैं रुख़ करता हूँ, कविताओं का।
पहली कविता ‘यादों का कारवां’, ने मुझे मजबूर किया जुड़ने को, “भूलने के लिए मरना ज़रूरी है” इस एक लाइन ने ज़िंदगी का फ़लसफ़ा बयान कर डाला। आख़िरी लाइन में ज़िंदगी को निचोड़ कर रख दिया, “देह के रहते फिर/ यादों का कारवाँ/ कहाँ रुकता है/ दूर चले आये बहुत अब/ ख़ुद से ख़ुद को मिलने का/ मौका ही कहाँ मिलता है।”
कुछ कवितायें दो हिस्सों में बँटी हुई हैं, यानी कि एक ही शीर्षक के दो पहलू, जैसे ‘अनहद’ आकाश का दूसरा पहलू, अख़बार का गीला होना, शहीद के घर के आँसूँ से। मुझे गुलज़ार साहब की एक नज़्म याद आयी, “आज वो बहुत ख़ुश है, शायद उसने आज का अख़बार नहीं पढ़ा।” आज की पीढ़ी अख़बार लफ़्ज़ से अनजान है, मुझे याद है, मेरे दादा जी और पापा भी अख़बार ही कहते थे। पापा कभी-कभी न्यूज़ पेपर भी कहते थे। आज की पीढ़ी इस लफ़्ज़ से अनजान है।
‘यादों के कारवाँ’ के भी दो पहलू हैं, पहले में जिस्म और रूह तो दूसरे में रात, अँधेरा, ख़ामोशी और तड़पन। ग़ालिब साहब की याद आती है, “जब आँख ही से न टपका तो लहू क्या है।” आपको दर्द दूसरे से बाँटना तो है, पर आपके पास रूई का फाहा भी होना चाहिए, अपने ज़ख़्म को सहलाने को और दूसरे के ज़ख़्मों को सहलाने को भी।
‘चाँद ललाट’ के चार हिस्से हैं, चौथा हिस्सा शांत और दर्दीला है। “ख़ुद के भीतर झाँका/ तो दिल भीगा हुआ था/ सोचा सावन की झड़ी है/ पता चला वो तो उनके/ आँसुओं की लड़ी है।” मुझे पढ़कर लगा कि जीवन, सूरज की तरह उत्तरायण हुआ है।
‘धरती की सुन्दर कृति स्त्री’, आज का यथार्थ है, अदालतों में तारीख़ पे तारीख़ और जब नया होता भी है तो सालों बाद ज़ख़्मों पर फिर हरियाली ले आता है। इसमें निर्भया का ज़िक्र है, मेरी मुलाक़ात हुई थी उसकी माँ से भी, उनकी आँखें सूखी झील थीं।
एक लंबी कविता है, “मोहमाया’। क्यूँकि इसमें वास्तविकता का दर्शन है, थोड़ी सी निराशा भी है, निराशा से ही आशा का संचार होगा। अपने भीतर एक दिया जला कर रखना होगा।
एक कविता जो यथार्थ के को छोटी है वो है, ”माँ तू मुझे जन्म न दे”, नारी के जीवन का और शोषण का पूर्ण चित्रण है। एक भ्रूण माँ के गर्भ में ही डरने लगा। एक महिला ही इतना सटीक लिख सकती है।
संबंधों को रेखांकित करती कविता, “आईना मैं बन जाऊं” उसमें ख़ामोशियों के मेले में धड़कनों की सरसराहट।
संगीता जी के इस संकलन में कई जगह विरह रस भी है, विरह रस का रसपान नारी ही बेहतर कर सकती है।
हरसिंगार पर प्रेम लिखूँ काव्य संकलन धीमे-धीमे जीवन के सूर्यास्त का अनुभव भी कराता है, कविता ‘दर्द मुस्कुराने लगा’ इसका प्रमाण है। अभी जैसा मैंने कहा था अंतिम दो कवितायें अपने शीर्षक से ही रात्रि का अनुभव कराती हैं। ‘शरद पूर्णिमा’ और ‘चंद्र प्रभा. चंद्र चांदनी’
पुस्तक का अंत यही नहीं है, अंत में 50 मुक्तक भी हैं। 9, 15 और 43 वाँ
“वो मुस्कुराते बहुत हैं
पता चला है कि वो
दिल के ज़ख़्मों को
छिपाते बहुत हैं”
मैं यही कहना चाहूँगा, हरसिंगार पर प्रेम लिखना कुछ वैसा ही है, देव स्नान और पवित्र को पवित्रता का परिधान देना। इस किताब को पढ़ते हुए मुझे अपने विचार, मेरी अंदरूनी औरत की याद आ गयी। फिर क्षितिज से ऊपर जाकर विचार आया, “हरसिंगार पर प्रेम लिखूं” के शब्द किसी औरत के नहीं हैं, बल्कि औरत के भीतर करवट लेती हुई औरत के हैं।
आप अपने साथ इसको रखिये और जब भी समय मिले कोई भी पन्ना खोल कर पढ़िए और खो जाइये।
मुझे समीक्षा के लिए चुना, इसके लिए धन्यवाद। मेरी ओर से संगीता शर्मा जी को शुभकामनाएँ और बहुत सी बधाई।
सुहास भटनागर
हैदराबाद
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टिप्पणियाँ
Arya Jha 2023/03/04 06:45 AM
लिखना अपनी कला है और लिखे को समझ पाना अपनी। आपने जिस खूबसूरती से समझा और कमाल की समीक्षा की और यह आप ही कर सकते हैं। फिलहाल मैं भी इस पुस्तक को पढ़ने की इच्छा रखती हूं!
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उर्मिला पुरोहित 2023/03/04 03:51 PM
डाॅ संगीता जी को बहुत बहुत बधाई हरसिंगार पर प्रेम लिखु पुस्तक शिर्षक ही अपने आप मे अद्वितीय है ,सुहास जी ने कविता की सुंदर समीक्षा की है,एक एक कविता की गहराई उनकी चिन्तन शक्ती को बहुत ही सुंदर रूप दिया है।संगीता जी की कविता मे जीवन के पहलु मर्म, उतार-चढ़ाव, वीरो के शहादत मे अखबार का गीला होना ,मां ,भ्रुण हत्या ,बलात्कार जैसी सामाजिक मे व्याप्त बधाई की ओर ध्यानाकर्षित किया है,रचनाओ मे शब्द चयन,लयबद्धता,ओर भी सुंदर बनारसी है ।