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धूप में अलाव-सी सुलग रही रेत पर : समतामूलक सुन्दर मानव समाज का स्वप्न 

 

समीक्षित पुस्तक: धूप में अलाव-सी सुलग रही रेत पर (कविता संग्रह) 
कवि: राजेंद्र नागदेव 
प्रकाशन: बोधि प्रकाशन, जयपुर-302006
मूल्य: ₹150.00

यदि कवि संवेदनशील है तो वह निश्चित ही देश, धर्म, जाति, रंग आदि से बाहर एक समतामूलक समाज की कल्पना करता है। ऐसा कवि दमन, उत्पीड़न और शोषण का पक्षधर नहीं हो सकता। वह सम्पूर्ण मानवता से जुड़ाव महसूस करेगा। समाज और राजनीति का भ्रष्ट चेहरा उसे व्यथित करेगा। उसमें मानवीय वैज्ञानिक चेतना हुई तो वह पुरानी परम्परागत सड़ी-गली मान्यताओं और विश्वासों का अंध समर्थक नहीं हो सकता।

‘धूप में अलाव-सी सुलग रही रेत पर’ कविता संग्रह की कविताओं का नेपथ्य इन्हीं तत्वों पर आधारित है। यह वरिष्ठ कवि, चित्रकार और वास्तुकार का ताज़ा कविता संग्रह है। ये कविताएँ केवल हमें अपनी संवेदना से ही नहीं, अपनी वैचारिकी, नवीन, मौलिक और ताज़ा-टटके बिम्बों से भी प्रभावित करती हैं। इनसे गुज़रकर लगा कि इन कविताओं में समय और समाज का कठोर यथार्थ है। इनमें कोमल और सौन्दर्यपरक कल्पनाएँ अनुपस्थित हैं। 

नागदेव जी ने कविताओं के पूर्व ‘नेपथ्य’ में बहुत सटीक लिखा है—‘यह दुखद सत्य है कि अवांछित तत्व उच्च स्थानों पर आसीन हो गए हैं और सही मूल्य अर्थहीन हो गए हैं।’ संग्रह की अनेक कविताएँ इस पर बात करती है। दुनिया के विरुद्ध चलने वाला आदमी आख़िर मारा जाता है। ‘मारा गया आदमी’ कविता इस सत्य को रेखांकित करती है—‘दुनिया के साथ जीना नहीं आया/सम्भावना है, यह आदमी/अपने ही सोच से/अपने ही सपनों से मारा गया।’

स्मृति हर कवि, कथाकार, चित्रकार या कहें कि कलाकार की पूँजी होती है। ‘स्मृतियाँ मरती नहीं’ कविता में कवि अतीत से बात करता है। उसे भय है कि आज के ताप से कहीं कल गल न जाए। वह लिखता है—‘मैं भयभीत हूँ। कि ‘आज’ अपने ताप से कहीं/‘कल’ को पूरा गला न डाले’। कवि को वर्तमान भूत का अवतार लगता है। इसी कविता में—‘वर्तमान अक़्सर भूत का कोई अवतार लगता है/बहुत कुछ बदल जाने पर भी/बदले हुए के अन्दर रह जाता है तलछट की तरह बहुत कुछ अनबदला।’ कवि कल्पना करता है कि यदि स्मृतियाँ मर जाएँ तो उनका स्मृति लेख कुछ इस तरह का होगा, “यहाँ स्मृतियाँ सो रही हैं/स्मृतियाँ कभी मरती नहीं/स्मृतियाँ भी कभी आत्महत्या करतीं नहीं।” 

संग्रह में कई ऐसी कविताएँ हैं जिनमें अस्पताल के भयावह दृश्य हैं। इनमें मृत्यु के निकट जाते हुए वृद्धों की असहायता, संवेदना, अकेलापन और व्यथा का मर्मस्पर्शी चित्रण है। कुछ कविताओं में तो भरपूर कथा तत्व है। “अस्पताल के बाहर”, “सफ़र”, “बरामदा”, “अंतिम समय में”, “ढलान”, “कुछ भी तो नहीं यहाँ”, “जैसे कहीं कुछ नहीं हुआ” आदि कविताएँ इसी तरह की कविताएँ हैं।

स्मृतियाँ अतीत का अवशेष ही हैं। कविता ‘कुहासे भरी दुनिया’ में कवि बचपन की आत्मीय स्मृतियों में भी उतरता है। वहाँ कवि को बहुत सी पुरानी चीज़ें दिखाई देती हैं जो अब समय से बाहर हो चुकी हैं। कुछ पंक्तियाँ देखें—‘वहाँ किलकारियाँ थीं/गल चुकी काग़ज़ की नावें थीं/जो कभी तिराई थीं बारिश में।/ चॉकलेट की पन्नियाँ, माँ-पिता/बहन-भाई, बचपन के सखा। कंचे, गुल्ली-डंडे/लोहे की किली पर घूमते/काठ के रंगीन भौंरे थे/तवे वाले ग्रामोफोन पर बजते/श्वेत-श्याम ‘नागिन’ फ़िल्म के गाने/और ध्यान से सुनता ‘हिज मास्टर्स वाइस’ का कुत्ता/’ और ऐसी कई चीज़ों का कविता में आत्मीय स्मरण है। 

कवि एक चित्रकार भी है। वह केवल रेखाओं से ही नहीं, शब्दों से भी चित्र रचने में माहिर है। ‘दिन: कुछ रेखाचित्र’ के कुछ रेखाचित्र देखिए—‘सुबह-सुबह आँखें मलता हूँ/सूरज मुझसे पहले बिस्तर छोड़/बबूल की डाल पर बैठा है।’ प्रकृति आदमी से भयभीत है। इसका एक मर्मस्पर्शी रूपक देखें—‘मैं रेलिंग पर बैठी चिड़िया से/उसके घर का पता पूछता हूँ/वह पर फड़फड़ती उड़ जाती है/आदमी से भय लगता है।’ इसके अलावा ‘स्टूडियो में बिल्ली’, ‘कोलाज का आत्मकथ्य’ आदि कविताओं में कवि के भीतर का चित्रकार बहुत मुखर है। 

‘मेरे अन्दर समुद्र’ कविता में पर्यावरण के प्रति कवि की सजग चेतना का विस्तार है। समुद्र के प्रत्येक स्पंदन को यहाँ तीव्रता से महसूस किया जा सकता है। कविता की शुरूआती लाजवाब पंक्तियाँ देखिए—‘धूप में अलाव-सी सुलग रही रेत पर/झाग भरी हिलोरें धो रहीं हैं पाँव/उँगलियों से चढ़ रहा है धीरे-धीरे/देह में समुद्र’। कवि समुद्र की अजनबी गंध से भी दोस्ती करना चाहता है। वह कहता है—‘भोर के कुहासे में/मछलियों के देश को जाती/छोटी-छोटी नौकाओं में/साँस लेती हैं मेरी छोटी-छोटी इच्छाएँ/मुझे समुद्री हवाओं की अजनबी गंध से। करनी है दोस्ती।’ वह समुद्र से नमक माँगता है ताकि किसी की ज़िन्दगी में थोड़ा स्वाद आ जाए—‘मैं समुद्र से माँगता हूँ नमक/किसी स्वादहीन ज़िन्दगी में घोलने/चुटकी भर स्वाद।’ कवि के मन में एक संशय यह भी है कि वह किस तरह समुद्र का इतना सारा जल अपने भीतर सहेज सकेगा। उसका संशय देखिए—‘किस जुगत से मेरा कटोरा मन सहेज सकेगा/समुद्र का इतना सारा जल!”

कवि की संवेदना की पराकाष्ठा है कि वह अपनी जाति अर्थात्‌ मनुष्यों के कर्मों के लिए शर्मिंदा है। ‘प्रायश्चित’ कविता की अंतिम पंक्तियों में वह कहता है—‘मैं मनुष्य नामक जाति का कलाकार/इस तरह रोज/अपनी जाति के कर्मों का/बिना भूले करता हूँ प्रायश्चित।’

कविताओं में व्यक्तिगत सुख-दुःख और अकेलापन भी शिकायत की तरह नहीं आते, बल्कि समकाल के अनिवार्य सत्य की तरह आते हैं। दुखों और अकेलेपन के लिए कवि किसी और को कटघरे में खड़ा नहीं करते।

संग्रह की कविताओं की अनेक ऐसी पंक्तियाँ हैं जो ठहरकर सोचने पर विवश करती हैं। उनमें मौलिकता और नए बिम्ब हैं जो अर्थविस्तार की दृष्टि से दूर तक जाते हैं। कवि की चित्रात्मक भाषा सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त करने में सक्षम है। यह एक आत्मीय संसार की सृष्टि करती है। भाषा पर राजेंद्र नागदेव जी की मज़बूत और गहरी पकड़ है।

किताब का आवरण शीर्षक के अनुरूप कठोर रेतीले यथार्थ का बोध कराता है। इसकी रचना ख़ुद कवि की कूँची से ही हुई है। उनके भीतर का चित्रकार लगभग हर कविता में मौजूद है। उनका कवि जिस ज़मीन पर खड़ा है, वह बहुत पुख़्ता है। संग्रह की कविताएँ इसे प्रमाणित करती हैं। बोधि प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह की साज-सज्जा और छपाई-सफाई उम्दा है और मूल्य भी वाजिब।

समीक्षक: गोविन्द सेन 
193, राधारमण कालोनी, मनावर-454446, जिला-धार, मप्र
मोब: 9893010439

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