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दोषी कौन? 

 

मीता घबराई हुई सी अपने कमरे में आई और धम्म से पलंग पर बैठ गई। राजेश की बातें सोच-सोचकर उसे एक अजीब सी बेचैनी हो रही थी और मन में उठ रहे थे कई सवाल। ऐसे सवाल जिनका उसके पास कोई जवाब नहीं था। 

राजेश ने तो बस एक सीधी सी बात कही थी कि, “तुम क्यों नहीं समझ रहीं? मुझे तुम्हारे अतीत से कोई फ़र्क नहीं पड़ता मीता, मुझे बस तुम्हारे आज और भविष्य से मतलब है। मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ ।” 

मगर शादी करना तो दूर की बात है मीता तो किसी पुरुष के साथ जीवन बिताने के विचार के भी डरती थी। ये उसका डर ही तो था जो उसने राजेश से जवाब में कहा दिया था कि, “आज तुम्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता राजेश मगर भविष्य में भी नहीं पड़ेगा इसका मुझे यक़ीन नहीं। इसलिए आज के बाद मुझसे मिलने की कोशिश मत करना” और इतना कहकर वो अपने घर भागी चली आई थी। 

आख़िर क्या दोष था उसका क्या प्रेम करने की उसे इतनी बड़ी सज़ा मिलनी चाहिए थी कि चाहते हुए भी वो एक सामान्य जीवन नहीं जी सकती थी। शायद अमित पर विश्वास करना उसकी ग़लती थी या शायद माँ को बिना बताए उसके साथ दूसरे शहर जाना उसकी ग़लती थी। ऐसी अनेक बातें उसके अंदर बवंडर मचा रही थीं। 

राजेश से हुए इस वार्तालाप ने उसे मानसिक रूप से थका दिया था। वो मजबूरन अपने उस अतीत से नज़र से नज़र मिलाकर खड़ी हो गई थी जिस से उसे नफ़रत थी। 

मीता का जन्म बंगाल के गाँव में एक बेहद ग़रीब परिवार में हुआ था। माँ औरों के घरों में बरतन माँझा करती थी और बाप को सिर्फ़ दो ही काम थे; एक दारू पीना, दूसरा अपनी बीवी को पीटना और अगर मीता बीच बचाव की कोशिश करती तो उसे भी बुरी तरह पीटता था। छह भाई बहनों में मीता सबसे बड़ी थी। रंग साँवला था पर तीखे नैन नक़्श से आकर्षक दिखती थी। घर में पैसों की इतनी तंगी थी कि माँ ने छोटी उम्र से ही मीता को अपने साथ काम पर लगा लिया था। 

क़रीब चौदह साल की उम्र में माँ ने उसे एक नए घर में काम पर रखा था जहाँ बस बाप बेटा अकेले रहते थे। बेटे का नाम था अमित। अभी काम पर जाते-जाते मीता को दो तीन दिन ही हुए थे कि अमित ने उससे मीठी-मीठी बातें करनी शुरू कर दीं। धीरे-धीरे उसे छेड़ने लगा। फिर कुछ और समय बीता तो प्रेम का इज़हार करने लगा। मीता अपने घर के हर रोज़ के क्लेश से परेशान तो थी ही उस पर उस से कभी किसी ने प्यार के दो बोल नहीं बोले थे और यहाँ एक लड़का रोज़ उस से अपने प्यार का दम भर रहा था। आख़िर मीता ने अमित के प्रेम प्रस्ताव को स्वीकार कर अपने प्रेम का इज़हार कर दिया। क़रीब दो महीने सब ठीक चलता रहा फिर एक दिन अमित उसे पास के गाँव घुमाने ले गया। वहाँ दोनों ने एक होटल में खाना खाया मगर खाना खाते ही मीता बेहोश हो गई और जब होश में आई तो उसने ख़ुद को एक पलंग से बँधा पाया। आँख खोलकर देखा तो अमित दो लोगों से उसका सौदा कर रहा था। जैसे ही उसने बोलने की कोशिश की तो तीनों ने मिलकर उसके मुँह में कपड़ा ठूँस दिया और न जाने कितनी देर तक उसका जिस्म नोचते रहे। मीता रोती रही मगर किसी पर असर नहीं हुआ। जब उन तीनों का मन भर गया तो अमित ने उस से कहा, “तेरे जैसी बेवुक़ूफ़ लड़कियाँ और भी मिल जाएँ तो मेरी चाँदी हो जाए। तूने सोच भी कैसे लिया कि मैं तुझ जैसी से प्यार कर सकता हूँ।” इतना कहकर वो वहाँ से चला गया। 

मीता को कुछ समझ नहीं आ रहा था। शरीर में उन तीनों की वहशत से बेहद दर्द था उसपर अमित का धोखा उस से बरदाश्त नहीं हो रहा था। उन लोगों ने उसे उसी कमरे में बंद रखा। अँधेरे कमरे में एक खिड़की तक नहीं थी कि किसी को मदद के लिए बुला ले। शोर मचाया लेकिन किसी को सुनाई नहीं दिया और तो और उसे फिर बेहोश कर दिया। इस बार आँख खुली तो वो किसी और ही जगह थी। एक ठीक-ठाक से कमरे में वो पलंग पर पड़ी थी और सामने एक पचास पचपन साल की औरत बैठी थी। मीता ने आव देखा न ताव और हाथ जोड़कर उस औरत से बोली, “मुझे बचा लो। वो लोग मेरे साथ ज़बरदस्ती कर रहे हैं।” मगर वो औरत ज़ोर से ठहाका लगाकर बोली, “हाँ और वही लोग तुझे यहाँ बेच गए हैं। चल अब नहा-धोकर तैयार हो जा ग्राहकों के आने का टेम हो रहा है।” 

मीता बुत बनकर खड़ी रह गई और सोचने लगी कि प्रेम करने की इतनी बड़ी सज़ा। इतना बड़ा विश्वासघात। उसे अपना घर याद आ रहा था, वहाँ तो सिर्फ़ उसकी पिटाई ही हो रही थी मगर यहाँ तो हर पल उसके शरीर का सौदा हो रहा था। कभी सोच रही थी कि ना जाने उसकी माँ उसे ढूँढ़ेगी या नहीं मगर वहाँ भी किसे उसकी ज़रूरत थी। उसके दिमाग़ में बस एक ही बात बस गई कि उसका प्रेमी ही उसका दलाल निकला। 

“चल जल्दी कर, तेरी शक्ल देखने के लिए मैंने दस हज़ार रुपये ख़र्च नहीं किए।” ये सुनकर जैसे मीता को होश आया और उसने ये काम करने से मना कर दिया। बस फिर क्या उसके मना करते ही एक हट्टे-कट्टे आदमी ने उसकी पिटाई कर दी और अधमरी सी हालत में उसे एक कमरे में डाल दिया। उस रात उसके कमरे में कितने आदमी गए उसे कुछ होश नहीं रहा। धीरे-धीरे मीता ने इस ज़िंदगी को ही अपनी क़िस्मत मान लिया क्योंकि जब भी उसने ना-नुकुर की तो उसे ख़ूब पीटा गया, कभी सिगरेट से दागा गया तो कभी दहकती लकड़ी से जलाया गया। दो बार भागने की भी कोशिश की लेकिन उन लोगों ने उसे पकड़ लिया। एक बार आत्महत्या करने की भी कोशिश की लेकिन नाकाम रही। और हर नाकाम कोशिश के बाद वही पिटाई, वही दहकते अंगारे। इतनी यातनाएँ सहने के बाद उसकी हिम्मत टूट चुकी थी। 

यूँ ही क़रीब सात साल बीत गए। फिर एक दिन पुलिस ने छापा मार कर उसे और उसके साथ की दस लड़कियों को छुड़ा लिया और उन्हें ‘उम्मीद’ नाम के एक एनजीओ में भेज दिया। उस एनजीओ में मीता को एक सुरक्षित छत मिली। पेटभर खाना मिला और पहनने को कपड़े भी। उम्मीद में सभी लड़कियों को सिलाई-बुनाई, कढ़ाई जैसे काम सिखाए गए जिस से वो सभी समाज में अपनी जगह बना सकें और उन्हीं लोगों ने मीता समेत सभी की काउंसलिंग भी करवाई। धीरे-धीरे सभी लड़कियों को कहीं न कहीं नौकरी मिल गई और सभी ने अपने जीवन की रह पकड़ ली। मीता की भी काउंसलिंग करवाई गई मगर एक चीज़ जो उसके मन मस्तिष्क से नहीं गई वो था पुरुषों पर उसका अविश्वास। बचपन में दारू के नशे में धुत्त बाप फिर धोखेबाज़ प्रेमी और वो अनगिनत पुरुष जो रोज़ उसके पास आते थे, कोई भी तो विश्वास के लायक़ नहीं था। वो क़रीब साल भर तक वहीं रही और इस बीच ‘उम्मीद’ के काम में हाथ बटाती रही। 

एक बार पुलिस ने कुछ और लड़कियों को वहाँ भेजा जो वेश्यावृत्ति में ज़बरदस्ती धकेली गईं थीं। उन्हीं में एक ग्यारह साल की बच्ची, रूपा, थी जो किसी से बात भी करने को तैयार नहीं थी। ऐसा लग रहा था जैसे वो कह रही हो तुम लोग मेरी तकलीफ़ क्या जानोगे? उसे देखकर मीता को लगा जैसे वो ख़ुद को देख रही है क्योंकि जब उसे इस धंधे में धकेला गया तब वो ख़ुद क़रीब चौदह साल की थी। बस मीता ने अपना सारा समय उस बच्ची को दे दिया। उसने कहीं ना कहीं उसे ये विश्वास दिलाया कि जो वो सह रही थी ख़ुद मीता भी उसी को सह कर आई है। मीता से अच्छा भला कौन उस बच्ची की मानसिकता को समझ सकता था। जो लड़की किसी से नहीं बोली उसने मीता से खुलकर बात की और उसके ही साथ रहने लगी। 

अब तो मीता को जैसे जीने का मक़सद मिल गया। बस उसने ‘उम्मीद’ में ही काम करना शुरू कर दिया और ऐसे ही छोटे बच्चों की मदद करने लगी। फिर जब उसका आत्मविश्वास और बढ़ा तो वो रेड लाइट एरिया में जाकर बच्चियों से बात करने लगी और उन्हें इस धंधे से निकालने लगी। इस काम में एनजीओ वालों ने और पुलिस ने उसका पूरा साथ दिया। ऐसे ही एक बचाव अभियान के दौरान उसकी मुलाक़ात राजेश से हुई। राजेश एक अख़बार में रिपोर्टर था और मीता की कहानी लिखना चाहता था। मीता यूँ तो बहुत आगे बढ़ चुकी थी लेकिन जो उसमें नहीं बदला वो था पुरुषों के प्रति उसका अविश्वास। इसलिए राजेश के हज़ारों बार समझाने के बावजूद कि वो उसका अतीत जानकर भी उस से शादी करना चाहता है मीता ने राजेश से शादी के लिए मना कर दिया। कई वर्षों तक मीता ने अपनी काउंसलिंग करवाई लेकिन कोई डॉक्टर कोई काउंसलर उसके अंदर से ये अविश्वास का बीज नहीं निकाल सका। अंत में मीता ने इस बात के साथ सामंजस्य बैठा लिया कि वो कभी किसी पुरुष का साथ नहीं चाहती। कुछ वर्ष बाद उसने रूपा को गोद ले लिया और अपना जीवन रूपा और उसके जैसी अनगिनत बच्चियों के नाम कर दिया मगर एक सवाल लगातार उसके मन मस्तिष्क को कचोटता रहता है कि “आख़िर दोषी कौन है—वो ख़ुद या उसे इस धंधे में धकेलने वाले?” 

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