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एक अकेला पहिया: एक समीक्षा

समीक्षित पुस्तक: एक अकेला पहिया (नवगीत-संग्रह)
ISBN: 978-93553-693-90, 
कवि: अवनीश सिंह चौहान
प्रकाशक: प्रकाश बुक डिपो, बरेली, फोन :  0581-3560114
प्रकाशन वर्ष : 2024, 
संस्करण : प्रथम (पेपरबैक), 
पृष्ठ : 112, 
मूल्य: ₹250/-
Available At:
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नवगीत नए और नगरीय जीवन के विसंगत यथार्थ और स्खलित होती मानवता को स्वर देने का सम्यक प्रयास है। इन गीतों में जितना आक्रोश, तनाव, क्षोभ, पीड़ा, उदासी आदि से मुक्ति की छटपटाहट परिव्याप्त है उतनी ही भारतीय जनमानस की विकासशील समृद्ध परंपरा और अस्तित्व को संबलित करने की चाहत भी है। नवगीत कोई नारा नहीं है, कोई आंदोलन भी नहीं है और न जुलूस ही। यह तो जीवन का संक्रांति पर्व है जो नए बिंबों और प्रतीकों के झंडे लेकर नए बोध की ज़मीन पर निरंतर आगे से आगे बढ़ता जा रहा है। डॉ. अवनीश सिंह चौहान भी इस संक्रांति पर्व के प्रमुख हिस्सा हैं। उनका नवीनतम नवगीत संग्रह ‘एक अकेला पहिया’ 2024 में प्रकाशित हुआ है। 112 पृष्ठों के इस संग्रह में चौहान जी ने नवगीत की एक पुष्ट ज़मीन प्रशस्त की है। इसमें कवि द्वारा न केवल आज की विद्रूपता को ही व्यक्त किया गया है, समाज को उद्बुद्ध करने के प्रति भी एक सक्रिय प्रयास है। चौहान जी का हर गीत सोद्देश्य है। 

डॉ. अवनीश में गीत अपने दायित्वों का विस्तार कर जीवन में गहरे तक समोया हुआ है। इस संग्रह का शीर्षक ‘एक अकेला पहिया’ तिमिर-हारी सूर्य-सा गतिमान जनचेतना को उद्दीप्त करता मानो समकालीन कथ्य और शिल्प से सम्पृक्त मनुष्यता के प्रतिष्ठापन की जययात्रा को स्वर देता है, तो वहीं नवगीत के रूप में नारी जीवन की विडंबना को दर्शाता है। जीवन की गाड़ी दो पहियों पर चलती है, पर जब गाड़ी की स्त्री रूपी पहिए को बल देने वाला पहिया बिखर जाता है, तब जीवन कितना कष्टप्रद हो जाता है, चौहान जी उसकी व्यंजना— “बीच राह में टूटी बिछिया” (पृ. 37) से करते हैं। बिछिया का यों टूटना, जीवन का टूटना है, नारी के पूरे हौसले का टूटना है। जीवन के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, कुछ सूझ नहीं पड़ता। वक़्त का यह छलाव शरीर को रोटी का ज़रिया बनने के लिए विवश कर देता है। कवि कहता है—

ठोंक-बजाकर देखा आख़िर
जमा न कोई भी बंदा
पेट वास्ते सिर्फ़ बचा था
‘न्यूड मॉडलिंग’ का धंधा

व्यंग्य जगत का झेल करीना
पाल रही है अपनी बिटिया। (‘एक अकेला पहिया’, पृ. 37) 

जगत के इस वीभत्स व्यंग्य को झेलते हुए व्यक्ति चलने को तो चलता है, पर—“चलने को चलना पड़ता, पर—/तनहा चला नहीं जाता/एक अकेले पहिए को तो/गाड़ी कहा नहीं जाता” (पृ. 37)। जीवन की यह विवशता और विद्रूपता मन को बार-बार कचोटती है, पर आज की जीवन शैली में “मूढ़ तूला पर” (पृ. 38) सब कुछ तूल जाता है। 

विचित्र है, आज के समय में सबको अपने करियर की इतनी चिंता है, इतना उससे जुड़ाव है कि बच्चों की सुख-सुविधा से भी दूरी बढ़ती जा रही है—“कौन करे बच्चों की केयर/सबके अपने प्लान” (पृ. 39)।” आज की इस पारिवारिक विसंगति को—“खिलौने भी उदास हैं” गीत में चौहान जी ने कुछ इस प्रकार आरेखित किया है—

मम्मी जी ऑफ़िस करती हैं 
पापा की भी ड्यूटी 
अग़ल-बग़ल जो बाल-श्रमिक हैं
क़िस्मत उनसे रूठी 

बच्चे जीते रामभरोसे 
क्यों कोई दे जान 

बच्चे किए हवाले— आया, 
क्या सच्ची, क्या खोटी 
कभी खिलाती, कभी झिड़कती, 
कभी दिखाती सोटी 

माँ बिन बच्चे की बेक़द्री 
अभिभावक अनजान। (‘खिलौने भी उदास हैं’, पृ. 39) 

बच्चों को रामभरोसे जीवन आया के हवाले कितनी झिड़कियों और बेकदरी से आगे बढ़ता है। उसको कौन और कैसे संस्कार दे रहा है, इससे भी कवि चिंतित है— "इक तो सूना घर है, दूजे/अच्छा नहीं मुहल्ला/और खिलौने भी उदास हैं/किससे खेले लल्ला” (पृ. 40)। खिलौने जैसे निर्जीव वस्तुओं में भी उदासी का संप्रेषण बालक की जीवंतता को धीरे-धीरे जड़ता की ओर ले जाता है। वह जो देखता-सुनता है, वह उल्टा-सीधा ज्ञान ही उसके भविष्य का पाथेय बनता है। दायित्वों से यह दूरी कितनी निर्मम है। 

अवनीश जी के गीतों में आज के मनुष्य का वास्तविक प्रतिबिंब अलग-अलग कोणों से अभिव्यक्त हुआ है। आज के भागमभाग और कृत्रिमता के वातावरण में आदमी इतना रच-बस गया है कि जीवन में संवेदना और कोमलता का भाव ही विलुप्त हो गया है। दर्पण मुख की कुरूपता को दिखाता है, पर सब कुछ लेपित- विलेपित करने के बाद भी मुख पर आभा नहीं आती। हमसे हमारा प्राकृतिक सौंदर्य छिन गया है। ‘कठिन है भाई’ गीत में कवि कहता है—

दर्पण रोज़ 
दिखाता रहता 
सारे खंदक-खाँई। 
xx     xx    xx
जैसे हैं 
वैसा दिखना भी 
बहुत कठिन है भाई। (‘कठिन है भाई’, पृ. 41-42)

आज हम अपने ही भ्रमजाल में बिद्ध, चापलूसों कि वाहवाही में तृप्त फूले नहीं समा रहे और "फूटा ढोल बजाते हरदम" (पृ. 54)। अपना अब यही रवैया हो गया है।

यद्यपि मन ने जीवन से बहुत-सी बातों में समझौता कर लिया है, पर समय की विद्रूपता से व्यक्ति चिंतित है और सोचता है कि शकुनि के कपटों से मैं कब तक हारता रहूँगा। जाति, धर्म और राजनीति की अलगाव वाली प्रवृत्ति से हम कब तक बँटते रहेंगे। कब तक अपने टूटे कंधे और अंदर तक तोड़ते गोरखधंधों से दो-चार होते रहेंगे। आज की समस्याओं से जूझते मनुष्य की जिजीविषा अब गलने लगी है और वह अपने से क्षुब्ध स्वयं में ही एक शीत युद्ध का अनुभव करता है। चौहान जी ‘कब तक?’ गीत में इसी भाव को स्वर देते हैं— "मुँह पर/ पट्टी बाँधे देखूँ/टूटा कंधा कब तक?" (पृ. 43) x x x "नंगी-भूखी जनता का यह/ समय क्रुद्ध है कब तक?/ खलनायक-हीरो का झेलूँ/शीत युद्ध मैं कब तक?" और अंत में वह बगावत कर बैठता है— "बहुत हुआ/ अब और न होगा/धीर धरूँ मैं कब तक? (पृ. 44)।

डॉ. अवनीश शिक्षा व्यवस्था से जुड़े हैं। वे शिक्षा और शिक्षक की गरिमा के प्रति जागरूक भी हैं, पर उसकी विसंगतियों तथा व्यापारिकता की मनोवृत्ति पर व्यथित भी हैं। वे लिखते हैं— 

पढ़े-लिखे वे डिगरीधारी 
शोध-बोध में हैं विद्याधर 
जॉब, सैलरी, सुविधाएँ सब 
मिली हुईं हैं झोली भर-भर    

फिर भी कहाँ पढ़ाते ढंग से,  
शिक्षक, वे अपकारी निकले। (‘वे व्यापारी निकले’, पृ. 63)

कैसी विडंबना है, जिनको शब्दों का दानी होना था वे व्यापारी हो गए। सब कुछ—धन, मान, मर्यादा पाकर भी अपने कर्त्तव्यों से विमुख आज शिक्षक और शिक्षा— “ट्यूशन लेकर ज्ञान बढ़ाओ/ ख़र्च करोगे तो बदले में/ बिना पढ़े ही नंबर पावो” (पृ. 63) की वास्तविकता बन गई है। कवि इन दृश्यों से हतप्रभ है और “जो जीते हैं परहित ख़ातिर” (पृ. 63) उनको नमन करता है। 

पर्यावरण के प्रति भी अवनीश जी की सजगता उनकी समसामयिक चेतना का महत्त्वपूर्ण स्वर है। ‘मिले सभी को पानी’ गीत में वे पानी की महत्ता, संवर्धन, संचयन और सदुपयोग के लिए क़दमताल करते दीख पड़ते हैं—

जल संचय का 
ध्येय बना हम
आओ क़दम बढ़ाएँ
आने वाले 
कल की ख़ातिर
जल को आज बचाएँ। (पृ. 34) 

कवि कल के लिए जल को बचाने के प्रति जितना सचेत है, उसके अपव्यय के प्रति भी उतना ही सावधान है, ताकि— “सदा धरा पर/ मिले सभी को पानी” (पृ. 34)। 

‘कहाँ जाय गौरैया’ गीत में भी कवि गौरैया के माध्यम से पर्यावरण और प्रकृति से दिन-प्रतिदिन बढ़ती दूरी को तो स्पष्ट करता ही है, “कैदखाने से हुए घर” (पृ. 35) के रूप में जीवन में आई संकीर्णता को भी व्यक्त करता है। जहाँ न कोई खुलापन है, न मुड़ेरें हैं, न घरों में आँगन और न नीम की शीतलता ही। देखिये—

खिड़कियाँ 
खुलती नहीं, ना— 
घर झरोखेदार हैं
घोंसले 
कैसे बनें, ना 
दूब, तिनके-तार हैं 

अजनबी-से 
हो गए घर 
कहाँ जाय गौरैया। (‘कहाँ जाय गौरैया’, पृ. 36) 

कवि गौरैया के प्रतीक से मानो खंडहराती मानवता को पुनः पर्यावरण से जोड़ने के लिए, उसे निरखने-परखने और सरसब्ज होने के लिए निमंत्रित करता है। 

नवगीत जन संवेदना का वह उदात्त और सशक्त पटल है जो निराशा, कुंठित और हारे हुए मन को उद्बुद्ध करता है। आम आदमी के दुख-दर्द, तकलीफ़, संघर्ष और आक्रोश को स्वर देता है और समय की विसंगतियों के विरुद्ध लड़ने का माद्दा भी प्रदान करता है। पर इसमें कहीं कुछ ऐसा कोना भी है जो आने वाले समय के प्रति मन को ढाढ़स बँधाता है, आसान्वित करता है। ‘कितने मन हैं’ गीत में इसी जिजीविषा को बल देते हुए कवि कहता है—

कोई खूँटी है मन, 
जिस पर— 
आशा का आकाश टँगा है 

लक्ष्य अगर है 
तो आशा है 
धैर्य बिना क्या हो पाएगा 
यदि न मिले 
तीनों ये नभ में 
मन का पंछी खो जाएगा। (‘कितने मन हैं’, पृ. 29) 

स्पष्ट है कि आशा का आकाश एक त्रिकोण में स्थित है। अगर लक्ष्य है तो आशा आवश्यक है और यह आशा की उर्वरता धैर्य से ही बल पाती है। अतः लक्ष्य, आशा और धैर्य की खूँटी का होना जीवन में आवश्यक है। मन की सफलता का परिचायक है। 

डॉ. अवनीश ‘मन का पौधा’ गीत में भी इसी आशा की शक्ति को व्यक्त करते हैं— “कभी फलेगा मन का पौधा/जैसे फलते अंबर तारे” (पृ. 29)। जैसे समय आने पर अंबर में तारे अपना वैभव विखेरते हैं, ऐसे ही मन का पौधा भी फलीभूत होगा। किन्तु, इसके लिए प्रयत्न करते रहना होगा। जैसी— “छू न कुसंगत सके पौध को/काट छाँट करना होता है” (पृ. 29)। ऐसे ही मन के पौधे का उचित संवर्धन आवश्यक है, भटकाव से बचाना आवश्यक है, अपने पर विश्वास और आशा को बनाए रखना भी आवश्यक है। 

यह आशावादिता, आंचलिकता और लोक संवेदना भाई अवनीश जी के गीतों में गहरे तक समोई हुई है। भारतीय जन-जीवन के साथ उनके आत्मिक सम्बन्ध हैं। वे उसके क्षण-प्रतिक्षण के सहभोक्ता हैं। ब्रज की संस्कृति, उसकी पावनता और अपनत्व अवनीश जी के जीवन में झाँकता ही नहीं, संवेदना के रूप में झंकृत भी होती है। ब्रज के कण-कण में लीला बिहारी परिव्याप्त हैं और अवनीश जी की जीवन दृष्टि उन्हीं के राग-रस में विभोर है, परिपूर्णता देखती है। ‘कहाँ मिलोगे’ गीत में उनकी अनन्यता पूछ बैठती है—

वंशीवाले, 
कहाँ मिलोगे, 
क्या तुम वृन्दावन में? 

नाम, रूप, 
लीला में तेरी 
डूब-डूब उतराऊँ 
एक झलक 
पाने को हरदम 
व्याकुल मैं हो जाऊँ

रोम-रोम में 
पुलक उठे नित— 
अश्रु बहे नैनन में। (पृ. 111) 

चैतन्य महाप्रभु सा कवि का यह रोमांच अद्भुत अद्भुत है। वृंदावन को प्रेम की राजधानी निरूपित करता हुआ कवि भ्रमर की तरह गुन-गुन गीत गाते हुए कुंज गलियों में विचर रहा है, जहाँ प्रेम की गहनता में प्रकृति का मनभावन रूप अपनी ओर खींचता है। भक्ति में दर्प नहीं, निश्छलता है। सब जैसे उसकी लीला में निमग्न हैं— “प्रेम यहाँ का गहरी नदिया/प्रकृति यहाँ की मनभावन/लोग यहाँ के निश्छल-निश्छल/भक्त यहाँ के दर्पण-दर्पण” (‘प्रेम-भाव की रजधानी’, पृ. 109)। यहाँ की धरती राग, रंग, रस, गंध से परिपूरित है। जहाँ— “गली-गली औ’ चौराहे सब/भगवत-कथा सुनाते हैं/कर्म न त्यागो सच का/बिगड़े—/काम सभी बन जाते हैं” (‘अपनी धरती वृन्दावन’, पृ. 107)। यहाँ की सुबह पूजा, अर्चन, दीपदान तथा राधे-राधे के अभिवादन के रूप में आरंभ ही नहीं होती, आस्था और स्तवन के जीवन-दर्शन को साकार भी करती है। कहते हैं— “गिरधारी, अनुकंपा बरसे/सुखी होय संसारी मन” (‘सुखी होय संसारी मन’, पृ. 106)। भारतीय दर्शन के अनुसार यह सुख ही संसार का प्रेम है और इन गीतों की महदाकांक्षा भी यही है। 

ब्रज वसुंधरा की रज से ओतप्रोत डॉ. अवनीश आस्था और प्रेम के गीतों के तो निकट हैं ही, सामाजिक स्थितियों और अधुनातन विकास की हर छोटी बड़ी गतिविधियों पर भी उनकी दृष्टि है। आज के कंप्यूटर युग में उँगलियों के कमाल और चमकीली प्रोफ़ाइल के बीच ख़ुद को छलते मनुष्य की बात जहाँ अवनीश जी उठाते हैं, वहीं “लॉलीपॉप/हाथ पकड़ाती/विज्ञापन की टोली” (पृ. 49) के मंत्रमुग्ध करने, मूर्ख बनाने, लूटने और बाज़ार निर्धारित करने वाले कर्म पर भी प्रकाश डालते हैं। ‘अखिल देश बस कहने का’ गीत में “झूठे सिद्ध हो रहे सच्चे/सविधान ख़ुद खाए गच्चे” (पृ. 57) कहकर कवि जहाँ असली अन्यायी को पहचानने की नसीहत देता है, वहीं ‘कविवर बड़े नवाब’ में वह आज के लेखन और भाव-कुभावों को खिताबों की मिल्कियत दिए जाने पर व्यंग्य भी करता है और खेलों में “हुनर नहीं, है चालाकी” (पृ. 75) के नापाक इरादों के अर्थों को भी खोलता है। कहीं ‘बॉस’ के सयानेपन को वे उजागर करते हैं, तो कहीं छटे हुए लोगों की बात करते हैं, तो कहीं ‘लालटेन बुझ गई’, ‘कोरोना का डर’, ‘माता-पिता से दूरी’, विदेश का रहवास और पत्थर दिल औलादों की करतूतों का चिट्ठा खोल कर रखते हैं। ‘ये बंजारे’ गीत में बंजारों की जीवन-यात्रा, उनकी मुसीबत, श्रम और रोटी के रिश्तों को अभिव्यक्ति देते हैं। 

कुल मिलाकर अवनीश जी के नवगीतों का यह संकलन ‘एक अकेला पहिया’ नहीं, मानव जीवन की संत्रस्त गाड़ी को सुख-दुख, निराशा, कुंठा, दुर्भाव आदि से निकालकर आशा, प्रेम, आस्तिकता के पहियों पर आगे ले चलने का उपक्रम है। वे लोक की शुभता के लिए— ‘कुछ शुभम कहो’ के आकांक्षी हैं— 

चेतन के पर्वत से 
बोलो 
कोई चिनगी-सी बात छुए 
संस्मृति जो सोयी 
वह जागे 
फिर दृष्टि लक्ष्य की आँख छुए। 
xx     xx    xx
तुम करो क्रांति, 
तुम क्रांति करो, 
संकल्प करो जी तुम। (पृ. 55) 

और उन्हें विश्वास है— समय यदि आज मोड़ा जा सका तो— “कल शुभ हो जाएगा” (‘जीवन तो असीम’ . . ., पृ. 85)। 

कहते हैं कविता जीवन की तरह विराट है और उसकी तरह सूक्ष्म भी है। वह रमणीक है, सुंदर है और लोक को सुंदर देखना चाहती है। वह जीवन में बिखरी कुरूपता की तरह कुरूप नहीं है और न जीवन को कुरूप होने देना चाहती है। डॉ. अवनीश सिंह चौहान के गीत भी इसी काव्य मार्ग पर बड़े सधकर चले हैं। वे समाज में फैल रही कुरूपता से सचेत करते, मनुष्य को उससे दूरी बनाने और मानवता को जगाने का प्रयत्न करते हैं। मैं भाई अवनीश जी को इस संग्रह के प्रकाशन के लिए बहुत-बहुत बधाई देता हूँ। 

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